करीब 14 साल बाद हम एक बार फिर आईआईएमसी में थे। बहुत कुछ बदला था, लेकिन शायद कुछ नहीं बदला था। संस्थान की एक एक ईंट जैसे हमसे बातें करना चाहती थी। सभी अपने-अपने बैच के साथियों की तलाश में थे। वहां पहुंचते जैसे पिछले 14 साल जिंदगी से घट गए। वही 24-25 साल वाली नौजवानी की तरंग दिल में हिलोरें मार रही थीं। मंच सजा था तो भाषणबाजी भी चालू थी। कुछ तो वाकई माइक के लाल थे। माइक पकड़ा तो छोड़ने के लिए राजी नहीं थे।
मन बावला हो रहा था। शरारत करने की लालच जग रही थी। आगे की कतार में बैठे थे नए बैच के लड़के। उन्हें इशारे से बताया कि ताली बजा दो, उन बच्चों ने ताली तो नहीं बजाई, लेकिन बड़ा मन हुआ मेरा कि जमकर ताली बजा दूं। बाद में पता चला कि हमारे बैच के कमोबेश सभी लोगों की यही राय थी।
पेट पूजा करने का ऐलान हुआ तो सभी बाहर आए। कुछ को पेट पूजा की जल्दी थी, तो कुछ इस नाते जुट गए कि कहीं खाना खत्म न हो जाए। एक खबर ये थी कि उपस्थित लोगों में कुछ भोजन भट्ट भी शामिल हैं और कई के आने की सूचना भी थी। कुछ लोग खाना तोड़ने में लगे तो कुछ लोग अपने बैच को इकट्ठा करके तस्वीरें खिंचवाने में मशरूफ हो गए। सीढ़ी पर प्लेट लेकर बैठे थे जांगिड सर। हम लोगों के वक्त में हिंदी पत्रकारिता के कोर्स डायरेक्टर थे डॉ. रामजीलाल जांगिड। पक्के गुरुजी वाली तबीयत के। उनसे मुलाकात हुई, हम सब एक साथ मिले। पैर छुए, उन्होंने हालचाल पूछा। प्लेट में सिर्फ रोटी बची थी। मुझे प्लेट थमाकर बोले-तू सबसे मोटा है, जा मेरे लिए सब्जी लेकर आ। मैंने पूछा किस चीज की सब्जी..। बोले- जा जितनी हों, सब उठा ला। मैंने प्लेट उठाई और दौड़ पड़ा। शायद डर था कि कोई दूसरा न छीन ले। ये प्लेट नहीं थी, एक गुरु का आशीर्वाद था, उनका प्यार था।
आडीटोरियम नया बना है, हम लोगों के वक्त में नहीं था। उसके पीछे है कैंटीन। बरबस हम लोग चल पड़े। साथ में थे सुप्रिय प्रसाद (न्यूज 24 के डायरेक्टर न्यूज), अमरेंद्र किशोर (एनजीओ इंट्वाट के डायरेक्टर), सुभाष कदम (एक्जीक्यूटिव एडिटर, स्टार न्यूज), उत्पल चौधरी ( एक्जीक्यूटिव एडिटर, स्टार न्यूज), प्रमोद चौहान (एसोसिएट सीनियर प्रोड्यूसर, आज तक), राजीव रंजन (विशेष संवाददाता, एनडीटीवी) और पवन जिंदल। कैंटीन बंद थी, लेकिन उसके कोने की बेंच हमसे कुछ कह रही थी। शाम 5.30 बजे के बाद अक्सर यहां महफिल जमती थी। दोपहर को गीत गजल की महफिल तो कैंटीन में ही बैठ जाती थी। शर्त ये थी कि कोई पीरियड न हो। 5.30 के बाद वाली महफिल कई बार हसीन हुआ करती थी। सुरा और सुंदरी की महफिल। सुरा हम लोगों के पास होती और कई सुंदरियां दिखतीं अपने ब्वाय फ्रेंड से चिपकी हुईं। आईआईएमसी वैसे भी बड़ी रोमांटिक जगह पर बना हुआ है। प्रेमी जोड़े खूब दिखते थे। और कैंटीन के पीछे से खूब दिखते थे ये जोड़े। हममें से कोई दिलजला नहीं था, बस दूर से आनंद लिया करते थे। कई बार कैंटीन के पीछे खड़े होकर कई बार सोचते रहते थे कि क्या बिना सीढ़ियों के यहां से छत पर जाया जा सकता है। तब तो सिर्फ सोचते थे। इस बार लगा कि बिल्कुल जा सकते हैं। अगर जगहंसाई का डर न होता तो शायद कोशिश भी करते।
क्लासरूम में भी गए। कुछ भी नहीं बदला था। वो बोर्ड था जहां अखबार की कतरनें लगती थीं। अमरेंद्र किशोर शुरुआती लिक्खाड़ था। हफ्ते में जरूर एक लेख उसका छपता और वो वहीं चिपका देता। लड़कियां उसी से पूछतीं। वो आगे वाली सीट पर बैठता था। हर हफ्ते वो हम लोगों के सीने पर मूंग दलता। बाद में सबका कुछ न कुछ छपने लगा। क्लासरूम के बाहर जांगिड सर का रूम था, लेकिन अब उस पर आनंद प्रधान जी का नाम चिपका था। बगल में था एक और कमरा, जो कभी हेमंत जोशी जी का होता था। हेमंत जी ज्यादातर कमरे के बाहर होते थे। तब मोबाइल का जमाना नहीं था। दो रुपये की लोकल कॉल थी और दो रुपये में दो सिगरेट मिलती थी। जोशी जी के कमरे में फोन था औऱ जीरो डायल करने के बाद लोकल बात हो जाती थी। अविष्कार किया था अमरेंद्र ने, फायदा उठाया सबने। वो कमरा पीसीओ बन चुका था। जिसको भी फोन करना होता, चुपके से जाता, निपटाकर चला आता। इस कमरे में कुछ अनहोनियां भी हुई थीं। कुछ शरारतें भी हुई थीं। किसके साथ ये शरारतें हुई थीं, किसने की थीं, इसका मैं चश्मदीद था। लेकिन न तब बताया था और न अब बताऊंगा। वो बचपना था, हालांकि हमारे ग्रुप के करीब करीब सभी लोग जानते हैं।
मेरे पास उस वक्त की कुछ तस्वीरें थीं। सुप्रिय खुद को पहचान नहीं पाए। बोले-यार मैं कभी दुबला भी था। सभी साथी 14 साल पहले की दुनिया में थे और इन तस्वीरों ने 14 साल पहले पहुंचा भी दिया। सुभाष ने अभी तक शादी नहीं की, सबसे जवान दिखता है, पहले और भी हैंडसम था। ये हमारे ग्रुप की इंटरनेशनल मिसाइल थी- इंग्लिश जर्नलिज्म वाली कई लड़कियों से उसकी अच्छी दोस्ती थी। हालांकि इस दोस्ती का कोई ट्रांसलेशन हो नहीं पाया।
इसी बीच बुलावा आ गया, आडीटोरियम में पुराने छात्रों को मंच पर बुलाया जा रहा था। हमारा बैच बढ़ा तो तालियां बजीं। हैवीवेट था, विनम्रता से कहना चाहूंगा कि शायद सबसे कामयाब बैच था। सुप्रिय प्रसाद आज तक में आउटपुट हेड थे और उनकी तूती बोलती थी, अब न्यूज 24 के डायरेक्टर न्यूज हैं। रवीश कुमार एनडीटीवी में आउटपुट हेड हैं। सरोज और शमी हिंदुस्तान और राष्ट्रीय सहारा जैसे अखबारों में न्यूज एडिटर और डिप्टी न्यूज एडिटर जैसे पदों पर हैं। सुभाष, संगीता तिवारी और उत्पल स्टार न्यूज में बड़े पदों पर हैं। मिहिर, प्रमोद चौहान और अमन आज तक में हैं। सर्वेश तिवारी वीओई के न्यूज रूम एडिटर हैं। मुकेश कुमार, सत्यप्रकाश, अरविंद ऋतुराज और कई और साथी प्रिंट मीडिया में झंडे गाड़ रखे हैं। अमरेंद्र किशोर आदिवासियों पर केंद्रित एनजीओ चलाता है। नाम-दाम दोनों कमा रहा है। छह किताबें भी लिख चुका है। नलिन चौहान दिल्ली के राज्यपाल का सूचना अधिकारी है। जलवे हैं पूरे। शिवप्रसाद जोशी और शालिनी मियां बीवी हैं। शिव जर्मनी में है रेडियो में और शालिनी बीबीसी की देहरादून संवाददाता हैं।
मंच पर परेड हुई, परिचय हुआ, सुप्रिय ने मुझे बोलने के लिए कहा। इस बार माइक का लाल बनने का मौका मिला था। अपने घर में पहुंचा था, खुशी में डूबा था, जो दिल में आया बोल दिया। हालांकि तालियां भी बजीं, ये कुछ कहने पर बजी थीं, या फिर भाषण खत्म करने के लिए, राम जाने।
दौड़ती हांफती संगीता भी पहुंच चुकी थी। हमारे बैच की सबसे कामयाब चेहरे में से एक। स्टार की स्टार रिपोर्टर। संगीता की इमेज बहुत सीधी सादी लड़की का था, वो थी भी, लेकिन धनुष से कम और जलेबी से ज्यादा सीधी। मैंने उसे अपनी बहन का रिश्ता दिया था। संगीता ने हड़काया कि बिना उसके हम लोग कैसे मंच पर चले गए। बहरहाल बाद में उसे भी भेजा मंच पर राजीव रंजन के साथ।
एक बार फिर हम लोग आडीटोरियम के बाहर थे। सूरज मद्धम हो चला था। हम लोग कैंटीन की तरफ निकले। कैंटीन से ऊपर की तरफ घास पर बैठकर सुप्रिय प्रसाद अपने स-परिवार का खाका बनाते थे। बड़ा गजब था स-परिवार। इसमें थे-सुप्रिय, सुभाष, संगीता, शालिनी, सीमा। वैसे ऐसे कई लोग थे, जिनका नाम एस से शुरू होता था। लेकिन ये वो लोग थे, जिन्हें मौका मिलने पर सुप्रिय ने आज तक में काम करने का मौका दिलवाया, जहां से इन लोगों ने लम्बी उड़ान भरी। स-परिवार की बैठक वाली जगह से निकले तो कैंटीन में आकर बैठे..। उस ओर खास तवज्जो दी गई, जहां बैठकर शिवप्रसाद जोशी शालिनी को वामपंथी कविताएं सुनाता था। वो कविताएं सुनाता था, शालिनी उन कविताओं से इंप्रेस हो चुकी थी। शालिनी पहले कंचन थी, शिव ने उसे मिसेज जोशी बना दिया। शालिनी की शादी में बहुत लोग पहुंचे थे, मैं नहीं पहुंच पाया था। सबने अलग-अलग गिफ्ट दिए होंगे, लेकिन मित्र मुकेश कुमार (चीफ सब एडिटर, आईनेक्स्ट, मेरठ) ग्लोब लेकर पहुंचे थे। और इस तरह उन्होंने अपनी दुनिया शालिनी और शिव को सौंपी थी।
इस बीच पता चला कि नलिन भी आ रहा है। हम लोगों के बैच में सबसे कम उम्र का नलिन। 6 फीट से ज्यादा लम्बा और उसी तरह हट्टा-कट्टा। नलिन का जिक्र चला तो उसके खाने की भी चर्चा हुई। पक्का राष्ट्रवादी है। हिंदी हो या अंग्रेजी, उसके साथ बहस में जीतना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन भी रहा। नलिन आया तो मजा आ गया। पहले से भी ज्यादा मोटा तगड़ा हो गया है, जैसे कोई खाया पिया नेता। नलिन आया तो महफिल उसकी हो गई। वो वक्ता, बाकी श्रोता। इस नौकरी की नश्वरता का ऐसा हृदय विदारक वर्णन किया कि हम लोगों की सिट्टी पिट्टी गुम हो गई। उसने बताया कि आश्रम बनाने के लिए जमीन खरीद रहा है दस एकड़। हम लोगों को तसल्ली हुई कि बुढ़ापा काटने के लिए एक ठिकाना तो बनेगा ही। हम लोगों के साथ संजय सिन्हा जी (एईपी, आज तक) भी थे। पुराने आईएमएमसीएन हैं। मजेदार इंसान। वो इस बीच चाय और बिस्किट का जुगाड़ कर लाए। कुछ लोगों ने हड़बड़ी में चार चार बिस्किट उठाया, शायद ये नलिन और मेरा खौफ था। क्या पता कि न बचे। इसी बीच सुप्रिय ने ये भी बताया कि इसी कैंटीन में मनाई गई थी होली। मैं गांव गया था, शायद ये सबसे बड़ी गलती थी। न गया होता तो कुछ इबारतें शायद और तरीके से लिखी जातीं। क्योंकि सुना कि होली पर सबने दिल खोलकर बातें की थीं और दिल खोलकर रंग गुलाल उड़ाए थे।
शाम ढल रही थी, लेकिन शायद किसी का मन जाने को नहीं हो रहा था। बसंतकुंज के एक रेस्टोरेंट में फिर बैठे हम लोग। खूब गप्प मारी गई। पुराने दिनों की यादें ताजा हो गईं। सारी सीमाएं टूटकर पहले ही बिखर चुकी थीं। 14 सालों में दौड़कर जो जहां तक पहुंचा था, वहां था। लेकिन यहां तो हम सब बराबरी पर थे। सुप्रिय दफ्तर में मेरे बॉस हैं। लेकिन ये जो घंटे बीते, वहां सिर्फ दोस्ती थी। वही तरंग थी, वही उमंग थी। मन कर रहा था कि काश एक बार और मौका मिलता, काश एक बार फिर से यहां एडमिशन ले पाते। काश 14 साल पहले की नौजवानी लौट आती, काश वो दिन लौट आते। काश मैं भी कुछ और कविताएं रट पाता।