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टीवी स्क्रीन पर एंकरिंग करने वाले इस एंकर रिपोर्टर ने सड़क पर समोसा पकौड़ा बेचना शुरू कर दिया! देखें तस्वीर

संजय सिन्हा-

जब मैंने तय कर ही लिया था कि मैं पत्रकार बनूंगा तो घर में देर-सबेर सब मान गए थे। लेकिन मेरी दादी अंत तक लगी रहीं कि उनका पोता चाहे जो कर ले, पर पत्रकारिता न करे।

मुझे नहीं पता कि दादी के मन में पत्रकारों को लेकर क्या था, लेकिन वो मुझे पत्रकार बनने से रोकने की हर जुगत में अंत तक लगी रहीं। एक बार तो उन्होंने तंज में यहां तक कहा था कि कलेक्टर, एसपी नहीं बन सकते तो बैंक-बीमा में ही कहीं नौकरी कर लो पर ये काम नहीं।

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मेरी दादी जमींदार दादा की पत्नी थीं। मुझे नहीं पता कि गांव में किस पत्रकार से उनका पाला पड़ा होगा, पर उनका प्यारा पोता संजू पत्रकार बनेगा, ये सुन कर उनकी आंखें बुझ गई थीं। “क्या खाओगे? क्या खिलाओगे? कहीं कुछ अपना काम ही कर लो, बेटा। ये कोई काम नहीं है।”

पिताजी, मामा और बाकी लोगों ने सरेंडर कर दिया था कि जाओ संजू जी लो अपनी जिंदगी। पर दादी अंत तक लगी रहीं रोकने में। पत्रकारिता कर तो लोगे, पर खाओगे कहां से? अभी तो खर्चा चल जाएगा, पर जब शादी होगी, बच्चा होगा, फिर?

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मैं पत्रकार बन गया। दादी की मर्ज़ी के खिलाफ।

ये मेरी किस्मत थी कि मुझे नौकरी दिल्ली में जनसत्ता अखबार में मिली। सैलरी कम थी, लेकिन हर महीने की एक तारीख को मिल जाती थी। काम चल जाता था। दादी हर बार पूछती थीं, कितना मिला? दादी अंत तक डरी रहीं।

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वैसे ये सच्चाई है कि समय के साथ मैं मीडिया के बदलते पैटर्न में समाहित होता गया और अखबार से टीवी में गया और देश, समाज और सरोकार की पत्रकारिता से समझौता करता हुआ नाग-नागिन की लड़ाई तक पर उतरता चला गया, जिस कारण मेरी वो हालत नहीं हुई जो अफगानिस्तान के मूसा मोहम्मदी की हो गई है।

मुझे यकीन है कि खबर आप तक पहुंच गई होगी कि कभी टाई, कोट पहन कर टीवी स्क्रीन पर एंकरिंग करने वाले इस एंकर रिपोर्टर ने अब सड़क पर समोसा, पकौड़ा बेचना शुरू कर दिया है। कभी दुनिया की निगाहों में चमकीली नौकरी करने वाले इस पत्रकार को यूं सड़क पर समोसा, पकौड़ा बेचते देख कर कुछ लोगों को बहुत हैरानी हुई। उन्होंने उसे पहचाना और ट्वीट किया कि देखो एक पत्रकार की हालत क्या हो गई?

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मुझे यकीन है कि जब काबुल का ये पत्रकार पहली बार पत्रकार बनने का ख्वाब लेकर मैदान में उतरा होगा तो उसकी दादी ने भी उसे मना किया होगा। “बेटा, सड़क किनारे ठेला लगा लो, पर पत्रकारिता न करो। ये कोई काम नहीं है। भरा घर हो तो कुछ भी करोगे चल जाएगा। लेकिन तुम सोचो कि सरोकार की पत्रकारिता करके बीवी, बच्चों का पेट पाल लोगे तो ये नहीं होगा।

दादी की आंखें अनुभवी होती हैं। मूसा मोहम्मदी नहीं माने। बन गए पत्रकार। पर अब?

जिस दिन विदेशी हुकूमत अफगानिस्तान से गई, उनकी देसी हुकूमत ने सत्ता संभाला, मूसा की हालत बिगड़ती चली गई। पता नहीं क्या हुआ? पर उन्हें बढ़ी दाढ़ी और दुबले शरीर में काबुल की सड़कों पर समोसा, पकौड़ा बेचते देखा गया।

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वैसे तो ये मेरे लिए अच्छी खबर है। मेरे जैसों के लिए अच्छी खबर है। दादी होतीं तो उनके लिए भी अच्छी खबर होती। अब मैं कभी बेरोज़गारी और भूख से नहीं मरूंगा। किसी दिन सड़क किनारे समोसा, पकौड़ा लेकर बैठ जाऊंगा और घर पाल लूंगा।

अब सवाल ये है कि अफगानिस्तान में ऐसा क्या हुआ जो मूसा मोहम्मदी को कोट-पैंट छोड़ कर स्नैक्स बेचने के लिए बाज़ार में उतरना पड़ा?

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अफगानिस्तान की हकीकत को पढ़िए, समझिए। सिर्फ उतना ही नहीं, जितना आपने प्लेन पर लटक कर भागते हुए लोगों को देख कर अपने ड्राइंग रूम में चर्चा करके चुप हो गए थे। उससे अधिक सोचिए और पढ़िए। अफगानिस्तान पर पहले विदेशी शासन था। अब देसी शासन है। इसलिए शासन से शिकायत की कोई बात ही नहीं। टेढ़ा है पर मेरा है।

जो लोगों को पसंद था, तालिबानी हुकूमत ने उन्हें वो दे दिया है। उन्हें धर्म पसंद था। धर्म का राज है। उन्हें महिलाओं का घर से बाहर निकलना पसंद नहीं था, उन्होंने उन पर पहरा बिठा दिया। उन्हें ज्ञान-विज्ञान की ज़रूरत नहीं थी, उन्होंने उसका साथ छोड़ दिया। उन्हें जो चाहिए था, वो सब उन्हें अपनी सरकार से मिल गया। माना कि रोजगार खत्म हो गए। पर देखिए स्वरोजगार विकसित हो गए। टीवी चैनलों की ज़रूरत ही नहीं थी क्योंकि वो विदेशी प्रोपगेंडा फैलाते हैं। कोट-पैंट, टाई कल्चर लाते हैं। क्या ज़रूरत है इनकी? अपना देश, अपना वेष।

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मैं इस बात की तह में नहीं जाना चाहता कि अफगानिस्तान क्या था, क्या हो गया? अफगानिस्तान में जो भी बुरा था, वो विदेशी हुकूमत के दौरान था। कभी रुसी साम्राज्य के अधीन, कभी अमेरिकी। अफगानिस्तान के मूल निवासियों को वो पसंद नहीं था। स्कर्ट में सड़कों पर घूमती लड़कियां भला किस सभ्य देश को अच्छी लगती हैं? महिलाएं घर की रौनक होती हैं, वो घर की रौनक हैं। लोग अपना बिजनेस करने लगे हैं, इससे बेहतर और नए आजाद राष्ट्र के लिए और क्या हो सकता था?

अगर मोहम्मदी ने पहले दादी की सुनी होती तो अपना काम शुरू करने में इतनी देर ही नहीं होती।

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काश मैंने भी दादी की सुनी होती!
आज इससे अधिक कुछ नहीं कहना है।

देर-सबेर आप मुझे भी सड़क किनारे चाय, समोसा और पकौड़ा बेचते देखें तो हैरान मत होइगा। ट्वीट मत कीजिएगा कि देखो कभी दुनिया को राजनीति की बातें बताने वाले, फिर लोगों को बचकानी कहानी सुनाने वाले संजय सिन्हा कैसे परिवार पालने के लिए स्वरोजगार पर उतर आए हैं।

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वैसे ट्वीट कर भी देंगे तो क्या? अपना काम अपना होता है। पूरी दुनिया में रोजगार का नया पैटर्न यही है।मर्द का काम है घर वालों का पेट पालना। पेट कोट-पैंट से नहीं पलता। वहां सलाम साहब, सलाम साहब करने से तो बेहतर है घर में समोसा तलो, रोड पर बेच लो। अपना काम, अपना दाम।

मैं खुश हूं। बहुत खुश हूं। अब मैं भूख से नहीं मरूंगा।

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1 Comment

1 Comment

  1. Srikant joshi

    June 20, 2022 at 7:23 am

    Sanjay sinha ek naami patrakar hai..aisi निराशाजनक baate kr ke aap kya kahna chahte hai desh ki janta ko..aapja bhi rajnitik agenda lagta hai koi..aapne apne profession se kya nhi paaya..apni garima banaye rakhe..desh k prati soche..rajnitik aakao ki sewa mt kijiye..desh ki sewa me lage rahiye..vinti hai..

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