यशवंत भाई, मीडिया के चारित्रिक पतन के लिए हमें केवल मालिकों पर ही दोष नहीं थोपना चाहिए। इसकी जड़ में जाना होगा। हां, यह सही है कि कुछ मीडिया घरानों ने पत्रकारिता को बेचने का भौंडा तरीका अपनाया है। पर अब भी अधिकतर अखबार इससे परहेज कर रहे हैं। जो अखबार इस गंदगी से दूर अपने पत्रकारों की अस्मिता को बचाने में जुटे हैं, उनके मालिक ही नहीं, संपादकीय प्रबंधन भी प्रसंशनीय हैं, और मैं ऐसे संपादकीय प्रबंधन तथा मालिकों को सल्यूट करता हूं, क्योंकि आर्थिक मंदी की मार उन पर भी है। मगर जो अखबार पत्रकारिता को हर मोड़ पर बेचने को उतावले हैं, उसका भी एक कड़ुआ सच है।
इन अखबारों के मालिकों को कलम (अब कीबोर्ड) बेचने और अपने पत्रकारों को वेश्या बनाने की सलाह भी बार-बार उन संपादकीय प्रबंधन ने दी जो हमारे बीच ही आस्तीन का सांप बने रहकर पत्रकार होने का दंभ भरते हैं। वजह साफ है, कि उन्हें भारी-भरकम वेतन भत्ते चाहिए। उन्हें कोई मतलब नहीं कि कितने ही अन्य लोगों की आत्मा मरे, उन्हें तो आत्मा ही बेकार की चीज लगती है। वो संपादकीय स्टाफ के खर्चे में कटौती और मौजूदा स्टाफ से कमाई कराने के तरीके नियमित बैठकों में मालिकों को सुझाते रहते हैं। जो ऐसे जितने तरीके सुझाता है, उसे उतना ही फायदा होता है। मालिक का संकट यह है कि उसे मोटी सेलरी वाले कारपोरेट कल्चर के मैनेजरों के साथ संपादक भी चाहिए। इनकी सेलरी और पार्टियों के लिए बजट कहां से आएगा? सो मार्केटिंग वाले ही क्यों, पत्रकार भी कमा कर लाएं! पहले कुछ पत्रकार बिक जाते थे, मगर अब नौकर को खरीदने की जरूरत ही नहीं रही, क्योंकि मालिक बाजार में खड़ा है।
सधन्यवाद!
अजय शुक्ला
चंडीगढ़