सूचनाओं और घटनाओं को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करने के लिए पत्रकार का शब्द-शिल्पी होना जरूरी है। हर शब्द एक शख्स है, जिसके भीतर आत्मा होती है। यही आत्मा शब्द के व्यक्तित्व का निर्माण करती है। जब तक पत्रकार उसकी आत्मा से साक्षात्कार नहीं करेंगे, वे शब्दों की सुगंध पाठकों को नहीं दे सकेंगे। इक्कीसवीं सदी में हिन्दी के अखबार भाषा-दारिद्रय के संकट को झेल रहे हैं। आज हिन्दी पत्रकारिता के समक्ष सबसे बड़ी चिंता भाषा की अशुद्धि और विपन्नता की है।
हिन्दी की नयी पीढ़ी के पत्रकार भाषा के प्रति लापरवाह हो गये हैं। इलेक्ट्रानिक मीडिया में तो बोल-चाल की भाषा अपनाते समय व्याकरण के नियमों की परवाह ही नहीं की जाती है। भाषा और व्याकरण के नियमों के संदर्भ में यह बात महत्वपूर्ण है कि कोई भी जीवंत भाषा सतत प्रवाहमान रहती है और वह नये-नये शब्दों से स्वयं को समृद्ध करती है। ऐसे अनेक शब्द हैं, जिनके अर्थ बदल गये और वे अपने पुराने अर्थ को छोड़ कर नये अर्थ में आ गये हैं। हिन्दी में एक दीर्घ अवधि से यह क्रम जारी है। जब शब्द अपना अर्थ परिवर्तित कर दें, तो उन नये रूप को गलत नहीं माना जा सकता। जिन शब्दों ने अपना अर्थ बदल दिया है, उनके सम्बंध में मैं संक्षेप में चर्चा कर रहा हूं।
एक शब्द है-‘अपार’। इसका अर्थ है-‘तट-रहित’। अब इसका रूप बदल गया है। अब अखबारों में सभाओं, जुलूसों आदि के वर्णन में लिखा जाता है-अपार भीड़। हालांकि भीड़ पार-हीन नहीं होती। अब ‘अपार’ अपना पुराना अर्थ त्याग कर ‘अति’ का अर्थ प्रकट करता है। यह गलत नहीं है। एक शब्द याद आता है- ‘दम्पति’। इसका अर्थ अब पति-पत्नी के रूप में है, लेकिन पहले घर के मालिक को ‘दम्पति’ कहते थे। ‘दम’ का अर्थ होता है घर। चूंकि पति और पत्नी दोनों घर के मालिक होते हैं, इसलिए ‘दम्पति’ शब्द प्रचलित हो गया। शब्द की आत्मा को जाने बगैर बहुत सारे जाने-माने पत्रकार भी ‘दम्पत्ति’ लिखते हैं, जो अशुद्ध है। ‘दम्पति’ शब्द तो शुद्ध है ही, लेकिन संस्कृत के अनुसार ‘दम्पति’ उभयवाची संज्ञा होने के कारण ‘दम्पती’ के रूप में भी शुद्ध है। यानी ‘दम्पति’ और ‘दम्पती’ दोनों शुद्ध हैं, एकवचन नहीं, बहुवचन के रूप में। जैसे, मेरे घर दम्पति या दम्पती आये। इसी तरह बहुत सारे शब्द हैं, जिनके उत्पत्ति, विकास और व्याकरणसम्मत रूप जान जाएंगे, तो उन शब्दों की आत्मा से हम परिचित हो जाएंगे और गलत नहीं लिखेंगे।
हिंदी-अंग्रेजी भाषाओं का घोल न बनावें
भारतेन्दु-युग या स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद भी हिन्दी भाषा की शुद्धता के प्रति जितनी जागरूकता थी, उतनी आज नहीं है। हिन्दीसेवियों की आंखों के सामने हिन्दी भाषा की दुर्गति हो रही है और वे कुछ कर नहीं पा रहे हैं। यह दुर्गति हिन्दी के मीडियाकर्मियों की कलम से भी हो रही है। वे शब्दों के इस्तेमाल के प्रति काफी लापरवाह हैं।
हिन्दी के अखबारों में, खासकर टीवी चैनलों द्वारा जानकारी के अभाव में गलत शब्दों का प्रयोग धड़ल्ले से हो रहा है। बहुत सारे अखबारों में ‘पश्चात्ताप’ का गलत रूप देखने को मिल रहा है। अगर हम इस शब्द की जड़ में जाएं, तो पता चलेगा कि यह शब्द है- ‘पश्चात्+ताप’ यानी किसी काम को करने के बाद जो दु:ख, ताप हो, वही ‘पश्चात्ताप’ है। कई पत्र-पत्रिकाओं में ‘प्रायश्चित’ शब्द देखने को मिलता है। वस्तुत: इसका सही रूप है ‘प्रायश्चित्त’। समाचार वाचक कभी भी ‘त्त’ का शुद्ध उच्चारण नहीं करते हैं। वे जानते ही नहीं हैं कि अफसोस ‘चित्त’ में होता है, ‘चित’ में नहीं। इसलिए वे ‘त’ के संयुक्त रूप ‘त्त’ का उच्चारण नहीं करते हैं। इसी तरह उर्दू-फारसी के मूल शब्दों की जानकारी नहीं होने के कारण ‘कागजातों’, ‘अलफाजों’, ‘बागानों’ जैसे शब्द अखबारों में खूब चल रहे हैं। इलेक्ट्रानिक मीडिया में भी कई बार भ्रष्टाचार के मामले के समाचार में ‘कागजातों’ शब्द का प्रयोग मैंने सुना है। इनका शुद्ध रूप है- ‘बागान’, ‘अलफाज’ और ‘कागजात’। उर्दू व्याकरण के अनुसार बाग का बहुवचन है बागान और कागज का बहुवचन रूप है कागजात। इसी तरह हिन्दी का शुद्ध शब्द ‘पूजनीय’ है, ‘पूज्यनीय’ नहीं, क्योंकि ‘पूज’ धातु में या तो ‘यत्’ प्रत्यय के योग से ‘पूज्य’ बन सकता है या ‘पूज’ के साथ ‘अनीय’ प्रत्यय के योग से ‘पूजनीय’ की निष्पत्ति होती है।
भाषाविज्ञान और व्याकरण किसी भाषा का संविधान होते हैं, जिसके तहत ही चला जा सकता है। संविधान और कानून में बदलाव भी आ सकता है, लेकिन उसकी एक प्रक्रिया है। संविधान और कानून के जानकार ही परिवर्तन ला सकते हैं। इस समय हिन्दी अखबारों एवं चैनलों में अंग्रेजी शब्दों का बेमतलब प्रयोग कर एक ऐसा पौधा रोपा जा रहा है। भूमंडलीकरण में मीडिया के जरिये विदेशियों ने हिन्दी को अपना निशाना बना लिया है। वे यह दलील दे रहे हैं कि वैभववादी सांस्कृतिक लोक में विचरण करना है, संचार और व्यापार में आगे बढ़ना है, तो हिन्दी का यह दकियानूसी और भावुकतावादी मोह छोड़ कर हिन्दी के समाचारों को हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं का घोल बनाना होगा। इस संबंध में हम अगले भाग में बात करेंगे।
(जारी)
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लेखक अमरेंद्र कुमार बिहार के सासाराम जिले के निवासी हैं। वे हिंदी के प्राध्यापक रहे, बाद में सक्रिय पत्रकारिता की ओर मुड़ गए। वे कई अखबारों और पत्रिकाओं में वरिष्ठ पदों पर रहे। अमरेंद्र जी ने पत्रकारिता पर कई किताबें भी लिखी हैं। उनसे संपर्क 09990606904 के जरिए या फिर [email protected] के जरिए किया जा सकता है।