सेवा में, संपादक, भडास4मीडिया (यत्र-तत्र-सर्वत्र), महोदय, आपके लोकप्रिय उर्फ विवादास्पद होते जा रहे ‘साइट’ पर 7 सितंबर को 11.41 मिनट पर यह पढ़कर सदमा लगा कि टी.वी. चैनल के एक ग्रुप ने (उस ग्रुप का नाम आपके पास है, हमारे पास नहीं है) अपने ‘मज़दूरो’ को शराब पीकर ड्यूटी पर आने से रोकने के लिए मशीनी जांच का बंदोबस्त किया है। आपने ख़्ाबर के दूसरे पैरे में आपने अपने रिपोर्टर (?) की रिपोर्ट में बताया है कि इस टेस्ट से पीने-पिलाने वालों में दहशत है। फिर तीसरे पैरे में एक गुप्त नाम वाले पत्रकार ने जो बताया, उसका लब्बोलुवाब यह है कि चैनल वाले 10-12 घंटे पत्रकारों से काम करवाते हैं। चूस लेते हैं। फिर ऊपर से एक ही बर्तन में फूंकवा कर इंफेक्शन फैलाने का इंतज़ाम भी करते हैं। चौथे पैरे में आपके रिपोर्टर ने पीने का ‘वाजिब’ कारण भी बताया है।
फिर पत्रकारिता में मदिरा सेवन को विवाद का विषय बताया है। फिर अदृश्य सिद्धहस्त लोगों को यह कहते हुए भी बताया है कि ड्रिंक के बाद रचनात्मकता बढ़ जाती है। फिर रिपोर्टर भाई ने यह भी बताया कि जो भाई पीकर काम करते हैं वे नान-क्रिएटिव व अन-प्रोडक्टिव कार्यों में लग जाते हैं। और अंत में आपने ‘आप क्या सोचते हैं?’ के अंतर्गत छह प्रश्न पूछ दिए हैं। और फिर आपने ‘हुकुम’ दिया है कि हम अपनी राय, संस्मरण और टिप्पणी आपकी सेवा में पेश करें।
पेश-ए-िखदमत है हमारी राय, संस्मरण, टिप्पणी वगैरह-वगैरह…
अव्वल तो हम उन दोस्तों को सलाम करते हैं जो पीते हैं, और उन मित्रों का चरण स्पर्श करना चाहेंगे कि जो पीने के बाद किसी जांच से गुज़रते हैं।
फिर उस टीवी चैनल के प्रबंधन को शाबाशी देते हैं जिन्होंने इस ‘टेस्ट’ को अनिवार्य बनाया, क्योंकि प्रबंधन को यह मालूम हो चुका है कि पीने के बाद ही उसके चैनल के लोग ‘सबसे तेज’ भागते हैं।
हम उस चैनल के कदम का स्वागत करते हैं। पियक्कड़ों के कारण ‘उस’ क्या सभी चैनलों की कार्य संस्कृति को बट्टा लग चुका है।
प्रिंट मीडिया तो फिर भी ठीक है, टाइम फिक्स्ड है, इसके बाद जो करना हो करो, संपादक जी को कोई मतलब नहीं। लेकिन ई ससुरा चौबीसों घंटे एक ही बात को दोहराते-सुनाते रहने वाले चैनलों की दवा हक़ीम और हाकिम सरकार के पास भी नहीं है। कोई कहता है, सबसे तेज। किसी का स्लोगन है, ‘आपको रखे आगे’ (यानि खुद रहे पीछे) और कोई तो कहता है ‘जरा सोचिए!’ अरे, क्या सोचें? सोचने का वक्त दोगे तब न सोचेंगे! फिर आप भी कहते हैं कि ‘आप क्या सोचते हैं ?’
प्रश्न नं. एक: पत्रकारिता में मदिरा सेवन ज़रूरी है या नहीं ?
उत्तर: आजकल जीने के लिए पीना ज़रूरी है। बिना पिए ही लोग खुदकशी करते हैं। इधर कथित अहिंदी प्रदेश में, यथा केरल, आंध्र, महाराष्ट्र और उड़ीसा जैसे क्षेत्रों में खुदकुशी करने वालों के किसी भी पोस्टमार्टम रिपोर्ट में, मरने वालों के पेट, जिगर, गुर्दा, तिल्ली आदि कहीं भी अल्कोहल की मात्रा नहीं निकली है। इससे साबित होता है कि पीने वाले खुदकुशी नहीं करते। नहीं पीने वाले को ही मरने की तमन्ना दहाड़ मारती रहती है।
प्रश्न नं. दो: क्या मदिरा सेवन करने वाले लोग ज़्यादा क्रिएटिव होते हैं ?
उत्तर: हां, मदिरा के सेवन के बाद लोग ज़्यादा क्रिएटिव, पोजेटिव, निगेटिव, पेजेसिव सब कुछ हो जाते हैं। करना क्या है, ई न बताइए?
प्रश्न नं. तीन: क्या ब्रेथ एनालाइजर का इस्तेमाल कर पत्रकारों की निजता का उल्लंघन किया जा रहा है ?
उत्तर: हर्गिज-हर्गिज नहीं किया जा रहा है। मालिक लोग जो कहें, नौकरों को करना होगा। तलाशी तो देते ही हैं, अब सुंघवाना भी होगा। ‘पत्रकारिता की निजता’ क्या होती है, दारू पीकर दफ़्तर आना?
प्रश्न नं. चार : साहित्य और मीडिया से मदिरा सेवन कभी ख़त्म किया जा सकता है?
उत्तर: साहित्य और मीडिया से तो क्या, दुनिया से ही मदिरा सेवन खत्म नहीं किया जा सकता।
प्रश्न नं. पांच : दमदार साहित्य और अच्छी खबर या रिपोर्ट वे ही रच पाते हैं जो मदिरा पीते हैं ?
उत्तर: बेशक! साहित्य और ख़बर को कौन पूछे, बेदम होने को मजबूर इस माहौल में बगैर पीए तो ‘दम’ आ ही नहीं सकता।
प्रश्न नं. छह: क्या मीडिया और मदिरा के बीच चोली-दामन का रिश्ता नहीं रहा है ?
उत्तर: हां रहा है। और रहेगा। यह फ्री में भी मिलता है और खरीद कर भी। चोली-दामन और घाघरा-चुनरी से ज्यादा गहरा रिश्ता है, मदिरा और लेखन का। माफ कीजिएगा, यह सवाल ही गलत है। सवाल होना चाहिए क्या कलम और शराब में कोई रिश्ता है? शराब पीने के बाद लिखने से ‘तटस्थ’ और ‘आक्रामक’ लेखन होते हमने देखा और महसूसा है।
संस्मरण क्या लिखें यशवंत भैया! सौ का सीधा एक बात। कौन मालिक चाहेगा कि उसका ‘नौकर’ दारू पीकर काम करे? आप चाहेंगे क्या? और रही शराब के सेवन के बाद कुछ करने-धरने की तो वो गाना है न, ‘नशा शराब में होता तो नाचती बोतल’। नशा शराब में नहीं बन्धु ‘नशा’ हममें है। हर आदमी में एक ‘रावण’ छिपा होता है। उस ‘रावण’ को कौन-कितना वश में रख पाता है यह आदमी की इच्छा और आत्म शक्ति पर निर्भर करता है। शराब ‘राम’ को ‘रावण’ बना देने से ज्यादा माद्दा नहीं रखती।
गुस्ताखी माफ़।
रामानुज बी सागर
एर्णाकुलम