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साहित्य

कालजयी उपन्यास ‘मातीगारी’ अब मराठी में!

आनंद स्वरूप वर्मा-

न्गुगी वा थ्योंगो का कालजयी उपन्यास ‘मातीगारी’ अब मराठी भाषा में भी उपलब्ध हो गया। अनुवाद नितीन सालुंखे ने और प्रकाशन मोहिनी कारंडे ने (मैत्री पब्लिकेशन, 267/3, आनंद नगर, मालवाडी रोड, हडपसर, पुणे 411 028) किया है। 2019 में हिन्दी पाठकों तक इसे गार्गी प्रकाशन ने पहुंचाया। हिन्दी अनुवाद राकेश वत्स का है।

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उपन्यास ‘मातीगारी’ 1986 में गिकुयू भाषा में प्रकाशित हुआ। 1982 और 1986 के बीच केन्या में अनेक लेखकों और बुद्धिजीवियों को या तो जेल में डाल दिया गया था या उन्हें इस बात के लिए मजबूर कर दिया गया था कि वे देश छोड़कर चले जाएं। दमन का स्वरूप ऐसा था कि छात्रों और अध्यापकों के बीच चल रहे विचार-विमर्श को भी डैनियल अरप मोई की सरकार की खुफिया एजेंसियां मॉनीटर करती थीं।

इस उपन्यास का नायक मातीगारी मा न्जीरूंगी (जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘वह देशभक्त जिसने गोलियां झेली हों’) अपने दुश्मनों–एक गोरे सेटलर और उसके दलाल एक काले केन्याई का सफाया करने के बाद वापस अपने गांव लौटता है। उसे यह देखकर बहुत बेचैनी होती है कि कहने के लिए केन्या को आजादी तो मिल गई लेकिन कुछ सतही तब्दीलियों के अलावा देश में कुछ भी नहीं बदला।

आजादी मिलने की जानकारी पाने के बाद उसने अपने हथियार हमेशा के लिए रख दिए थे और सुख-शांति की जिंदगी जीने के इरादे से गांव में रहने का फैसला किया था। देश की हालत देखकर वह लगभग अर्द्धविक्षिप्त अवस्था में देशभर में घूमता है और लोगों से सच्चाई तथा न्याय के बारे में सवाल पूछता है।

नाटक के तत्वों से भरपूर और व्यंजनापूर्ण शैली में लिखे गए इस उपन्यास में मातीगारी देश के विभिन्न तबकों–राजनेताओं, छात्रों-अध्यापकों, पादरियों आदि से सवाल पूछता है। वह बसों में, ट्रेनों में, होटलों में, चर्च में हर जगह सत्य ओर न्याय की तलाश करते हुए सवाल पूछता रहता है।

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यह उपन्यास तीन भागों में है। बीच-बीच में उस अनाम देश के रेडियो Voice of Truth से खबरें प्रसारित होती रहती हैं। उन खबरों में सरकारी नीतियों का प्रायः गुणगान होता है और बताया जाता है कि किस तरह देश में विकास को बाधा पहुंचाने वाली ताकतें सक्रिय हो रही हैं। मातीगारी एक देशभक्त है जिसका काफी समय जंगलों में ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के खिलाफ लड़ाई में बीता है।

यह खबर सुनकर कि देश अब आजाद हो गया, वह वापस लौटता है और अपनी एके-47 राइफल तथा सारे हथियार एक पेड़ के नीचे जमीन में गाड़ देता है और कमर में शांति की पेटी बांध लेता है। वह संकल्प करता है कि अब समस्याओं का समाधान शांतिपूर्ण तरीके से करेगा।

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देश की हालत देखकर वह बेचैन है कि अभी भी सारी संपदा विदेशी मालिकों के हाथ में ही केंद्रित है और इस काम में उनकी मदद के लिए काली चमड़ी वाले कुछ देशी दलाल पैदा हो गए हैं जो हर क्षेत्र में सक्रिय हैं। लोग सत्ता के भय से ग्रस्त हैं। उसे हर तरफ अन्याय दिखाई देता है और वह सत्य और न्याय की खोज में भटकता रहता है। उसकी इस तलाश में बहुत सारी घटनाएं होती हैं जिनसे वह इस नतीजे पर पहुंचता है कि ‘पीड़ितों के लिए न्याय लोगों की संगठित सशस्त्र शक्ति से ही मिलता है।’

उपन्यास के तीसरे भाग में आजादी से उसका मोहभंग एक विस्फोटक रूप ले लेता है। एक अध्यापक से बातचीत में वह कहता है कि “जिस देश में बहुत अधिक भय होता है, वह देश दुखों का घर बन जाता है। पापात्मा को शांत करने के लिए यदि बलि दी जाय तो वो शांत नहीं होती बल्कि इससे उसकी भूख और लालच और बढ़ जाती है…।”

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उसके सवालों का जवाब चर्च का पादरी भी नहीं दे पाता जिससे वह पूछता है कि अगर भगवान है तो इतना अन्याय क्यों है? उपन्यास के अंत में वह तय करता है कि उसे दूसरी आजादी के लिए एक बार फिर हथियारों की पेटी बांधनी पड़ेगी और जंगल की ओर लौटना पड़ेगा। अपने साथी मुरिउकी और गुथेरा से वह कहता हैः “मेरी एक बात सुनो, चाहे वे हमें जेल में डालें, पकड़े या मार दें, वे हम मेहनत करने वालों को उनके खिलाफ लड़ने से कभी नहीं रोक सकते जो केवल हमारी मेहनत पर पलते हैं।

उत्पादकों और परजीवियों के बीच कभी भी शांति, एकता या प्यार नहीं हो सकता। कभी नहीं। मान लो अगर हमारे बुजुर्ग ऐसे ही अंधे, बहरे और बेजुबान होते तो आज हम कहां होते? कल, हां कल तक मुझे यह विश्वास था कि अगर मैं शांति की पेटी बांध लूं तो मैं इस देश में सत्य और न्याय प्राप्त करने के काबिल हो जाऊंगा। क्योंकि यह कहा जाता है कि सत्य और न्याय किसी भी सशस्त्र बल से कहीं अधिक ताकतवर होते हैं; कि बातचीत और शांतिपूर्ण ढंग से परास्त किया गया दुश्मन कभी लौटकर वापस नहीं आता।

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लेकिन इस तरह की सोच के कारण मेरा क्या हश्र हुआ? पहले जेल में और फिर मानसिक रोगियों के अस्पताल में। अगर तुम दोनों न होते तो मैं आज कहां होता? अभी भी जेल में, या मानसिक रोगियों के अस्पताल में होता। पिछली रात से मैंने अब एक नया पाठ सीखा है। दुश्मन को सिर्फ शब्दों के द्वारा नहीं भगाया जा सकता–इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपका तर्क कितना मजबूत है। और न ही केवल हथियार के द्वारा ही दुश्मन को भगाया जा सकता है। लेकिन सशस्त्र बल के साथ अगर सत्य और न्याय के शब्द भी हों तो निश्चित रूप से दुश्मन को हराया जा सकता है।

जब न्याय और शक्ति एक ही तरफ हों तब कौन दुश्मन ठहर सकता है? शिकारी जानवरों द्वारा शासित बीहड़ में, या चोरों, कातिलों और डाकुओं द्वारा चलाए जा रहे बाजार में, उत्पीड़ित लोगों को केवल सशस्त्र एकता से ही न्याय मिल सकता है।’’
न्गुगी ने अपने इस उपन्यास में भ्रष्ट सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए सशस्त्र संघर्ष पर जोर दिया है। चर्च के पादरी के साथ मातीगारी का जो संवाद होता है उससे धर्म और न्याय-अन्याय के पहलुओं पर एक सार्थक बहस सामने आती है।
इस उपन्यास को केन्या में बहुत प्रचार मिला और जिन लोगों ने भी इसे पढ़ा वे इसके बारे में एक दूसरे से चर्चा करने लगे और उन्हीं सवालों को दोहराने लगे जिन्हें मातीगारी लोगों से पूछता था।

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हालत यह हो गई कि मातीगारी को लोग औपन्यासिक चरित्र न मानकर वास्तविक चरित्र मानने लगे। यहां तक कि तत्कालीन राष्ट्रपति अरप मोई के गृह मंत्रालय ने मातीगारी की गिरफ्तारी का आदेश जारी कर दिया। पुलिस को जब पता चला कि मातीगारी महज उपन्यास का एक पात्र है तो उसकी बौखलाहट और भी ज्यादा बढ़ गई। नतीजतन फरवरी 1987 में ‘मातीगारी’ की प्रतियां न केवल दुकानों और गोदामों से बल्कि लोगों के घरों पर छापे डालकर भी जब्त की गई।

इसका अंग्रेजी अनुवाद केन्या से बाहर काफी पढ़ा गया।
किसी उत्तर औपनिवेशिक अथवा नवऔपनिवेशिक राज्य में सवाल पूछने वाले किसी व्यक्ति को किन विषम स्थितियों का सामना करना पड़ता है, इसका सर्वोत्तम उदाहरण यह उपन्यास है। इससे पहले भी 1977 में न्गुगी को अपने जिस नाटक के मंचन के कारण जेल जाना पड़ा और सरकारी दमन का सामना करना पड़ा वह भी गिकुयू भाषा में लिखा गया था।

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इस नाटक का भी बाद में ‘आइ विल मैरी व्हेन आइ वांट’ नाम से अंग्रेजी में अनुवाद हुआ। उन्हीं दिनों उनका उपन्यास ‘पेटल्स ऑफ ब्लड’ भी प्रकाशित हुआ था जिसमें केन्या के नए शासकों की तीखी आलोचना थी। अपने नाटक और उपन्यास के लिए 1977 में जिस समय न्गुगी को गिरफ्तार किया गया, डैनियल अरप मोई देश के रक्षा मंत्री और जोमो केन्याटा केन्या के राष्ट्रपति थे। जोमो केन्याटा की एक जुझारू राष्ट्रवादी नेता की छवि थी लेकिन सत्ता में आने के बाद केन्याटा का चरित्र कैसे बदला इसका उदाहरण न केवल न्गुगी की गिरफ्तारी में बल्कि बेशुमार दमनात्मक कार्रवाइयों में देखा जा सकता है।

जो भी हो ‘मातीगारी’ ने केन्या की जनता को जागरूक बनाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और इससे बड़ी बात क्या होगी कि उपन्यास के किसी पात्र से राज्य इस हद तक डर जाय कि उसकी गिरफ्तारी का वारंट जारी कर दे।

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