- बसपा एवं सपा के बाद भाजपा के भी खास बने प्रदीप दुबे
- रिटायर होने के बाद सेवा विस्तार पर जमे हैं प्रमुख सचिव
- फर्जी नौकरी दिलवाने के आरोपी आरसी मिश्र बने सलाहकार
लखनऊ। उत्तर प्रदेश विधानसभा सचिवालय अवैध नियुक्तियों का हब बन चुका है। खुद प्रमुख सचिव विधानसभा प्रदीप दुबे की बसपा शासनकाल में हुई नियुक्ति भी विवादों के जद में रही है, और समाजवादी पार्टी ने इसको लेकर खूब हल्ला भी मचाया, लेकिन कमाल देखिये कि अखिलेश सरकार बनने के बाद प्रदीप दुबे समाजवादी पार्टी के भी खास हो गये। पता नहीं वह कौन सा मजबूत जोड़ काम कर गया कि प्रदीप दुबे सपा सरकार में विधानसभा अध्यक्ष रहे माता प्रसाद पांडेय के भी खास बने गये।
जब भाजपा की सरकार बनी तो लगा कि प्रमुख सचिव प्रदीप दुबे की विधानसभा में लूट और नियुक्तियों में धांधली की जांच होगी तथा उनके पद से छुट्टी कर दी जायेगी, लेकिन बहुमुखी प्रतिभा के धनी श्री दुबे भाजपा सरकार के भी इतने खास हो गये कि रिटायर होने के बाद भी सेवा विस्तार दे दिया गया। अब इस सेवा विस्तार को 62 साल से बढ़ाकर 65 साल किये जाने की तैयारी भी अंदरखाने चल रही है ताकि दुबेजी भाजपा सरकार का कार्यकाल खत्म होने तक साथ बने रहें।
खैर, प्रदीप दुबे के प्रमुख सचिव विधानसभा बनने के बाद खरीदी गई घोषित-अघोषित संपत्तियों का मय सबूत खुलासा तो अगली किस्त में जायेगा, लेकिन उससे पहले नियुक्तियों में होने वाली धांधली और खेल में उनके खास सिपहसालारों की कारस्तानी और उनकी भूमिका का खुलासा जरूरी है। क्योंकि विधानसभा सचिवालय में सरप्लस कर्मचारी होने के बावजूद रिटायर हो चुके भ्रष्टाचारियों को सलाहकार बनाकर काम लिया जा रहा है ताकि भष्टाचार का खेल बिना किसी रोकटोक के जारी रह सके।
विधानसभा सचिवालय में मौजूद कॉकस के चलते ही बर्खास्त किये गये एक अनुसेवक प्रेम चंद्र पाल ने बाकायदे सुसाइड नोट लिखकर आत्महत्या कर लिया। अपने सुसाइड नोट में पाल ने प्रमुख सचिव एवं उनके खास लोगों पर मानसिक प्रताड़ना का आरोप लगाते हुए उसके नाम पर विधानसभा सोसाइटी से 22 लाख से ज्यादा लोन निकालकर रख लिये जाने का आरोप लगाया था। रसूख के बल पर इस मामले को भी दबवा दिया गया, जबकि प्रेम चंद्र का सुसाइड नोट वायरल भी हो गया था।
दरअसल, विधानसभा सचिवालय ही रिटार्यर्ड लोगों के बूते चल रहा है, जबकि यहां पर सरप्लस कर्मचारियों की नियुक्ति पहले से है। यह सेवा विस्तार इसलिये दिया जाता है ताकि लूट का खेल बदस्तूर जारी रह सके। खुद अप्रैल 2016 में रिटायर होने के बाद एक्सटेंशन पर चल रहे प्रमुख सचिव विधानसभा प्रदीप दुबे ने फर्जी नियुक्ति के आरोपी रहे आरसी मिश्र को सेवानिवृत्त होने से पहले ही सलाहकार बनाकर खेल करने की जिम्मेदारी सौंप दी।
जबकि आरसी मिश्र पर वर्ष 2013 में आरोप लगा था कि विधानसभा स्थित इनके कक्ष में पैसे लेकर फर्जी नियुक्तियों के लिये साक्षात्कार कराया गया था। इसमें मंशा राम उपाध्याय, सुधीर यादव, आरसी मिश्र, जय किशोर दि्वेदी के नाम सामने आये थे। इसमें हजरतगंज पुलिस ने 27 जून 2013 को इन सभी के खिलाफ आईपीसी की धारा 406, 419, 420, 467, 468, 471 एवं 506 के तहत मामला दर्ज किया था। तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष माता प्रसाद पांडेय ने आरसी मिश्र की ओएसडी के रूप में की गई नियुक्ति को तत्काल प्रभाव से निरस्त कर दिया था।
परंतु, मामला ठंडा पड़ते ही प्रमुख सचिव विधानसभा प्रदीप दुबे ने अपने इस विश्वसनीय और खास साथी आरसी मिश्र की विधानसभा सचिवालय में वापसी करा दी। बसपा शासनकाल में लैकफैड का घोटाला हो गया फिर विधानसभा सचिवालय में पैसे लेकर फर्जी नियुक्तियों कराने का मामला हर बार अपने रसूख और पैसे के बल पर दबावाते चले गये। करोड़ों की संपत्ति के मालिक आरसी मिश्र पर तकरोही में स्थित अपने एसबीएम पब्लिक स्कूल के लिये श्मशान की जमीन कब्जाने का भी आरोप है।
इसके पहले सपा के शासनकाल में भी तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष माता प्रसाद पांडेय और प्रमुख सचिव प्रदीप दुबे पर सैकड़ों अवैध नियुक्तियां करने का आरोप लगा। यह मामला हाईकोर्ट में भी गया, लेकिन कोर्ट के आदेश को आधार बनाकर इस पूरे खेल पर ही पर्दा डाल दिया गया, क्योंकि आरोपी को ही अपने खिलाफ जांच करने की जिम्मेदारी मिल गई। दरअसल, इलाहाबाद उच्च न्यायालय में इस मामले में याचिका दायर की गई थी, जिस पर जज अमरेश्वर प्रताप शाही और दयाशंकर त्रिपाठी की खंड पीठ ने सुनवाई की थी।
18 मई 2017 को दिये गये अपने फैसले में कोर्ट ने कहा कि प्रदेश सरकार और विधानसभा सचिवालय के प्रमुख सचिव इन शिकायतों की जांच करें, जबकि राज्य सरकार और प्रमुख सचिव ही इस मामले में प्रतिवादी बनाये गये थे। अब जाहिर था कि जब प्रतिवादी को ही अपनी जांच करने का आदेश मिल गया तो फिर सच सामने आना मुश्किल ही नहीं असंभव भी था। प्रदीप दुबे ने भी इसी का फायदा उठाया, और अपने खास लोगों को ही जांच की जिम्मेदारी सौंप दी। और खुद इस जांच कमेटी के अध्यक्ष बन गये।
इस मामले में वर्तमान विधानसभा अध्यक्ष डा. हृदय नारायण दीक्षित एवं मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को भी अंधेरे में रखा गया। दरअसल, समाजवादी पार्टी के शासनकाल में माता प्रसाद पांडेय और प्रमुख सचिव प्रदीप दुबे ने आचार संहिता लागू होने के बावजूद अपने खास लोगों की विधानसभा में नियुक्तियां कीं। इसकी शिकायत चुनाव आयोग को भी भेजी गई थी, लेकिन आयोग ने कोई हस्तक्षेप नहीं किया, जिससे इस खेल में शामिल लोगों की हिम्मत बढ़ गई।
प्रदेश में विधानसभा चुनाव की आचार संहिता 4 जनवरी 2017 से लागू हुई थी, लेकिन विधानसभा में आचार संहिता के दौरान 12, 13, 16, 17, 18 और 27 जनवरी 2017 को समीक्षा अधिकारियों और सहायक समीक्षा अधिकारियों की नियुक्ति की गई। इनमें ज्यादातर इनके तथा खास लोगों के परिचित एवं रिश्तेदार थे। माता प्रसाद पांडेय ने नियुक्तियों को कानूनी बनाने के लिये कागजी खेल भी करवाया। आचार संहिता के दौरान ही 27 फरवरी 2017 को माता प्रसाद पांडेय ने विधानसभा सत्र में ओवरटाइम काम करने वाले 652 अधिकारियों एवं कर्मचारियों के लिए 50 लाख रुपये का अतिरिक्त मानदेय मंजूर किया। इस लिस्ट में उन लोगों के नाम भी शामिल कर लिये गये, जिनकी नियुक्ति भी आचार संहिता के दौरान की गई थी।
गौरतलब है कि विधानसभा सचिवालय में समीक्षा अधिकारियों और सहायक समीक्षा अधिकारियों की नियुक्ति के लिए सपा शासनकाल में 12 जून 2015 को विज्ञापन प्रकाशित किया गया था। इसमें करीब 75 हजार अभ्यर्थियों ने आवेदन किया था, जिनसे फीस के तौर पर तीन करोड़ लिये गये थे। दोनों पदों पर परीक्षा कराने की जिम्मेदारी टीसीएस को दिया गया। इसके लिये टीसीएस को डेढ़ करोड़ रुपये का भुगतान भी किया गया। टीसीएस ने इस परीक्षा के लिये 11 जिलों में केंद्र बनाया तथा 29 और 30 दिसंबर 2015 को ऑनलाइन परीक्षा कराई।
परीक्षार्थी रिजल्ट का इंतजार करते रहे, इसी बीच 27 जुलाई 2016 को विशेष सचिव प्रमोद कुमार जोशी ने विधानसभा के नोटिफिकेशन के जरिये ऑनलाइन परीक्षा रद्द करने तथा नये सिरे से परीक्षा कराने के लिये दोबारा अभ्यर्थियों से आवेदन करने का निर्देश दिया। नोटिफिकेशन में परीक्षा रद्द किये जाने का कोई कारण नहीं बताया गया। यह भी नहीं बताया गया कि कौन सी कंपनी इस बार परीक्षा आयोजित करायेगी। ना ही परीक्षा रद्द किये जाने और नये सिरे से आवेदन का विज्ञापन प्रकाशित कराया गया।
नियमत: विज्ञापन के जरिये परीक्षा रद्द किये जाने की सूचना दी जानी चाहिए थी, लेकिन ऐसा नहीं किया गया, जिसके चलते 15 हजार अभ्यर्थी दोबारा आवेदन नहीं कर पाये। मात्र 60 हजार अभ्यर्थी ही आवदेन कर सके। इस बार परीक्षा कराने की जिम्मेदारी ऐपटेक को दे दिया गया। ऐपटेक ने छह जिलों में केंद्र बनाकर ओमएआर सीट पद्धति से ऑफलाइन परीक्षा कराई, जिस पर पेंसिल से निशान बनाया जाना था। पेन की जगह पेंसिल का इस्तेमाल भी इसीलिये कराया गया ताकि अपने लोगों को इस सूची में फिट किया जा सके। ऐसा ही हुआ, तमाम ऐसे लोग चयनित कर लिये गये, जो योग्य ही नहीं थे।
इसके अतिरिक्त चपरासी की नियुक्ति का विज्ञापन भी प्रमुख समाचार पत्रों की बजाय कम प्रसार वाले सांध्य अखबार में प्रकाशित कराया गया। इसमें ज्यादातर माता प्रसाद पांडेय के नजदीकी लोगों को भर दिया गया। सपा नेता रामगोपाल यादव के करीबी रीक रमेश कुमार तिवारी को विधानसभा पुस्तकालय में विशेष कार्य अधिकारी (शोध) के पद पर बिना किसी चयन प्रकिया का पालन किए नियुक्त कर दिया गया। इसी दौरान रिटायर हो चुके आरसी मिश्र को फिर से ओसएसडी बना दिया गया। माता प्रसाद पांडेय के दो दामादों और पूर्व विधानसभा अध्यक्ष सुखदेव राजभर के दामाद की अवैध नियुक्तियों का मामला पहले ही सुर्खिया बटोर चुका है। (जारी)
लेखक अनिल सिंह लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार हैं.