यह अप्रत्यक्ष रुप से संकेत था कि बिहार के सभी तथाकथित बड़े अखबार और पत्रकार सरकार और उसके नुमांइदों के खिलाफ़ बोलने से परहेज करते हैं। अन्यथा कोई कारण नहीं था कि एक विधायक पर बलात्कार का मुकदमा दर्ज हो और अखबारों को इसमें कोई न्यूज वैल्यू नजर न आये।
बिहार के अखबारों का सबसे घृणित रुप विधायक हत्याकांड में सामने आया। हत्या के केस में नवलेश पाठक को नामजद अभियुक्त बनाया गया। केस विधायक के भतीजे ने दर्ज कराया। पुलिस ने बिना किसी जांच के नवलेश पाठक को गिरफ़्तार कर लिया। पूर्णिया के एसपी हसनैन का कहना है कि नवलेश पाठक के फ़ोन रिकार्ड से पता चलता है कि उन्होंने रुपम पाठक से बहुत बार बात की है। विधायक केशरी के भतीजे ने एफ़आईआर में लिखा है कि हत्या के समय नवलेश पाठक बाहर खड़ी रुपम पाठक की मारुति वैन में बैठे हुये थे। देश के कानून यानी सीआरपीसी के अनुसार ही पुलिस तथा न्यायालय को कार्य करना है। सीबीआई को भी उसी प्रक्रिया का पालन करना है।
किसी भी व्यक्ति को गिरफ़्तार करने के बाद अगर पर्याप्त साक्ष्य है तो 24 घंटे के अंदर सीजेएम के समक्ष प्रस्तुत करना है। साथ में मेमो आफ़ एवीडेंस भी दाखिल करना है। मेमो आफ़ एवीडेंस वस्तुत: प्राइमा फ़ेसी साक्ष्य है जिसके आधार पर पुलिस गिरफ़्तार व्यक्ति को अपराधी मानती है। इसके बाद न्यायालय की कारवाई शुरु होती है। सीजेएम का दायित्व है देखना की क्या गिरफ़्तार व्यक्ति के खिलाफ़ प्रथम दृष्या अपराधी ठहराने योग्य पर्याप्त साक्ष्य है। अगर पर्याप्त साक्ष्य नहीं है तो सीजेएम गिरफ़्तार व्यक्ति को मुक्त करने का आदेश देंगे और साक्ष्य रहने की स्थिति में उसे जुडीशियल रिमांड में लेंगे।
ज्यादातर केस में पुलिस एक कागज दाखिल कर देती है, जिसमें सिर्फ़ इतना लिखा रहता है कि गिरफ़्तार व्यक्ति के खिलाफ़ पर्याप्त साक्ष्य उपलब्ध हैं और उस एक कागज के टुकड़े के आधार पर गिरफ़्तार को जुडिशियल रिमांड मे ले लिया जाता है। मेरे पूरे करियर में मात्र दो बार ऐसा हुआ कि सीजेएम ने हत्या के मामले में गिरफ़्तार किये गये व्यक्ति को, मेमो आफ़ एवीडेंस में दर्शाये गये साक्ष्य को अपर्याप्त मानते हुये मुक्त करने का आदेश दिया है। पुलिस की भूमिका अनुसंधान तक सीमित होती है। साक्ष्यों के अवलोकन का कार्य न्यायपालिका का होता है। साक्ष्य पर्याप्त है या नहीं यह तीन स्तर पर देखा जाता है, प्रथम जब अभियुक्त को गिरफ़्तारी के बाद न्यायालय में प्रस्तुत किया जाता है, दूसरा जब केस का अनुसंधान पूरा करके पुलिस फ़ाइनल या चार्जशीट न्यायालय में दाखिल करती है और तीसरी बार जब चार्ज फ़्रेम किया जाता है।
न्यायालय को इससे मतलब नहीं है कि पुलिस ने किसी अभियुक्त के खिलाफ़ चार्जशीट दिया है या फ़ाइनल। न्यायालय केस डायरी में अनुसंधान के क्रम में संकलित किये गये साक्ष्यों का ही अवलोकन करती है। अगर मेमो आफ़ एवीडेंस में पर्याप्त साक्ष्य है तो अभियुक्त को न्यायिक हिरासत में लेती है और अनुसंधान के बाद डायरी में पाये गये साक्ष्य के आधार पर केस का काग्निजेंस लेकर ट्रायल की प्रक्रिया शुरु की जाती है। चार्ज फ़्रेम के समय भी न्यायालय का कार्य है यह देखना कि किसी धारा के अंदर किस अभियुक्त के खिलाफ़ चार्ज फ़्रेम किया जाय। यहां यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि साक्ष्य का अर्थ वह सबूत है जिसके बिना पर सजा हो सके। evidence must lead to conviction.
अभी आरुषि केस में सीबीआई ने फ़ाइनल दाखिल किया, कारण बस इतना था कि सीबीआई के पास सजा करवाने योग्य साक्ष्य नहीं थे। मैंने भी अध्ययन करने के बाद पाया कि परिस्थितिजन्य साक्ष्य जो राजेश तलवार और उनकी पत्नी की तरफ़ हत्या में शामिल होने का संकेत कर रहे थे, उन्हें भी न्यायालय में साबित करने योग्य साक्ष्य सीबीआई के पास नहीं है, वैसी स्थिति में सीबीआई ने सारी बदनामी झेलते हुये वही किया जो उसे करना चाहिये था। बहुत जागरुक हूं मैं लेकिन आरुषि केस में सीबीआई के अनुसंधान की आलोचना मैंने नहीं की।
गलती की शुरुआत होती है स्थानीय पुलिस के अनुसंधान से। पुलिस कभी भी फ़िंगर प्रिंट नहीं उठाती है, न ही विभिन्न एंगल से लाश तथा घटना स्थल का फ़ोटो लेती है। केशरी के केस में भी यही हुआ है। जिस स्थल पर केसरी की हत्या होने तथा जिस परिस्थिति में हत्या होने की बात की जा रही है, वह संदिग्ध है। जाड़े के मौसम में शाल के अंदर से चाकू निकालकर एक खड़े व्यक्ति के पेट में 6 ईंच घोप देना संभव नहीं है। यह तभी हो सकता है जिसकी हत्या हुई हो वह पूरी तरह इत्मिनान के साथ सोया हो या खड़ा हो तथा शरीर पर बहुत कम मोटा कपड़ा हो। चाकू घुसने के बाद स्वाभाविक रुप से वह व्यक्ति प्रतिक्रिया करेगा। एफ़आईआर में जो वर्णित किया गया है, वह तो गलत है ही। उसके बाद की पुलिस की कारवाई भी गलत है। कोई फ़िंगर प्रिंट नहीं लिया गया, न तो घटना स्थल की विभिन्न एंगल से फ़ोटोग्राफ़ी की गई।
रुपम पाठक पर भी हत्या के बाद जानलेवा हमला हुआ लेकिन उसका एफ़आईआर रुपम पाठक के हवाले से न दर्ज कर के एक महिला पुलिस वाली के द्वारा दर्ज करवाया गया, जिसमें 1000 अनाम लोगों को अभियुक्त बनाया गया है। यानी पुलिस के स्तर पर पूरे प्रकरण में पक्षपात किया गया है। न्यायलय स्तर पर दो भयानक भूल हुई है, एक तो यह कि न्यायालय के समक्ष जब रुपम पाठक को प्रस्तुत किया गया तब जुडिशियल रिमांड में भेजने के पहले पूछना चाहिये था कि उसके साथ क्या हुआ और किसने मारपीट की। न्यायालय को सुओ मोटो यानी स्वत: संज्ञान लेने का अधिकार है। सीजेएम ने रुपम पाठक के उपर हत्या के बाद हुये कातिलाना हमले का संज्ञान क्यों नहीं लिया यह भी आश्चर्य की बात है।
दूसरी भूल तब हुई जब नवलेश पाठक को गिरफ़्तार कर के न्यायालय में प्रस्तुत किया गया तब न्यायालय को यह देखना था कि क्या नवलेश पाठक के खिलाफ़ मेमो आफ़ एवीडेंस में पर्याप्त साक्ष्य उपलब्ध हैं, जिसके आधार पर उनको जुडिशियल रिमांड में लिया जा सके या सिर्फ़ यह लिख कर पुलिस ने दे दिया है कि अभियुक्त एफ़आईआर में नामजद है तथा उसके खिलाफ़ पर्याप्त साक्ष्य उपलब्ध है? राज्य पुलिस और सीबीआई दोनों जगह पर एक ही आईपीएस होता है, अमूमन राज्य से ही सीबीआई में आईपीएस भेजे जाते हैं, फ़िर इनकी कार्यप्रणाली में इतना बड़ा अंतर क्यों? सीबीआई पहले अनुसंधान करती है, साक्ष्य इकट्ठे करती है फ़िर किसी को गिरफ़्तार करती है। राज्य पुलिस केस दर्ज होते ही सबसे पहले गिरफ़्तारी करती है।
खैर अभी तक जो कुछ हुआ है, उससे इतना तो स्पष्ट है कि पूरी जांच पूर्वाग्रह से ग्रसित है। पूर्णिया का एसपी राजनितिक दबाव में काम कर रहा है। नवलेश पाठक को गिरफ़्तार करके उनके मनोबल को तोड़ने का काम किया गया है ताकि पुलिस के गलत जांच मे कोई बाधा न बने। जहां तक पत्रकारों की बात है, तो सभी बड़े अखबार और पत्रकारों का कमीनापन और दोगलापन सामने आ चुका है। पूरी तरह नंगे हो जाने के वावजूद पत्रकारों के कमीनेपन में अभी भी कोई कमी नहीं आई है। अब कुछ नामचीन अखबार और पत्रकार रुपम पाठक के स्कूल की आर्थिक स्थिति की जांच की बात कर रहे हैं। विरोध का एक तरीका मेरे दिमाग में आया है। वह सारे लोग जो वास्तव में पत्रकारिता से जुड़े हैं और दलाली नहीं करते, अपने बैठने की जगह या घर में एक कागज पर लिखकर टांग दें कि बिहार के फ़लाना अखबार सता के दलाल हैं। मैं आज ही इसे शुरु कर रहा हूं।
लेखक मदन कुमार तिवारी बिहार के गया जिले के निवासी हैं. पेशे से अधिवक्ता हैं. 1997 से वे वकालत कर रहे हैं. अखबारों में लिखते रहते हैं. ब्लागिंग का शौक है. भड़ास4मीडिया के कट्टर पाठक और समर्थक हैं. अपने आसपास के परिवेश पर संवेदनशील और सतर्क निगाह रखने वाले मदन अक्सर मीडिया और समाज से जुड़े घटनाओं-विषयों पर बेबाक टिप्पणी करते रहते हैं.
Comments on “सरकार का पूर्वाग्रह और पत्रकारों का दोगलापन”
sach hai.ektarfa karyawahi hui hai.akhir kaun si wajah thi ki rupam patahk ko itna bada kadam uthana pada.sushil modi ki bhumika ki bhi janch honi chahiye ,aiu shayad nispakchch takike se.
दोसतों नवलेश पाठक के साथ जो हुआ उसका विरोध होना चाहिये । अगर हम सब अपने -अपने स्तर से सभी उपलब्ध मंचो से अगर आवाज उठाये तो निश्चित मानिये नवलेश पाठक की रिहाई होगी और दोषी पुलिस अधिकारियों को सजा भी ।
SAHI LIKHA .
BIHAR KE सता के दलाल “Bade Patrakaron ” NE APNA DIN-IMAN Nitish Kumar, Police-Prashashan KE YAHAN GIRWI RAKH DI HAI.
INKI TULNA KUTTE (Dog) SE BHI NAHI Ki Ja SAKTI.
bahut khub madan bhai.kam se kam nawlesh pathak ki giraftari par to aapne sawal uthaya.samaroho aur goshthio me patrkaro ke hit ki bade-bade bate karne wale tathakathit bade patrkaro ko bhi kash sadbudhi aaye.
very realistic article , keep the same sentiment ahead……CBI will also thinking in your way….keep flying even more is such isssues