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पत्रकारिता में हिंदी का ‘नरक’ युग

Vikas Mishra : न्यूज चैनल देखूं या अखबार..। जैसे ही किसी शब्द में मात्रा, वर्तनी की अशुद्धि दिखती है तो लगता है जैसे पुलाव खाते हुए, अचानक दांतों के बीच मोटा सा कंकड़ पड़ गया हो। पत्रिकाओं, अखबारों में मैंने काम किया, न्यूज चैनल में काम कर रहा हूं और एक प्रवृत्ति भी देख रहा हूं कि वर्तनी और मात्रा को लेकर अब न बहस होती है और न ही लड़ाई। आठ साल से तो मैं खुद ‘नरक’ की लड़ाई लड़ रहा हूं। मैं जानता हूं कि सही शब्द है-नरक, लेकिन न्यूज चैनलों में अमूमन दिख जाता है-‘नर्क’। जैसे स्वर्ग लिखते हैं, वैसे ही ‘नर्क’ लिख देते हैं। एक चैनल में मोटे-मोटे अक्षरों में ‘नर्क’ चल रहा था, उनकी अपनी ब्रेकिंग न्यूज थी, घंटों चलना था और सेट पर मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा था-‘नर्क’ । उस चैनल में कई साहित्यप्रेमी, साहित्य मर्मज्ञ भी हैं।

Vikas Mishra : न्यूज चैनल देखूं या अखबार..। जैसे ही किसी शब्द में मात्रा, वर्तनी की अशुद्धि दिखती है तो लगता है जैसे पुलाव खाते हुए, अचानक दांतों के बीच मोटा सा कंकड़ पड़ गया हो। पत्रिकाओं, अखबारों में मैंने काम किया, न्यूज चैनल में काम कर रहा हूं और एक प्रवृत्ति भी देख रहा हूं कि वर्तनी और मात्रा को लेकर अब न बहस होती है और न ही लड़ाई। आठ साल से तो मैं खुद ‘नरक’ की लड़ाई लड़ रहा हूं। मैं जानता हूं कि सही शब्द है-नरक, लेकिन न्यूज चैनलों में अमूमन दिख जाता है-‘नर्क’। जैसे स्वर्ग लिखते हैं, वैसे ही ‘नर्क’ लिख देते हैं। एक चैनल में मोटे-मोटे अक्षरों में ‘नर्क’ चल रहा था, उनकी अपनी ब्रेकिंग न्यूज थी, घंटों चलना था और सेट पर मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा था-‘नर्क’ । उस चैनल में कई साहित्यप्रेमी, साहित्य मर्मज्ञ भी हैं।

मैंने फोन करके कहा-सर इस ‘नर्क’ को नरक करवा दीजिए। कम से कम आपके यहां नहीं चलना चाहिए। वो बोले- घंटे भर से यही चल रहा है, अब बदलना ठीक नहीं होगा। उन्होंने बदला नहीं, बदलवाया नहीं। चैनल पर ये ‘नर्क’ चलता ही रहा। मैंने फोन करके टोकने का काम नहीं छोड़ा। अपने ही एक सहयोगी चैनल पर जब ये ‘नर्क’ देखा तो चैनल हेड को टोका। बोले-चलता है, इतना ध्यान नहीं देना चाहिए। परसों रात इंडिया टीवी पर ये ‘नर्क’ आ गया। एक पुराने साथी से कहा ठीक करवा लीजिए। बोले- यहां तो गजब किस्म का राज है। एक वर्ग है जिसने कुछ शब्दों के गलत प्रयोग को ही सही बना रखा है। इसमें कोई दखल नहीं दे सकता। परसों रात मैं इंडिया टीवी के ‘नर्क’ को सुधारने चला था, लेकिन कल रात मुझे आजतक पर ही ये ‘नर्क’ दिख गया।

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बात सिर्फ इस ‘नर्क’ की नहीं है। न्यूज चैनल के टिकर, ब्रेकिंग न्यूज, न्यूज फ्लैश में जो शब्द दिखता है, अखबार में जो शब्द छपता है, उसे ही लोग सही मानकर आगे बढ़ते हैं। हमारी जिम्मेदारी है कि शुद्ध और सही प्रयोग करें। गलत प्रयोग से हम अपनी पूरी पीढ़ी बिगाड़ेंगे। मैं अपनी नैतिक जिम्मेदारी समझते हुए जहां भी, जिस भी चैनल में गलत हिंदी चल रही होती है, वहां वरिष्ठ सदस्य को फोन करके बाकायदा कहता हूं कि इसे ठीक करवा लीजिए। यहां एक नाम मैं जरूर लेना चाहूंगा अजीत अंजुम सर का। न्यूज 24 छोड़ने के बाद किसी भी गलत हिंदी प्रयोग पर जब भी मैंने उन्हें फोन किया, उन्होंने बिजली की रफ्तार से वो गलती ठीक करवाई।

शब्दों के सही प्रयोग पर बहस होनी चाहिए। इसे किसी भी स्तर से शुरू किया जा सकता है। मुझे याद है कि 2006 में मैं नया नया आजतक में आया था। फिल्म ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ के गांधीगीरी शब्द का धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा था। ज्यादातर लोग ‘गांधीगिरी’ लिख रहे थे। मैंने मेल किया कि सही शब्द है-‘गांधीगीरी’। उदाहरण भी दिया-जहांगीरी, आलमगीरी। मेल पर बहस छिड़ गई। उस वक्त चैनल हेड थे कमर वहीद नकवी जी। उनका जवाब आया-सही शब्द ‘गांधीगीरी’ ही है। दादा ने कह दिया तो सही प्रयोग होने लगा।

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पांच साल मैंने मेरठ में अमर उजाला और दैनिक जागरण में काम किया। मेरठ में लिखने की भाषा की कुछ जानी पहचानी गलतियां हैं। वहां टैक्स को ‘टेक्स’ और ‘सेक्स’ को ‘सैक्स’ लिखा जाता है। वहां सड़क में ड के नीचे बिंदी नहीं लगती, लेकिन रोड के ड के नीचे लगती है। वहां दस में से 7 मेरठी पत्रकार ‘सडक’ और ‘रोड़’ लिखते थे। मैंने पांच साल तक ‘रोड’ के नीचे की बिंदी उठा उठाकर ‘सड़क’ के नीचे लगाई।

‘यद्यपि सिद्धम् लोकविरुद्धम्, नाचरणीयम् नाकरणीयम्।’ का हवाला देते हुए कुछ लोग कहते हैं कि जैसा चल रहा है, वैसा चलाना चाहिए। मैं इसका पक्षधर नहीं हूं। एक बार विद्यानिवास मिश्र जी ने कहा था-हमारा काम जनरुचि के हिसाब से चलना नहीं, बल्कि जनरुचि को मनाकर सही राह पर चलाना है।

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पिछले साल की बात है। उस वक्त के रेल मंत्री पवन बंसल का भानजा घपले में पकड़ा गया था। जिस चैनल पर देखो-वहां भानजा की जगह-भांजा। मैंने समझाने की कोशिश की। कहा कि भांजा से लाठी भांजने की ध्वनि आती है। भानजा वस्तुतः बहनजाया और भगिना जैसे मूल से अपभ्रंश हुआ होगा। मैंने शो बनाया और उससे पहले मैंने नकवी सर से बात की। तब वो आजतक में नहीं थे। उनकी मुहर लगी और मैंने-सेट, शो ओपेन के लिए ‘भानजा’ शब्द दिया। लेकिन जैसे ही शो हिट हुआ-देखा सेट पर लिखा था-‘भांजा’। ग्राफिक्स वाले से पूछा-ये तुमने क्या कर डाला। बड़ी मासूमियत से बोला-सर वो ग्राफिक्स में आपने गलत लिखा था, हमने सही कर दिया। दरअसल मैंने गलत नहीं किया था। बरसों से ‘भांजा’ लिखने वालों ने उसके दिमाग में बिठा दिया था कि सही वही है । खैर मैंने तत्काल वो शब्द बदलवाया, बाद में हमारे कुछ और साथियों ने भी सही रूप चलाया।

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में मेरे करियर का आगाज ही था। रमजान आ गए और चैनल में नमाज ‘अता’ होने लगी। मैंने टोका तो बहस हो गई कि अता ही सही है, लेकिन मैं टिका रहा कि नमाज अदा होती है, न कि अता। मैंने एक नामचीन शायर से एक वरिष्ठ की बात करवाई उन्होंने बखूबी अता और अदा का फर्क बताया। फिर नमाज ‘अदा’ होने लगी।

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हिंदी चैनलों और अखबारों की एक मानक वर्तनी बने, उसके लिए मैं काम करने को भी तैयार हूं। और भी मित्र आगे आएं, हफ्ते भर में ये काम हो जाएगा। मैं अखबार में रहा, जिस चैनल में रहा या हूं। सही वर्तनी, सही शब्द को लेकर मैंने हमेशा बहस की है, वही प्रयोग किया है जो वास्तव में सही है। भाषा तो ऐसी चीज है, जिसमें कोई भी सर्वज्ञ नहीं हो सकता। जितना सीखिए, आगे सीखने को बहुत कुछ बच जाता है। मुझे भी जिस शब्द पर शंका होती है, उस पर दो तीन भाषाविदों से बात करता हूं, पूरा भरोसा हो जाता है तो प्रयोग करता हूं। दूसरे चैनलों से वर्तनी को लेकर फोन आते हैं तो बड़ी खुशी होती है। एक दिन घर में तनाव का माहौल था, फोन आया, एक साथी ने पूछा-सर, धुनाई में ध पर छोटे उ की मात्रा लगेगी या बड़े ऊ की। तनाव भरे चेहरे पर मुस्कान फैल गई।

मैं महुआ न्यूज में था, राणा यशवंत जी से भाषा-वर्तनी पर बात हो रही थी। तभी चैनल पर दाद-खाज-खुजली की दवा बी-टेक्स का विज्ञापन आ गया। देखकर हम दोनों ने माथा पीट लिया। (अब उसमें क्या गड़बड़ थी, आप खुद देख लीजिए, यहां लिखना ठीक नहीं है)

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पुनश्च- फेसबुक पर किसी को पोस्ट, फोटो टैग करने का मैं घनघोर विरोधी हूं, फिर भी ये पोस्ट मैं कुछ वरिष्ठों-मित्रों को टैग कर रहा हूं, क्योंकि मेरी बात उन तक पहुंचनी जरूरी है। Qamar Waheed Naqvi, राहुल देव, Ajit Anjum, Rana Yashwant, Anant Vijay

आजतक न्यूज चैनल में वरिष्ठ पद पर कार्यरत पत्रकार विकास मिश्र के फेसबुक वॉल से.

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उपरोक्त स्टेटस पर आए प्रमुख कमेंट्स इस प्रकार हैं…

Drigraj Madheshia भईया ! शब्द ही नहीं बहुत सारी चीजों के सही गलत होने का पैमाने दो ही होते हैं। एक मेज के इस पार दूसरा उस पार। बाकि जो है सो ….
 
Sharma Montu qamar waheed naqvi sir ki baat hi kuch or h. m hamesha un se ye sab jaanne or sikhne ki koshis karta rahta hu unke lekh ke dwaara….sir aapne sahi kaha agar koi sahi likhta h to upar waale use galat bata dete h ham kya kare manna padta.
 
Nalin Chauhan बहुत बढ़िया, बनारसी बतकही के साथ भाषा की चिंता, मजा आ गया विकास. मैं आज ही आईआईएमसी के दिनों की याद में एक साथी से कह रहा था कि हमारे बैच में कितने रथी थे और कुछ महारथी जिसमे विकास भी एक था. कितना कुछ सीखा एक दूसरे से बिना सिखाए-बताये.
 
पूर्णेन्दु शुक्ल लश्कर भी तुम्हारा है , सरदार तुम्हारा है ……… तुम झूठ को सच लिख दो , अखबार तुम्हारा है …
 
Naveen Negi बेहद ज्ञानवर्धक पोस्ट है सर हम जैसे नए पत्रकारों के लिए। सही भाषा लिखने की चिंता अक्सर होती है, परंतु फिर जल्दिबाजी के फेर में गलत शब्दों का प्रयोग हो जाता है। आपके मार्गदर्शन की जरूरत रहेगी हमेशा।
 
Amarendra A Kishore विकास ! मुझे तुम्हारे अंदर पंडित विद्यानिवास मिश्रा जी की छवि दिख रही है। अपने बैच में तो कई लोग हंस पत्रिका पढ़कर बुद्धिजीवी होने का ढकोसला करते थे। और बाद में कहने लगे कि अरे तुम भी लिखते हो ?अब उन बेहूदों को कौन समझाए कि तुम तो एसएससी के कनिष्ठ लिपिक में चयनित होने लायक नहीं थे।
 
संतोष उपाध्याय भांजा – भानजा के मध्य , का अंतर अभी आज समझा । ये बहुत बड़ी विडम्बना है । इसके पीछे का सबसे बड़ा कारण है , हम सीखने में अपनी तौहीन समझते है । कोशिश करते रहना चाहिए । जिन जिन चैनल्स में परिचय है , हम भी सुधार का प्रयास करते है । अर्थ का अनर्थ होते देर नहीं लगती । वर्तनी ही आपके समाचार की पहचान है । ग़लत वर्तनी वह छाप नहीं छोड़ पायेगी दर्शकों के हृदय पर । समाचार चैनल्स में उपस्थित विज्ञ महापुरुषों से करबद्ध अनुरोध है कि विकास भईया के इस मुहिम में आगे आयें ।
 
Kunal Deo Bhasha ki galati se bhav bhi mar rahe hain…

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Gaurav Pandey Hindi ko hinglish bnnnane vale bhi khoob bantadhar kr rhe hain hindi ka….!!!
 
Vikas Mishra Naveen Negi 24 घंटे, 365 दिन…जब चाहें बात कर सकते हैं।
 
Pramod Shukla बहुत बहुत बधाई…… लगे रहिए…. बहुत जरूरी है…. हिन्दी न्यूज चैनलों में ई-मेल का आदान-प्रदान यदि हिन्दी में शुरू हो जाए तो बहुतो की भाषा धीरे-धीरे अपने-आप शुद्ध होती चली जाएगी….. चर्चा कीजिए…. शायद वरिष्ठों की समझ में ये बात आ जाए…..
 
Vikas Mishra Pramod Shukla मैं बरसों से ये काम कर रहा हूं। मैं हमेशा हिंदी में ही मेल भेजता हूं। ये काम पूरे गर्व के साथ करता हूं, किसी ने आपत्ति भी नहीं जताई है आजतक।
 
Amrita Maurya Vikas, tumne mera dard uker kar rakh diya, sachh mein, bilkul thik likha hai! Gandhi giree/geeree par meri bhi kaha-suni ho chuki hai….road ke niche bindi dekh kar aaj bhi mann hoto hai patthar utha kar maarun…
 
Shabnam Khan hindi bolne waalon ko sochte hain inhe kam knowledge hai par hamare jaise log vikas ji hindi ko hamesha zinda rakhenge
 
Ankit Kumar Sir, Bhasha basic chij hai aur vartani ki ashudhiyo ko ignore nahi kia ja sakta. kyonki galat najir pesh krti hai aur aankhon me khatakti hai. mai sachmuch chahunga aisi ek standard patrakarita dictionary bane. jo hamare liye bahut hi madadgar sabit hoga. is pr twarit dhyan dene ki jaroorat haiSee Translation
 
Ajay Pandey bilkul sahi kaha aapne sir…hindi ka patan Hota dikh rha hai.
 
Rahul Pandey यहां सिर्फ़ मात्रा और वर्तनी की अशुद्धि को छोड़ दिया जाए सर.. तो चैनलों पर होने वाले ग़लत उच्चारण से भी खीझ मचती है.. This is a big turn off for me.. और हां.. लोग कहते हैं कि चैनलों में ज़्यादा नुक्ताचीनी नहीं होनी चाहिए.. मैं इसका विरोधी हूं.. अरे भई ! हिंदी भाषा जैसी है उसको उसी तरह से ही लिखा जाना चाहिए। आम दर्शक बहुत समझदार है।
 
Dinesh Agrahari सर, मैं भी इससे परेशान रहता हूं। आधा दर्जन से ज्‍यादा संस्‍थानों में काम कर चुका हूं। समझ में नहीं आता हिन्‍दी मीडिया में एक मानक वर्तनी, शब्‍दावली क्‍यों नहीं बना ली जाती। ऐसी वर्तनी का एक वेबसाइट या ब्‍लॉग बनाया जा सकता है, जिसे देखकर सभी अखबार, चैनल, पत्रिकाएं इस्‍तेमाल करें। कोई इजरायल लिखता है कोई इस्राइल तो कोई इस्रायल । सबसे दुख होता है टीवी एंकर्स द्वारा धड़ल्‍ले से बोले जा रहे गलत शब्‍दों को देखकर। कार्यवाही की जगह कार्रवाई बोलते हैं, उबरने की जगह उभरना, इकट्ठा की जगह इखट्टा बोलते हैं और ऐसी दर्जनों हास्‍यास्‍पद गलतियां करते हैं।
 
Shikhar Chand Jain अपना मोबाइल नंबर इनबाक्स देँ ।कभी कभी सताऊंगा ।पोस्ट शेयर कर लूँ ?
 
Richa Srivastava Sir… ‘ek pyaali chai’/’ek pyaala chai’ aur ‘zameer’/’jameer’ jaise bahut saare shabdon par aksar behas hoti hai ! Ek standard reference book honi chahiye… … b-tex wala to maine bhi har baar notice kiya hai…
 
Sumit Jha सर, लिखने के साथ साथ उच्चारण करने के बारे में क्या कहेंगे, मसलन गृहमंत्री का ग्रह मंत्री, कई सारे एंकर महोदय या महोदया को बोलते सुनता हूं , इस पर भ बहस होनी चाहिए
 
JP Tripathi बिल्कुल ठीक बात कहा आपनेँ हम आपके साथ हैँ।
 
Naveen Upadhyay विकास जी आपके संस्मरण लाजवाब होते है ! हिंदी में बड़ते प्रदूषण पर आपने बड़ी बेबाक टिप्पणी की है ! आपको जब भी पड़ता हूँ,पंडित जी याद आ जाते है ! पंडित विध्यानिवास जी मिश्र, पंडित जी मेरे परिवार से गहराई से जुड़े थे ! जब भी उनसे चर्चा होती अशुद्ध हिंदी बोलने पर तुरंत बीच में ही टोक देते,मेरे बडे भैया नर्मदा प्रसाद उपाध्याय के साथ वे हरदा में हमारे पुश्तैनी घर पर आकर पूरे परिवार से मिलते थे ! पंडितजी से जीवन में बहुत कुछ सीखा और कोशिश की कि इसी पगडंडी पर आगे बड़ता रहूँ !

Alok Kumar सिर्फ वर्तनी ही क्यों व्याकरण के तमाम मापदंडों को शामिल कर लीजिए.. लिंग पर ग़ौर फरमाएंगे तो वहां भी निराशा हाथ लगेगी. कारक का इस्तेमाल भी विचित्र पाएंगे. उच्चारण भी निराश करेगा. लाख दिवस मनाएँ हिंदी पत्रकारिता अनुवाद के बिना नहीं चल सकती लेकिन कई बार अनूदित शब्दों-पदबंधों को देख शर्मसार होना पड़ता है.. लेकिन हिंदी उदार है.. उसे बलात्कार से भी गुरेज नहीं. क्योंकि हिंदी प्रगतिशील है. बहादुर शाह जफर मार्ग इसकी पराकाष्ठा है..
 
अधूरा ख़्वाब सिर्फ़ न्यूज़ चैनल में ही नहीं अखबार और पत्रिकाओं में भी ऐसी अशुद्धियाँ देखने को मिलती रहती हैं..इस तरह के सुधार के लिए आप जैसे लोगों की ज़रुरत है…. मेरी राय यह है कि इस तरह की संभावित; वर्तनी और भाषा सम्बन्धी अशिद्धियों की सूची तैयार करके उसको एक पुस्तक का रूप दिया जाए..और उसे सभी मीडिया स्कूलों में पढने वाले मीडिया छात्र-छात्राओं के लिए अनिवार्य कर दिया जाए…क्योंकि अगर आधार मजबूत रहेगा तो सुधार की ज्यादा गुंजाईस रहेगी…

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0 Comments

  1. shashi parganiha

    September 13, 2014 at 12:53 pm

    हमारे अखाार के पूर्व सम्पादक (वे स्वर्ग में हैं) हमें टिकिट लिखने की सलाह देते थे. उनका कहना था कि हिन्दी में टिकिट लिखा जाता है. उनके रहते तक हम
    सभी टिकिट लिखते रहे. मुझे भी यह सही लगता है लेकिन आ हमारे अखाार में टिकट लिखा जा रहा है (नये सम्पादक आ गये हैं). ाात जा हिन्दी की शुध्दि-
    अशुध्दि की चल रही है, तो यह प्रश्न मैं पूछ सकती हूं. आ आप ातायें कि हमें टिकिट लिखना चाहिए या टिकट.

  2. Pramod Kumar Jha

    September 13, 2014 at 12:57 pm

    I appreciate your endeavour.

  3. harish pathak

    September 13, 2014 at 7:42 pm

    vikash ji,aapka dukh us samvedanshil sampadak ka dukh he jo bhasha ki shudhdhta aur suchita ko lekar aaj bhi chintit he.aaj ke is narak hote mahol me to bhairaty hi shudhdhtam lag rahi he aur hum khamosh he.is chinta ko salam.

  4. sanjay kumar

    September 14, 2014 at 1:35 pm

    media industry me gadho ki fauj hai. khaskar hindi akhbaro me. reporter ko to likhna tak nahi aata lekin baato me guman jarur jhalkta hai. edit ki hui apni khabro ko wo padhne ki bhi jahmat nahi uthate. warti ko shudhh krne k liye shabdo ko dhyan se dekhna, galtiyo ko sudharna behad jaruri hai, lekin kyn kare koi. patrakar jo tahre.

  5. एच. आनंद शर्मा, शिम

    October 5, 2014 at 2:54 pm

    हिंदी के मीडिया संस्थानों में पहले शब्दों को लेकर बाकायदा वर्तनी तैयार की जाती थी। क्योंकि कुछ शब्द कई तरह से प्रचलित हैं- जैसे अंतर्राष्ट्रीय- अंतरराष्ट्रीय, इनकार – इंकार, इन्कार, लाल कृष्ण आडवाणी- अडवाणी- अडवानी, प्रेस- प्रैस, आदि। वर्तनी में तय किया जाता था कि इनमें से कौन सा शब्द अपने प्रकाशन में इस्तेमाल किया जाएगा। डेस्क में उप संपादकों और प्रूफ रीडरों को इसकी एक-एक प्रति दी जाती थी ताकि संस्थान में शब्दों को लेकर एकरूपता बनी रहे। अब तो अधिकांश संस्थानों ने प्रूफ रीडर डेस्क ही समाप्त कर दिया है। सारा काम पत्रकारों से ही निपटाया जा रहा है। इसलिए भी आज शब्दों और वाक्यों को लेकर हिंदी तमाशा बनती जा रही है।

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