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सुख-दुख

मेरी अमेरिका यात्रा (2): जहां भिखारी भी अंग्रेज़ी ही बोलते हैं!

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सेन फ्रांसिस्को की खाड़ी का यह फ्लीट हिन्दी में भी शहर की कथा और उसका इतिहास बताता है

पाप और मनोरंजन के नगर ‘लॉस वेगास’ की यात्रा से पहले आइये ज़रा चार देशों तक की अपनी इस यात्रा में भाषा के संबंध में भारतीयता की थोड़ी सी तलाश पहले कर लें. वेगास की रंगीनियत तो आगे भी देखी जा सकती है. आज मौका और दस्तूर ज़रा भाषा संबंधी गप्प कर लेने का ही है. श्राद्ध पक्ष में आने वाला राजभाषा दिवस का यह संयोग एक बार हम सबको तो इस मामले पर सोचने को विवश करता ही है या करना ही चाहिए कि भाषा के मामले में भी हम कहां खड़े हैं. भारत और भारतीय भाषाओं के मामले में भी हम किस तरह से मेरुदंड हीन, स्वाभिमान विहीन हैं यह इस मौके पर प्रकाशित विभिन्न आलेखों में आपने पढ़ा ही होगा, साथ ही खुद भी समझने-सोचने की कोशिश की होगी. आज ज़रा देश के बाहर के हालात का जायजा लेते हैं कि भाषा के मामले में वे लोग किस तरह से पेश आते हैं.

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सेन फ्रांसिस्को की खाड़ी का यह फ्लीट हिन्दी में भी शहर की कथा और उसका इतिहास बताता है

पाप और मनोरंजन के नगर ‘लॉस वेगास’ की यात्रा से पहले आइये ज़रा चार देशों तक की अपनी इस यात्रा में भाषा के संबंध में भारतीयता की थोड़ी सी तलाश पहले कर लें. वेगास की रंगीनियत तो आगे भी देखी जा सकती है. आज मौका और दस्तूर ज़रा भाषा संबंधी गप्प कर लेने का ही है. श्राद्ध पक्ष में आने वाला राजभाषा दिवस का यह संयोग एक बार हम सबको तो इस मामले पर सोचने को विवश करता ही है या करना ही चाहिए कि भाषा के मामले में भी हम कहां खड़े हैं. भारत और भारतीय भाषाओं के मामले में भी हम किस तरह से मेरुदंड हीन, स्वाभिमान विहीन हैं यह इस मौके पर प्रकाशित विभिन्न आलेखों में आपने पढ़ा ही होगा, साथ ही खुद भी समझने-सोचने की कोशिश की होगी. आज ज़रा देश के बाहर के हालात का जायजा लेते हैं कि भाषा के मामले में वे लोग किस तरह से पेश आते हैं.

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स्वामी विवेकानंद विमानपत्तन से इंदिरा गांधी एयरपोर्ट के बाद अगला पड़ाव अपना ‘स्वर्णभूमि एयरपोर्ट’ था. जी नहीं, ये भारत का नहीं बल्कि थाईलैंड की राजधानी बैंकॉक के एयरपोर्ट का नाम है. कौन ऐसा भारतीय होगा जो विदेशी धरती पर इस तरह का नाम देख बल्लियों नहीं उछल पड़ेगा? मेरे भी आनंद का पारावार नहीं रहा यह नाम देख कर. काफी बड़ा और आधुनिकतम साज़-सज्जा से सुसज्जित इस एयरपोर्ट को देख बरबस आपका मन थाई निवासियों के प्रति सम्मान से झुक जाएगा. किस तरह से उन्होंने तमाम प्रतिकूलताओ के बावजूद खुद को विकास की दौड़ में आगे रखा है. कैसे बिना अंग्रेज़ हुए उन्होंने समृद्धि की राह तय की है यह देख कर निश्चय ही आपको प्रेरणा मिलेगी. साथ गए मित्रों से लगातार बहस होती रही इस मामले में कि अपना एयरपोर्ट अच्छा है या इनका. मेरा मत था था कि अपना ‘टी थ्री’ इनसे भी अच्छा और विशाल है जबकि मित्र का कहना था कि स्वर्णभूमि के मुकाबले अपना एयरपोर्ट छोटा है. खैर. थाईलैंड वाले अध्याय में बजाप्ता नाप-जोख कर तुलना की जायेगी. फिलहाल तो कदम-कदम पर बिखरी भारतीयता ने जिस तरह मन को मोहा उसे ही समेटा जाय.

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स्वर्णभूमि एयरपोर्ट बैकॉक पर समुद्र मंथन का दृश्य

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पहले कहीं पढ़ा ज़रूर था लेकिन बैकॉक एयरपोर्ट के मुख्य भवन के पास ही समुद्र मंथन की विशालतम प्रतिमा देख कर गदगद हो गया. भारतीय पुराणों में वर्णित समुद्र मंथन का हु-ब-हू ऐसा कोई विशालकाय मूर्ति भारत में है या नहीं ये नहीं पता लेकिन भारत और नेपाल से बाहर इस तरह हिन्दू मान्यताओं को संरक्षित देख रोम-रोम का खिल जाना स्वाभाविक ही है. पता चला कि उनकी मान्यताओं में समुद्र मंथन वहीं के फुकेट नामक द्वीप में हुआ था. हालांकि मंदार पर्वत का स्तंभ, शेषनाग की रस्सी और देवता तथा दानव पक्षों का बिलकुल उसी तरह चित्रण आपको उस विशाल कलाकृति में देखने को मिलेगा. उसी तरह जैसा आपने किस्से-कहानियों, पुरानों और प्रवचनों में सुना-पढ़ा होगा. इसके अलावा आप जानते ही होंगे कि उस किंगडम के हर राजा का नाम ‘रामा’ से ही शुरू होता है. फिर हर जगह आपको भारतीय अभिवादन की वही पद्धति देखने को मिलेगा जो हमारी संस्कृति में है. सब जगह लोग बिलकुल दोनों हाथ जोड़कर उसे मस्तक से लगाए हुए ‘प्रणाम’ की मुद्रा में ही अभिवादन करते नज़र आयेंगे. जब ऐसा अभिवादन प्लेन में नभ-यौवना (एयर होस्टेस) ने किया तो मैंने समझा कि चुकि विमान भारत से टेक ऑफ कर रहा है इसलिए शायद भारतीय तरीके से अभिवादन हो रहा हो. लेकिन ऐसा बिलकुल नहीं था. वहां जाने पर पता चला कि ये उनके अभिवादन का अपना तरीका ही है.

न केवल थाईलैंड बल्कि हर उस जगह जहां की राष्ट्रभाषा अंग्रेज़ी नहीं है, वहां एक बात ज़रूर देखने में आया कि कोई भी दो सम-देशी कभी भी अपनी भाषा छोड़ कर आपस में अंग्रेज़ी में वार्तालाप नहीं करते हैं. दिल्ली एयरपोर्ट पर बोर्डिंग पास देते हुए वाचाल कर्मचारी में ने एक बड़ी गलती कर दी थी. हम सभी को थाईलैंड से सीधे लॉस एंजिल्स का बोर्डिंग पास देना था लेकिन गलती से एक सहयात्री मित्र का पास उसने सियोल (दक्षिण कोरिया) से जारी कर दिया था, जहां कुछ घंटे का यात्रा विराम मात्र था अपना. बैंकॉक में उतरने के बाद जब इस गलती पर नज़र गयी तब तक अगली उड़ान में चार-पांच घंटे का समय शेष था. तुरत-फुरत हम तीनों ने वहां थाई एयर के अधिकारियों से संपर्क करना शुरू किया. चुकि हम तीनों यात्रियों का सामान दिल्ली से सीधे लॉस एंजिल्स तक के लिए ‘थ्रू’ बुक हुआ था अतः अलग से सियोल से बोर्ड होने वाला पास हमारे परेशानी का सबब बन सकता था. इसके अलावे शायद एलए के विमान में हमारे मित्र को बोर्ड ही नहीं करने दिया जाता बैंकॉक से. खैर, इस काउंटर से उस काउंटर तक चार घंटे की दौड़ अंततः सफल रही. विमान छूटने से कुछ समय पूर्व ही पुराने पास को रद्द कर नया बोर्डिंग पास जारी किया गया. इस तमाम जद्दोजहद में हमने वहां भी यह देखा कि कोई भी कर्मचारी अपने बॉस से अंग्रेज़ी में बात नहीं कर रहा है. आपको ज़रूर वे लोग अंग्रेज़ी में समझाने की कोशिश करते नज़र आयेंगे लेकिन उनके आपसी वार्तालाप का माध्यम थाई ही रहेगा. ऐसे ही यह भी महसूस किया हमने कि भले विमान में बड़ी संख्या में भारतीय नागरिक रहने के बावजूद हिन्दी का नामोनिशान नहीं हो लेकिन जहां भी विमान को लैंड करना था वहां-वहां की भाषा में उद्घोषणा होना ही होना था. बस ‘हिन्दी’ केवल इसका अपवाद नज़र आया हर जगह.

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यह अलग बात है कि अगर हममें खुद भाषा का स्वाभिमान होता तो उन्हें कोई हर्ज़ नहीं था हमारी भाषा में भी इंतज़ाम कर देने में. लेकिन जब हममें खुद ही ऐसी कोई भावना नहीं है तो वे बेचारे क्यूं जहमत उठायें हमारे लिए. भाषा के प्रति प्रेम तो जाने दीजिये, हम भारतीयों में विदेश में भी उदासीनता और नफरत भी कहीं-कहीं दिख जाएगा. मैक्सिको के क्रूज पर भारतीय चेहरे-मोहरे वाले वेटर से हमने पूछ लिया कि वो इंडिया से है तो हिन्दी में हम उससे बात कर सकते हैं? इस पर नफरत से मूंह सिकोडते हुए उसने कहा कि नहीं. ‘वो तमिलनाडू से है, और उसकी भाषा हिन्दी नहीं है. ज़रूरी नहीं कि हर भारतीय की भाषा हिन्दी ही हो.’

बेवरली हिल्स के जिस होटल में मेरे मित्रों को रुकना था, जहां भाई ने उनकी बुकिंग कराई थी , वो एक गुजराती पटेल का निकला. संयोग से हमारे साथ गए दो अन्य सहयात्रियों में से एक गुजरात के हैं तो दुसरे आंध्रा मूल के. हमें यह उम्मीद थी कि चुकि अमेरिका में व्यवसाय करने वाले, होटल वाले लोग काफी संख्या में गुजरात के हैं और नौकरी करने वालों में काफी तेलगू भाषी जो आईटी के क्षेत्र में खास कर वहां काम कर रहे हैं, तो शायद भाषा आदि की समस्या नहीं होगी. लेकिन ज्यादातर अनुभव उम्मीद के विपरीत ही दिखा. किसी भी भारतीय में वहां अपने जैसे रूप-रंग वाले अन्य भारतीयों से बात करने या हाय हेल्लो तक भी कर लेने का कोई उत्साह नहीं नज़र आया. अन्य देश के ख़ास कर अमेरिकन ज़रूर आपको देख कर मुस्कान बिखेरते हुए आपसे आत्मीयता से अभिवादन करते नज़र आयेंगे. लेकिन मजाल है कि कोई भारतीय आपसे हाल चाल भी पूछ ले? मेरे गुजराती बंधू चहक कर उस होटल मालिक से मिलने गए. जाते ही उन्होंने गुजराती में बात करनी शुरू की तो उसका पलट कर जवाब था, क्या काम है ये बताइए पहले. इसी तरह होटल का मैनेजर अजीब सा कूल ड्यूड सा भेष बनाए नज़र आया. फर्राटेदार अंग्रेज़ी गिटपिटाते हुए. कई दिनों बाद पता चला कि वो तो उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ का है. लेकिन लगभग समूचे अमेरिका को बुरी तरह शिकंजे में जकड़े हुए ड्रैगनों को भी आपस में चीनी भाषा के अलावा किसी और में बोलते हुए आप कभी भी नहीं सुनेंगे. यहां तक कि बिना अंग्रेज़ी जाने भी उनका काम-काज शानदार तरीके से अमेरिका में चल रहा है. किस तरह से चीनियों ने अमेरिका की अर्थव्यवस्था को अपनी मुट्ठी में कैद किया हुआ है उसका जिक्र किसी अन्य अध्याय में विस्तार से वर्णित करने की कोशिश करूंगा.
 
अपनी भाषा ख़ास कर हिन्दी के प्रति जिस तरह का उपेक्षा भाव खुद में और न केवल उपेक्षा बल्कि शर्मिंदगी का भाव हर कोने में देखने को मिला वैसा किसी अन्य देशजों में हमें तो कम से कम नज़र नहीं आया. अंग्रेज़ी को झट-पट अपना लेने की जल्दी सबसे ज्यादा हमारे लोगों में ही देखने को वहां भी मिली. अपने सेन फ्रांसिस्को की यात्रा के दौरान एक बुजुर्ग रूसी दंपत्ति भी सहयात्री थे. अपनी किशोरी पोती के साथ वो दूर देश की यात्रा पर निकले थे. i dont know english के अलावा उन्हें दूसरा कोई भी अंग्रेज़ी का शब्द नहीं मालूम था लेकिन वे भी हमारी तरह ही मज़े से यात्रा कर रहे थे. चीज़ों को हमसे शायद अच्छी तरह ही देखते-समझते हुए हमने उन्हें देखा. करीब बीस दिनों की इस यात्रा का यह अनुभव भी रहा कि सबसे बड़ी भाषा इंसानियत की होती है. मानवता की भाषा हर जगह सुनी-समझी जाती है.

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अमेरिका का भिखारी भी अच्छी अंग्रेज़ी बोलता है

अगर अंग्रेज़ी ही योग्यता का पैमाना होता तो अमेरिका में भी हर जगह आपको do u have a dollor plz बोलकर भीख मांगते लोग दिख जायेंगे. उन भिखारियों को देखते हुए मन ही मन सोच रहा था कि इतनी सुंदर अंग्रेज़ी में ये भिखारी बात करते हैं. भारत आ जाते तो तय मानिए, यहां अपने अंगेजी ज्ञान के कारण कम से कम कलक्टर तो बन ही जाते. तो भारत के कलक्टर बन सकने लायक ऐसे ‘ज्ञानी’ अमेरिका में काफी संख्या में हैं. एल ए से लेकर लॉस वेगास और सेन फ्रांसिस्को तक ऐसे ‘प्रतिभावान’ कलक्टर बन सकने लायक युवकों-बुजुर्गों की बड़ी संख्या वहां मौजूद है. अलबत्ता सेन फ्रांसिस्को के सिटी हॉल के बाहर भिखारियों की भीड़ में एक बुजुर्ग ऐसे थे जो अंग्रेज़ी से शुरू कर अंततः हिन्दी में बात करना उन्होंने शुरू किया. अब्दुल रशीद नाम के उस सज्ज़न का कहना था कि उनके पूर्वज कश्मीर से यहां आये थे लेकिन अब वो ‘होमलेस’ हैं. इलाज़ के लिए उन्हें पैसों की ज़रुरत है. हमने मज़ाक में उनसे पूछ भी लिया कि सच बताइये कि आप कश्मीर से हैं या कराची से? इस बात का बाद में हमें अफ़सोस भी हुआ लेकिन यह तथ्य है कि भारत और पाकिस्तान आदि से गए मुस्लिम बंधु भी वहां हिन्दू होटल के नाम से ही अपना कारोबार चलाना पसंद करते हैं. उन्हें मालूम है कि अगर खुद को मुसलमान कहा तो शायद काफी दिक्कत आयेगी उन्हें अपने पेशे या व्यवसाय में भी. खैर.

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एरिजोना के ग्रैंड कैनियन पर हिन्दी में ‘स्वागत.’

एरिजोना के ग्रैंड कैनियन पर जा कर दो शब्द भारतीयता का दर्शन कर अभिभूत हुआ. वहां एक बोर्ड पर कई भाषाओं में अभिनंदन के शब्द लिखे थे जिसमें देवनागरी में ‘स्वागत’ भी लिखा था. इसी तरह सेन फ्रांसिस्को की खाड़ी का ‘फ्लीट’ (नाव से बड़ा और जहाज़ से छोटा पानी में चलने वाला वाहन) के द्वारा ‘गोल्डन ब्रीज’ आदि को देखने में वहां ज़रूर आपके द्वारा चयन करने पर विशुद्ध हिन्दी में करीब घंटे भर तक केलिफोर्निया का इतिहास, गोल्डन ब्रीज का बनना, सेन फ्रांसिस्को की कहानी, भारत के ‘काला पानी’ की तरह चीनी अपराधियों को कैद कर रखने वाले एक द्वीप की यात्रा और वहां की कहानी आदि सुन्दर संगीत और शानदार स्क्रिप्ट के साथ सुन कर मुग्ध होने का मौका भी आया. बड़े गर्व के साथ उस ऑडियो में ये भी बताते रहे वे कि किस तरह उन्होंने चीनियों को यहां से भगाया और उनके अपराधियों को गिरफ्तार करके रखा. ऐसे गिरफ्तार रहे किसी एक कैदी का संस्मरण भी उन्हीं की ज़ुबानी सुनाते भी रहे. उस श्रव्य कार्यक्रम को सुन कर ऐसा लगा मानो अभी भी अमेरिकन चीनियों को चेतावनी दे रहे हों कि ज़रा औकात में रहो नहीं तो नाम में दम होने पर फिर से यहां से भगाना शुरू करेंगे.

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ऐसे ही जब आप मैसिको के ‘एनसेनेडा’ द्वीप पर उतरेंगे तो बिलकुल आप ही के तरह दिखने वाले मैक्सिकन से आपका परिचय होगा. विशुद्ध भारतीय नाक नक्श के मैक्सिक्नों को देख कर आपके ताज्जुब का ठिकाना नहीं रहेगा. साथ चल रहे मित्र बता रहे थे कि ‘रोम्या रोला’ वाले समूह के लोग हैं ये. यह शोध का विषय आज भी है कि आखिर उनमें और हममें इतनी साम्यता कैसे है. वहां के ‘बुफाडोरा’ बीच पर घुमते हुए आपको तीन हिन्दी शब्द ज़रूर हर की जुबान से सुनाई देगा. नमस्कार, नारियल पानी और अनानास. ऐसा वह केवल भारतीयों से कहते हैं या यही उनकी भाषा है ये नहीं पता चला लेकिन हमने अपनी ओर से कोशिश की कि उनके शब्द ज्ञान में ज़रा सा मैं भी घुसपैठ कर लूं. उन्हें यह बताया कि जिसे वो ‘मैंगो’ कहते हैं वह हमारी भाषा में ‘आम’ है. कई बार उनमें से कुछ को रटाने की कोशिश की कि आगे से वो इस फल को ‘आम’ कहा करें तो उनकी बिक्री ज्यादे होगी. पता नहीं जिस आम शब्द को रोप कर हम वहां से विदा हुए वो फलेगा भी या नहीं लेकिन उन्हीं की भाषा में उन्हें ‘अस्तेवास्ता’ कहना मुझे भी अच्छा लगा जिसका अर्थ ‘गुड बाय’ होता है यानी जापानी में कहें तो सायोनारा.

फिर से वापस आते हैं लॉस एंजिल्स के ‘टाम ब्रेडली अंतर्राष्ट्रीय टर्मिनल’ पर. जहां से वापसी की राह पकड़नी है. बोर्ड करते समय मलेशियन लड़की की तरह स्कार्फ बांधे कर्मचारिणी को लगेज के संबंध में कुछ बताना चाह हूं लेकिन अपनी ‘मारिंग दी लाठी एंड फोरिंग दी कपाड़’ अंग्रेज़ी के कारण उसके पल्ले कुछ नहीं पड़ रहा है. अंततः वो आजिज़ आ कर विशुद्ध देसी स्टाइल में बोलती है ‘आप मुझसे हिन्दी में क्यूं बात नहीं कर रहे हैं.’ आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा. पूछा उनसे कि भारत में कहां से हैं आप? जवाब ‘गुजरात’ सुनकर तो मेरे साथ के गुजराती मित्र के अरमानों को पंख लग गए हों जैसे. ओ गज़ब. केम छो? तुरत जवाब आया ‘मज़ा मा.’ बात होने लगी. पीछे की पंक्ति में खड़े किसी यात्री को बातचीत में आपत्ति जताते नहीं देखा क्यूंकि बात के साथ-साथ काम भी चल रहा था. परिचय से पहले बोर्डिंग पास बन चुका था. उसे वापस लेकर उसने नया बोर्डिंग पास जारी कर दिया. विमान में सबसे अच्छी वाली जगह. जहां आप आराम से पांव फैला कर बैठ सकते हैं. उनकी भाषा में जहां ‘लेग रूम’ दो गुना से भी ज्यादा हो जाता है. जब आपको 18 घंटे से भी ज्यादा की यात्रा करनी हो तो इससे बड़ा उपहार और क्या दे सकती थी वो बेचारी, अपने दायरे में रहने के बावजूद. लख-लख धन्यवाद के साथ, इस सुन्दर अनुभव को साथ लिए अपन तो रवाना हो गए विमान की ओर लेकिन यादें इतनी जल्दी पीछा छोड़ने वाली तो है नहीं. छोड़ेगी भी नहीं. भोग को तपस्या मानने वाले शहर की आंखों-देखी कहानी फिर कभी.

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लेखक पंकज कुमार झा पत्रकार और बीजेपी एक्टिविस्ट हैं। लेखक का अमेरीका यात्रा वृत्तांत आगे भी जारी रहेगा।

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इसे भी पढ़ें:

मेरी अमेरिका यात्रा (1) : वो झूठे हैं जो कहते हैं अमेरिका एक डरा हुआ मुल्क है

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0 Comments

  1. Nav Sharma

    September 15, 2014 at 11:38 am

    Wah Sahib,
    Maja aa gay . America se kaya story nikali…Bhikhari bhi angrezi bolte hain…
    Baise America me bhikhari ko kaun si bhaha bolni chahiye ? Hindi bolni chahiye…
    Gazab… Aap ko bharat rattan banta hai.

  2. pushpranjan

    September 15, 2014 at 1:33 pm

    रामनाथ गोयनका पुरस्कार भी बनता है !

    संता-बंता लंदन से लौटे तो ऐसा ही कहा था – “पाजी, इंगलैंड मे तो पाँच साल का बच्चा भी अंग्रेज़ी मे बोलता है. कमाल हो गया !”

    पुष्परंजन

  3. पंकज झा

    September 15, 2014 at 3:16 pm

    अगर इतना भी व्यंग्य समझने की कुव्वत आपलोगों में नहीं हो तो अफ़सोस ही होता है अपना की बोर्ड घिसने के लिए. इतनी सी समझ मुझे नही होगी कि अमेरिका का भिखारी किस भाषा में बात कर सकता है, ऐसा समझने वाले आप विद्वानों को सादर साधुवाद. उम्मीद है खुद में व्यंग्य समझने की भी बुद्धिमत्ता और ज़रा सी हास्यबोध भी लायेंगे.

  4. arshil

    September 15, 2014 at 7:57 pm

    यह तथ्य है कि भारत और पाकिस्तान आदि से गए मुस्लिम बंधु भी वहां हिन्दू होटल के नाम से ही अपना कारोबार चलाना पसंद करते हैं. उन्हें मालूम है कि अगर खुद को मुसलमान कहा तो शायद काफी दिक्कत आयेगी उन्हें अपने पेशे या व्यवसाय में भी. खैर. yaar aapne kuchh bhi nahi dekha fir!! vahan bakayada kabaab korner, muslim hotel, bengal fish, delhi ya lahor nahari jaise board tange dikh jayengi gate k bahar , vo bhi urdu, bengali, marathi me.
    aakhir me, apne us utsahi aur apnepan se bharpoor ladki ko bhi “bechari” ka hi sanbodhan diya. chhi…..!!!

  5. arshil

    September 15, 2014 at 8:10 pm

    यह तथ्य है कि भारत और पाकिस्तान आदि से गए मुस्लिम बंधु भी वहां हिन्दू होटल के नाम से ही अपना कारोबार चलाना पसंद करते हैं. उन्हें मालूम है कि अगर खुद को मुसलमान कहा तो शायद काफी दिक्कत आयेगी उन्हें अपने पेशे या व्यवसाय में भी. खैर. yaar aapne kuchh bhi nahi dekha fir!! vahan bakayada kabaab korner, muslim hotel, bengali fish, delhi ya lahor nahari jaise board tange dikh jayenge gate k bahar , vo bhi urdu, bengali, marathi me.
    aakhir me, apne us utsahi aur apnepan se bharpoor ladki ko bhi “bechari” ka hi sanbodhan diya. chhi…..!!!

  6. unknown

    September 16, 2014 at 4:44 pm

    gajab ka chutiyapa hai agar America me agar bhikhari English nahi bolega to kya bhikh mangnewale ki koi visesh bhasha hoti hai kya?

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