: मुझे मिला उस ‘अपराध’ का दंड जो मैंने किया ही नहीं : जिदंगी कभी-कभी हमें इतना बेबस कर देती है कि हम मजबूत होने के बावजूद हालातों के सामने झुक जाते हैं और अपने स्वाभिमान को अपनी ही आखों के आगे तार-तार होता देखने को मजबूर हो जाते हैं। पत्रकार होने के नाते पुलिसिया कहर की कहानियां तो मैंने पहले से काफी सुन रखी थी, लेकिन इसके खौफनाक चेहरे से मेरा सामना बीते शनिवार (11 जून, 2011) की रात को हुआ।
पुलिस एक ऐसे मामले में, जिसमें मैं कहीं भी शामिल नहीं था, पूछताछ के बहाने शाम सात बजे उत्तरी दिल्ली के तिमारपुर थाने ले गई। यहां पूरी रात मुझे बुरी तरह से शारीरिक और मानसिक तौर पर प्रताडि़त किया गया। यहां पूछताछ कम, छीछालेदर ज्यादा हुई। थाने में मुझे बाथरूम के अंदर ले जाकर एक मेज पर लिटा दिया गया। मेरे हाथ-पाँव को चार पाँच लोगों ने पकड़ लिया। उसके बाद एक कांस्टेबल ने मेरे चेहरे पर गीला कपड़ा रखकर जकड़ दिया और ऊपर से पानी डालने लगा। ऐसे में मेरी सांस कुछ क्षणों के लिए रूक गई और मैं छटपटाने लगा। हाथ-पैर भी दूसरों की पकड़ में होने के कारण मैं हिलडुल भी नहीं पा रहा था। उस समय मैं न तो सांस ले सकता था और न ही छोड़ सकता था। मुझे ऐसा लग रहा था मानो नदी में डूब रहा हूं और किसी भी समय मैं खत्म हो जाऊंगा।
यह अमानवीय उपक्रम मुझ पर बार-बार दोहराया गया। हालांकि मुझे जिंदा रखने के लिए बीच में 5-10 सेंकेड के लिए छोड़ देते थे। उनके लिए इतना ही काफी नहीं था, इसलिए वे बीच-बीच में मुझे मेरी मां-बहन की गंदी गालियां देते जा रहे थे। इसके बाद मुझे उसी थाने में बस चलाने वाले एक ड्राइवर ने कई तमाचे जड़े। फिर फर्श में फैले पानी पर मुझे बाल पकड़कर घसीटा गया। मुझे दीवार से भेड़ दिया गया। इसके बाद मेरे गुप्तांगों में लगाने के लिए डीजल निकाल लाए। उन लोगों ने मुझसे अपना पैंट उतारने का कहा। यही वह पल था, जब मेरा स्वाभिमान तार-तार हो गया। मैं उन लोगों से हाथ जोड़कर उस ‘बात’ की माफी मांगने लगा, जो मैंने किया ही नहीं था। मुझे यह भी नहीं मालूम था कि मेरी यह दुर्दशा हो क्यों रही है। बस यही समझ में आया कि यदि इनके हाथ-पैर नहीं जोड़े तो अब तक जो हुआ है, उससे कहीं अधिक दुर्दशा आगे मेरे साथ किया जाएगा। पुलिसवाले काम जल्दी खत्म करने की बात कह मेरे साथ यह घिनौना खेल खेलते रहे।
मेरे बार-बार हाथ जोडने पर भी जब उनका दिल नहीं पसीजा और वहां पर बैठा ड्राइवर मुझ पर चोरी और डकैती के झूठे केस ठोकने को कहा। हालांकि उसी समय इस केस का इन्वेस्टीगेटिव ऑफिसर वहां पहुंचा और और मुझे थाने के एसएचओ के पास ले गया। थाने में मुझे लाए अब तक अंदाजन 3 घंटे बीत चुके थे। पुलिस ने इसके बाद पूरी रात मुझे थाने में ही बंधक बनाए रखा। मेरी रिहाई सुबह 10 बजे के करीब संभव हो पाई।
अपनी दुर्दशा की वजह जब मुझे सुबह रिहाई के समय मालूम हो पाई, तो हतप्रभ था। मुझे उस मामले में प्रताड़ित किया गया जिसमें मैं कहीं से भी शामिल नहीं था। टेक्नोलॉजी के उलझे जाल ने मुझे कथित ‘अपराधी’ बना दिया। वाकया यह था कि झारखंड की राजधानी रांची से किसी बड़े कारोबारी की लड़की कुछ दिनों पहले घर से भाग गई। उस लड़की का नाम रानू सहदेव है, जिसका पता मुझे पुलिस की प्रताड़ना के दौरान चला था। घर से भागने के बाद वह लड़की दिल्ली के किंग्सवे कैंप इलाके में किसी गर्ल्स पीजी हॉस्टल में कमरा लेकर रहने लगी। उसी हॉस्टल में लखनऊ के डिग्री कॉलेज की मेरी एक सहपाठी प्रतिमा उपाध्याय भी रहती हैं।
प्रतिमा अभी सिविल सर्विसेज की तैयारी कर रही हैं। वह मुखर्जी नगर के कोचिंग संस्थानों में पढ़ाई कर रही हैं। पढाई में दखल से बचने के लिए प्रतिमा अपने पास मोबाइल हैंडसेट नहीं रखतीं, बल्कि एक सिम रखती हैं। उसे जब किसी से बात करनी होती है तो वह अपने हॉस्टल की अन्य लड़कियों का मोबाइल हैंडसेट मांगकर उसमें अपना सिम डालकर बातकर लेती हैं। प्रतिमा ने एक दिन रानू के मोबाइल हैंडसेट से मुझे कॉल किया। वह किसके मोबाइल से कॉल करती है, मुझे इसका तो पता नहीं होता क्योंकि मौजूदा तकनीकी यह सुविधा नहीं देती। ये सब जानते हैं कि कॉल आने पर केवल सिम नंबर (मोबाइल नंबर) फ्लैश होता है। मेरी दुर्दशा यहीं से शुरू हो गई। रानू का मोबाइल हैंडसेट चूंकि झारखंड पुलिस ने सर्विलांस पर लगा रखा था, ऐसे में प्रतिमा के नंबर के साथ मेरा मोबाइल नंबर झारखंड पुलिस के पास चला गया। झारखंड पुलिस का एक एसआई दिल्ली पुलिस के तिमारपुर थाने के सिपाहियों के साथ मेरे कमरे में शनिवार 11 जून की रात पूछताछ को आ धमके।
अपनी दास्तान आगे सुनाने से पहले मैं स्पष्ट कर दूं कि कि मैं भारतीय जनसंचार संस्थान यानी आईआईएमसी के 2007-08 बैच का छात्र हूं। आईआईएमसी के बाद मैंने बिजनेस स्टैंडर्ड में बतौर संवाददाता करीब दो साल काम भी किया। सिविल सर्विसेज की तैयारी के लिए अभी मैंने नौकरी छोड़ रखी है और मुखर्जी नगर के पास गांधी विहार में रहता हूं। पुलिस जब मेरे कमरे में रानू की पूछताछ करने को आई तो मैं हतप्रभ हो गया। मैं किसी रानू को न तो जानता था और न ही कभी उसका नाम ही सुना था। मैंने उनसे कहा कि मैं अपने पक्ष से हरसंभव सहयोग करूंगा।
पुलिस ने मुझे एक नंबर दिखाया और पूछा कि यह नंबर किसका है। मैंने उनसे कहा कि आजकल लोग नंबर याद नहीं रखते बल्कि कॉल करने वाले के नाम से सेव कर लेते हैं। पुलिस वाले इस बात पर उखड़ गए और मुझे गाली बकने के साथ बुरे मामले में फंसने की बात कहने लगे। मैंने उनसे कहा कि इस नंबर को मैं अपने मोबाइल से कॉल करता हूं, जिसका भी होगा पता चल जाएगा। मेरे मोबाइल में वह नंबर सेव नहीं था। पुलिस वाले कहने लगे की साले झूठ बोलता है। इस नंबर पर बात करता है और यह नहीं मालूम कि किसका है। पुलिस वालों ने जब मुझे उस नंबर से आई कॉल का समय, डयूरेशन और तारीख दिखाई तो मैंने याद करके उन्हें यह नंबर प्रतिमा का होने का बताया। हालांकि मैं इसके बारे में पूरी तरह आश्वस्त नहीं था।
पुलिस वालों ने मुझसे प्रतिमा का पता पूछा तो मैंने कहा कि वह जीटीबी नगर के पास ऑट्रम लेन या हडसन लेन में कहीं रहती है। मैंने यह सच्चाई भी बयान की कि मैं वहां उससे मिलने कभी नहीं गया हूं। मुझे उसके घर की लोकेशन नहीं पता। पुलिस मेरी बात को मानने को बिल्कुल तैयार नहीं हुई। मैंने उनसे कहा कि मेरे ज्यादातर दोस्त फोन से ही संपर्क रखते हैं, क्योकि सिविल सर्विसेज की तैयारी के चलते हमारे पास इतना समय नहीं होता। इसलिए मिलना जुलना बहुत ही कम हो पाता है। दूसरी बात वह एक गर्ल्स होस्टल में रहती है, जहां कोई लड़का नहीं जा सकता। पुलिस वालों ने मुझे यही बात थाने में चलकर एसएचओ के सामने बोलने को कहा। उसने मुझे झांसा दिया कि आप तो पत्रकार हैं। यह केस सॉल्व हो, यह तो आपका दायित्व भी है। मैंने इस मामले को पूरा समझे बगैर ही हामी भर दी। मैं अब तक यही समझ रहा था कि प्रतिमा को कुछ हो गया है। खैर मैं थाने चलने को तैयार हो गया, लेकिन इसके पहले अपने दोस्तों को फोन करने की बात कही तो पुलिस वालों ने मेरा फोन छीन लिया।
पुलिस वाले जब मुझे थाने ले जाने लगे तो उनके तेवर देख मैं समझ गया कि थाने में मेरे साथ क्या होने वाला है। क्योंकि थाने ले जाते समय ही पुलिस वाले मुझे डराने-धमकाने के साथ गाली-गलौज भी कर रहे थे। थाने पहुंचने के बाद मेरे साथ कैसा जंगली व्यवहार किया गया, यह तो मैं पहले ही बता चुका हूं। टार्चर करने के बाद इन्वेस्टिगेटिव ऑफीसर मुझे एसएचओ के सामने जब लेकर गया तो फिर मुझसे वही सवाल पूछा गया कि प्रतिमा कहां है। मेरा जवाब भी वही था कि मुझे उसका घर नहीं मालूम। बस यह मालूम है कि वह जीटीबी नगर में ऑट्रम या हडसन लेन में कहीं रहती है। इसके बाद एसएचओ ने मुझे फिर उसी कांस्टेबल के हवाले कर दिया, जो मुझे ऊपर प्रताड़ित कर रहा था। इस समय मुझे उस कांस्टेबल का नाम गौरव पता चला। साथ ही एक बात और पता चली कि प्रतिमा नहीं, कोई और लड़की गायब है, जिसके पिता का राजनीतिक प्रभाव काफी तगड़ा है। एसएचओ के कमरे में रुकने के दौरान ही पुलिस महकमे के आला अधिकारियों के फोन बार-बार आ रहे थे, जो ‘आई वांट इमिडियेट रिजल्ट’ कह रहे थे। इसी कारण अधिकारियों की नजर में अपना नंबर बढ़वाने के लिए कांस्टेबल गौरव मुझे बुरी तरह से प्रताड़ित कर रहा था।
ठीक उसी समय गौरव ने मुझसे गाली बकते हुए कहा कि अगर तू नहीं बताएगा तो मैं तो घर जाऊंगा नहीं, उल्टा तुझे रात भर तोडूंगा। मैंने कहा कि मैं पत्रकार हूं तो उसने कहा कि पत्रकारों की तो हम और भी पिटाई करते हैं। नमूना तू देख ही चुका है। तभी वहीं खडे आईओ ने मुझसे कहा कि अब तो तुम तभी छूटोगे जब प्रतिमा मिलेगी नहीं तो इस केस के मुख्य अपराधी के तौर पर तुम अंदर जाओगे। अब तुम मुझे बताओ कि तुम मुझे प्रतिमा तक कैसे ले जाओगे। कुछ देर तक वो मुझे ऐसे ही डराते रहे। फिर नई कॉल डिटेल्स के आधार पर मेरे और प्रतिमा के कॉमन दोस्त अखिलेश पांडे के बारे में पूछा, जो गुडगांव में रहता है। फिर मुझे लेकर रात को 12 बजे के करीब अखिलेश के घर गुड़गांव ले गए। लेकिन अखिलेश का घर भी मूझे मालूम न होने के कारण पुलिस वालों ने मुझसे फोन करवाकर बहाने से उसे घर के बाहर बुलाया। फिर उसकी निशानदेही के आधार पर प्रतिमा के हॉस्टल का पता लगाने की नाकाम कोशिश की। अखिलेश को केवल प्रतिमा के हॉस्टल की गली ही मालूम थी। पुलिस ने वहीं मेट्रो स्टेशन के पास डेरा डाल दिया, क्योंकि उसे हम लोगों ने बताया कि उसका सुबह सिविल सेवा प्रारंभिक परीक्षा का पेपर है।
प्रतिमा जब 12 तारीख को होने वाली यह परीक्षा देने जाने के लिए जब जीटीबी नगर मेट्रो स्टेशन पहुंची तो वहां वह हमें दिख गई। प्रतिमा से जब झारखंड से गायब हुई रानू सहदेव के बारे में पूछा गया तो उसने बताया कि वह तो हॉस्टल में सो रही है। रानू अपने कमरे से हंसते हुए बाहर निकली। उससे हुई पूछताछ में पता चला कि सीबीएसई की बारहवीं परीक्षा में फेल होने के बाद परिवार से प्रताड़ित होने के डर से भाग गई थी। उसके बाद टैक्नोलॉजी की भूलभुलैया में मैं निर्दोष यूं ही जौ में घुन की तरह पीस गया। इधर उसकी शातिराना मुस्कराहट पुलिस और उसके पिता को संतोष दे रही थी तो मैं सोच रहा था कि आखिर मेरी गलती क्या थी जो रात भर मुझे भुर्ता बनाया गया।
बहरहाल उस लड़की को उस हॉस्टल से बरामद कर उसके पिता के हवाले कर दिया गया। मुझे 12 की सुबह थाने ले जाकर एक सादे कागज पर मुझसे मेरा नाम, पता आदि लिखवाया गया। साथ में यह भी लिखवाया गया कि मै तिमारपुर थाने में पुलिस को सहयोग करने के लिए बुलाया गया था। अभी मैं स्वस्थ अवस्था में थाने से छोड़ा जा रहा हूं और आगे अगर पुलिस मुझे किसी पूछताछ के लिए बुलाती है तो मैं थाने में जरूर हाजिर होउंगा।
यह थी मेरी उस रात की कहानी जिसमें मैं किसी ऐसे मामले में प्रताड़ित किया गया जिसमें मैं न तो अपराधी था, न ही मेरे नाम पर कोई केस बनाया गया, न ही एफआईआर थी। बस मैं अपने बुरे नक्षत्रों के चलते भूतिया तकनीक का शिकार बना एक इनफार्मर था। सोचिए जब पत्रकार होकर मुझे अपनी रक्षा का मौका नहीं मिला और पुलिसिया कहर से खुद को बचा नहीं पाया तो अन्य अशिक्षित और निरीह लोग अपनी रक्षा इस पुलिस व्यवस्था में कैसे करेंगे। पुलिस की नजर में तो हर कोई अपराधी ही है, चाहे वह राह चलता इंसान हो आईपीएस का ख्वाब संजोए एक विद्यार्थी।
कपिल शर्मा
दिल्ली-09
kapilsharmaiimcdelhi@gmail.com
Comments on “एक युवा पत्रकार की जुबानी, दिल्ली पुलिस की हैवानियत की कहानी”
gandhi ka bharat khatma ho gaya. policewale ne jaisa kiya waisa hi uske saath kiya jana chahiye…usko….ko goli mar dena chahiye
यही है भारत की पुलिस, पत्रकार इनकी नज़र तभी पत्रकार है जब वह थाने में दलाली करे या फिर किसी अखबार या चैनल में खबर छपवा सके. एजेंसियों या किसी भी बड़ी संस्था के पत्रकार इनके लिए कुछ नहीं है. पुलिस महाबली है. भाई टार्चर तो रोज झेलना पड़ता है चाहें कुछ जानना हो तब भी.यू.पी. पुलिस का हाल तो इससे भी बहुत बुरा है. मजबूरी है निभाना पड़ेगा.
कहने को हम भले ही ईकीस्वी सदी में होने की बात करे लकिन हमारी पुलिस सरंक्षा-सुरक्षा -सद्भाव के नारे दे लकिन पुलिस का असली चेहरा यही है की जनता जाये भाड़ में उनका साली काम वी वी आई पी -वी आई पी और गुंडों की तीमारदारी करना है .पुलिस को आम आदमी वर्दी वाला गुंडा इसी लिए कहता है और आज भी आई पी सी इंडियन पीनल कोड नहीं आईरिश पीनल कोड है इसलिए भाई कपिल शर्मा जी सस्ते में छुट गए शुकर मनाओ वरना पुलिस का क्या मेरा मानना है वो सोये हुए व्यक्ति पर दफा तीन सो दो लगा ले तो भी कोई अपील दलील नहीं छोटे भाई मान लगा कर सिविल सर्विसेज की तैयारी करो आई ऐ एस बने तो भी और आई पी एस बने तो भी मील का पत्थर बन साले उन मुस्तान्दो को सुधार लेना
बंदर के हाथ में उस्तरा – यह कहावत बचपन से ही सुनता रहा हूं पर आज समझ में आया कि पुराने लोगों ने कितना सोच समझ कर इसे गढ़ा होगा या फिर अगर ऐसा घटित होने के बाद ही यह मुहावरा बना होगा तो उस्तरे से बंदर ने कहावत बनाने वाले का क्या हाल किया होगा।
अर्ध साक्षर किस्म के सिपाहियों को मामले सुलझाने के लिए इक्कीसवीं सदी की तकनालाजी और तकनीक उस्तरे के रूप में तो मिल गई है पर मामले सुलझाने में इसका उपयोग कैसे किया जा रहा है – इसकी मिसाल है दिल्ली पुलिस की यह करतूत। अगर दिल्ली में यह हाल है तो देश के पिछड़े इलाकों का तो यही मानिए – बंदरों को उस्तरा मिल गया है।
आम लोगों के लिए भी एक सीख है इस कहानी में, कभी भी किसी अनजाने व्यक्ति का फोन उपयोग न करें और न अपना फोन उपयोग करने के लिए दें।
क्या करे हम एक “नपुंशक” भारत मे जी रहे है ,ये ऐसा लोकतंत्र है जो “पुलिस-तंत्र” पर निर्भर हैं.
अब पत्रकारों को कलम जेब मैं और लात गांड पर मारनी चाहिए
पत्रकार बिरादरी के लिए की बड़ी शर्मनाक बात है कि किस तरह हिजड़ो की तरहमुंबई में
मिड डे अखबार के sr. crime रिपोर्टर ज्योति डे को सरेआम गोलियों से भून दिया जाता
है ये मामला देख कर लगता है की आने वाले समय मैं रंडुए , भडुए और गन्दुये पत्रकारों
पर हाबी होते रहेंगे
क्या पत्रकार सारी उम्र गिफ्ट, admission , राशन कार्ड, वोटर कार्ड बनाने के लिए ही
पत्रकार बना है या अपने मीडिया संस्थानों के मालिको की दल्लागिरी करने के लिए
पत्रकारिता कर रहा है
गौरतलब है की ज्यादातर मीडिया संस्थानों के मालिको ने अपने यहाँ जो पत्रकार रखे है
बह सिर्फ उनकी दलाली व् काले कारनामो को छुपाने के लिए रखे गए है
यहाँ मैं कहना चाहूँगा की मरने वाला पत्रकार और कोई नहीं हमारा बिरादरी भाई था और
उस भाई की आत्मा चाहती है की इन माफियाओ को न बक्शा जाये बल्कि इन माफियाओ को
बेनकाब किया जाये क्योकि इन माफियाओ की कोई जाति, कोई धर्म नहीं होता और ये किसी को
अपना दोस्त नहीं मानते है ये माफिया बिरादरी सिर्फ अपना मतलब निकालना जानती है
क्योकि इन्हें पता है की पत्रकार सबसे पहले बिकता है और उस पत्रकार का बॉस (मालिक)
पहले ही उनकी रखेल बना हुआ है
पत्रकार भाइयो ये उस पत्रकार भाई को हम सबकी तरफ से सच्ची श्र्धनाजली होगी की सभी
पत्रकार भाई अब अपने पेन जेब मैं रखे और माफियाओ की गांड पर लात मारने के लिए तैयार
रहे
—लेखक प्रदीप महाजन (अखिल भारतीय मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष है )09810310927 ( http://www.insmedia.org )
Pyiyay Kapil aur media kai sare friends, yeh samay likh kar energy barbaad karne ka nahi hai, sab saath aaye aur iss injustice kai khilaaf AWAAZ uthaye.
भाई एक काम करो आप .. अपने इस केस को लेकर पुलिस मुख्यालय जाएं और दिल्ली पुलिस के आला अधिकारियों से इस मामले पर कार्यवाही करने की एक एप्लिकेशन लिखें .. हम आपके साथ हैं .. आप हमसे मेल के जरिए सम्पर्क करें ।
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