Samarendra Singh : एनडीटीवी ने कैसे की ‘रिपोर्टर’ और ‘संपादक’ की हत्या! NDTV STORY PART 3… यह कैसे मुमकिन है कि जो एनडीटीवी छोटे-छोटे अपराधियों और बाहुबलियों के खिलाफ घुटने टेक देता है, जो अपने रिपोर्टरों का बचाव नहीं कर पाता है, वही चैनल बड़े नेताओं को निपटा देता है और सत्ता के शीर्ष को चुनौती देता हुआ नजर आता है? आखिर इतना विरोधाभास कैसे हो सकता है?
यह सवाल मुश्किल है और पेंचीदा भी. इसका जवाब जानने के लिए आपको कुछ बातों पर गंभीरता से गौर करना होगा. सत्ता के खेल को समझना होगा. साधन और साध्य के मर्म को पकड़ना होगा. एनडीटीवी की संरचना और उसके मालिकों के हितों को समझना होगा. यह भी कि आखिर एनडीटीवी में एक संस्था के तौर पर “रिपोर्टर” की हत्या क्यों की गई? आखिर क्यों इसको ईमानदार, समझदार और निडर रिपोर्टरों की जरूरत नहीं थी?
इन प्रश्नों पर चर्चा को नवंबर 2007 की एक घटना से आगे बढ़ाते हैं. यह बेहद भयानक घटना थी. उस समय चैनल की कमान मनीष कुमार और संजय अहिरवाल के हाथ में थी. मनीष को पटना से दिल्ली बुलाया गया था. इसलिए बिहार की खबरों से उनका जुड़ाव कुछ अधिक रहता था. मैं उस दिन रात की ड्यूटी पर था. मेरे पास मनीष का फोन आता है कि अभी बिहार से एक लड़की की रहस्यमय मौत की खबर आएगी और उसे सुबह प्लेअप करना है. खबर प्रकाश सिंह ने भेजी थी. मैंने खबर पढ़ने और विजुअल्स देखने के बाद प्रकाश से बात की. बातचीत से मुझे लगा कि वो इस खबर के पक्ष में नहीं हैं और उन्होंने यह स्टोरी मनीष के दबाव में फाइल की है.
खबर के मुताबिक रेशमा नाम की लड़की की रहस्यमय मौत के पीछे बाहुबली नेता अनंत सिंह और उनके सहयोगी बिल्डर मुकेश सिंह का हाथ बताया जा रहा था. सुबूत के नाम पर मुख्यमंत्री के नाम लिखी गई एक चिट्ठी थी. कहा जा रहा था कि यह चिट्ठी रेशमा ने अपनी मौत से कुछ दिन पहले ही लिखी थी और उसमें उसने अनंत सिंह और मुकेश सिंह का नाम लिया था. मैंने प्रकाश से बातचीत के बाद खबर बना दी और एहतियात के तौर पर हमने खबर में अपनी तरफ से कहीं भी अनंत सिंह का नाम नहीं लिया. इतना ही कहा कि एक बाहुबली नेता शक के घेरे में है. लेकिन पटना से आए विजुअल में वो चिट्ठी और उस चिट्ठी का वो हिस्सा भी मौजूद था जिसमें अनंत सिंह और मुकेश सिंह का नाम लिखा था. रिपोर्ट तैयार करते वक्त वो हिस्सा लगा दिया गया.
सवेरे के दो बुलेटिन में वह खबर चलाने के बाद मैं घर लौट आया. मुझे अच्छी तरह याद है कि मेरे ऑफिस से जाने के बाद उस स्क्रिप्ट में अभिरंजन ने कुछ बदलाव कर दिया था और उसे लेकर मेरी उनसे काफी तेज बहस हुई थी. हम दोनों बैचमेट हैं. पुराने मित्र हैं. इसलिए हममें कई बार बहुत तीखी बहस होती थी. वो आज भी होती है. उस दिन भी हुई थी. प्रकाश की स्टोरी तैयार करते वक्त मैंने “बदबू” शब्द जानबूझ कर हटाया था. लेकिन अभिरंजन ने वही शब्द फिर से जोड़ दिया था. मैंने अभिरंजन से कहा कि स्टोरी में अगर तथ्य गलत हो तो आपको स्टोरी में बदलाव करने की इजाजत है. अन्य किसी सूरत में आपको किसी दूसरे की लिखी स्टोरी से छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए. हर व्यक्ति के लिखने का अपना अंदाज होता है. उसकी अपनी शैली होती है. उस शैली का सम्मान होना चाहिए.
खैर, अभिरंजन से झगड़े के बाद मैं आराम करने लगा. दोपहर में आंख खुली तो मैंने खबर देखने के लिए न्यूज चैनल लगाया. हंगामा मचा हुआ था. अनंत सिंह ने प्रकाश और कैमरामैन हबीब को घर पर अपनी प्रतिक्रिया देने के बुलाया और फिर बंधक बना लिया. हबीब किसी तरह खिड़की से कूद कर बाहर निकलने में कामयाब हुए और उन्होंने तमाम साथियों को प्रकाश के बंधक बनाए जाने की खबर दी. इसके बाद पटना के दर्जनों मीडियाकर्मी अनंत सिंह के घर के बाहर जमा हो गए. साथी पत्रकार को बचाने के लिए उन्होंने बाहुबली अनंत सिंह को उनकी हैसियत बता दी थी. उस दौरान अनंत के गुंडों ने पत्रकारों पर हमला भी किया था. फिर भी सभी बेखौफ डटे हुए थे. इधर दिल्ली में न्यूज चैनल भी खबर पर चढ़े हुए थे. लेकिन एनडीटीवी पर सन्नाटा था. मैंने ऑफिस फोन किया और अभिरंजन से बात की. उन्होंने बताया कि प्रकाश की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए अभी खबर हटाई गई है. यह डर है कि कहीं आक्रामक होने से प्रकाश की जान संकट में न पड़ जाए. कुछ घंटे तक चले हंगामे के बाद मीडिया के दबाव में नीतीश सरकार हरकत में आयी. प्रकाश को छुड़ाया गया. अनंत सिंह पर मुकदमा हुआ. गिरफ्तारी हुई. मुझे लगा कि प्रकाश के बाहर आने के बाद एनडीटीवी इस खबर पर चढ़ेगा. थोड़ी देर के लिए ऐसा हुआ भी. लेकिन कुछ ही देर बाद खबर फिर हटा दी गई. उसके बाद बस औपचारिकता पूरी की गई. कुछ दिन बाद समझौता हो गया. यहां कुछ लोग कह सकते हैं कि ऐसा प्रकाश की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए किया गया. लेकिन इसका दूसरा पहलू यह है कि जब संस्थान अपने पत्रकार के पक्ष में खड़े होने का हौसला नहीं दिखाए और सरकार गुंडे के पक्ष में खड़ी हो तो फिर पत्रकार के पास समझौते के अलावा विकल्प ही क्या बचता है?
आखिर ऐसा क्यों होता था कि एनडीटीवी अपनी खबर और रिपोर्टर के पक्ष में खड़ा क्यों नहीं होता? जब एक खबर गिराई जाती है तो उसके क्या मायने होते हैं? जब कोई संस्थान अपने पत्रकार की साख और सुरक्षा से समझौता करता है तो क्या उसका असर सिर्फ उस पत्रकार तक सीमित रहता है या फिर पूरे इकोसिस्टम पर पड़ता है? इन सवालों का जवाब जानने के लिए आपको मीडिया संस्थान के ढांचे पर गौर करना होगा. किसी भी मीडिया संस्थान के दो मुख्य अंग होते हैं. इनपुट और आउटपुट. इनपुट में असाइनमेंट डेस्क, ब्यूरो और रिपोर्टर शामिल होते हैं. आउटपुट में संपादकीय टीम (डेस्क), प्रोडक्शन और तमाम अन्य तकनीकी टीमें शामिल होती हैं. इनपुट से खबर आती है और आउटपुट में तैनात मीडियाकर्मी खबर को सजाकर, संवारकर अंतिम रूप देते हैं.
मतलब खबर रिपोर्टर की तभी तक होती है जब तक वह उसे दफ्तर नहीं भेजता. दफ्तर भेजने के बाद खबर पर अधिकार डेस्क का होता है. अगर डेस्क पर बैठे लोग खबर के साथ न्याय नहीं कर सके तो यह उनकी कमजोरी है. इसलिए संपादकीय टीम का, डेस्क का मजबूत और स्वतंत्र रहना बेहद जरूरी है. एनडीटीवी इंडिया में 2005 के आखिर तक डेस्क बहुत मजबूत था और काफी हद तक स्वतंत्र भी. रिपोर्टर भी खबरों के लिए संघर्ष करते थे. दूसरे चैनलों के साथ प्रतिस्पर्धा करते थे. डेस्क खबरों को लेकर रिपोर्टर के साथ रहता था. वो खबरों पर बहुत तेजी से रिएक्ट करता था. किसी बड़ी खबर की व्यापकता को सहेजते हुए आक्रामक तरीके से काम करता था. दिबांग की अगुवाई में हम लोग एनडीटीवी को नंबर दो की पोजिशन तक ले गए थे. टॉप थ्री में लंबे समय तक टिके हुए थे. लेकिन बाद में डॉ प्रणॉय रॉय और राधिका रॉय ने रिपोर्टर और डेस्क दोनों को कमजोर कर दिया. उनकी स्वतंत्र चेतना नष्ट कर दी. डॉ रॉय के आदेश पर खबरें रोकी जाने लगीं. मैनिपुलेट की जाने लगीं. खबरों से समझौता किया जाने लगा. प्रोग्रामिंग बदल दी गई. चैनल को बेहद नीरस और रूखा बना दिया गया. और यह सब व्यापक रणनीति के तहत किया गया. सोची-समझी योजना के तहत किया गया. दरअसल, एनडीटीवी के मालिकों को स्वतंत्र चेतना वाले मीडियाकर्मी खटकने लगे थे. ऐसे मीडियाकर्मी खबरों के पक्ष में खड़े होते थे. रजिस्ट करते थे. ऐसे मीडियाकर्मी उन्हें अपने इकोसिस्टम के लिए खतरनाक लगते थे.…
(जारी)
(आखिर आजाद सोच वाले मीडियाकर्मी डॉ प्रणय रॉय और राधिका रॉय को खतरनाक क्यों लगते थे? खबरों और पत्रकारिता से समझौता करने के क्रम में और एजेंडा चलाने के क्रम में एनडीटीवी ने क्यों और कैसे नैतिकता का ढोल पीटना शुरू किया? इन सवालों पर विस्तार से चर्चा होगी और उस क्रम में कुछ ऐसे किस्सों का जिक्र होगा जिनसे एनडीटीवी की सियासत और एनडीटीवी के पाखंड – दोनों से पर्दा उठेगा.)
लेखक समरेंद्र सिंह एनडीटीवी में काम कर चुके हैं.
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हर्ष राय
June 3, 2019 at 10:32 pm
सर रविश कुमार के साथ आप का कैसा अनुभव रहा है।
राजीव प्रताप तिवारी
June 3, 2019 at 10:40 pm
मैं एक इंश्योरेंस इन्वेस्टिगेटर हूं। खबरों से मेरा कोई विशेष रिश्ता तो नहीं किन्तु खबरों को सुनना और राजनीति पर नज़र रखना मेरा शौक है। चूंकि अन्वेषक हूँ इसलिए खबर के साथ विश्लेषण स्वतः ही करने लग जाता हूँ। आपकी शैली मर नयापन है, वह नयापन जो नई तलवार में होता है, धारदार! मैं भी अपनी रिपोर्ट में ऐसी ही धार रखता था किंतु बाद में पता चला कि उस धार को कइयों की गर्दन पर रख कर कंपनी व्यवसाय अर्जित करती थी, हालांकि उसमे अधिकारियों का निजी स्वार्थ नहीं होता था मगर रिपोर्ट की हत्या हो जाती थी। फिर मैंने तरकीबें लगानी शुरू कर दीं। तीस साल की उम्र में काफी अक्ल आ गई तो रिपोर्ट को इस तरह बनाने लगा कि रिपोर्ट दबाई तो अधिकारी भी नपेंगे। तरकीब काम कर गई। सो सार यह है कि अपनी खबर को इस तरह लाइये की उसके आसपास एक कवच हो कि अगर गिराई तो संस्थान पर या संपादक पर भी चोट पहुंचे। बाकी स्टोरी तो आपकी शानदार है ही। एनडीटीवी फिर भी आज दूसरों की अपेक्षा ज्यादा भरोसे वाला तो है ही या कह सकते हैं कि अंधों के बीच मे अब वही काना बचा है।
Brajesh
June 4, 2019 at 7:57 am
Right
Madan Tiwary
June 5, 2019 at 6:37 am
धमकी तो मुझे भी कल मिली है, अनन्त का चमचा है, उसको गुरुदेव कहता है, अनन्त को अपराधी लिखने के कारण उसे बुरा लगा है,कहता है कि बेउर जेल में एक कमरा रिजर्व रहता है, हमने कहा दिया कि अपने बाप अनन्त को कह दे ,अगर लग गया तो अपराध से कमाई सारी दौलत हाथ सेवनिकल जाएगी