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काला पैसा बनाने के लिए पाठकों से धोखाधड़ी

प्रभाष जोशीचुनावी खबरों को बेचने का काला धंधा ऐसा नहीं है कि अखबारों ने छुपाते-लजाते किया हो। स्ट्रिंगर से लेकर संपादक-मालिक तक व छुटभैये कार्यकर्ता से लेकर उम्मीदवार, उसकी पार्टी व प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार तक, सब जानते थे कि अखबारों में चुनावी खबरें पैसे और वह भी काले पैसे से छप रही हैं। राजनीतिक लोगों की बेशर्मी तो फिर भी समझी जा सकती है, क्योंकि उनमें से अधिकतर अखबारों में छपे को अपना प्रचार मानकर ही चलते हैं। पर अखबारों, खासकर हिंदी-अंग्रेजी के राष्ट्रीय दैनिकों, जो अपनी गिनती दुनिया के सबसे बड़े अखबारों में और सबसे ज्यादा पाठकों वाले अखबारों में करवाते हैं और अपनी पत्रकारिता की तारीफ करते नहीं थकते, वे भी खबरों की अपनी पवित्र जगह बेचते हुए आंखों की शर्म भी नहीं रखते थे।

प्रभाष जोशी

प्रभाष जोशीचुनावी खबरों को बेचने का काला धंधा ऐसा नहीं है कि अखबारों ने छुपाते-लजाते किया हो। स्ट्रिंगर से लेकर संपादक-मालिक तक व छुटभैये कार्यकर्ता से लेकर उम्मीदवार, उसकी पार्टी व प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार तक, सब जानते थे कि अखबारों में चुनावी खबरें पैसे और वह भी काले पैसे से छप रही हैं। राजनीतिक लोगों की बेशर्मी तो फिर भी समझी जा सकती है, क्योंकि उनमें से अधिकतर अखबारों में छपे को अपना प्रचार मानकर ही चलते हैं। पर अखबारों, खासकर हिंदी-अंग्रेजी के राष्ट्रीय दैनिकों, जो अपनी गिनती दुनिया के सबसे बड़े अखबारों में और सबसे ज्यादा पाठकों वाले अखबारों में करवाते हैं और अपनी पत्रकारिता की तारीफ करते नहीं थकते, वे भी खबरों की अपनी पवित्र जगह बेचते हुए आंखों की शर्म भी नहीं रखते थे।

कई अखबारों ने तो बाकायदा विज्ञापन रेटकार्ड की तरह चुनाव कवरेज के भी रेटकार्ड छपवाए थे। वे न सिर्फ अपने स्टाफ को दिए, बल्कि उम्मीदवारों को भी दिए गए। दो राष्ट्रीय दैनिकों के छोटे स्थानीय संस्करणों के रेटकार्ड मेरे पास हैं। एक से पांच लाख तक के पैकेज में रंगीन और सादे कवरेज के रेट अलग-अलग मदों में दिए गए हैं। जैसे प्रचार अभियान के 8×12 के रंगीन कवरेज के 6,000 और सादे के 4,800 रुपये। जनसंपर्क के उतने ही कवरेज के 30 और 24 हजार रुपये। समर्थकों की अपील 9×12 के 7 और 5 हजार रुपये। जनसभा-रैली के 10×16 के 30 और 24 हजार रुपये। प्रायोजित साक्षात्कार 7×12 के साढ़े दस और साढ़े आठ हजार रुपये। मांग पर विशेष कवरेज 25×16 के 25 और 20 हजार रुपये। विशेष फीचर-इनोवेशन 51×33 के दाम मोलभाव से तय होंगे। चुनाव चिह्न के साथ वोट देने की अपील 8×12 के 18 से साढ़े चौदह हजार रुपये। प्रमुख मुद्दों पर बयान और प्रतिक्रिया के अलग लगेंगे। फोटो फीचर आदि के अलग लिए जाएंगे। यानी चुनाव प्रचार को अलग-अलग मदों में बांटकर हर एक के लिए रेट तय कर दिए गए थे। मालिकों-संपादकों को ऐसा करते हुए कहीं भी यह अपराधबोध नहीं था कि अपने अखबार की खबरों की पवित्र जगह ऐसे बेचते हुए वे कोई अनैतिक और पत्रकारीय आचार संहिता के उल्लंघन का पाप कर रहे हैं। पूछने पर वे उसे तरह-तरह से उचित ठहराते थे। जैसे तेरह साल पहले मध्य प्रदेश के एक बड़े प्रकाशन केंद्र में एक पुराने और प्रतिष्ठित अखबार के एक संवाददाता ने एक उम्मीदवार से एक लाख रुपये ले लिए और पूरे चुनाव भर उसकी अच्छी खबरें छापीं। सन अट्ठानवे के चुनाव में उसी केंद्र में गया तो पता चला कि उस संवाददाता की तो छुट्टी हो गयी, लेकिन अब अखबार ने ही उम्मीदवारों से डील कर लिए हैं। उसके मालिक-संपादक अपने पुराने मित्र हैं। उनसे पूछा कि यह क्या हो रहा है? वो बोले, क्या करें प्रभाष जी, सभी रिपोर्टर पैसा लेकर चुनाव प्रचार छापते थे। हमने तय किया है कि हमारा अखबार है तो हमीं छापेंगे और हमीं पैसा लेंगे, रिपोर्टरों को कमीशन दे देंगे।

खबरों पर भ्रष्टाचार करने के पत्रकारों के धतकरम से ऐसी सीख मध्य प्रदेश के हिंदी दैनिक के मालिक-संपादक ने ही नहीं ली। ऐसे मामलों में पत्रकारिता के मूल्यों और आचार संहिता को उद्दंडता से तोड़ने में अगुआई करने वाले टाइम्स ग्रुप ने भी अपने खाऊ-कमाऊ पत्रकारों से सीख लेकर ‘मीडियानेट’ नाम का जंजाल बनाया और उसके जरिये पैसे लेकर खबरें छापने लगे। दावा किया कि भ्रष्टाचार को रोकने का यह कारगर तरीका है क्योंकि इसमें खबरें बेचने का काम पारदर्शिता और ईमानदारी से किया जाता है। भ्रष्टाचार को सदाचार बनाने की इस दलील को अपन बाद में देखेंगे। अभी तो यह देखें कि रिपोर्टरों के पैसे लेने के उदाहरण से मालिकों ने यह चलन क्यों चलाया। जैसे कोई-कोई पत्रकार रिश्वत खा लेते हैं वैसे ही ज्यादातर पत्रकार पत्रकारिता का अपना काम समर्पण, सच्चाई और इमानदारी से भी करते हैं। बल्कि भारत में पत्रकारिता को सम्मान इसीलिए मिला कि संपादकों-पत्रकारों ने बलिदान, तपस्या व लोकहित में समर्पण से काम किया। यहां बात महात्मा गांधी, लोकमान्य तिलक, गणेश शंकर विद्यार्थी और माखललाल चतुर्वेदी जैसे महान नेता और संपादकों की नहीं है। ‘स्वदेश’ के एक के बाद एक पंद्रह पत्रकारों ने अंडमान में काला पानी काटना मंजूर किया, पर न तो अंग्रेजों का लगाया जुर्माना भरा, न उनका कहा छापा। वे कोई प्रसिद्ध और महान नेता नहीं थे। हम उनके नाम तक नहीं जानते, ऐसे मामूली लोग थे वे। और ऐसा नहीं कि आजादी के आंदोलन के कारण ऐसे पत्रकार पैदा हुए। सन 75 में इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी सेंसरशिप लगाई तो उसका भी विरोध मालिकों-संपादकों-पत्रकारों ने किया। कुलदीप नैय्यर जेल गए, मुलगांवकर और इस कलम घसीट ने इस्तीफे दिए। कितने पत्रकारों ने अखबार बंद किए या भूमिगत रहकर पत्रकारिता की। आज भी अपने काम पर अड़ जाने वाले पत्रकार आपको मिल जाएंगे।

क्या बात है कि इनको मालिक और प्रबंधन उदाहरण नहीं बनाते लेकिन एक रिपोर्टर या एक आर्थिक पत्रकार पैसे खा लेता है तो वे उससे सीख लेकर वही करने लगते हैं जो रिश्वतखोर पत्रकार ने किया था। भला और इमानदार पत्रकार मालिकों के सम्मान और गर्व का पालन किया जाने वाला उदाहरण क्यों नहीं बनता और रिश्वतखोर पत्रकार से सबक वे क्यों ले लेते हैं? जिस रिपोर्टर ने उम्मीदवार से पैसे लेकर उसकी खबरें छापीं उसे हमारे मालिक-संपादक ने अखबार व पत्रकारिता से बाहर करके अपने पूरे स्टाफ के सामने सख्त उदाहरण क्यों नहीं रखा? इकोनॉमिक टाइम्स ने अपने रिश्वतखोर पत्रकारों को निकालकर मिसाल क्यों नहीं बनाई कि ऐसा जो करेगा, वह पत्रकारिता में टिक नहीं सकेगा? क्योंकि हम उसी के रास्ते पर चलते हैं जिसका रास्ता हमें अच्छा लगता है। अपने मालिक और प्रबंधन भ्रष्ट व रिश्वतखोर पत्रकारों का उदाहरण लेते हैं क्योंकि वे भी वही करना चाहते हैं जो उनके मुलाजिम ने पैसे बनाने के लिए किया। भ्रष्टाचार को सदाचार बनाने की टाइम्स की दलील का मतलब है कि बलात्कार करना, उसकी इच्छा रखना स्वाभाविक है और हर आदमी चाहता है। इसलिए आपके घर की किसी मां, बेटी, बहन, भाभी आदि से कोई बलात्कार कर जाए तो नाहक हो हल्ला और पाखंड मत करो। बलात्कार को कानूनी रूप से मंजूर कर लो। उसके खिलाफ दंड और वर्जना मत बढ़ाओ। बलात्कार से पैदा हुए बच्चे-बच्ची का तिलक करो और वैध उत्तराधिकारी मान लो। इससे बलात्कार भ्रष्टाचार नहीं रहेगा और सदाचार हो जाएगा। आखिर बलात्कार आदमी की सजह प्रवृत्ति है और स्वस्थ व सभ्य समाज सहज प्रवृत्तियों को मानकर ही विकास करता है। जैसे नव-उदार पूंजीवाद लालच, सट्टाखोरी व धोखाधड़ी को आर्थिक विकास की प्रेरणा मानता है। 15 सितंबर 2008 के दिन वाल स्ट्रीट के दिवाले के बाद भी वित्तीय पूंजीवाद को अमर व बाजार को स्वयंभू मानता है।

अब दिक्कत यह है कि खुले से खुले आदिवासी समाज में स्त्री-पुरुष संबंधों में स्वतंत्रता व उदारता होती है। लेकिन एक बार विवाह हो जाए और बना रहे तो व्यभिचार बर्दाश्त नहीं होता। हत्याएं हो जाती हैं और स्त्री-पुरुष अलग हो जाते हैं क्योंकि गृहस्थ जीवन वफादारी और एक-दूसरे में विश्वास के बिना नहीं चल सकता। दरअसल मनुष्य का कोई भी कार्य व्यापार संबंध व विश्वास के बिना नहीं टिक सकता। व्यापार-व्यवसाय और उद्योग भी बिना विश्वास के नहीं चल सकते। पूंजीवाद में सबसे महत्वपूर्ण तो ‘कांट्रेक्ट’ करार ही है। पत्रकारिता अखबार व पाठक में विश्वास और मालिक, संपादक व पत्रकार में आपसी विश्वास से ही होती है। विज्ञापन को खबर बनाकर छापना, बिना बताए कि यह पैसा लेकर छापी गयी है, पाठक के विश्वास को तोड़ना व उसके साथ खेल करना है। खबर को अखबार की पवित्र जगह इसीलिए कहा जाता है कि वह पाठक के विश्वास की जगह है। दुनिया में कहीं भी पाठक खबर के लिए अखबार लेता है, विज्ञापन के लिए नहीं। विज्ञापन देने वाले जानते हैं कि पाठक विज्ञापन पर उतना भरोसा नहीं करता,  जितना खबर पर करता है, इसीलिए तो वे विज्ञापन की खबर बनवाकर छपवाना चाहते हैं। जिन मालिकों व अखबारों ने आम चुनाव में चुनावी खबरों के साथ यह धोखाधड़ी की है उनने तो उस लोकतंत्र से ही खिलवाड़ किया है जो प्रेस की स्वतंत्रता की गारंटी करता है। लोकतंत्र में पत्रकारिता का धर्म है कि वह चुनाव के समय वोटरों को सच्ची व प्रामाणिक खबरें दें और उन्हें अपना ठीक फैसला करने में मदद करे।

हमने देखा है कि अखबारों ने काला पैसा बनाने के लिए पत्रकारीय धर्म छोड़ा और पाठकों से धोखाधड़ी की। यह प्रेस की स्वतंत्रता, विश्वसनीयता व लोकतंत्र में प्रेस की भूमिका को नष्ट करने का निर्लज्ज धतकरम है। आप यह भी देखेंगे कि जिन अखबारों ने पत्रकारीय कर्तव्य व धर्म छोड़कर ऐसे काले धंधे से कमाई की, वही अखबार ‘मतदाता जागरण’ के अभियान चला रहे थे। बिल्कुल अपने जमाखोर, मुनाफाखोर व्यापारियों की तरह, जो काली कमाई से दान-पुण्य करके गंगा में डुबकी लगाते हैं। इन लोगों ने समाचार पत्र का काम छोड़कर छापेखाने का काम किया है। इसलिए इनका रजिस्ट्रेशन रद किया जाना चाहिए और इनको प्रिंटिंग प्रेस का लाइसेंस लेना चाहिए। इसी तरह जिस उम्मीदवार की जितनी खबरें छपी हैं, वे सब विज्ञापन की दर से उसके चुनाव खर्च में शामिल की जानी चाहिए। कानून न हो तो अगली संसद को बनाना चाहिए। वे कहते हैं कि पत्रकारिता तो व्यापार भी है। व्यापार में कमाई का कोई तरीका आजमाता है तो उसे सभी अपनाते हैं। इस देश में व्यापार में खुली होड़ और कमाई करने की पूरी छूट व आजादी है। इसलिए सभी अखबार पैसे लेकर खबरें छापने लगे हैं और इस चलन से कोई बच नहीं सकता। यह सरासर झूठ है।

हमारे मित्र हरिवंश ‘प्रभात खबर’ के प्रधान संपादक ही नहीं हैं, वे उसका पूरा प्रबंधन भी देखते हैं और वित्तीय व्यवस्था भी करते हैं। उनने पैसे लेकर खबरें छापने के काले धंधे के खिलाफ अपने अखबार में अभियान तो चलाया ही, पहले पेज पर ‘खबरों का धंधा’ शीर्षक से लेख भी लिखा। उनने अपनी आचार संहिता छापी। साफ कहा कि प्रेस विज्ञप्ति, इंटरव्यू, विश्लेषण, फोटो, उम्मीदवारों के साथ दौरे जैसे पत्रकारीय कर्तव्य को हम हमेशा अपने धर्म की तरह निबाहेंगे। हमारा कोई भी पत्रकार इसका उल्लंघन करे तो इस नंबर और पते पर शिकायत कीजिए, हम तत्काल कार्रवाई करेंगे। उनने इस काले धंधे के खिलाफ दूसरे पत्रकारों के लेख और पाठकों के पत्र भी छापे। हरिवंश को विज्ञापन चाहिए, लेकिन उनने कहा, हम खबरों की अपनी पवित्र जगह नहीं बेचेंगे। ‘प्रभात खबर’ फल-फूल रहा है। तो साफ है कि जिन अखबारों ने काला पैसा लेकर पाठकों को बिना बताए विज्ञापन को खबर बनाकर छापा है उनने पत्रकारिता व व्यवसाय दोनों के साथ धोखाधड़ी की है।

सावधान हो जाइए, जिसे आपने अपने लोकतंत्र व सभ्य समाज की निगरानी के लिए चौकीदार बनाया था, वही चोर हो गया है। और इसकी सजा तो पाठक समाज को ही देनी होगी। ढिलाई पत्रकारिता को खत्म कर देगी।


लेखक प्रभाष जोशी हिंदी के मशहूर और वरिष्ठ पत्रकार हैं। यह आलेख जनसत्ता में 17 मई को प्रकाशित उनके साप्ताहिक कालम से साभार लेकर यहां प्रकाशित किया जा रहा है।

चुनावी खबरों को बेचने के मामले में प्रभाष जी के पिछले आलेख व विचार पढ़ने के लिए क्लिक करें-

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  1. पहले पन्ने पर छाप दो कि यह अखबार झूठा है
  2. इन्हें सिर्फ प्रिंटिंग प्रेस चलाने का रजिस्ट्रेशन मिले
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