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बस यही गुनाह बार-बार करती हूँ, नौकरी से ज्यादा उसूलों से प्यार करती हूँ

Nidhi Khare : पत्रकारिता … उसूल, सिद्धांत, संस्कार और मैं। बस यही गुनाह बार – बार करती हूँ, नौकरी से ज्यादा उसूलों से प्यार करती हूँ। सिद्धांत , उसूल , संस्कार …शायद आज के समय में बहुत भारी भरकम शब्द हैं …पर इनकी जड़ें तो अब भी कायम है. सोचो अगर ये तीन शब्द लोगों ने अपनी ज़िंदगी में न अपनाये होते तो समाज की क्या तस्वीर होती? क्या होता अगर गांधी जी अहिंसा के सिद्धांत पर न चलते. क्या होता अगर भगत सिंह ने देश भक्ति और निष्ठां का उसूल न अपनाया होता. क्या होता अगर रानी लक्ष्मीबाई के अंदर देश पर मर मिटने के संस्कार न होते. क्या इतिहास उन्हें याद रखता? क्या उन्हें प्रेरणास्त्रोत माना जाता?

इक्कीसवी सदी में उसूल , सिद्धांत और संस्कारों के तेजी से हो रहे पतन में इन्हें ज़िंदा रखने की जिम्मेदारी किसकी है …? आखिर ये जिम्मेदारी हमे ही निभानी है ना। जो संस्कार हमारे पुर्वजों ने सहेज के रखे हैं उन्हें हमे ही बनाये रखना है। …ऐसे ही कुछ संस्कारों को मैं भी शिद्दत से निभाने की कोशिश कर रही हूं …कभी -कभी समझ नहीं आता इन संस्कारों की जिम्मेदारी मुझे समाज में बनाये रख रही है या पीछे छोड़ रही है ,…पर ईमानदारी से अपनी जिम्मेदारी निभाना ही मेरा धर्म है लेकिन कई मौके ऐसे आये जब इस धर्म की कीमत मुझे चुकानी पड़ी है। …

जब मैंने अपना करियर पत्रकारिता में बनाने का फैसला किया तब कई शुभचिन्तिको ने मुझे समझाया था, मुश्किल क्षेत्र है, खासकर की लड़कियों के लिए, सोच लो … ऐसी तमाम राय मिलने के बाद भी मैंने इस क्षेत्र में आने का फैसला लिया. बचपन से लड़का – लड़की में फर्क ही नहीं देखा था तो ये वजह तो फ़िज़ूल ही लगी मुझे…और मैं पत्रकारिता में आने के अपने निर्णय पर टिकी रही…हालाँकि मुझे राजनीति में खास रूचि या जानकारी नहीं थी और शायद आज भी नहीं है .. मैं सामाजिक और अपराध के मुद्दों को लोगों के सामने लाने की इच्छा रखती हूं.

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मैंने पत्रकारिता इसलिए नहीं चुनी कि मैं अपार प्रतिभा की धनी हूँ और अपना नाम बुलंदियों पर पहुचना चाहती हूँ. मैंने पत्रकारिता इसलिए चुनी क्यूंकि मैं आम लोगो के बीच रहकर आम लोगो के लिए कुछ करना चाहती हूँ. मैं नाम कामना चाहती हूँ ताकि जब किसी को भी मदद की जरुरत हो तो उनके ज़हन में ” निधि ” नाम जरूर आये।

खैर ये तो हुई सपने की बात, हकीकत इससे परे है. अपने कन्धों पर उसूल, संस्कार का बस्ता टांग के घूमती हूँ तो नौकरी इतनी आसानी से कैसे मिल सकती थी। बचपन से लगता था कि मेरा ऐसा होना मुझे और लोगों से अलग बनाता है. सच में ही बनाता है और लोगों के मुकाबले मुझे ज्यादा मुंह की खानी पड़ी. सारे अनुभव साझा करूं तो उपन्यास लिखी जा सकती है।

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एक नामी चैनल के लिए कई महीनो तक फ्री की सेवा दी मैंने. पूरी ईमानदारी और निष्ठां से. वहां के लोग भी इस बात के गवाह है… पर जब इस शहर में अपने पैर ज़माने के लिए मुझे पैसों की जरुरत पड़ी और मैंने इस फ्री सेवा को मेहनताने में बदलना चाहा तो मुझे साफ़ शब्दों में ना सुनने को मिला. पर उस संस्था का दिल इतना बड़ा था कि मुझे कहा गया की मैं अच्छा काम कर रही हूँ और जब तक चाहूँ फ्री की सेवा इस चैनल को दे सकती हूँ. तब शायद उन्हें नहीं पता रहा होगा कि दूसरे शहर में अकेली रह रही लड़की को रहने खाने के लिए कमाई की भी जरुरत पड़ती होगी. उन्हें याद था या नहीं पर उस वक्त मुझे चुनावों में सुबह पांच बजे ऑफिस जाना, स्टिंग ऑपरेशन करना…..सब याद आ रहा था. खैर मेरे संस्कारों ने मुझे उनके सामने अपने हक़ के लिए गिड़गिड़ाने नहीं दिया ना ही झगड़ा करके हासिल करने. मैंने चुपचाप उस संस्था को अलविदा कह दिया।

दूसरे छोटे चैनल मैं काम मिला तब पता चला पिछले चैनल में तो बस मेरा हक़ छीना गया था यहाँ तो नजारा ही कुछ और था … यहाँ भी मेरे उसूलों ने मुझे मेरे आत्मसम्मान के साथ समझौता करने नहीं दिया.औ र ये नौकरी भी गयी. उसके बाद कई जगह तो बात इसलिए नहीं बनी क्यूंकि मैं अनऑफिसयल मीटिंग के लिए नहीं गई.

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वक्त के साथ साथ अनुभव भी बढ़ते गए. कई लोगो ने समझाया –तुम बोलती कम हो, जरा लोगों से मेल–जोल बढ़ाओ, कॉन्टेक्ट बनाओ तो नौकरी मिलेगी… अरे भई ! कॉन्टेक्ट के नाम पर लोगों की , सीनीयर की इज्जत करना आता है, वही कर सकती हूं. मुझे लगता था प्रतिभा और क्षमताओं के4 आधार पर नोकरी मिलती है।

इस अनोखे सफर में कुछ सच्चे और अच्छे लोगों, सीनियर्स, शिक्षकों का साथ भी मिला जिन्होंने बुरे से बुरे हालात में मुझे लड़ते रहने का हौसला दिया , और मुझे पत्रिकारिता से नफरत करने से बचाये रखा … जिनकी मैं दिल से इज्जत करती हूँ , इस चकाचौंध भरे क्षेत्र में अँधेरे से लड़कर आगे बढ़ना पड़ता है , हर अनुभव से सीखती हूँ , … गिरती हूँ … संभलती हूँ ,,, फिर चलती हूँ… कितने भी ऊंचे औहदे पर बैठा व्यक्ति हमारा हक़ छीन सकता है ,, हमारा हुनर नहीं ,,,,मेरी कलम मेरी पर्याय है ,,जो मैं नहीं कह पाती वो कलम बोल देती है ,,, मैं लिखती रहूंगी ,,, मुझे मंच मत दो ,, मैं अपना मंच खुद बनाकर लिखूंगी। … फिलहाल मैं एक चैनल मैं कार्यरत हूँ …लिख रही हूँ वो मुद्दे जो मैं लिखना चाहती हूँ , अपने उसूल , सिद्धांतों और संस्कारों के साथ ,,, ये जड़ें मुझमे हमेशा ज़िंदा रहेंगी ,,, पतित होते समाज में जब अपने माँ – बाप की आँखों में मुझमे उनके दिए संस्कारों को जिन्दा रखने की उम्मीद देखती हूँ ,,,सुकून मिलता है ,, किसी को हो न हो मुझे मेरे परिवार के दिए संस्कारों पर गर्व है।

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लेखिका निधि खरे युवा टीवी पत्रकार हैं.

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4 Comments

4 Comments

  1. dayal chand yadav

    April 22, 2020 at 4:42 pm

    आपके हौसलों को सलाम

    • nidhi khare

      April 24, 2020 at 3:18 pm

      शुक्रिया

  2. विजय सिंह

    April 22, 2020 at 5:47 pm

    उसूलों की कीमत हमेशा ही चुकानी पड़ी है ,पत्रकारिता तो इसका बिलकुल अपवाद नहीं है ।
    जहाँ आपने नियम कानून उसूलों की बात की ,बस समझिये उस संस्थान का आपसे मोह भांग हो गया ।
    और संस्थान ही क्यों , सामाजिक ,व्यावसायिक ताना बाना भी उसूलों से परहेज ही करता दिखा ।
    फिर भी अपनी गरिमा ,आदर्श ,मापदंड ,उसूल बनाये रखिये क्योंकि आज भी कम से कम पत्रकारिता में तो यही सबसे बड़ी पूँजी है किसी “पत्रकार”के लिए ।
    शुभकामनायें ।।

    • Nidhi khare

      April 24, 2020 at 3:18 pm

      शुक्रिया

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