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ये नाम और ना-उम्मीदी

नौनिहाल शर्मा: भाग 29 : आफिस में नौनिहाल के कुछ दुश्मन भी बनने लगे थे : रह-रह कर नौनिहाल के बड़े बेटे मधुरेश की बात याद आ रही है- इतने दोस्त थे पापा के, कितनों ने सुध ली? पुष्पेन्द्र शर्मा, नीरजकांत राही, ओमकार चौधरी, विश्वेश्वर कुमार, राजबीर चौधरी, कौशल किशोर सक्सेना, सूर्यकांत द्विवेदी।

नौनिहाल शर्मा

नौनिहाल शर्मा: भाग 29 : आफिस में नौनिहाल के कुछ दुश्मन भी बनने लगे थे : रह-रह कर नौनिहाल के बड़े बेटे मधुरेश की बात याद आ रही है- इतने दोस्त थे पापा के, कितनों ने सुध ली? पुष्पेन्द्र शर्मा, नीरजकांत राही, ओमकार चौधरी, विश्वेश्वर कुमार, राजबीर चौधरी, कौशल किशोर सक्सेना, सूर्यकांत द्विवेदी।

ये सभी या तो आर.ई. हैं, या बड़े पदों पर हैं। नरनारायण गोपाल आर. ई. रहे हैं। केवल संतोष वर्मा की मदद मधुरेश को याद है। संतोष ने ही नौनिहाल के असामयिक निधन के बाद मकान के कागजात, पीएफ और ‘अमर उजाला’ के मालिक अतुल माहेश्वरी द्वारा मिली एफ. डी. उनके परिवार तक पहुंचायी थी। पर बाकी कोई इस बेसहारा परिवार के काम नहीं आया, जबकि इन सभी को पत्रकार बनने के दौर में नौनिहाल से कभी न कभी कोई बेशकीमती सलाह या सीख जरूर मिली थी। रमेश गौतम, अभय गप्त, विवेक शुक्ल और ओ. पी. सक्सेना से भी नौनिहाल के अच्छे रिश्ते रहे थे। मधुरेश को इन सबके नाम याद हैं। बचपन में, नौनिहाल की साइकिल के डंडे पर बैठा वह कहीं न कहीं इन सबसे मिल चुका है। इनसे भी उसे उम्मीद थी। कोरी उम्मीद ही रह गयी।

जीवन सचमुच क्रूर रहा है नौनिहाल के परिवार के लिए। तमाम विषमताओं के बावजूद वे अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश कर रहे हैं। मैं बरसों पहले की यादों में खो जाता हूं। पुष्पेन्द्र शर्मा हमसे मिलने ‘दैनिक जागरण’ के दफ्तर में आया है। ‘प्रभात’ की नौकरी छोड़कर वह विदेश जा रहा है। अपनी लाइन बदल रहा है। नौनिहाल का प्रस्ताव है उसे पार्टी देने का। हमारे टी-ब्रेक का भी समय हो गया है। हम सब गोल मार्केट चल देते हैं। डी-144 के अपने दफ्तर से 5 मिनट का रास्ता गपशप में पूरा हो जाता है। पुष्पेन्द्र बार-बार गाये जा रहा है- आयी पायल की झंकार, खुदा खैर करे।

हम अपने अड्डे पर जम जाते हैं। चाय की दुकान की बेंच कम पड़ती हैं, तो गोल मार्केट के पार्क में घास पर बैठ जाते हैं। चाय के साथ समोसों और इमरती का ऑर्डर दिया जाता है। गरमागरम समोसे और इमरती बातों को अपने साथ ना जाने कहां-कहां तक उड़ा ले जाते हैं। चाय के कप से उठती भाप को पुष्पेन्द्र एकटक घूर रहा है। कल ही उसकी फ्लाइट है। शायद वह खुद को मानसिक रूप से तैयार कर रहा है। नयी जगह और नये काम के लिए।

हमारा फोटोग्राफर गजेंद्र सिंह उससे मजाक करता है, ‘क्यों भई, लौटकर आयेगा या नहीं?’

पुष्पेन्द्र मुस्कराता है।

रमेश गोयल कहते हैं, ‘पूरी प्लानिंग से जा रहा होगा। लौटकर क्यों आयेगा?’

अभय गुप्त बात आगे बढ़ाते हैं, ‘बच्चू, पत्रकारिता की लत छूटती नहीं है आसानी से। देखना, तुझसे भी नहीं छूटेगी।’

ओ. पी. सक्सेना उनका समर्थन करता है, ‘हां, सोलह आने सच बात है। यहां आने के रास्ते तो कई हैं, पर बाहर जाने का कोई रास्ता नहीं है।’

पुष्पेन्द्र मुस्कराता रहता है। उसके होठों पर वही गाना है- आयी पायल की झंकार, खुदा खैर करे। वह सिगरेट सुलगा लेता है।

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नीरजकांत राही चुप्पी को तोड़ता है, ‘संपर्क बनाये रखना।’

अभी तक चुप बैठे नौनिहाल सबकी ओर देखकर उनकी कही बातें समझ रहे हैं। वे नहले पर दहला मारते हैं, ‘पुष्पेन्द्र आयेगा। जरूर लौट आयेगा। सीमा के लिए आयेगा। …देख लेना, आकर फिर पत्रकारिता भी करेगा।

हम सब जोर से ठहाका लगाते हैं। पुष्पेन्द्र के गाल शर्म से लाल हो जाते हैं। तब उसका सीमा से अफेयर चल रहा था। वह टीचर थी। नौनिहाल के जबरदस्त सूत्र थे। उन्हें सबकी इतनी निजी बातें भी पता रहती हैं, मुझे इसका अचरज हो रहा था।

…और नौनिहाल की दोनों बातें सच निकलीं। कुछ साल बाद पुष्पेन्द्र विदेश से मेरठ लौट आया। सीमा से शादी की। ‘अमर उजाला’ में काम शुरू किया। आगरा और गाजियाबाद में आर. ई. रहा। अब मेरठ में ‘हिन्दुस्तान’ का आर. ई. बन गया है।

पुष्पेन्द्र की तरह नीरज और ओमकार चौधरी भी पत्रकारिता को ‘प्रभात’ की देन हैं। ‘जागरण’ और ‘अमर उजाला’ के मेरठ आने से पहले ‘प्रभात’ ही मेरठ में सबसे बड़ा अखबार था।

मैंने एक बार नौनिहाल से पूछा, ‘गुरु, तुमने मेरठ समाचार के बजाय प्रभात में काम क्यों नहीं किया?’

‘प्रभात में मुझे खुद इतना सीखने और दूसरों को इतना सिखाने का मौका नहीं मिलता।’

‘वो क्यों?’

‘प्रभात में सुबोध कुमार विनोद मालिकाना हक ज्यादा ही जताते हैं। वे सबसे खुद को रिपोर्ट करने को कहते हैं। उनका बंधा-बंधाया ढर्रा है। उसी को मानना पड़ता है। प्रयोग करने की कोई गुंजाइश नहीं है वहां।’

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‘मेरठ समाचार में थी ये गुंजाइश?’

‘हां। बाबूजी (राजेंद्र गोयल) और दिनेश गोयल रोजमर्रा के काम में ज्यादा दखलंदाजी नहीं करते थे। इसलिए वहां काम की पूरी जिम्मेदारी होती थी और इसीलिए सीखने का ज्यादा मौका मिलता था। नये-नये प्रयोगों का संतोष तो खैर रहता ही था।’

‘लेकिन गुरु, नाम तो प्रभात का ही ज्यादा रहेगा।’

‘प्रभात चमक-दमक वाली दुकान है। मेरठ समाचार सादी दुकान है। नाम चमक-दमक का ज्यादा होता है, पर क्वालिटी सादी दुकान में भी हो सकती है।’

यह नौनिहाल की शैली थी बात को समझाने की। और उनकी बात सोलह आने सही थी। अगर मुझे शुरू में ‘मेरठ समाचार’ में मौका नहीं मिलता, तो ना जाने पत्रकारिता का मेरा सफर कैसा रहता! वैसे प्रभात से मेरठ के कई पत्रकार निकले। पर मेरठ समाचार एकदम शुरू में अपने पत्रकारों को ऑलराउंडर बना देता था। नौनिहाल ने वहां मुझसे 17 साल की उम्र में रिपोर्टिंग, उप संपादन और फीचर लेखन जैसे तमाम काम करा लिये थे। और उस सबको मुझे जागरण में बहुत फायदा हुआ।

लेकिन जब ‘प्रभात’ से पुष्पेन्द्र, ओमकार व नीरज और ‘हमारा युग’ से अनिल त्यागी ‘जागरण’ में आये तो जागरण की टीम बहुत ठोस बन गयी। संपादक मंगल जायसवाल को बड़ा नाज था कि उन्हें एक शानदार टीम मिली है। भगतशरणजी ने ठोक-बजाकर नियुक्तियां की थीं। भागवतजी तो कुछ महीने बाद लौट गये, मंगलजी को बनी-बनायी टीम मिली।

नौनिहाल अक्सर मंगल जी को अखबार की गलतियां दिखाते रहते थे। इससे बाकी सहयोगी कभी-कभी नाराज भी हो जाते। कहते, यार क्यों पचड़े में फंसता है, अपना काम कर और घर जा। पर नौनिहाल अड़ जाते कि कुछ गलती देखकर आंखें कैसे बंद कर लूं। मंगल जी इसीलिए उन्हें बहुत मानते थे। उनकी हर राय और सुझाव को गंभीरता से लेते। ये सुझाव रिपोर्टिंग, एडिटिंग और ले-आउट तक हर क्षेत्र के होते।

लेकिन इससे विभाग में नौनिहाल के कुछ दुश्मन भी बनने लगे थे…

कुछ लोगों को यह बर्दाश्त नहीं हो रहा था। किसी को लगता कि उसकी गलतियां निकाली जा रही हैं। किसी को लगता कि नौनिहाल बिना मतलब टांग अड़ा रहे हैं। चूंकि नौनिहाल सुन नहीं सकते थे, इसलिए कई बार उनकी मौजूदगी में भी उनकी निंदा चल निकलती। ऐसे में मुझसे रहा नहीं जाता। मैं उन निंदकों से भिड़ जाता। सबसे बड़े निंदक थे रतीश झा। वे आदमी बहुत बढिय़ा थे। पर उनमें अहं बहुत था। अपनी गलती निकाला जाना वे बिल्कुल नहीं पचा पाते थे। अक्सर नौनिहाल की बुराई करते सुने जाते। और अक्सर ही मैं उनसे भिड़ जाता। वे कहते, ‘अरे दादा, आप काहे बीच में पड़ते हैं? आपको कुछ नहीं ना कह रहे हैं?’

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‘मेरे सामने आप बिना मतलब उनकी बुराई करेंगे तो मैं सुनने वाला नहीं हूं।’

‘लेकिन हम सही बतिया कर रहे हैं।’

‘माफ करना दादा, आप उनके सामने कहिये ये सब।’

‘अरे दादा, उनके सामने कह कर भी क्या फायदा। ऊ सुन तो सकते नहीं हैं।’

भुवेंद्र त्यागी‘ठीक है। आप उनकी बुराई उनके सामने कागज पर लिखकर कीजिये।’

और दादा वहां से खिसक लेते।

लेखक भुवेन्द्र त्यागी को नौनिहाल का शिष्य होने का गर्व है. वे नवभारत टाइम्स, मुम्बई में चीफ सब एडिटर पद पर कार्यरत हैं. उनसे संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.

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