: मेरा समय और मेरे दिल-दिमाग का आफलाइन स्टेटस : ((कुछ मिनट बाद 26 तारीख आ जाएगी और मैं 38 बरस का हो जाऊंगा. 30 की उम्र में था तो अपनी लाइफलाइन 35 की तय कर रखी थी और 35 का हुआ तो डेडलाइन को 40 तक एक्सटेंड कर दिया. दो साल और मस्ती के दिन. 40 के बाद दुनियादारी और दुनिया से मुक्त होकर कहीं गुमनाम जीवन जीना चाहूंगा… अपने तरीके से. फिलहाल मेरी मनोदशा यह है- ”मैं अन्ना हूं”.))
फेसबुक पर उपरोक्त स्टेटस डाला कल रात करीब साढ़े ग्यारह बजे डाला. उपरोक्त लाइनों को यह सोचते हुए फेसबुक पर डाला कि अपने को अभिव्यक्त करूं, अपने को दोस्तों से शेयर करूं, अपने मन के हाल को थोड़े में बयान करूं, जी रहे इस क्षण के मनोभाव को सार्वजनिक करूं. और, यह फेसबुक पर डालते ही जिस तरह से दोस्तों, शुभचिंतकों, भाइयों का बधाई संदेश, शुभकामनाएं आदि टिप्पणी के रूप में आने लगे तो मैं थोड़ा हतप्रभ हुआ. चाहने वालों की एक भीड़ से खुद को घिरा महसूस करने लगा और ऐसा महसूस करना हमेशा सुखकर हुआ करता है.
पर मन-दिल-दिमाग में चल रहे उथल-पुथल का आवेग इतना गहरा है कि इतने से मन भरा नहीं. लगा कि यह भी तो दुनियादारी है कि जो जानते हैं आपको, जो कनेक्ट हैं आपसे वे सब आपको विश करें और आप फूलकर कुप्पा हो जाएं. उथल-पुथल का अंदाजा इससे लगा सकते हैं कि मैंने खुद के जन्मदिन के मौके को अन्ना से कनेक्ट किया. उस अन्ना से जो अभी कुछ महीनों से पहले बहुतों के लिए अनजान सा शख्स था. बहुतों के लिए समाज सुधारक समझा जाने वाला आदमी था. इस अन्ना ने अपनी सादगी, अपनी सोच की व्यापकता, उदात्तता, सहजता, संतई जीवन, बाल सुलभ आंतरिक मिठास और प्रेम भाव से लबालब होने के कारण सबके दिल में घर कर लिया.
जब मैंने अपने उपरोक्त स्टेटस के आखिर में लिखा कि ”फिलहाल मेरी मनोदशा यह है- मैं अन्ना हूं”, तो एक फेसबुकी दोस्त अमित सोनी ने कमेंट किया- जन्मदिन की बहुत-बहुत शुभकामनाएं… और हां, मीडिया के लिए तो अन्ना हो.
तब मुझे उन्हें लिखकर जवाब देना पड़ा और अपनी स्थिति, मनोदशा को व्याख्यायित करना पड़ा, इस तरह- ”धन्यवाद आप सभी का. दिल से आभार. लेकिन अमित सोनी जी, मैं बिलकुल भी मीडिया का अन्ना नहीं हूं. जीवन जीने की जिजीविषा में फंसा उसी तरह का आम आदमी हूं जैसा कोई दिल्ली में होता है. अन्ना ने 27 साल की उम्र में अपने जीवन का मकसद तय कर लिया था और इसीलिए शादी नहीं की क्योंकि उनके लिए पूरा देश अपना परिवार था. तभी यह संत आज जब देश का हाल देख अंगद के पांव की तरह रामलीला मैदान में अड़ा है तो सरकारों, सत्ताओं, धनपसुओं की सांस फूल रही है. मेरे आगे के जीवन के लिए अन्ना शायद बहुत बड़ी प्रेरणा होंगे. और सच कहूं तो हर बड़े आदमी के जीवन को बहुत नजदीक से देखिए तो वे सभी बेहद सरल सहज और समझ में आने वाले लोग लगेंगे. गांधी से जितना सहज कौन हो सकता है. तो सहजता में ही जीवन का सच है. यह एक्सपेरीमेंट हर एक को करना चाहिए, ऐसा कहने से पहले सोच रहा हूं कि पहले खुद प्रयोग कर लूं तब कहूं क्योंकि अपन के यहां पर उपदेश कुशल बहुतेरे बहुतेरी मात्रा में होते हैं.”
इसका अमित सोनी ने भी सटीक जवाब दिया- ”सर जी, आम आदमी में एक अन्ना है, तभी तो आज हर जगह, मैं भी अन्ना तू भी अन्ना… और आज हर वो शख्स अन्ना है जो अपनी भड़ास खुलकर सामने निकाल रहा है.. लेकिन अहिंसक तरीके से.”
बात यहीं पर बंद नहीं हुई. ब्रिजेश चौहान गुड्डू ने कमेंट किया- ”यार दादा, मुझे लगता है कि चालीस के बाद जिंदगी शुरू होती है, कहते हैं ना- लाइफ बिगेन ऐट 40.” इस कमेंट पर लगा कि अपनी बात रखना का फिर मौका मिला है, अपने हाल-ए-दिल को बयान करने का फिर अवसर प्राप्त हुआ है, मैंने लिखा- ”सही कहा बृजेश चौहान गुड्डू भाई. जो मैं कह रहा हूं 40 के बाद के लिए और जो आप बता रहे हैं 40 के बाद के लिए, दोनों में बहुत फर्क नहीं है. बस फर्क सच को देखने के नजरिए में है. उदाहरण के तौर पर- किसी संन्यासी के लिए भौतिक सफलताएं जरा भी उत्तेजना पैदा नहीं करतीं, ललचाती नहीं. और किसी भौतिक रूप से सफल आदमी के लिए फकीर बन जाने का कांसेप्ट जरा भी नहीं सुहाता… तो ये सच को अलग अलग जमीन पर खड़े होकर देखने का फर्क है. मूल बात यही है कि आप आनंद कहां पाते हैं. सुखों से वंचित आदमी के लिए भौतिक दुनिया में अंत तक स्कोप दिखाई देता रहता है. और मुझे लगता है कि मैंने सारे भौतिक सुखों का खूब भोग कर लिया है, सो वो जो दूसरी दुनिया है, वो काफी प्रभावशाली और लुभावनी लग रही है.” इस पर ब्रिजेश चौहान गुड्डू ने अपने अंदाज में लिखा- ”तरीका जोरदार होने के लिए पार्टी भी दो यश दादा.”
तब मेरा उनको कहना था- ”40वें पे जोरदार पार्टी दूंगा, ये वादा है. दो साल की मोहलत दे दें. फिलहाल तो आलम ये है कि अन्ना के आह्वान के बाद से मैंने मदिरा का भी त्याग कर रखा है, यह सोचकर कि कोई आदमी हमारे लिए 12 दिनों से भूखा है और हम उसके कहने पर सिर्फ शराब पीना तक नहीं छोड़ सकते.. सो छोड़ दिया. इसे मेरे निजी जीवन पर अन्ना इफेक्ट कह सकते हैं. और अन्ना के समर्थन की खातिर पार्टी का परित्याग भी कर रहा हूं.” ब्रिजेश चौहान गुड्डू ने सहमति जताई और लिखा- ”यश दादा, आई एम टोटली एग्री विद यू. पर इन डकैतों को भी कुछ सोचना चाहिए. इक बात और- तुम्हें और क्या दूं मैं इसके सिवा, तुमको हमारी उमर लग जाए. हैप्पी बर्थ डे बडी एन जस्ट टेक केयर आफ योरसेल्फ.”
इतनी दुवाएं, प्यार, शुभकामनाएं पाकर भला कोई क्यों न खुद को खुशकिस्मत माने.
सबसे बढ़िया तरीके से मेरी बात को समझा मेरे मित्र संजय तिवारी ने. उन्होंने लिखा- ”दूसरे सिरे से पकड़े तो यह मरण दिन बन जाता है. मौत के एक साल और करीब. जो जीना जानते हैं वे जिन्दगी को दूसरे सिरे से पकड़ते हैं. लेकिन जीवन जीते ही कितने लोग हैं? दूसरे सिरे से जीवन में दखल हमें जीने का मकसद देती है. शायद अन्ना दूसरे सिरे से जीवन को पकड़े हुए हैं, इसलिए हर कोई अन्ना कह देने से जीवन को पा लेना चाहता है.” मैंने संजय का आभार व्यक्त किया- ”बहुत ठीक से आपने मेरी बात को जुबान दे दी संजय तिवारी जी. पंकज शुक्ला सर को थैंक्यू. राजेश यादव जी को शुक्रिया, शानदार कविता पढ़ाने के लिए.. बाबू अशोक दास को ढेर सारा प्यार… इशान समेत सारे दोस्तों, भाइयों, शुभचिंतकों का आभार, शुक्रिया, थैंक्यू..”
राजेश यादव द्वारा पेश की गई कविता को यहां पढ़ाना चाहूंगा…
गांधीजी के जन्मदिन पर
-दुष्यंत कुमार-
मैं फिर जनम लूंगा
फिर मैं
इसी जगह आउंगा
उचटती निगाहों की भीड़ में
अभावों के बीच
लोगों की क्षत-विक्षत पीठ सहलाऊँगा
लँगड़ाकर चलते हुए पावों को
कंधा दूँगा
गिरी हुई पद-मर्दित पराजित विवशता को
बाँहों में उठाऊँगा।
इस समूह में
इन अनगिनत अचीन्ही आवाज़ों में
कैसा दर्द है
कोई नहीं सुनता !
पर इन आवाजों को
और इन कराहों को
दुनिया सुने मैं ये चाहूँगा ।
मेरी तो आदत है
रोशनी जहाँ भी हो
उसे खोज लाऊँगा
कातरता, चु्प्पी या चीखें,
या हारे हुओं की खीज
जहाँ भी मिलेगी
उन्हें प्यार के सितार पर बजाऊँगा ।
जीवन ने कई बार उकसाकर
मुझे अनुलंघ्य सागरों में फेंका है
अगन-भट्ठियों में झोंका है,
मैंने वहाँ भी
ज्योति की मशाल प्राप्त करने के यत्न किये
बचने के नहीं,
तो क्या इन टटकी बंदूकों से डर जाऊँगा ?
तुम मुझकों दोषी ठहराओ
मैंने तुम्हारे सुनसान का गला घोंटा है
पर मैं गाऊँगा
चाहे इस प्रार्थना सभा में
तुम सब मुझपर गोलियाँ चलाओ
मैं मर जाऊँगा
लेकिन मैं कल फिर जनम लूँगा
कल फिर आऊँगा ।
सच में, अन्ना में गांधी का रूप देख रहे हैं लोग. जैसे महात्मा गांधी आ गए हों. कहते भी हैं, कोई आदमी इस धरती से मरता नहीं है. वह यहां से जाता है तो अपना सब कुछ बहुत लोगों में अलग-अलग रूपों में छोड़ जाता है.
अपने जन्मदिन पर अपने महिमामंडन का इरादा नहीं है. और, जीवन में खुद का महिमामंडन करके बहुत देर तक बहुत कुछ नहीं पाया जा सकता और पा भी लिया गया तो वो स्थायी न होगा. हालांकि कह सकते हैं कि स्थायी तो कुछ भी नहीं है पर समझदार लोग जानते हैं कि स्थायी भाव कुछ होते हैं. जैसे, अलौकिक आनंद की अनुभूति. सवालों, दुविधाओं, हालात के जाल में फंसा औसत दुनियादार आदमी लाख कोशिश कर ले, मुक्ति नहीं पा सकता. वहीं इर्द-गिर्द सांप-सीढ़ी के खेल की तरह गिरता-चढ़ता-फिर गिरता रहता है. प्लैटोनिक प्लीजर की एक अवस्था होती है, जिसे मैं तब तक नहीं मानता था जब तक कि इसे महसूस न कर सका था. अब कई बार करता रहता हूं.
इसी कारण बहुत सारी बुरी अच्छी स्थितियों में समभाव वाला रुख पैदा हो गया है. मन में यही आता है, ये हो गया तो क्या हो गया और ये न हुआ तो क्या हुआ. हालांकि इस मूड, इस मिजाज, इस अवस्था को बेहद डिप्रेसिव होने का लक्षण भी कहा जाता है पर अगर दुनिया के होने, चलने, बढ़ने के फार्मूले को आप समझ लें तो आप खुद के होने, चलने, बढ़ने के फार्मूले को पा लेंगे और फिर बेहद डिप्रेसिव और प्लैटोनिक प्लीजर वाले मोमेंट्स के तह तक जाएंगे तो शायद इन्हें धारण करने वाली एक ही धरा को पाएंगे. जिस औसत दुनियादार आदमी के सांप-सीढ़ी वाले दुनियादारी के गेम में फंसे होने की बात कही है, उसका एक्स्ट्रीम एक बेहद डिप्रेसिव आदमी के रूप में सामने आएगा. क्योंकि वह निराशा का चरम होता है जहां कुछ भी होने पर कोई भाव नहीं पैदा होता. नोएडा की दो बहनों की बात बहुत पुरानी नहीं है. उनकी यही दशा थी. राग द्वेष सुख दुख से परे थीं. पर वे एक आतंक और भय के कारण इस मनःस्थिति में आ गईं थीं. पर जब आप जीवन के फार्मूले को समझ लेते हैं तो प्लैटोनिक प्लीजर वाली अवस्था में आ जाते हैं और अतिशय आनंद के कारण समभाव धारण कर लेते हैं. इस बात को मैं कुछ उदाहरणों से समझाऊंगा.
अपने मित्र संजय तिवारी ने अपने एक हालिया लेख में लिखा- ”एक ब्रिटिश जर्नल प्लोस बायोलॉजी ने ब्रिटिश वैज्ञानिक राबर्ट एम मे के हवाले से एक रिसर्च पेपर प्रस्तुत किया है जिसमें राबर्ट ने दावा किया है कि दुनिया में 87 लाख प्रजातियां हैं. राबर्ट कहते हैं कि इस बात की बहुत चिंता करने की जरूरत नहीं है कि प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं. इसका मतलब है कि मनुष्य की सोच के उलट धरती पर जीव की प्रजातियों के विलुप्त होने के साथ-साथ नई प्रजातियों का खूब उदभव और विकास हो रहा है.” देखा, यही फार्मूला है. जो विलुप्त हो रहा है- जबरन किये जा रहे हैं विलुप्त या प्राकृतिक रूप से, उनकी जो संख्या है, उसी की तरह की संख्या वो भी है जो हमारे चाहने, न चाहने के बावजूद पैदा हो रहा है, पनप रहा है.
थोड़ा और पीछे चलते हैं. ब्रह्मांड के पैदा होने की कहानी पर. अब तक का जो सबसे साइंटिफिक दावा है, प्रस्तुति है, उसके मुताबिक बिग बैंग थ्यूरी से यह दुनिया अस्तित्व में आई. संघनन और एक्सपैंसन, यह फार्मूला काम करता है. पहले पूरा ब्रह्मांड सिकुड़ कर एक धधकता हुआ आग का बड़ा गोला था. वह कंडेंस होता जा रहा था. कंडेंस होता चला गया. और एक ऐसी अवस्था आई जहां कंडेंस होना संभव नहीं रह गया. वह संघनन एक्स्ट्रीम पर पहुंच चुका था. उसे नया रूप लेना था. और जैसे कोई बहुत दबाई हुई चीज विस्फोट होकर छिन्न भिन्न हो जाती है, बहुत खींची गई कोई चीज एक अवस्था पर जाकर टूट जाती है, उसी तरह वह आग का धधकता हुआ गोला फटा और ढेर सारे टुकड़े इधर उधर बिखर गए, छितरा गए. इन्हें तारे सितारे धरती ग्रह उपग्रह गैलेक्सी आदि कहा गया. एक्सपैंसन हो गया. विस्फोट हो गया. चीजें एक समय के बाद फिर संघनित होने लगेंगी. ये जो बिखरे हुए टुकड़े हैं, ये जो ग्रह नक्षत्र तारे सितारे गैलेक्सी सूर्य चांद आदि हैं, ये सब धीरे धीरे नजदीक आने लगेंगे, कंडेंस होने की प्रक्रिया शुरू होने लगेगी और फिर सब एक में सिमट जाएगा. वही आग का गोला बन जाएगा. और संघनन, कंडेंस होने की प्रक्रिया अरबों, खरबों वर्षों में पूरी होगी…
और, जीवन क्या है. तनाव और खुशियों का फार्मूला. दुखों-सुखों का फार्मूला. भौतिक और आध्यात्मिक का फार्मूला. ये सारी बातें एक हैं. वही द्वंद्व यहां भी चल रहा है जो ब्रह्मांड में चल रहा है. पहले के जमाने में जो संत महात्मा सूफी फकीर हुए, उन लोगों ने इस दुनिया के चक्र को समझ लिया, दुनिया के फार्मूले को जान लिया, और फिर उन्होंने खुद के जीवन, खुद के होने को भी समझ लिया और फिर ब्रह्मांड और खुद के जीवन के फार्मूले को आपस में कनेक्ट कर लिया. बस, फिर क्या था, बज गया जीवन संगीत. कोई कबीर तब जो लिखने लगा वह सदियों सदियों के बाद भी अकाट्य माना गया. कोई फकीर तब जो गा गया वह आज भी सम्मान के साथ गाया गुना जाता है.
सुख के सबके अपने अपने फार्मूले होते हैं. अन्ना के लिए हम बहुत चिंतित हैं पर खुद अन्ना आनंद से भरे हैं. उनको हमसे उर्जा मिल रही है. उनको ताकत देश की जनता के खड़े होने से मिल रही है. क्योंकि अन्ना ने पिछले कई दशक तक खुद को आदमी के हित के लिए लगाए रखा. और आदमी अन्ना से उर्जा पाते रहे, बदलते रहे, नया रचते रहे. वे पीड़ितों शोषितों गरीबों के लिए जीते करते रहे. पीड़ित शोषित गरीब उनके संपर्क में आकर सुखों का साक्षात्कार कर सका, खुद को बदल सका. अन्ना के भीतर उनके द्वारा किए गए कामों, बदलावों और आदमियों की समर्थन में खड़ी जमात ने नई ताकत दे दी. अन्ना बुराइयों के खिलाफ समय समय पर खड़े होने लगे. बुराइयों से पंगा लेने लगे. अड़ने लगे.
और आज अन्ना 13 दिन ना खाकर भी भरे पूरे पेट वाले मनुष्य की तरह दिखते हैं. क्योंकि अन्ना की ताकत भोजन नहीं है. भोजन तो माध्यम भर है शरीर का ढांचा खड़ा रखने के लिए. अन्ना की असली ताकत उनकी आंतरिक दुनिया है जो प्लैटोनिक प्लीजर से भरी हुई है. उन्हें यह प्लैटोनिक प्लीजर हमारे आपसे मिलती है, इस देश समाज के सुखमय होने की उम्मीदों से मिलती है, लड़ते हुए अड़ते हुए बुरे को ठीक करा ले जाने में मिलती है. जादू की छड़ियां कहानियों में होती हैं, इसलिए अन्ना को ऐसा नहीं मानना चाहिए कि वे उठ खड़े हुए हैं तो सब ठीक हो जाएगा. उन्होंने एक आतंकित समाज, आतंकित समय में अपने प्लैटोनिक प्लीजर की ताकत के बल पर असंभव को संभव बनाने की मुहिम छेड़ दी है. कई लोगों ने ऐसी मुहिम छेड़ी होगी और कइयों को इसमें आंशिक सफलताएं भी मिली होंगी.
यह एक अनवरत क्रम है. मुगल आए और जम गए. फिर वे अंग्रेजों के आने के बाद सत्ता से बेदखल हुए. अंग्रेज जमे तो अपने देश के जन जगे और दशकों के संघर्ष बाद वे हटे. अपने काले अंग्रेज सत्तानशीन हुए तो आंदोलनों के जरिए ही उनकी सत्ता वाली तंद्रा टूटी. वही क्रम फिर जारी है. अन्ना के दबाव में चीजें बहुत कुछ दुरुस्त हो जाएंगी, बस यह उम्मीद है. अन्ना के आंदोलन से बहुत सारे लोग लड़ना और जीवन जीना सीख जाएंगे, बस यह उम्मीद है. मर रही लोकतांत्रिक प्रक्रिया और कानून-नियम अन्ना के आंदोलन से फिर स्वस्थ, चैतन्य हो जाएंगे, बस यह उम्मीद है. और, सबसे बड़ी उम्मीद ये कि कई पीढ़ियां जो बड़े और ऐतिहासिक आंदोलनों को इतिहास की किताब में पढ़कर जवान हुई हैं, वे रीयल बड़े आंदोलन कैसे होते हैं, इसका फील ले पाएंगे और यह मान पाएंगे कि दुनिया में असंभव कुछ नहीं होता.
मैं अपने जन्मदिन पर खुद को अन्ना से कनेक्ट कर अपने इंटरनल प्लीजर को बढ़ा पा रहा हूं, प्लैटोनिक प्लीजर के बनने-आकार लेने की प्रक्रिया को आगे बढ़ा पा रहा हूं, इसकी बहुत खुशी है. वरना आनंदित होने के लिए जो बाजार ने, सत्ता ने, सरकारों ने, दुनिया के संचालकों ने जो रास्ता बनाया दिखाया है उसमें तो बस एक क्षणिक मजा मिल पाता है, जो क्षण भर बाद ही रफूचक्कर हो जाता है. और, इसी क्षणिक मजा को पाने के लिए हम रोज रोज मरते और जीते रहते हैं. इस मजा को मैं निगेट नहीं कर रहा. शायद ये क्षणिक आनंद ही बहुत सारे लोगों के लिए बड़े आनंद की तरफ बढ़ने का रास्ता खोजने का दबाव बनाते हैं. विकल्प हमें तय करना होता है. वही रुटीन करते रहना है. उसी क्षणभंगुर दुख-सुख में लिपटे रहना है या इनसे निपटकर इन्हें पूरी तरह खूब खूब समझ बूझकर आगे बढ़ना है, इनसे थोड़ा उपर उठना है, कुछ अलौकिक चीजों की ओर जिन्हें आजकल तलाशने जीने का चलन बेहद कम हो गया है और जो है भी वह बेहद बाजारू व बकवास है.
पता नहीं मैं अपनी बात कितना कह पाया पर आखिर में जो कहना चाहूंगा वह सचमुच उपसंहार सा होगा कि जीवन का आनंद उसकी विविधता को भोगने या समझने या जानने में है, और उससे निकले निष्कर्षों नतीजों को मानकर थोड़ा अन्ना हो जाने में है, थोड़ा कबीर हो जाने में है, थोड़ा सूफी हो जाने में है, थोड़ा राम तो थोड़ा रहीम हो जाने में है, थोड़ा मुक्त हो जाने में है, थोड़ा पगला हो जाने में है, थोड़ा तथास्तु हो जाने में है… खुद से उम्मीद करता हूं कि आंतरिक बदलाव की प्रक्रिया को जी रहा यशवंत आने वाले वक्त में इतना खुद ब खुद बदलेगा कि उसे किसी खास उम्र वय में यहां से मुक्त होकर वहां जाने की घोषणा फेसबुक पर न करनी होगी और इस पर ऐसा विश्लेषण व्याख्यान न लिखना पड़ेगा. फिर कैसा होगा, क्या होगा, यह मुझे भी नहीं पता. हां, कुछ कुछ अनुभूत कर पाता हूं पर अभी उसे शब्दों का रूप दे पाना संभव नहीं.
कुछ आजकल की बातें-
- एक दिन एक सज्जन मिले और मुझसे बोले कि मेरे एक मित्र ने तुम्हारे बारे में कहा कि यशवंत की छवि मार्केट में बहुत खराब हो रही है. मैंने उनसे यह बताते हुए पूछा कि मैं तो वैसे खुद को बुरा आदमी ही मानता हूं लेकिन यह जानने में खुशी होगी वह किस वजह से मुझे बुरा आदमी मानते हैं. तब उन्होंने बताया कि यशवंत दिन में पिये रहता है, ऐसी चर्चा सुनने को मिलती है, यह खराब बात है और इससे छवि खराब हो रही है. तब मैंने उन्हें समझाया कि दो तरह के लोगों की दो तरह की छवियां होती हैं. एक मालिक वर्ग होता है और उसके यहां का नौकर वर्ग. नौकर वर्ग अपनी छवि ठीक रखने की फिराक में होता है क्योंकि उसे मालिक वर्ग के यहां काम करना होता और मालिक कभी नहीं चाहता कि उसका नौकर दिन में पिये रहे. सो, अगर मुझे कहीं नौकरी मांगनी होती तो मैं जरूर अपनी छवि को ठीक रखने की कोशिश करता कि हे मालिकों, देखो, मैं तुम्हारे लायक नौकर हूं. छवियां वो लोग ठीक रखें जिन्हें नौकरियां करनी और मांगनी हैं. मैं तो भोग में पड़ा हुआ प्राणी हूं जो दिन रात कुछ नहीं देखता. और सच बताऊं, पिछले महीनों में कुछ मित्रों ने बड़ी अदभुत किस्म की मदिरा भेंट की, भिजवाई. और मैं उस मदिरा का पान अक्सर दिन में ही कर लेता. एक मदिरा अदभुत और दूसरे बेटाइम चढ़ाने के दुस्साहस का आनंद. नतीजा ये हुआ कि मदिरा से मन भर गया. मांसाहार का गजब प्रेमी मैं. झिंगा, प्रान, मछली, बकरा, मुर्गी.. नाना प्रकार के प्राणियों का भोजन करता. दिन में ही इन्हें बनवाना शुरू कर देता. कोई पकाकर रखता और मुझे बुला लेता. कहीं अच्छा मिलने की बात सुनता तो वहां खाने पहुंच जाता. नतीजा ये हुआ कि मांसाहार उतना ही मेरे लिए सामान्य हो चुका है जितना दाल-भात. दोनों सामने रखें हो तो दोनों में से किसी के प्रति कोई उत्तेजना वाला भाव पैदा नहीं होगा. यही हाल सेक्स का है. सेक्स के बारे में विस्तार से एक किताब लिखने की योजना है, सो उससे जुड़ी घटनाओं का खुलासा अभी नहीं करूंगा पर हां इतना बता सकता हूं इसके आनंद-अतिरेक से मन प्लावित हो चुका है. पर, जैसा कि इंद्रियजन्य हम सब प्राणी हैं और खाना पीना हगना मूतना सेक्स करना पढ़ना काम करना धन कमाना विमर्श करना आदि इत्यादि सबके जीवनचर्या का पार्ट होता है, सो मेरे भी है, पर बस इतना अलग है कि इन चीजों से धीरे धीरे उपर उठने लगा हूं और इन्हें, इनके प्रति वैसा ही भाव पैदा होने लगा है कि जैसे ये हों भी और न भी हों. मैं कुबूल करता हूं मेरे भीतर इंद्रियजन्य कुंठाएं भारी मात्रा में मौजूद थीं, और शायद होंगी भी, क्योंकि ठीकठीक दावा करना उचित न होगा. पर इनसे पार पाने के लिए इनसे भागने का रास्ता नहीं अपनाया, इनसे भिड़ने और इन्हें भोगने की राह पर चला. मुझे बताते हुए खुशी है कि एक खास लेवल की उदात्तता के चलते इन भोगों के दौरान भी इनकी सार्थकता और निरर्थकता को वाच करता रहा, महसूस करता रहा और इनकी संपूर्णता को आत्मसात कर विलीन कर लिया, न संपूर्ण स्वीकार और न कंप्लीट रिजेक्शन.
- एक वाद्ययंत्र बजाने का मन था. जिसके लिए पिछले दिनों एक पोस्ट लिखकर अपील भी की थी कि कोई तो सिखा दो भाई. कई जगहों से प्रस्ताव भी आए. सबका शुक्रगुजार हूं. पर कहीं जा न सका. तब अचानक दिल में खयाल आया कि सीखने के लिए खुद मेहनत करनी पड़ती है, रास्ता बनाना पड़ता है, दो कदम आगे बढ़ना पड़ता है. आखिर में तय किया कि वाद्ययंत्र पहले खरीद लिया जाए. तो केसियो खरीद लाया. करीब 2300 रुपये में. और जिस शाम खरीदकर लाया उसी रात यूट्यूब पर ट्यूटोरियल के सहारे दो धुनों को बजाना भी सीख लिया. अभ्यास जारी है. बहुतों को गुरु नहीं मिले और उन्होंने अपने स्वाध्याय से सीखा. मैं अपने लिए खुद उदाहरण हूं. कंप्यूटर की कखग नहीं जानता था जब अमर उजाला, कानपुर में भर्ती हुआ. लेकिन पेज आपरेटरों की उंगलियों की धड़कन, छिटकन और उठान-गिरावट को देख-बूझकर धीरे धीरे सीख लिया. और, आज उसी कंप्यूटर के भरोसे डाट काम का काम कर रहा हूं. तो मेरे सीखने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है. संगीत प्रेमी हों और कुछ बजाना जान जाएं तो क्या कहने. मुझे हमेशा ये लगता है कि जब तक हम लोग नया कुछ भी, थोड़ा बहुत भी शुरू नहीं करेंगे, शुरू करने का साहस नहीं इकट्ठा करेंगे, तब तक हम कल्पना की दुनिया में ही जीते रहेंगे. कल्पनाओं, सपनों का होना बहुत जरूरी है पर उससे आगे बढ़ना उससे ज्यादा जरूरी है. और लगातार जुटे डटे रहने से क्या कुछ नहीं हो सकता.
- कई लोग पूछते हैं कि यशवंतजी, आप अपनी अच्छी बुरी सारी बातें लिख देते हैं, छोटी छोटी बातें बता देते हैं. यह कितना ठीक है. या ऐसी बातों से औरों का क्या मतलब, क्यों सबको यह सब पढ़वाते हैं. तब मेरा उन्हें सिर्फ एक कहना होता है कि भइये, हम सब जो हैं, उसमें हमारे अब तक के पूर्वजों, आजतक के खोजों, आजतक की बातों का बड़ा योगदान है. और छोटी छोटी चीजों को जब आप बड़े फलक पर डाक्यूमेंटाइज करते हैं तो वह बहुत सारे लोगों के लिए इन्सपिरेशन का काम करता है. खासकर हम हिंदी पट्टी के लोग जो महानता का बखान तो खूब करते हैं पर जब अपनी लाइफस्टाइल को बयान करते हैं तो वह सब छुपा देते हैं जिससे यह खतरा होता है कि महानता वाली छवि का विखंडन हो जाएगा. अज्ञेय का एक उपन्यास है- शेखर एक जीवनी. वह एक शख्स के जीवन के बनने, सुख-दुख की कहानी है. बहुत छोटी छोटी चीजें उसमें दर्ज है. वह बड़ा उपन्यास माना गया. उस उपन्यास के बारे में अज्ञेय कह गए कि हर व्यक्ति का जीवन एक महाकाव्य है, बशर्ते उसमें अपने जीवन को वाच करने और उसके सूक्ष्तम चीजों, बदलावों, आड़ोलनों को दर्ज करने की क्षमता हो. हिंदी पट्टी में नायकत्व हमेशा एक्सट्रीम का रहा है. या तो हम भगवान मान लेते हैं या कंप्लीट विलेन. बीच में स्पेस नहीं देते. मेरी कोशिश है कि मनुष्य को मनुष्य की तरह देखा जाए. उसके समस्त गुणों-अवगुणों के साथ स्वीकारा और सम्मान दिया जाए. यह डेमोक्रेटिक होने, रेशनल होने की तरफ बढ़ना होगा. और बगैर डेमोक्रेटिक हुए, बगैर रेशनल हुए हम बेहतर मनुष्य, बेहतर समाज नहीं बना सकते. एक सनकी और अतिवादी समाज और मनुष्य को जिंदा रखे रहेंगे जो कभी बर्बर हो जाएगा या कभी फूटफूट कर रोएगा. शायद मैं भी कुछ ऐसा ही रहा हूं और हूं, पर यह सब जो लिखता हूं, बताता हूं, जीता हूं तो इससे उबरने की प्रक्रिया भी खुद ब खुद अंदर शुरू हो जाती है और इससे उबरने में काफी सफलता मिलती है. चिकित्साशास्त्र में एक शाखा है जिसमें बताया जाता है कि अगर आप अपनी सारी बातें किसी से कह देते हैं, लिख देते हैं, बता देते हैं, सुना देते हैं तो अपने तनावों, दुखों, मनोभावों को काफी कुछ रिलैक्स कर लेते हैं, मुक्त होते जाते हैं. शायद भड़ास की बात यही है. जो कुछ है अंदर उसे बाहर निकालिए, बुरा अच्छा बेकार सुंदर… सब कुछ. ताकि आप इन सबसे उबर कर कुछ और नया तलाश जान सीख पा सकें.
काफी कुछ हो गया. बात खत्म करता हूं. पर एक संगीत भेंट करके. आजकल जिन गीत-संगीत को आंखें बंद कर सुनता रहता हूं, उनमें एक प्रिय नीचे दिया है. एक माल से सीडी खरीदकर लाया था. ”रेयर इनस्ट्रुमेंट्स आफ इंडिया” के नाम वाली सीडी. जिस ”धुन इन कहरवा” को सुनाने जा रहा हूं, उसके कांट्रीब्यूटींग आर्टिस्ट हैं आशीष बंदोपाध्याय. किसी मनुष्य की आवाज नहीं है. सिर्फ एक इनस्ट्रुमेंट है. वो अपन लोगों के देश का है. इसे आप सुख और दुख, दोनों के मनोभाव में सुनिए और लगेगा कि आपके दोनों मनोभावों में ये शरीक है. और, उन मनोभावों से उपर जाने की बात कह-समझा रहा हो जिसे कुछ कुछ हम आप समझ रहे हों और कुछ कुछ सुबह सुनने समझने की बात कह रहे हों. सुनिए और आनंदित होइए. नीचे दिए गए आडियो प्लेयर को क्लिक करिए…
लेखक यशवंत भड़ास4मीडिया से जुड़े हुए हैं.
मदन कुमार तिवारी
August 26, 2011 at 10:06 am
्बहुत दिनों के बाद यशवंत नजर आया । वह भीख मांगता यशवंत । यशवंत को यशवंत के रुप में देखकर खुशी हुई। जन्मदिन की बधाई । आपको नही बच्चों को , बहु को । आपके लिखे को मैने भाव की तरह लिया । जहां शब्द का कोई अर्थ नहीं रह जाता । हमारे यहां शादी बंधन क्यों लगती है ?
shravan shukla
August 26, 2011 at 2:53 am
janmdin ki dher sari badhaiya guruji.. ishwar hamesha aapko swasth aur sukhi rakhe.. aapki har manokamna poorna ho.. isi aasha ke saath aapka pawan aashish bhi chahunga.. jai jai guru dev..jai jai bhadas
pradeep mahajan
August 26, 2011 at 4:20 am
यशवंत तुम्हे घमंड नहीं है अपनी इस तरक्की का इस लिए कई तुम्हारे चाहने वाले हो गए है वही तुम्हारी भडास में ओपन छपने के कारण कई विरोधी भी हो गए है लेकिन इन सब बातो से उप्पर मुझे लगता है की तुम self respect वाले प्राणी हो जो फ़िदा हो गए तो किसी पर भी हो गए बाकी दोस्ती करने लाईक हो खैर लम्बी बात है कभी महफ़िल में बैठेंगे तो गिलास फोड़ कर बात करेंगे
बाकी जन्मदिन मुबारक देसी से लेकर विदेशी चीईईईईईईईईईएर्ज़ के साथ ( प्रदीप महाजन-अध्यक्ष-अखिल भारतीय पत्रकार मोर्चा )
दयानंद पांडेय
August 26, 2011 at 6:09 am
प्रिय यशवंत जी,
जन्म दिन की बहुत बधाई। कामना है कि इसी तरह मौज मस्ती करते हुए लोगों की और अपनी भडास का ग्राफ़ बढाते रहिए। खूब स्वस्थ, मस्त और व्यस्त रहिए। लोगों का बाजा बजाते और बजवाते रहिए। मेरी ओर से भी दो पटियाला पेग और लीजिए और खूब ज़ोर से चिल्लाइए जय हो !
raj kaushik
August 26, 2011 at 6:23 am
Dear Yashwant ji,
Smiles and laughter, joy and cheer
New happiness that stays throughout the year
Hope your birthday brings all these and more
Filling life with surprise and joys galore!
I Think…
Count your life by smiles, not tears.
Count your age by friends, not years.
plz remember…
Your best years are still ahead of you.
plz remember its too
You’re not getting older, you’re getting better.
so,
I Wishing you all the great things in life, hope this day will bring you an extra share of all that makes you happiest.
Happy Birthday.
– Raj Kaushik
re DLA
Ghaziabad
9811449246
abhishek
August 26, 2011 at 7:30 am
तुम यु ही चलते रहना तलवार के धार से ,में करता हूँ उम्मीद यह रब से की लग जाये मेरी भी उम्र आप को और हमाम के नीचे नगे मीडिया संस्थान की युही औकात दिखती रहे ,
आई लव यू डीअर यशवंत सर
puran chand
August 26, 2011 at 8:47 am
अन्ना की बात मान लो यशवंत .
दारू पीकर दंगा नहीं करने का !
ये जो मीडिया में भ्रष्टाचार है “ने “, उसे मिटाने के लिए “मीडिया लोकपाल” की मांग करो .
टोपी और धोती पहन कर प्रेस क्लब के बाजू में बैठना !
janardan yadav
August 26, 2011 at 10:57 am
aatam mughadhata hain yaa aattamshlaghaa. jo bhee hain aapka lekhan kabile tarif hain. janm deen kee badhaaeyaan
कुशल प्रताप सिंह
August 26, 2011 at 2:32 pm
यश जी प्रणाम,
तेरे वादे पे जिए तो ये जान झूठ जाना
के ख़ुशी से मर ना गए होते जो ऐतबार होता…
चलिए दो साल वाली बात भी मानी. आज बधाई स्वीकार करें. जन्मदिन मुबारक हो. देश अन्नामय हुआ, आप अन्ना हो गए, अच्छा है. मदिरा का त्याग किया(?) ये बहुत ही अच्छा है. दाग लगने से अगर कुछ अच्छा होता है तो दाग अच्छे हैं.
‘फिलहाल’ से काम ना चलिबे. चित्त ही ना बदला, तो फिर कुछ हुआ ही नहीं. और दरअसल हमारी समस्या ही यही है. मैं सिर्फ अपने बाहर बदलाव चाहूँ और मैं, मैं ही बना रहूँ तो हकीकत मैं कुछ बदला ही नहीं. समस्या भ्रष्टाचार नहीं, भ्रष्ट व्यक्ति है. अनशन चल रहा है. व्यापक समर्थन भी मिल रहा है. अभी कुछ कहना जल्दीबाजी है. उन्माद थमे, तब देखिये कुछ सकारात्मक मूल्य निकले या नहीं. इन्ही झंडाबरदारों के द्वारा आत्मसात किये गए या नहीं. भीड़ तो मंदिर बनाने के लिए भी निकलती है, गिराने के लिए भी निकलती है. हिन्दुतान में भीड़ नहीं निकलेगी तो फिर कहाँ निकलेगी. असल बात तो ये है के आप किस भीड़ को देखना पसंद करेंगे. किसे भीड़ कहेंगे किसे जन आन्दोलन के विशेषण से नवाजेंगे.
कोई बताये लोकपाल क्यों चाहिए. मुन्ना भाई तुम लगे रहो भ्रष्टाचार में हम तुम्हे नहीं सुधारेंगे, पर तुम्हे सज़ा दिलवाने के लिए लोकपाल लायेंगे. बनाये रहो नए-नए क़ानून, वकील मर थोड़े गए हैं इस देश में. भवन पुराना हो गया है, उसे गिरा के नया बनायेंगे उसी के ईंट-पत्थरों से लकड़ी दरवाजों खिडकियों से. मज़ा ये के जब तक नया बन नहीं जाता, पुराना गिराएंगे नहीं. सब अभ्यस्त हैं पुरानी व्यवस्था के. पुराने को बनाये रखते हुए नए सुविधाजनक प्रयोग करना आसान है. तो फिर ठीक है, फिलहाल के लिए अन्ना होना ठीक है.
मृत्यु का, संन्यास का इतना आग्रह क्यों. जन्मदिन कोई पड़ाव नहीं. जीवन में समय के क्या माने. जीवन में सातत्य है. निरंतरता है. कोई अंतराल नहीं. समय की कल्पना से अन्तराल का बोध होता है. Time is just an illusion. मुझे कभी-कभी ऐसा लगता है के मैं शरीर नहीं हूँ (मज़ाक नहीं कर रहा, सिरिअसली) शायद ओशो का असर हो, पर सत्य है. उम्र का एहसास ही नहीं होता जब तक कोई कहे ना के बेटा बुढा रहे हो. फिर का पैंतीस का चालीस.
मृत्यु पे अपन फिर कभी बोलेंगे… आज सिर्फ इतना कहेंगे के अनशन पे ना जायें. ये तरीका तार्किक नहीं. कोई आपके घर के बाहर भूखा मर जाने की धमकी दे दे.. तब आप जानेंगे ये कितनी हिंसक बात है. एक कदम से आप युवाओं को कितना पीछे ले गए आपको अंदाजा भी नहीं.
So, once again many many happi returns of the day to u and to ur family. HAPPY B’DAY >:D< कुशल प्रताप सिंह बरेली
A S Raghunath
August 26, 2011 at 2:42 pm
Dear Yashwant,
May you laugh laud and melt away all the serious issues of the life and profession. May your home echo with your carefree laughter. Always. May your life radiate with your brilliant smiles.
Happy Birthday.
aazad rajeev
August 27, 2011 at 1:23 am
;D aap mahan hain sir…
पंकज झा.
August 30, 2011 at 6:13 pm
अपने मन से जीते रहने का, इच्छा भर जीते रहने का अपना दुष्प्रभाव है…..पितामह भीष्म की जीवनी से इसकी तस्दीक हो सकती है. सो हज़ारों साल जीते रहने की (बद) दुआ नहीं दूंगा. लेकिन भारतीय मनीषा में वर्णित शरद शतम की कामना तो कर ही सकता हूं आपके लिए …देर से शुभकामना के लिए क्षमा सहित.
पंकज.