न्यूज चैनलों ने अपने लाइव डिबेट शो के दौरान ‘रंगारंग कार्यक्रम’ के तहत मारपीट, तोड़फोड़, गाली-ग्लौज, मतरिया-बहिनिया, गिलास फेकाई, थूथून कुंचाई का जो नया सेगमेंट शुरू किया है, इसने इंटरटेनमेंट की दुनिया में क्रांति ला दी है. इस ‘रंगारंग कार्यक्रम’ के चलते चैनलों के कार्यालय के सामने पकौड़ी तलने और चाय बेचने के अलावा कुछ दूसरे तरह के रोजगार की संभावनाएं भी जागृत हुई हैं, जिसके लिये यह देश न्यूज चैनलों और उनके डिबेट शो का आभारी हो गया है, कर्जदार बन गया है.
विजय भइया ने तो उम्मीद जताई है कि अगर न्यूज चैनल डिबेट कार्यक्रम केवल प्राइम टाइम में कराने की बजाय भिंसहरे से शुरू कर दें और कई राउंड करायें तो, जिन बेरोजगार युवाओं को सरकार रोजगार नहीं दे पाई है, उन बेरोजगार युवाओं को चैनलों के ‘रंगारंग कार्यक्रम’ के जरिये रोजगार मिल सकता है. न्यूज चैनलों के इस साहसिक प्रयास से ना केवल युवाओं को रोजगार के अवसर उपलब्ध होंगे, बल्कि पूरे देश का मनोरंजन भी हो सकता है, जिसके लिये देश आज भी इंटरटेनमेंट चैनलों पर निर्भर है.
दरअसल, ‘रंगारंग कार्यक्रम’ के बाद आपको इंटरटेनमेंट के लिए अब ‘कामेडी शो’, ‘कामेडी सर्कस’ और ‘फलाने शर्मा का नाइट’ देखकर टाइट होने की अब कौनो जरूरत नहीं है. अब कामेडी, रोमांस, एक्शन, ड्रामा, इमोशन और मोशन के लिए इंटरटेनमेंट चैनलों की तरफ ताकने की मजबूरी भी खत्म होने के कगार पर पहुंच चुकी है. न्यूज चैनल जिस तरीके का मारधाड़ से भरपूर इंटरटेनमेंट डिबेट लेकर आ रहे हैं, वैसा लाइव मनोरंजन प्रस्तुत करना इंटरटेनमेंट चैनलों के बूते की बात नहीं रह गई है.
न्यूज चैनलों के कर्म देखकर इंटरटेनमेंट इंडस्ट्री हिला हुआ है. एक्टर, डाइरेक्टर, प्रोड्यूसर सब टेंशनाए हुए हैं. हंफरी छूट रही है. मैं खुद न्यूज चैनलों का उस दौर से प्रशंसक हूं, जब प्रिंस के बोरवेल में गिर जाने के बाद कई रिपोर्टर गड्ढे में गिरकर, लेटकर, बैठकर और सूतकर रिपोर्टिंग किया करते थे. ये सूतियापा वाली रिपोर्टिंग दिल को इतना छूती थी, कि जुबान से बनारसीपन बेकाबू होकर जब तब टपक जाता था. घुले हुए पान की तरह. बाढ़ के पानी में घुसकर टीवी पर बोलने वाले रिपोर्टरों और चैनलों ने दिल ही जीत लिया था मेरा.
बस एक इच्छा अधूरी रह गई है कि अगजनी के दौरान आग में घुसकर रिपोर्टिंग करते किसी रिपोर्टर को देख लूं, फिर तो गंगा नहान हो जाएगा मेरा. इस जनम में न्यूज चैनल देखने का पाप भी कट जाए शायद! सीमा पर गोलीबारी के दौरान जमीन पर केहुनी के बल पर चलने वाले रिपोर्टरों ने जब से धमाल मचाया है तब से मेरे पिताजी को भी भरोसा हो गया है कि इन न्यूज चैनलों और उनके केहुनीबाज रिपोर्टरों के रहते पाकिस्तान, अमेरिका इस देश का कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते हैं!
मेरा लौंडा भी मानने लगा है कि केहुनीबाज रिपोर्टरों और चैनलों के रहते पाकिस्तान से भिड़ने के लिए सेना की भी कोई जरूरत नहीं है! जीरो ग्राउंड से यह खुदे पाकिस्तान को केहुनिया के जवाब दे देंगे. जब रिपोर्टर और चैनल खोजी खबरों में ब्रेक्रिंग के तौर पर यह बताते हैं कि गोपेंद्रजी ने आज रात को साग में थोड़ा सा नमक लिया, चावल पूरा पका नहीं था, रायते में पानी मिलाकर सूता, आटे में चावल के कण मिले, नीबू में रस नहीं था, तब लगता है कि वाह क्या रिपोर्टर हैं और कितनी खोजी रिपोर्टिंग है! मन फिर इनके किचेन वाले सूत्रों को बेलन सत्कार मय रिपोर्टर करने को करता है.
खैर, अब डिबेट शो के ‘रंगारंग कार्यक्रम’ में चिल्ल-पों के बाद न्यूज चैनलों पर पार्टी प्रवक्ताओं, मेहमानों में धक्का-मुक्की, तोरी माई की तोरी बहिन की सफलता के बाद मारपीट और गिलास तोड़ने का जो नया पुट डाला है, इसने डिबेट की तस्वीर बदल दी है. न्यूज इंडस्ट्री के इस क्रांतिकारी इनोवेशन से बॉलीवुड भी हिल गया है कि कहीं न्यूज चैनल उनकी दुकान ना बंद करा दें. न्यूज चैनल बस लाइव डिबेट के ‘रंगारंग कार्यक्रम’ में थोड़ी और तब्दीली करते हुए हॉकीबाजी, चाकूबाजी, पथराव, छिनैती, लूट और हत्या का प्रयास भी शामिल करा सकें तो यह टीवी पत्रकारिता के लिए मील का पत्थर साबित हो सकता है.
दरअसल, दर्शक मारपीट और धक्का-मुक्की से कुछ अलग और ज्यादा देखना चाहता है. विजय भइया कहते हैं कि न्यूज चैनलों में डिबेट में चाकूबाजी, पथराव, जानलेवा हमला को शामिल कर लिया जाए तो पकौड़ी के अलावा किराये पर पथराव आदि का सामान देने का रोजगार भी उपलब्ध हो सकता है. न्यूज चैनल सामने पकौड़ी-चाय के साथ डिबेट में जाने वाले मेहमानों, प्रवक्ताओं को कम किराये पर हॉकी, लाठी, पत्थर, चाकू उपलब्ध करा सकता है ताकि डिबेट में इसका जोरदार ढंग से इस्तेमाल हो सके. इससे दर्शकों का मनोरंजन होने के साथ टीआरपी भी बढ़ने की गुंजाइश बनी रहेगी.
न्यूज चैनलों के ‘रंगारंग कार्यक्रम’ पहलवान और बाउंसर टाइपों के लिए भी रोजगार का मौका बन सकते हैं. किसी भी पार्टी का डिबेटबाज चैनल के डिबेट में जाने से पहले अपनी सुरक्षा के मद्देनजर या फिर दूसरे को कूटने की मंशा या फिर पुराने डिबेट में हारने की खुन्नस निकालने के लिये स्टूडियो में किराये पर दो-चार बाडीगार्ड, बाउंसर आदि को ले जा सकता है. आपातकालीन स्थिति में ये किराये के बाउंसर टेम्परोरी मालिक की सुरक्षा के अलावा डिबेट में उसकी तरफ से मारपीट करने, पथराव करने जैसी रोमांचक घटना में भी शामिल हो सकता है.
चैनल भी कुछ लोगों को इसलिए किराये पर रख सकता है कि डिबेट के दौरान न्यूज चैनल में कार्यरत किसी पार्टी के ‘एंकर’ पर हमला हो जाये या पथराव हो जाए तो एंकर को बचाया जा सके. इन सारे घटनाओं को लाइव दिखाने के बावजूद चैनल यह कहकर मुक्ति पा सकता है कि हम इसका समर्थन नहीं करते हैं. यह मेहमानों की नाफरमानी है. दरअसल, न्यूज चैनलों द्वारा पैदा किये गये ऐसे रोजगार के बाद सरकार पर भी नौकरी उपलबध कराने का दबाव कम होगा. न्यूज चैनल ऐसा करने में सफल रहे तो वे मीडिया इंडस्ट्री का भला करने के साथ देश पर भी एहसान करेंगे, ऐसा चमन लाल चंडू भी मानते हैं.
इस व्यंग्य के लेखक अनिल सिंह दिल्ली में लंबे समय तक टीवी और वेब पत्रकारिता करने के बाद इन दिनों लखनऊ में ‘दृष्टांत’ मैग्जीन में वरिष्ठ पत्रकार के रूप में कार्यरत हैं. उनसे संपर्क 09451587800 या [email protected] के जरिए कर सकते हैं.
Vijay Kumar Pandey
January 16, 2019 at 7:03 pm
Waah , adbhoot hai ye lekh
Aag me jl kar koi reporting kar de maja aa jaye
Hahhahahahahhaha
Vijay Kumar Pandey
January 16, 2019 at 7:04 pm
adbhoot hai ye lekh
Aag me jl kar koi reporting kar de maja aa jaye
Hahhahahahahhaha
Shweta pandey
February 4, 2019 at 6:13 pm
अद्भुत अतुलनीय Writing… रोज़गार की संभावना तलाशने के लिए आभार अनिल…. गज़ब लिखे ☺️