न्यायपालिकe में न्यायधीशों की नियुक्ति करने वाली कालेजियम व्यवस्था पर शुरू से ही सवाल खडे़ होते रहे हैं। कई विशेषज्ञों ने तो यहां तक कह दिया कि कालेजियम व्यवस्था प्रजातंत्र की पक्षधर नहीं है, यह प्रजातंत्र पर कलंक है क्योंकि भारत के संविधान में इस व्यवस्था का कोई जिक्र नहीं है। यह व्यवस्था सबको समान अवसर की बात नहीं करती है बल्कि न्यायापलिका कुछ घरानों तक ही सीमित रह गई है। न्यायापलिका में जजों की नियुक्ति उनकी योग्यता या वरिष्ठता के आधार पर नहीं होती है बल्कि वास्तव में जज अपने सगे संबंधियों या पुत्र पुत्रियों की ही नियुक्ति करते हैं।
जनसत्ता अखबार में छपी खबर के अनुसार मुंबई के एक वकील मैथ्यूज जे नेदुमपारा के सर्वे में दावा किया गया है कि सर्वोच्च न्यायालय में 33 फीसदी और उच्च न्यायलय में 50 फीसदी जज बड़े रसूखदार घरानों के बेटे-बेटी ही नियुक्त होते हैं।
नेदुमपारा दावा करते हैं कि यह परिस्थिति कालेजियम सिस्टम के कारण उत्पन्न हुई है जिसमें एक जज ही दूसरे जज की नियुक्ति कर देते हैं। न कोई मेरिट का ध्यान रखा जाता है और न ही वरिष्ठता का।
नेदुमपारा के अनुसार कालेजियम व्यवस्था 1990 के कुछ जजमेंटों और फैसलों से बनी है जिससे न्यायालयों की नियुक्ति के मामलों में मनमर्जी होने लगी है। जनसत्ता अखबार में छपी खबर के मुताबिक मौजूदा समय में सर्वोच्च न्यायालय में 31 जज हैं। इनमें से 6 जज पूर्व जज के बेटे हैं। रिपोर्ट में उच्च न्यायालय के 88 जजों की नियुक्तियों की जानकारी है जो या तो किसी वकील, जज या न्यायपालिका से ही जुड़े किसी व्यक्ति के परिवार वाले हैं।
वहीं दा वायर बेवसाइट पर 5 जुलाई 2019 को प्रकाशित हुई खबर के अनुसार इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज रंगनाथ पांडेय ने प्रधानमंत्री को खत लिखकर कहा कि वर्तमान कालेजियम व्यवस्था में भाई भतीजा और जातिवाद चरम पर है। जस्टिस पांडेय अपने पत्र में लिखते हैं कि हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट में जजों की नियुक्तियां बंद कमरों में पक्षपात के आधार पर की जाती है। नियुक्त होने वाले जजों के नाम भी तभी सार्वजनिक करते हैं जब नियुक्ति प्रक्रिया पूरी हो जाती है। इस पूरी प्रक्रिया में न तो कोई योग्यता मेरिट का ध्यान रखा जाता है और न ही नियुक्ति का आधार बताया जाता है जो कि दुर्भाग्यपूर्ण है।
उन्होंने अपने पत्र में यह भी लिखा कि जब कुछ जज अपने करीबी रिश्तेदारों की नियुक्ति उच्च न्यायालय में करने में सफल नहीं होते तो, उनकी नियुक्ति किसी निचली अदालतों में कर देते हैं। दा क्विंट के अनुसार जस्टिस जे चेल्मेश्वर भी इस कॅालेजियम प्रथा पर सवाल उठा चुके हैं।
साल 2016 में जस्टिस चेल्मेश्वर ने कहा कि कुछ लोग न्यायपालिका की स्वतंत्रता का भरपूर फायदा उठा रहे हैं। उन्होंने तो यहां तक कहा कि इस प्रणाली में मेरिट वाले और लायक योग्यता वालों का कोई स्थान नहीं है। जस्टिस जे चेल्मेश्वर कहते हैं कि मुझे अपने निजी अनुभवों पर यह लगा कि कालेजियम में कुछ चुनिंदा लोग गुट बना लेते हैं, तर्क वितर्क किए बिना ही चयन कर लिया जाता है। दो लोग बैठकर नाम तय कर लेते हैं। कुल मिलाकर यह कालेजियम व्यवस्था अपारदर्शी प्रणाली बनकर रह गई है।
इनके अलावा कई और भी पूर्व जज इस कालेजियम सिस्टम पर काफी गंभीर आरोप लगा चुके हैं और इसकी कार्यप्रणाली पर सवाल उठा चुके हैं।
इससे स्पष्ट होता है कि भारत की न्याय व्यवस्था पर कुछ रसूखदार घरानों का ही एकाधिकार है। यह प्रथा भारत जैसे प्रजातांत्रिक देश के लिए ठीक नहीं है। ऐसे में सवाल है कि जब कालेजियम की कार्यप्रणाली कानून के विरूद्ध है क्या तो इसे जल्द से जल्द खत्म नहीं कर देना चाहिए? क्या कालेजियम का कामकाजी तरीका असंतुष्टिपूर्ण नहीं है? क्या कालेजियम व्यवस्था न्याय की स्वतंत्रता में रोड़ा नहीं है? और अगर यह सभी सवाल सत्य है तो वाकई कालेजियम व्यवस्था लोकतंत्र पर धब्बा है। कुल मिलाकर कालेजियम सिस्टम भारतीय संविधान को खुली चुनौती है क्योंकि इस व्यवस्था में समता समानता का पूर्ण अभाव है। यह सर्वहित की बात नहीं करती है। इसमें शिक्षित और योग्य व्यक्तियों को समान अवसर की व्यवस्था नहीं है।
मनीष अहिरवार
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खंडवा, मध्यप्रदेश
Heeralal longre
April 30, 2020 at 6:22 pm
बहुत शानदार मनीष जी