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मालिक ने संपादक से कहा- कम खर्चे में चैनल चलाना है!

लीचड़ और बनिया टाइप मालिक ने संपादक से कहा- कम खर्चे में चैनल चलाना है।

लाखों पाने वाले संपादक ने कहा-हमारे पास इसका एक प्लान है।

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मालिक-क्या?

संपादक- आउटपुट में कम वेतन पर लोग रख लेते हैं।

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मालिक-ब्यूरो?

संपादक-उसकी जरूरत नहीं है। एजेंसी है, इंटरनेट है।

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मालिक- पूरा हिसाब बताएं।

संपादक- 20 हजार के 30 लोग।

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मालिक-सीनियर लोग नहीं चाहिये?

संपादक-नहीं।

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साल भर बीत गये। ना चैनल की टीआरपी बढी, ना कंटेंट में सुधार आया और ना ही बिजनेस बढ़ा। स्क्रीन पर गलतियां और रिपीट देख-देखकर मालिक ने झन्नाकर संपादक को बुलाया और कहा-फलां चैनल अपने आउटपुट पर हर माह केवल हमसे कम खर्च करता है, लेकिन उसकी टीआरपी हमसे ज्यादा कैसे है. उसका कंटेंट और वैरायिटी हमसे बेहतर कैसे है?

संपादक को कोई जवाब नहीं सूझा। वह बगलें झांकने लगा।

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मालिक ने दूसरे चैनल का स्टेटस दिखाया और कहा-मैंने आपसे पहले ही पूछा था क्या सीनियर नहीं चाहिये? आपने ही मना कर दिया था।

संपादक बोले-दरअसल सर, मैने सोचा कम सैलरी को सुनकर आप खुश होंगे। सीनियर ज्यादा पैसे मांगते हैं। एक सीनियर के बदले में चार जूनियर मिल जाये, हमने यह सोचा था।

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मालिक- तो आपने यह क्यों नहीं सोचा कि आपके लाखों रुपये के बदले में हमें चार सीनियर एडिटोरियल के मिल सकते थे और चारों आपसे बेहतर परफॉर्म करके दिखा सकते थे। आप करते क्या हैं? केवल मीटिंग के अलावा। इतनी गलतियां जाती हैं-इसे ठीक क्यों नहीं करते? आपका क्या काम क्या है?

संपादक- सर, बच्चे लोग हैं गलतियां कर जाते हैं।

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मालिक-इसीलिए तो सीनियर भी चाहिये, ताकि उनकी गलतियों को ठीक करें।

बनिया मालिक ने संपादक के सामने दूसरे चैनल का हिसाब रख दिया, जिसे संपादक महोदय ने पढ़ना शुरू किया।

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हिसाब के मुताबिक उस चैनल में संपादक की सैलरी थी 1 लाख। सीनियर्स की सैलरी थी 40 से 50 हजार और फ्रैशर्स की सैलरी थी 15 से 25 हजार।

लीचड़ मालिक प्रवचन के मूड में आ गया- हर मालिक चाहता है कम खर्च में चैनल चले लेकिन उस खर्च का वितरण कैसे हो ये तो संपादक को तय करना चाहिये। ये तो नहीं होगा कि आप लाखों लें और अपने अधीन 20-20 हजार में काम करने वालों की फौज खड़ी कर लें। यह चालाकी हमारे बिजनेस के साथ भी धोखा है।

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इसके बाद लीचड़ मालिक ने अपने यहां के दसवें संपादक की छुट्टी कर दी। दो साल तक वे यहां रहे थे। मालिक फिर एक नए संपादक की तलाश कर रहा है। मालिक को चैनल से फौरन लाभ चाहिए।

यह एक काल्पनिक कहानी है जो ज्यादातर चैनल का सच है। चिरकुट व बनिया मालिकों की अदूरदर्शी नीति के चलते उनके गाजे बाजे के साथ खुले मीडिया संस्थान फ्लॉप होने लगते हैं। अफसोस कि यही नजीर चलन में भी है।

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नये संस्थानो में चार अधिकारी बड़ी सैलरी पर ज्वाइन होते हैं, बाकी इंटर्नशिप के लिए विज्ञापन निकालते है। जूनियर्स की फौज बन जाती है। न भाषा, ना प्रस्तुति ना सामान्य ज्ञान-बस अखबारों की साइट से खबरें कॉपी की और उसका वीओ चिपका दिये। बस बन गया शो। वेब पोर्टलों पर देखिये-खबरों की कॉपी और पेस्ट का कल्चर कितना हावी है। बिना कंटेंट और क्वालिटी में ठहराव के मेंटेन से जब प्रोजे्क्ट फेल होता है-तो चिरकुट मालिक से लेकर संपादक तक गला फाड़ते हैं कि हमने इतने करोड़ लगाये,सब पानी में डूब गया। लेकिन क्यों डूबा इसका मूल्यांकन व समीक्षा नहीं करते। इनमें ज्यादातर ऐसे ही चिरकुट मालिक व संपादक होते हैं जो केवल अपने लाभ के बारे में सोचते हैं, जन सरोकारी पत्रकारिता के बारे में नहीं।

संजीव श्रीवास्तव
जर्नलिस्ट

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3 Comments

3 Comments

  1. Shashi kumar sharma

    March 6, 2020 at 8:23 pm

    Excellent Behind Khaber ke pechhe khaber

  2. Ashutosh Gupta

    March 8, 2020 at 8:07 am

    महोदय, जब आप बनिया टाईप शब्द का इस्तेमाल करते है ….तो ये जातिसूचक नही होता …?? क्या सिर्फ दलित शब्द ही जातिसूचक होता है …??.. वैश्य समाज भी ..सर्व सनातन समाज का ही एक हिस्सा है साहब….मालिक किसी भी जाति का हो सकता है…..सुब्रत राय सहारा ….आपकी जाति के है…जो कि चैनल भी चलाते थे…..तो आपने यहां ….लाला टाईप ….या कायस्थ टाईप शब्द का इस्तेमाल क्यों नही किया …? क्या मुसलमान चैनल के मालिक नही होते …?
    – व्यापार कोई भी कर सकता है…..किसी भी जाति का…….निवेदन है कि…सनातन समाज को जातियों में बांटने के षडयंत्र और सोच से बाहर निकले….
    – अंग्रेज व्यापार करने भारत आये थे….उनसे बड़े धूर्त तो कोई नही था…..तो फिर अंग्रेज टाईप के क्यों नही लिखा करते …?

  3. B. Himanshu

    March 14, 2020 at 3:02 am

    काल्पनिक तरीके से एकदम सटीक और सही आंकलन किए हो “मीडिया की व्यवसाय व्यवस्था का”, कुछ पुराने मीडिया संस्थान जो कि “खबर, पाठक और दर्शकों” को मद्देनज़र रख के कार्य करते है ऐसे संस्थानों को अगर इस दायरे से बाहर रखे, तो ज़्यादातर मीडिया संस्थानों का हाल यही है.

    कहा जाता है कि, “ONCE UPON A TIME MEDIA WAS A PROFESSION OF MISSIONNARIES, BUT NOW MEDIA HAS BECOME A PROFESSION OF MERCENARIES.”

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