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साहित्य

क्या नागार्जुन के जीते जी किसी ने उनके चरित्र पर कभी उंगली उठाई?

Girish Pankaj : दुःखद। इतने साल बाद। उस लड़की की पोस्ट मैंने पढ़ी। यह तो साहित्य जगत का अप्रत्याशित मी टू है। नागार्जुन के बारे में आरोप लगाना हिम्मत की बात है। उसने बड़ा खतरा उठाया। उस वक्त वह अबोध बालिका थी, पर अब उसमें हिम्मत आयी है। जो भी हो, दुःखद। मैंने अपने लेख में कभी नागार्जुन को आधुनिक कबीर कहा था। अब क्या कहूं?

Anil Janvijay : आरोप लगाने वाली महिला 7 नवंबर 1984 को पैदा हुई थी। नागार्जुन 30 जून 1911 को। अगर दुष्कर्म के समय आरोप लगाने वाली महिला 7 बरस की बच्ची थी तो इसका मतलब यह है कि घटना 1991-92 में हुई होगी। लेकिन 1991 में तो नागार्जुन घूमना-फिरना बन्द कर चुके थे और बढ़े हुए अण्डकोष की बीमारी की वजह से चलने-फिरने से लाचार हो चुके थे। वे घर पर चारपाई पर पड़े रहते थे। इसलिए आरोप झूठा है। अब आरोप लगाने वाली महिला यह नहीं कहे कि जब नागार्जुन ने उससे दुष्कर्म किया था तो उसकी उम्र तीन-चार बरस की थी।

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Niranjan Shrotriya : निपट गए बैजनाथ मिसिर… ये ठीक ही रहा कि यह आदमी 1998 में ही निपट गया ….वो क्या कहते हैं न कि दिवंगत….स्वर्गवासी….वगैरह। 2020 में आत्महत्या करने के आरोप से तो बचा। अब नए साल में बाबा आपको ‘स्वर्ग’ से ‘नर्क’ में शिफ्ट किया जाता है। ना, कोउ मेडिकल, कोई रपट तो नहीं एको फ़सबुकवा पोस्ट है। अब यदि आप इसका विरोध करते हैं तो फुलटू स्त्री विरोधी, यदि समर्थन करते हैं तो …..किसका ?

सारे के सारे एकदम जजमेंटल। एकदम मने फैसला —“इस आदमी को इसकी तमाम करतूतों के साथ मरणोपरांत फाँसी पर लटकाया जाता है।”

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थोड़ा ठहर भी जाओ यार। एक सवाल ही शुबहे के रूप में पूछ लो कि क्या यह एक कवि के चरित्र हनन के जरिए उस समूची प्रतिरोधी कविता और इस तरह प्रतिरोध के खिलाफ़ कोई साज़िश तो नहीं?

1998 में मर गए आदमी पर 2020 पर लगा फेसबुकी आरोप समूची ‘डिसेंट’ अवधारणा को हिला देता है जिसकी यह मिसाल था। क्या टाइमिंग है इस आरोप की …. जब देश की रग-रग किसी प्रतिरोधी हीमोग्लोबिन की आकांक्षी हो ….उस समय आपकी हथेली की नस काट ली जाए। तो आज से वे सभी कविताएँ (बल्कि पाखंड !) खारिज़। और उन ‘औरतखोरों’ का क्या जिनकी एक गाँव में है और दूसरी शहर में। वे भी तो “बड़े” लेखक हैं।

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छोड़ो यार -दूर तलक जाएगी। अब हम सब खुश हैं। इत्मीनान से हैं। लेकिन यार …. इससे पहले कि कोई मुक्तिबोध के बारे में भी ‘कुछ भी’ बोल दे मैं यही कहूँगा कि- छि है थू है ….।

Umashankar Singh Parihar : वह लड़की अट्ठाईस साल बाद बोली है और इतना भी दम नहीं इनके पास की अट्ठाइस दिन इन्तजार कर छानबीन कर किसी को फाँसी चढ़ायें। सब कुछ अट्टाइस सेकेन्ड में तय हो गया। फला बोली तो फला बलात्कारी है।

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बहुत पहले मर चुके नागार्जुन को भी घसीटा जा रहा है. फेसबुक ने बढ़िया हथियार उपलब्ध करा दिया है. कभी भी बेसिर पैर के आरोप लगा दो चर्चित हो जाओ। न कोई साबूत न वकील न दलील अपराधी बना दो। अगर पीडिता छोटी थी तो बाप माँ तो बडे थे। उनसे कहती कि वह इतने बड़े भक्त थे कि बोल नहीं सकते थे। या नागार्जुन की मौत के पहले कहती तब तक तो बड़ी हो गयी होगी। नागार्जुन सैकड़ों लोगों के घर गये हैं कभी किसी ने यह आरोप नहीं लगाया और मेरी उनसे खुद मुलाकात है। जिसने आरोप लगाया मैंने कभी नहीं नाम सुना। और जो लोग ऐसा करते रहे हैं उनकी पूजा हो रही है। यहाँ तक कि कोर्ट द्वारा स्वीकार करने के बाद भी पूजा हो रही है। मामला कैरियर का है। अभी भी लोग जिन्दा हैं. लेखक संगठनों के पुरोधा हैं. कुछ तो बदनाम रहे बडी बडी संस्थाओं मे बैठे रहे, पूजे जाते रहे। अब भी सवाल नहीं उठ रहा है। बीस साल पहले मर चुके आदमी पर जब वह जिन्दा नहीं है वह अपना पक्ष नहीं रख सकता है, इन आरोपों से क्या होगा?

सात साल के बच्ची या बच्चा अपने माँ के सबसे नजदीक होते हैं। वह हर एक असंगति को माँ और बाप से साझा करते हैं। क्या खाना है कौन सा खिलौना लाना है। यहाँ तक कि वह जिद करके भी माता पिता को अपनी माँग मनवा लेते हैं। वह बच्ची यह समझ लेती है कि उसके साथ यौन अपराध हो रहा है। मगर दुख है कि बिस्किट और स्कूल जाने के लिए जिद करके बैठने वाली लड़की यह क्यों नहीं समझ पायी कि इस मामले में भी जिद करनी चाहिये? नागार्जुन को तभी आईना दिखाना चाहिए।

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Ajit Priyadarshi : मर चुके व्यक्ति अपना पक्ष नहीं रख सकते। मर चुके व्यक्ति के बारे में मी टू का क्या अर्थ, सिवा मूर्तिभंजन और सनसनी फैलाने के। क्या उनके जीवनकाल में किसी व्यक्ति ने नागार्जुन के चरित्र पर कभी उँगली उठाई?

Dr Dinesh Pal : नागार्जुन का जन्म 30 जून, 1911 में और मृत्यु 05 नवम्बर, 1998 में हुआ यानी लगभग 86-87 वर्ष की उम्र में…. 1948 से दम्मा के मरीज बने थे. . बुढ़ापे में शरीर बहुत स्वस्थ नहीं रही… आज जो 35 साल की महिला है उसका जन्म लगभग 1984-85 में हुआ होगा… वो 1991-1992 में सात साल की रही होगी उस वक्त बाबा नागार्जुन 79-80 वर्ष के थे…. 79-80 वर्ष की उम्र में बाबा नागार्जुन उस बच्ची के साथ किये होंगे….? यह विचारणीय बिंदु है कि वास्तव में बाबा नागार्जुन कुछ किये हैं या किसी कारणवश उन्हें बदनाम किया जा रहा है और चर्चित होने की लालसा है….? आखिर सच क्या है?

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Nitish Ojha : वृद्धावस्था में गांधी के ऊपर ऐसे आरोप लगे थे पर प्रगतिशील लोग इनकार करते हैं। पर नागार्जुन के ऊपर लगे तो तुरंत स्वीकार कर लिया।मुझे संदेह है!

भूपेन हजारिका और रविन्द्र नाथ टैगोर तक अछूते नही रहे। गांधी तक आरोपों से अछूते नहीं रहे। निर्भर इस पर है कि हम किस सहूलियत से किस पक्ष की ओर है। नेहरू पर तो IT Cell दिन रात भिड़ा हुवा है। संवेदनशीलता थोड़ी बचा कर रखी जाए और उसे जिम्मेदारी के आवरण में रखकर अपने माता पिता को भी उसी संवेदनशीलता और निष्पक्षता से देखा जाए। बच्चे के प्रति। जो आदमी इस दुनिया में रहा ही नहीं अब उस पर आरोप लगाकर क्या ही साबित होगा मुझे नहीं लगता इससे उन्हें उस पीड़ा में तनिक भी राहत मिलेगी। हां जो जीवित है, जिनके सर जिम्मेदारीयां थी, उनसे भी कभी पूछिये। हाइवे फ़िल्म में वीरा त्रिपाठी बनी आलिया भट्ट जब लौटकर आती है तो अपने पिता को भी जम के सुनाती है कि चूक कहां हुई।

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मुझे रहजनों की फ़िकर नहीं…..
तेरी रहबरी का सवाल है…..

Dhara Pandey : कुछ महीनों पहले तय किया था कि सोशल मीडिया में किसी भी political चर्चा में भाग नहीं लूंगी।किसी भी तरह के विवाद में भाग नहीं लूंगी। डर लगता है इसलिए। ये डर जीवन में शान्ति खो जाने का डर है, ये डर दोस्तों को खो देने का डर है। नहीं तो जो लोग मुझे जानते हैं वो मेरी बहस कर पाने की क्षमता से खूब वाकिफ़ हैं। कल के दिन में दो दुखी करने वाली बातें सामने आईं। एक गुनगुन थान्वी का दुख था,जिससे हम सब स्तब्ध और दुखी थे। कुछ भी लिखना बहुत से लोगों के घावों को फिर से कुरेदने जैसा है।यही कारण था कि दिन भर दिमाग में घूमने के बाद भी मैने कुछ न लिखा। दूसरी बात थी सौरभ द्विवेदी का ट्वीट और उससे उपजा बवाल।मन दिन भर दुखी था क्यूँकी सौरभ दोस्त हैं और उनका विरोध करने वाले भी बहुत से दोस्त हैं। उनके उस ट्वीट से असहमति तो थी ही पर आश्चर्य ज़्यादा था कि ऐसा कैसे कर सकते हैं वो! हालाँकि उन्होने डिलीट किया,माफ़ी भी माँगी। पर बवाल नहीं थमा। आप लल्लन्टॉप को बुरा-भला कहें,सौरभ को गालियाँ दें,वहाँ काम करने वालों से असहमत रहें लेकिन आप अपनी असहमति में किसी के परिवार को कैसे घसीट सकते हैं? मुझे दुख इसलिए है कि असल जीवन में बहुत स्नेही और प्यारे लोग भी इसमें शामिल हो गए। असहमति को सामने रखते-रखते ये कहाँ पहुँच रहे हैं हम?

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सौजन्य : फेसबुक

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0 Comments

  1. Ishnath Jha

    January 11, 2020 at 2:51 pm

    “… ओफ्फोह, महिलाएँ कितनी चतुर होती हैं ! पुरुषों को छूट भी देंगी और अपना हक भी नहीं छोड़ेंगी।”
    —- नागार्जुन (आईने के सामने

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