हिन्दुस्तान व जागरण ने छोटी खबर को बनाया बड़ी

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मेरठ में हिन्दुओं और मुसलमानों का अनुपात लगभग 60-40 का है। अस्सी के दशक में मेरठ ‘दंगों का शहर’ नाम से कुख्यात हो गया था। लेकिन बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद जब उत्तर प्रदेश के कई शहर साम्प्रदायिक हिंसा से जल रहे थे, तब मेरठ ने शांत रह कर पूरे प्रदेश में एक मिसाल पेश की थी। उसके बाद यह संवेदनशील कहा जाने वाला शहर किसी बड़े दंगे की आग में नहीं जला।

पिछले साल जरुर मुसलमानों की एक विशेष जाति के लोगों ने अपने व्यापारिक हितों की खातिर शहर को दंगों की आग में झोंकने की कोशिश की थी। उस कोशिश को शहर के हिन्दुओं और मुसलमानों ने नाकाम कर दिया था। इस शहर के लोग साथ-साथ रहते हैं, काम करते हैं, एक दूसरे के व्यापार भी आपस में साझा है। एक दूसरे की खुशी और गम में बराबर शरीक होते हैं। यदि सड़क पर कोई आदमी दुर्घटना में घायल हो जाए तो उसे अस्पताल पहुंचाते वक्त उसका धर्म नहीं देखते। जब सब कुछ साझा है तो फिर आपस में तकरार भी होती है। मेट्रो सिटी का दर्जा पा चुके इस शहर में अक्सर किसी छोटी-मोटी बात को लेकर एक ही शहर के नागरिक होने के नाते दोनों के बीच व्यक्तिगत रुप से छोटी-मोटी झड़पें होती रहती हैं।

किसी हिन्दू की मोटर साइकिल किसी मुसलमान से टकराने पर ही झड़प हो जाती है। कभी क्रिकेट खेलने पर ही तू तू-मैं मैं हो जाती है।हद यहां तक है कि एक हिन्दू या मुसलमान के हाथों अंडे का फूटना भी झड़प का सबब बन जाता है। ऐसी झड़पों का साम्प्रदायिकता से दूर-दूर तक भी वास्ता नहीं होता। ऐसी छोटी-मोटी घटनाओं को भी मेरठ का मीडिया ऐसे पेश करता है, जैसे बस दंगा होने ही वाला था।

कल 13 सितम्बर की एक घटना है। यहां के मोहल्ला इमलियान में में कुछ बच्चे अपनी छत पर फुटबाल खेल रहे थे। जिस घर की छत पर फुटबाल खेली जा रही थी, उस घर के पीछे एक हिन्दू टिल्लू का घर है, जिसमें फुटबाल जा गिरी। फुटबाल मांगी गई तो उसने मना कर दिया। इसी बात को लेकर बात बढ़ गयी। टिल्लू ने तैश में आकर अपनी लाईसेंसी बंदूक से फायर कर दिया। गोली के कुछ छर्रे एक मुस्लिम युवक को जा लगे। महज इतना हादसा था। पुलिस और क्षेत्र के लोगों ने मामला शांत करा दिया।

इस हादसे को मेरठ के ‘हिन्दुस्तान’ और ‘दैनिक जागरण’ ने बड़ा बनाकर पेश किया। एक हिन्‍दू और मुसलमान के बीच होने वाली छोटी सी व्यक्तिगत झड़प से भी मेरठ के कुछ अखबारों को ‘शहर की फिजा’ खतरे में नजर आने लगती है। कल की घटना को ‘हिन्दुस्तान’ और ‘दैनिक जागरण’ ने पहले पेज पर मुख्य खबर तो बनाया ही, सिटी वाला पूरा एक पेज इसी खबर के नजर कर दिया। दोनों अखबारों ने तस्वीरों के माध्यम से यह बताया कि शहर में दहशत के चलते सड़के सुनसान हो गयीं। जबकि सच यह था कि बारिश की वजह से सड़के सुनसान थीं।

‘अमर उजाला’ ने संयम बरता। खबर छोटी करके लिखी। इस तरह की झड़पें कितनी महत्वहीन और रुटीन वाली होती हैं, इस बात का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता कि जिस क्षेत्र में इस तरह की झड़पें होती हैं, उस क्षेत्र के लोगों को भी पता नहीं चल पाता कि क्या हुआ। जब वे सुबह का अखबार देखते हैं तो उनके मुंह से यही निकलता है, ‘अरे! कल यहां यह हो गया हमें तो पता ही नहीं चला।’ उस पर तुर्रा यह कि बॉक्स में यह खबर भी डाल दी जाती है कि ‘शहर में अफवाहों का बाजार गर्म हो गया।’ पता नहीं अखबार इस तरह की खबरें, जो फिजा को वाकई खराब कर सकती हैं, क्यों छापते हैं। इस तरह की झड़पों की खबर को महज दो शहरियों के बीच की झड़प मान कर ही खबर लिखी जानी चाहिए न कि दो समुदायों के बीच होने वाली झड़प की तरह।

एक और मजे की बात जान लीजिए। ऐसी झड़पों की खबर लिखते समय अखबारों की अपनी आचार संहिता के मुताबिक, जिसमें लड़ने वालों का धर्म नहीं खोला जाता, ‘दोनों समुदाय के लोग आमने-सामने आ गए’ लिखा जाता है। यह अलग बात है कि बीच में कहीं लड़ने वालों के नाम से यह बता भी दिया जाता है कि मामला हिन्दू और मुसलमानों के बीच का है। ऐसी खबरों की विशेष बात यह भी है कि मुसलमानों को ‘एक वर्ग विशेष के लोग’ लिखा जाता है तो हिन्दुओं के लिए ‘बहुसंख्यक वर्ग के लोग’ प्रयोग किया जाता है। जैसे यह लिखा जाता है कि ‘एक वर्ग विशेष के लोगों’ या ‘बहुसंख्यक वर्ग के लोगों’ ने जाम लगा दिया या ‘नारेबाजी शुरु कर दी’। हालांकि साथ में लगी तस्वीर साफ बता देती है कि जाम लगाने या नारेबाजी करने वाले कौन लोग हैं। समझ में नहीं आता कि इशारों में बताने के बजाय झगड़ा करने वालों का धर्म ही क्यों नहीं बता दिया जाता है। क्या अखबार वाले अपने पाठक को इतना नासमझ समझते हैं कि वे इशारों की बात नहीं समझेगा?

ऐसे में जब अयोध्या विवाद का अदालती फैसला इसी महीने की 24 तारीख को आने वाला है, ऐसे में अखबारों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो गयी है। छोटी सी खबर को बड़ी बनाने से शहर में बेमतलब का तनाव फैलता है। मेरठ एक जो एक संवेदनशील और दंगों के लिए कुख्यात रहा है, में तो अखबारों को और ज्यादा संयम बरतना चाहिए।

मेरठ से सलीम अख्तर सिद्दीक़ी की रिपोर्ट.

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Comments on “हिन्दुस्तान व जागरण ने छोटी खबर को बनाया बड़ी

  • akhbaro me ab aachar sahinta jaisi baat nahi rahi. desh & samaj ki jababdari patrkaro ke dimag per haabi kunthit vicharo ke aage booni ho jaati hai. yeh kuntha vo sansthan paros rahe hai jinhone desh bhakti (desh-droh) ka theka le rakha hai. ab bahumat aise logo ka hoga to phir aisi hi khabro ki ummid ki ja sakti hai.

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  • sididqui sahab patrakarita me adhikaar aur jimmedaari ke beech bahut najuk lekir hoti hai..kuch patrkar ise jante hai kuch nahi..jo nahi jante meri nazar me wo patrakar nahi…sath hi jo unke adhikaar hai wo prashashn aur shashan ke liye istemaal hi nahi karte…

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  • Rajni Kant Mudgal says:

    Mujhe Hindustan ki ek ghatna yaad aa gayi. Rajasthan ke ek shahar ke function mein bijali chali gayi, Ese samay mein jaisa hota hai, bachche aur auratein chillane lagi. Kuchh manchalon ne kisi mahila ko tang bhi kiya. Agle din Delhi ke Hindustan mein khabar chhapi…”.200 mahilaon ke saath samoohik balatkar……”. Sampadak badal gaye..reporter badal gaye..samay badal gaya…par akhbar to wahi hain aaj bhi…nazariya nahin badla patrakar ka.

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  • Rajni Kant Mudgal says:

    Aaj hi dilli ke akhbaron mein khabar padhi ki bihar ke do akhbaron ne ghoshna ki hai ki ve paid news nahin chhapenge…..kya pahle chhapte the janab.

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  • सलीम भाई मै आपकी बात से पूरी तरह सहमत हू लेकिन न्यूज़ पेपर का नंबर वन बनने का सवाल आते ही सब कुछ भूल जाते है

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  • सलीम भाई आपने सारे न्यूज़ पेपर के बारे में लिखा लेकिन शायद दैनिक प्रभात नहीं देखा प्रभात ने इस घटना को एक रूटीन खबर मानकर ही लिखा और सारी फोटो होने के बाद भी केवल एक फोटो और दो कालम की खबर लिखी क्योंकि हमारे लिए शहर की अमन शांति पहले है

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  • meerut ki shaan says:

    प्रेस की स्वतंत्रता पर मनचाही टिप्पणी करने को मुस्लिम विद्वानों ने गंभीर माना है

    किसी घटना की गहराई से कवरेज कर उसकी हकीकत व तकनीकी पहलुओं से आम जनता को अवगत कराना प्रेस का कार्य ही नहीं बल्कि उसका दायित्व भी है, और यदि प्रेस के इस कार्य में कोई खलल डालता है अथवा उस पर कोई टिप्पणी करता है तो वो न सिर्फ समाज का बल्कि मानवता का गुनहगार भी है। यह सोच किसी आम शख्स की नहीं बल्कि समाज में अपनी अलग व दमदार हैसियत रखने वाले कुछ एेसे लोगों की है जिन्होनंे समय समय पर अपनी सूझ बूझ से इस शहर को साम्प्रदायिकता की आग में झुलसने से बचाया है। इमलियान-प्रकरण पर जब इधर-उधर के कुछ लोगों ने प्रेस की निष्पक्षता पर सवाल उठाए तो समाज के संभ्रात लोगों ने फौरन ही एेसे लोगों की सोच को ‘तुच्छ मानसिकता’ वाला बताते हुए साफ कहा कि अगर ‘मीडिया’ न होती तो ‘सुबह’ ही न होती। उन्होंने तो सुबह का आधार ही मीडिया को बताया। इमलियान प्रकरण पर जब हमने अपनी निष्पक्ष व गहराई से की गई कवरेज को अगली सुबह लोगों के सामने रखा तो शहर जागा और उसे इस बात का एहसास हो गया कि मामला वास्तव में दो सम्प्रदायों का न होकर सिर्फ ‘फुटबॉल’ का था। शहर के मुस्लिम विद्वानों का साफ कहना है कि यदि इस खबर को ‘आम खबर’ की तरह परोसा जाता तो शहर में बवाल भी हो सकता था, इन मुस्लिम विद्वानों के अनुसार ‘इमलियान-प्रकरण’ पर की गई तह तक की कवरेज व फिर उसे लोगों के समक्ष ‘तहजीब’ के दायरे में पेश करना मीडिया का ही कमाल है।

    कारी शफीकुर्रहमान कासमी (महासचिव, ऑल इंडिया मिल्ली काउंसिल)–
    शहर के लोगों को पूरी सूरत-ए-हाल से अवगत कराना प्रेस की जिम्मेदारी है, और इमलियान प्रकरण में उसने एेसा ही किया जिससे शहर के लोगों के दिलों दिमाग पर हावी खौफ सुबह अखबार पढ़ते ही दूर हो गया और दिनचर्या सामान्य हो गई। उन्होंने कहा कि अगर यह खबर ‘आम खबर’ की तरह पेश की जाती तो लोगों के दिलो दिमाग में बदगुमानी पैदा होती और दोनों ही साम्प्रदायों की भावनाआंे को ठेस पहुंचती।

    जैुरल राशेदीन (नायब शहर काजी)—
    इमलियान प्रकरण पर लोगों ने जब सुबह अखबार में खबर को पढ़ा और उसके तकनीकी पहलुओं को समझा तो उन्हे इतमिनान हो गया, और शहर भी सामान्य रहा। भले ही अफवाहों का दौर चला, लेकिन जैसे जैसे घटना की सच्चाई अखबार के माध्यम से लोगों को पता चली तो फिजाओं में तैरता खौफ छूमंतर हो गया।

    मौलाना शराफत हुसैन (उपाध्यक्ष, ऑल इंडिया शिया पर्सनल लॉ बोर्ड)—
    घटना छोटी हो या बड़ी, इससे लोगों को कम व अगले दिन अखबार में क्या छपता है इसका लोगों पर ज्यादा प्रभाव पड़ता है। इमलियान प्रकरण पर भी यही हुआ। घटना चूंकि दो सम्प्रदायों से जुड़ी थी इसलिए स्वयं में गंभीर थी लेकिन जिस प्रकार मीडिया ने खबर की गहराई तक जाकर उसकी छानबीन की और उसे लोगों के समक्ष पेश किया तो लोग के मन में पैदा हुआ खौफ अखबार पढ़ते ही खत्म हो गया।

    मुफ्ती एम. अशरफ (मुतवल्ली, वक्फ बाले मियां कमेटी)–
    किसी खबर को अगर मीडिया बिना उसकी तह तक जाए छाप दे तो उसका कुछ भी रिएक्शन हो सकता है। इमलियान प्रकरण पर अगर लोगों को पूरी जानकारी डीटेल में न दी जाती तो शहर में बवाल की स्थिति बन सकती थी, इस प्रकरण पर मीडिया मुबारकबाद के लायक है क्योंकि उसने अपनी जिम्मेदारी को समझते हुए शहर को अशांत होने से बचा लिया।

    मासूम असगर (महासचिव, शहर कांग्रेस कमेटी)–
    24 सितम्बर को लेकर फिजाओं में पहले से ही तल्खी है, एेसे में इमलियान प्रकरण पर अगर मीडिया अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ लेता तो शहर के माहौल में भी तल्खी (कड़वाहट) पैदा हो जाती।
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  • सलीम अख्तर सिद्दीक़ी says:

    kitni ajeeb baat hai kee MEERUT KEE SHAAN apni asliyat chupakar baat kartee hai. meri samajh nahin aa raha kee is safai ko HINDUSTAN kee samjhun ya dainik jagran kee.jab imliyan parkarn par lekhak mohdye ne muslim samaj ke tamam parbudh logon se baat karke apni baat rakhee hai to unhen apni pehchan chupane kee zarurat kya hai. mein kaise maan loon kee muslim jagat ke in logon ne yahee sab kaha hai?

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