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टूटे चश्मे से दुनिया देखता पत्रकार

जयंत चड्ढाजगह दिल्ली का दक्षिणपुरी इलाका… वक्त- रात के दस बजे… सीलन से भरे एक घर में एक औरत लगभग चीख-चीख के रो रही थी। आस-पास छोटी सी भीड़ की शक्ल में कुछ लोग खड़े थे जो लगातार उसे घूरे जा रहे थे…। घर में घुसते वक्त उसे दूर-दूर तक किसी कैमरे को न देख खुशी का अहसास हुआ…। उसके आफिस के लगभग सोनीपत से सटे होने के बावजूद वो फिर से सबसे पहले स्पाट पर पहुंचा था….। आएगा सालों का फोन ट्रांसफर मांगने के लिए…वो बुदबुदाया… एसाइनमेंट को खबर नोट कराने के बाद उसने कैमरापर्सन को शाट्स सहेजने के आदेश दे दिए…। वो आगे बढ कर मामले को समझने की कोशिश कर ही रहा था कि पीसीआर से उसका फोनो थ्रू कर दिया गया। वो चीख-चीख के कहने लगा… जीहां राजधानी दिल्ली एक बार फिर से शर्मसार हुई है….। उधर उसके आफिस में भी रिक्रियेशन की तैयारियां होने लग गई थी। फोनो खत्म कर उसने उस लड़की की ओर फिर से देखा जिसका रोना बद्सतूर जारी था..।

जयंत चड्ढा

जयंत चड्ढाजगह दिल्ली का दक्षिणपुरी इलाका… वक्त- रात के दस बजे… सीलन से भरे एक घर में एक औरत लगभग चीख-चीख के रो रही थी। आस-पास छोटी सी भीड़ की शक्ल में कुछ लोग खड़े थे जो लगातार उसे घूरे जा रहे थे…। घर में घुसते वक्त उसे दूर-दूर तक किसी कैमरे को न देख खुशी का अहसास हुआ…। उसके आफिस के लगभग सोनीपत से सटे होने के बावजूद वो फिर से सबसे पहले स्पाट पर पहुंचा था….। आएगा सालों का फोन ट्रांसफर मांगने के लिए…वो बुदबुदाया… एसाइनमेंट को खबर नोट कराने के बाद उसने कैमरापर्सन को शाट्स सहेजने के आदेश दे दिए…। वो आगे बढ कर मामले को समझने की कोशिश कर ही रहा था कि पीसीआर से उसका फोनो थ्रू कर दिया गया। वो चीख-चीख के कहने लगा… जीहां राजधानी दिल्ली एक बार फिर से शर्मसार हुई है….। उधर उसके आफिस में भी रिक्रियेशन की तैयारियां होने लग गई थी। फोनो खत्म कर उसने उस लड़की की ओर फिर से देखा जिसका रोना बद्सतूर जारी था..।

महज एक घन्टे पहले उस लड़की के साथ जो हुआ वो शायद उसे ताउम्र न भुला पाए…। टीवी की भाषा में कहें तो सात लोगों ने उसकी अस्मत को तार-तार कर दिया था। कैमरापर्सन को पीछे आने के आदेश दे वो उस लड़की की बाइट लेने आगे बढ गया। क्या हुआ था आपके साथ………………….।

क्या ये मैं हूं… नहीं-नहीं कुछ गड़बड़ है… ये मैं कैसे हो सकता हूं। खुद की आंखों से कोई खुद को कैसे देख सकता है… पता नहीं….। चलिए सारी हिचक-झिझक छोड़कर मान लेता हूं कि ये मैं हूं… हम हैं…।। हम क्या हैं… बलात्कार का नाट्य रुपान्तरण करने वाले… पीड़ित परिवार दुखी है लेकिन उस नाजुक मौके पर भी पीड़िता के मुंह पर माइक लगाने से गुरेज न करने वाले…। कोशिश करने वाले कि वो आन एअर रो सके….।पता नहीं… लेकिन कहते हुए शर्म नहीं आती कि अहसान फरामोशी इस धंधे की फितरत है। ये वो दुनिया है जो चमकदार तो है लेकिन बदबूदार है। इस धंधे में बलात्कार की खबरें बास को खुशखबरी की तरह सुनाई जाती है। सन्नाटे को सनसनी साबित करने की पुरजोर कोशिश की जाती है। डर, आस्था, प्रेम, इज्जत हर चीज को यहां भरपूर खेला और बेचा जाता है। पता नहीं शायद चश्मा टूट गया है इसलिए आज खुद के धंधे की तस्वीर ही कुछ धुंधली सी नजर आ रही है। लेकिन ये तो तय है कि पत्रकारिता वक्त का आईना तो हर्गिज नहीं है… अगर ऐसा होता तो शायद ये दुनिया कब की सुधर गई होती।


यह आलेख जर्नलिस्ट जयंत चड्ढा के ब्लाग नई कलम से साभार लिया गया है। उनके इस लिखे पर टिप्पणी देने के लिए आप नई कलम पर क्लिक कर सकते हैं। जयंत से संपर्क [email protected] के जरिए कर सकते हैं।

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