Abhishek Srivastava : ग़ाजि़याबाद-दिल्ली की सीमा से सटी एक भूषण स्टील कंपनी है। अगर सामूहिक याददाश्त शेष है, तो बताना चाहूंगा कि बरसों पहले वहां लोहे के स्क्रेप में रॉकेट लॉन्चर का विस्फोट हुआ था जिसमें कुछ मज़दूर मौके पर मारे गए थे। कुछ गायब हो गए थे। मैं उस वक्त नवभारत टाइम्स में था। मैंने संपादक मधुसूदन आनंद की अनुमति से छानबीन की तो पाया कि कुछ घायल मज़दूरों को पुलिस के आने से पहले मौके पर ही ब्वायलर में डालकर दफ़न कर दिया गया था। ऐसे लापता मज़दूरों के परिजनों के हलफ़नामे समेत कई सबूतों के साथ मैंने स्टोरी फाइल की।
चीफ रिपोर्टर दिलबर गोठी को यह बात रास नहीं आई। हफ्ते भर तक हर अगले दिन मुझसे कहा जाता रहा कि आज पहले पन्ने की लीड लगेगी। मैं रुका रहा। हफ्ते भर बाद एक दिन मैंने पाया कि सर्वर से वह स्टोरी गायब थी। किसी की कोई जवाबदेही नहीं। आर्काइव तक में नहीं थी। सारे काग़ज़ात जमा थे। मेरे पास उनकी छायाप्रति थी। स्टोरी मार दी गई। संपादक चुप। कुछ दिन बाद मुझे दूसरे आरोप लगाकर वहां से निकाल दिया गया। तब भी संपादक चुप रहा। मैंने दो-तीन जगह स्टोरी पिच करने की कोशिश की, लेकिन नहीं चली। जनसत्ता में भी नहीं।
इसलिए अव्वल तो खबरदार जो रिपोर्टर की ड्रॉप स्टोरी का दर्द मुझे समझाने की किसी ने कोशिश की। अर्णब की टेप चोरी का मामला एक ‘रिपोर्टर’ के दर्द का मामला नहीं है। राजीव चंद्रशेखर ने किसी ‘रिपोर्टर’ के दर्द पर मरहम लगाने के लिए रिपब्लिक चैनल नहीं खोला है। वह अरबों का धंधा है। अर्णब उसके मालिकाने में हिस्सेदार है। अगर स्टोरी चोरी की है तब भी और अगर दो साल तक दबी रही तब भी, दोनों ही केस में कठघरे में अर्णब गोस्वामी को ही खड़ा होना है क्योंकि दोनों जगह संपादक है वो, ‘रिपोर्टर’ नहीं। संपादक और रिपोर्टर का फ़र्क समझें। मालिक-संपादक और संपादक का फ़र्क समझें। स्टोरी-स्टोरी का फ़र्क समझें।
कई अखबारों में वरिष्ठ पदों पर काम कर चुके पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव की एफबी वॉल से.
Parvinder singh
May 19, 2017 at 3:29 am
एेसे सालों का तो पछवाड़ तोड़ देना चाहिए