दीपक शर्मा-
परिवारवाद का आरोप नहीं लगा सकते, भ्रष्टाचार का आरोप नहीं लगा सकते, माफियावाद-दंगाई का आरोप नहीं लगा सकते….इसलिये गोदी मीडिया को आदेश दिया गया है कि पलटू कहकर छीछालेदर करिये। लेकिन असल में क्या पलटने जा रहा है ये साहेब को अंदेशा है। शेर को सवा शेर अब मिला है!
सुशांत झा-
नीतीश कुमार का अध्ययन IIM वालों को करना चाहिए कि कम पूँजी में कैसे मैक्सिमम लाभ लें और कैसे बड़ी शक्तियों व आकार में बड़े दुश्मनों के हमलों और सर्जिकल स्ट्राइकों से इजरायल और ताइवान की तरह बचते भी रहें। देखा जाए तो वे एक ही साथ पॉलिटिकल, कॉरपोरेट और डिफेंस स्टडीज के मुख्य विषय जैसे हैं।
बंदे को नोबेल प्राइज नहीं तो भारत रत्न तो मिलना ही चाहिए।
उन्होंने इतने मीठे अंदाज में गठबंधन तोड़ा है, जितना पुराने जमाने में ससुर-दामाद का राजदूत मोटरसाइकिल के लिए मतभेद होता था।
यानी एक खिड़की खुली हुई है कि तेजस्वी ने ज्यादा दबाया तो वे फिर से इधर आएँगे।
वे सिर्फ 71 के हैं और मोटामोटी स्वस्थ हैं। पाँच साल तो जरूर खेलेंगे। जिस हिसाब से विपक्ष में औने-पौने लोग पीएम पद के लिए कूद रहे हैं, उसमें सबसे स्मार्ट दावेदार तो वे हैं ही।
वैसे भी नीतीश कुमार ब्लू चिप स्टॉक्स की तरह नहीं हैं, वे मुचुअल फंड की तरह विविध निवेशी हैं। विशाल हृदय। सबको अपनाते हैं।
फेसबुकिया मित्रों को सीखना चाहिए। झगड़ा करो, लेकिन मीठे तरीके से। तू-तड़ाक और गालीगलौज मत करो। क्या पता कब किसी एनडीटीवी वाले को जी न्यूज में नौकरी करनी पड़ जाए।
रवीश कुमार-
जाँच एजेंसियों के सहारे राजनीति करने से पता नहीं चलता कि जनता में नेता कौन है। ED और आयकर विभाग के डर से गाँव से लेकर ज़िले तक के संसाधन वाले लोग भाजपा में चले गए हैं। विरोधी दलों की आर्थिक ताक़त ख़त्म हो गई है। ऐसे में कोई बीजेपी को सरकार से बाहर कर दे, साधारण घटना नहीं है। बीजेपी ज़रूर पलटवार करेगी लेकिन फ़िलहाल सरकार बनाने और गिराने की उसकी सारी चुस्ती धरी की धरी रह गई। नीतीश कुमार के इस्तीफ़ा देने से पहले ही इस्तीफ़ा देकर बीजेपी के मंत्री सरकार से बाहर हो सकते थे मगर बीजेपी इंतज़ार करती रही कि नीतीश मान जाएँगे और सत्ता का स्वाद मिलता रहेगा।
जब आप ED के सहारे राजनीति करने लगते हैं, तब राजनीतिक फ़ैसले भूल जाते हैं। सहयोगियों को ग़ुलाम समझने लगते हैं। उनके विधायकों को फ़ोन कर पैसे के दम पर तोड़ने के खेल में लग जाते हैं। नीतीश का यह आरोप साधारण नहीं है। आज बीजेपी को इसका खंडन तो करना ही चाहिए था मगर बीजेपी ने इसकी भी चुनौती नहीं दी। ज़ाहिर है बिहार में बीजेपी के हाथ जल गए हैं।
बिहार की राजनीति का मिज़ाज दूसरा है। बिहारी नेताओं को ड्रिल पसंद नहीं है। वे स्वायत्त मिज़ाज के होते हैं। चाहें वे किसी भी दल के नेता हों। यह उनकी अच्छाई भी है और बुराई भी। बिहार के नेताओं को बार-बार टोकेंगे कि यहाँ मत थूको तो ग़ुस्सा कर वहीं थूक देंगे और इंतज़ार करेंगे कि मना करने वाला क्या करता है। अतः ED, CBI, IT के पीछे छुप कर राजनीति बंद होनी चाहिए। इनका भय इतना बढ़ गया है कि उसी से छटपटा कर बिहार की राजनीति ने दूसरा रास्ता ले लिया। बीजेपी को ही धक्का दे दिया।