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सियासत

केंचुआ मौन : सरकार ने वोटिंग शुरू होने के दिन अखबारों में ये छपवा कर सुबह-सुबह घर-घर बंटवा दिया!

संजय कुमार सिंह-

सरकारी पर्चा अखबारों के रूप में सुबह-सुबह घर-घर बंट गया!
केंचुआ ने अपना यह हाल कई वर्षों में विधिवित किया है।

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कायदे कानूनों की उपेक्षा करके, सत्ता में होने का फायदा उठाते हुए ‘सरकार’ ने आज पांच राज्यों में चुनाव शुरू होने के दिन अपना प्रचार या पर्चा अखबारों के रूप में सुबह-सुबह घर-घर बंटवा दिया। वैसे तो चुनाव में लेवल फील्ड होना जरूरी है पर जो हालात हैं उसमें भाजपा के अलावा शायद ही कोई पार्टी हो जो पूरे चुनाव क्षेत्र में सभी मतदाताओं तक किसी भी रूप में पहुंच पाती हो। उसके बाद इस दुरुपयोग या अनैतिकता में कुछ नया नहीं है। अखबारों में इस अनैतिकता के बारे में इस खबर के साथ या वैसे, कुछ नहीं दिखा। मैं बहुत ज्यादा अखबार तो नहीं देख पाया लेकिन ज्यादातर अखबारों में इस खबर को वही प्रमुखता मिली है जो प्रधानमंत्री को मिलनी चाहिए। भले ही वे प्रधानमंत्री के रूप में नहीं एक सेलीब्रिटी प्रचारक के रूप में काम कर रहे हैं और दूसरी पार्टियां सत्ता में नहीं हैं तो ऐसा किसी भी कीमत पर नहीं कर सकती हैं जबकि उनकी स्थिति सामान्य कीमत देने की भी नहीं है।

प्रचारक शिरोमणि ने जो कहा वह किसी रैली की खबर की तरह छपा है। कुछ शीर्षक देख लीजिए। हिन्दुस्तान टाइम्स ने लिखा है, पांच राज्यों में महत्वपूर्ण चुनाव चक्र शुरू होने के मौके पर एएनआई से बात करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा, भाजपा ने “प्रो-इनकंबेंसी” की हवा बनाई है। इसका मतलब चाहे जो हो, सच यही है कि सत्ता में होने का भरपूर फायदा उठाया है। होने को खबर तो यह भी है कि योगी के शासन काल में 12 पत्रकारों की हत्या हुई, 138 पत्रकारों पर हमले हुए और योगी सरकार व उसके अफसर पत्रकारों की जमीनी और सच्ची रिपोर्ट्स को अफवाह बताते रहे! लेकिन यह खबर कहां छपी है? टाइम्स ऑफ इंडिया ने जुमला पार्टी के प्रधान प्रचारक का इंटरव्यू पहले पन्ने पर नहीं छापा है और यही स्थिति द टेलीग्राफ की है। दोनों अखबारों में पहले पन्ने पर ऐसा कुछ अंदर होने की सूचना भी नहीं है।

टाइम्स ऑफ इंडिया ने तो पहले पन्ने पर बड़ौत की एक खबर छापी है। इसके अनुसार एक दंपत्ति ने जीएसटी के कारण कारोबार में भारी नुकसान होने से दुखी होकर जहर खा लिया। यह फेसबुक लाइव करते हुए किया। मित्रों ने पुलिस को सूचना दी पर पत्नी को नहीं बचाया जा सका। एक तरफ यह हालत है और वित्त मंत्री ने बजट पेश करते हुए एक फरवरी को 31 जनवरी तक का जीएसटी का आंकड़ा दिया और बताया कि जीएसटी वसूली बढ़ रही है। इसके जरिए सरकार की कोशिश यह बताने की है कि आर्थिक स्थिति ठीक हो रही है और वसूली इसीलिए बढ़ रही है। पर सच्चाई कुछ और है जो सरकार बताएगी नहीं, मीडिया वाले पूछेंगे नहीं और प्रचार सामग्री को खबर बनाकर आपके-हमारे लिए परोसते रहेंगे।

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इसी तरह, आज ही इंडियन एक्सप्रेस में खबर है, सरकार ने राज्यसभा में कहा, कोविड वर्ष 2020 के दौरान बेरोजगारों में आत्महत्या के मामले 3000 से ज्यादा हुए। इसके बावजूद इंडियन एक्सप्रेस ने एनआई से प्रधानंत्री की बातचीत वाले प्रचार को पहले पन्ने पर इससे ज्यादा प्रमुखता दी है और शीर्षक लगाया है, ईडी और सीबीआई मु्क्त हैं, चुनाव बीच में आते हैं, सरकार की कोई भूमिका नहीं है – प्रधानमंत्री। अब प्रधानमंत्री ने कहा है तो दो ही कॉलम में छापना कम नहीं है। आठ कॉलम में छाप देते तो कोई क्या कर लेता। पर यह नहीं पूछा जाएगा कि बाकी सब तो ठीक है पर जो भाजपा के समर्थक हैं या जिनपर आरोप हैं और भाजपा के पाले में आ गए या डर के मारे चुप हैं उनमें किसी के यहां चुनाव के बीच में छापा पड़ता है? और पड़ा है तो वह कौन है?

द हिन्दू ने एएनआई की खबर को उसी के हवाले से पांच कॉलम में छापा है। नरेन्द्र मोदी के चुनाव निशान के साथ उनकी फोटो भी छापी है और शीर्षक लगाया है, मोदी को सभी पांच राज्यों के चुनाव में भाजपा की जीत का भरोसा है। वैसे तो प्रधानसेवक के भरोसे और यकीन का कुछ किया नहीं जा सकता है पर कहा है तो छापने में क्या दिक्कत है। पांच कॉलम ठीक लगता है, आठ में कुछ ज्यादा हो जाता। और वैसे भी जीतने पर आठ कॉलम में खबर छपेगी। इतनी गुंजाइश तो रखनी ही चाहिए। वरना कुछ संपादक उम्मीद को ही आठ कॉलम में छाप देते हैं और फिर जीत जाए को मास्ट हेड का मजाक बनाना पड़ता है। खैर वह अलग मुद्दा है। हिन्दी के अखबार मैं देखता नहीं इस गंदगी में देखना भी नहीं चाहता।

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पुनःश्च :
प्रधानमंत्री भले राष्ट्रहित में कृषि कानून वापस लेने की बात कर रहे हैं पर सच यह भी है कि उन्हें यह हित समझने में एक साल लग गए, सात सौ से ज्यादा किसानों की जान चली गई, उन्होंने कहा कि वे तपस्या करते रहे थे और देश ने देखा कि सरकार रास्ते में कीलें लगवा रही थी। कृषि कानून जब वापस लिए गए तब तक माहौल ऐसा बन चुका था कि “देश सेवा” में एक बिगड़ैल ने किसानों को रौंद दिया और संयोग से या प्रयोग के रूप में उसके पिता केंद्रीय मंत्री हैं। नैतिकता के तमाम तकाजों को धत्ता बताते हुए तपस्या भंग करने वाले के खिलाफ सरकार ने क्या किया पता नहीं, कानून ने अपना काम किया और वह जेल अस्पताल होते हुए आज जमानत पा गया। पर मतदान के दिन देश हित की बात करना ही कुर्सी भक्ति है। बाकी प्रचारकों का क्या है, राजा का बाजा बजाना ही नौकरी है। इस शीर्षक पर एक बहुत ही स्वाभाविक सवाल है, अगर वापस करना देशहित में है तो लागू करना क्या था? और देशहित समझने में आपको एक साल लगता है? तो नोटबंदी और जीएसटी को कितना समय दिया था या बिना समय दिए लागू किया इसलिए देशहित नहीं हुआ? या हो गया – बताने की जरूरत नहीं समझी।

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1 Comment

1 Comment

  1. संजय कुमार सिंह

    February 10, 2022 at 11:33 pm

    इसमें एक बात रह गई है। राहुल गांधी ने इसी संपादक को पहले भी इंटरव्यू का प्रसाद दिए जाने पर Pliable कहा था तो पत्रकारों ने भी एतराज जताया था। इस समय प्रचार के लिए तैयार होना Pliable होना ही है। वरना उसमें कौन सा जनहित है? दूसरी बात यह भी है कि राहुल गांधी ने Pliable कहा तो उसकी आलोचना हुई लेकिन प्रधानसेवक ने इस संपादक के साथ मिलकर जो अनैतिक खेल किया, उसकी आलोचना कितने लोगों ने की और क्या इनमें वो लोग हैं जो राहुल की आलोचना करते हैं। मेरे ख्याल से प्रधानमंत्री की आलोचना कर सकने वाले पत्रकार अब इतने रह गए हैं कि पत्रकार संगठनों में तो लगभग अदृश्य ही हो चले हैं।

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