एक एंकर है। उसके पापा की तबीयत खराब होती है। वो परेशान हो जाता है। भागा-भागा घर पहुंचता है। जिस पिता ने उसको इस काबिल बनाया, उसे बचाने के लिए आखिरी दम तक कोशिश करता है। लेकिन अफसोस उसके पिता नहीं बचते। वो दफ्तर में इसकी सूचना देता है, सिर्फ इस वजह से ताकि उसे घरवालों के साथ रहने के लिए कुछ समय मिल जाए। लेकिन उसे पता नहीं था, इस दुखद वक्त में भी कुछ निर्दयी लोग उसके साथ नहीं खड़े होंगे। एक महीने के बाद जब वो एंकर ऑफिस पहुंचा, तो भरी मीटिंग में संपादक ने सख्त लहजे में कहा- ‘या तो मां-बाप को देख लो, या एंकरिंग कर लो’। ये शब्द थे ‘ज़ी उत्तर प्रदेश / उत्तराखंड’ और ‘जी मध्यप्रदेश / छत्तीसगढ़’ के संपादक दिलीप तिवारी के। ये वो संपादक हैं, जिनकी चर्चा पूरे संस्था में होती है, काम को छोड़कर हर चीज के बारे में।
दिलीप तिवारी के बारे में वैसे तो सब जानते हैं, जो नहीं जानते, वो भी समझ लें। इन महोदय को पहले संस्थान ने मध्यप्रदेश/छत्तीसगढ़ की जिम्मेदारी दी। बाद में जुगाड़ भिड़ा कर इन्होंने उत्तरप्रदेश/ उत्तराखंड भी अपने नाम करा लिया। ज़ी यूपी/यूके को लॉन्च हुए सवा साल बीतने जा रहा है, लेकिन चैनल कभी रफ्तार ही नहीं पकड़ पाया। मध्यप्रदेश/छत्तीसगढ़ भी जिस तेजी से पहले चलता था, वैसा अब नहीं रहा। लेकिन संस्थान फिर भी आंख पर पट्टी बांधकर बैठा हुआ है। दरअसल इसके पीछे भी एक कारण है। संस्थान में सब मिल बांटकर खाने वाले लोग बैठे हैं। दिलीप तिवारी का सिर्फ एक ही फंडा है, पैसा कमाना। खुद भी खाना, दूसरों को भी खिलाना। चार राज्य दिलीप तिवारी के कार्यक्षेत्र में आते हैं और हर तीन महीने में चारों राज्यों की राजधानी में कनक्लेव टाइप का ताम-झाम तैयार किया जाता है। वहां कुछ लोगों को दिलीप तिवारी अपने साथ ले जाते हैं, और दो-तीन घंटे का कार्यक्रम कर मुख्यमंत्री से कुछ व्यापारियों को सम्मानित करवा देते हैं। जो पैसा बनना होता है, वो इस कार्यक्रम से बन जाता है। सब झोला उठाते हैं और अपने-अपने घर। किसी को कुछ पता नहीं चलता। जिसको पता चलता है, वो दिलीप तिवारी का हिस्सेदार होता है। ये नाटक अभी भी चल रहा है। पुलवामा हमले में चालीस जवान शहीद हुए। लेकिन दिलीप तिवारी को इसमें भी पैसा कमाने का मौका मिल गया। चारों राज्यों में ‘एक शाम, शहीदों के नाम’ से कार्यक्रम हुआ। और जो इस कार्यक्रम में होता है, वो अब तक आप समझ ही गए होंगे।
वैसे तो एक बड़े संस्थान के दो रीजनल चैनल की जिम्मेदारी दिलीप तिवारी के पास है, लेकिन दिलीप तिवारी को ख़बरों से कोई मतलब ही नहीं रहता। चैनल में कभी कोई एडिटोरियल मीटिंग नहीं होती, कोई दिशा-निर्देश नहीं दिये जाते, कोई प्लानिंग नहीं होती। बस कानाफूसी करने वालों को तरजीह दी जाती है। जिसका नतीजा है, चैनल कभी उठ ही नहीं पाया। जो दिलीप तिवारी से ज्यादा चुगली करे, उसे उतना प्रमोशन। दिलीप तिवारी को इससे कोई मतलब नहीं रहता कि कौन कैसा काम कर रहा है। उन्हें सिर्फ इस बात से मतलब रहता है कि कौन किसके साथ घूम रहा है, कौन क्या खा रहा है, किसने कैसे जूते पहने हैं, किसकी बाल नहीं कटे हैं, कौन बढ़िया कपड़े पहनता है। बाकायदा इसके लिए कुछ चिंटू(प्रभात) टाइप के लोग ऑफिस में हैं, जो दिलीप तिवारी के दफ्तर आते ही केबिन में घुस जाते हैं और एक सांस में पूरी चुगली कर देते हैं।
दिलीप तिवारी को जी मीडिया से जुड़े करीब दो दशक हो गए हैं, उन्हें पता है कि कहां लूप होल है और कहां किसे मैनेज करना है। जी मीडिया के शीर्ष पर बैठे लोग भी इस नाकाबिल संपादक को पसंद नहीं करते। चाहे मैनेजमेंट हो, या एचआर। लेकिन ऊपर तक पहुंच होने के चलते कोई कुछ कर नहीं पाता। दिलीप तिवारी का सपना है एक दिन सुधीर चौधरी को हटाकर वो जी न्यूज के एडिटर-इन-चीफ बनें। ये बात वो अपने खास लोगों से कहते रहते हैं। कहने का मतलब ये है कि सुधीर चौधरी की नौकरी भी खतरे में दिखाई दे रही है। क्योंकि दिलीप तिवारी कब क्या खेल कर दें, किसी को नहीं पता। सुधीर चौधरी को भी ये बात हल्के में नहीं लेनी चाहिये। जिस टीम को दिलीप तिवारी लीड करते हैं, उसमें पांच कर्मचारी भी उनके समर्थन में नहीं खड़ा होगा। क्योंकि सबको पता है कि दिलीप तिवारी का दिल कैसा है। जी मीडिया के पास अभी भी वक्त है, वो ऐसे संपादक के खिलाफ अंदरूनी जांच करे, और ऐसे इंसान को संस्थान से बेदखल करे। क्योंकि एक इंसान की वजह से संस्थान पर दाग लगना अच्छी बात नहीं होती। आखिरी में दिलीप तिवारी से एक बात- अपने आपको सुधारिये दिलीप जी, बहुत गंदे इंसान हैं आप।
जी ग्रुप के एक पत्रकार द्वारा भेजे गए पत्र पर आधारित.
aaaaaa
March 9, 2019 at 2:39 pm
इस ख़बर को पढ़ा… पढ़ने के बाद ये जो संकेत मिल रहे हैं.. खबर में कुछ बातें मुझसे (लेखक) मेल खाती हैं… मतलब ये कि मैने भी ज़ी एमपीसीजी चैनल से स्विच किया है… और मेरे पूज्य पिताजी का देहांत भी हुआ है… इससे लगभग ये संभावना नज़र आती है कि कि मुझे (लेखक) आधार बनाकर ये ख़बर वेवसाइट को दी गई हो… अगर ऐसा है, तो मेरा विनम्र अनुरोध है.. आपकी (ख़बर भडास को देने वाले महानुभाव) या जिसकी भी नाराज़गी, अदावत, गुस्सा, ज़ी एमपीसीजी के एडिटर दिलीप तिवारी जी से है.. तो उनसे मोर्चा लें.. सीधे उनपर सवाल उठाए.. उन्हें चुनौती दें… न कि उस व्यक्ति को आधार बनाकर जो ज़ी एमपी छोड़ चुका है, और न ही उस व्यक्ति को आधार बनाकर जो इस दुनिया को ही छोड़ चुका है… हो सकता है आप संस्थान में अभी कार्यरत हों, तो स्वाभाविक है आप अपना नाम उजागर नहीं कर सकते…. मत करिए… जो लिखना है लिखिए… लेकिन किसी की भावनाओं को आहत मत करिए… हां अगर आप संस्थान छोड़ चुके हैं तो फिर नाम उजागर करके संपादक महोदय को चुनौती दीजिए… स्वाभाविक है आप भी पत्रकार हैं… आपके नज़रिए से जो ग़लत है… उसे बेबाकी से लिखें…
लेकिन जो बात आप मेरे (लेखक) बारे में लिख रहे हैं वो मुझे ही नहीं पता कब हुईं…. बार-बार विनम्र अनुरोध है कि आप अपनी लड़ाई खुद लड़िए… किसी के कंधे पर हथियार रखकर नहीं.. जहां तक सवाल मुझे छुट्टी मिलने न मिलने का है… आपको बतादूं कि मेरे पूज्य पिताजी के देहांत होने से पहले ही ज़ी एसमी से मैं (लेखक) इस्तीफा दे चुका था… और मुझे मेरे पिता के देहांत का दुखत समाचार मिलते ही मैने केवल घर जाने की सूचना सम्पादक महोदय को दी थी, और घर चला गया था… न की छुट्टी मांगी थी… और ऐसी स्थिति में सम्पादक महोदय से पूरा सहयोग मिला.. जिस ‘वाक्य’ की बात खबर में बताई गई है.. मुझे याद नहीं कि मेरा कभी ऐसा वार्तालाप सम्पादक महोदय से हुआ हो… बहुत से लोगों को सम्पादक महोदय से नाराज़गी हो सकती है… मुझ भी कभी कभी कुछ बातें अच्छी नहीं लगीं… लेकिन इस दुखद क्षण में मुझे सम्पादक महोदय का पूरा सहयोग मिला.. बल्कि सम्पादक महोदय की तरफ से मुझे ज़रुरत पड़ने पर वित्त की पेशकश भी की गई थी… और हां एक महीना नहीं बल्कि 17 दिन बाद में ऑफिस लौट आया था… चूंकि पहले से नोटिस पीरियड पर था… सो लगभग एक हफ्ते बाद मेरा नोटिस पीरियड भी पूरा हो गया… और अब मैं ज़ी समूह छोड़ चुका हूं… और ज़ी छोडने के पीछे की वजह मुझे किसी दूसरे संस्थान से बेहतर ऑफर मिलना है….
आपसे (ख़बर भडास को देने वाले महानुभाव) मेरा पुन: अनुरोध है मुझे और मेरे दिवंगत पिता को अपनी लड़ाई में न घसीटें…
धन्यवाद