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इंटरव्यू

मैं किसी का आदमी नहीं, मेरा कोई नहीं, मैं निर्गुट हूं

अजीत अंजुमहमारा हीरोअजीत अंजुम : मैनेजिंग एडीटर, न्यूज 24 :

”हां, मैं थोड़ा एरोगेंट, शार्ट टेंपर्ड हूं  : असलियत सिर्फ वही नहीं जो सामने है :  सरकार तो चाह रही कि सारे चैनल दूरदर्शन बन जाएं : लोकसभा टीवी पर देश की सबसे ज्यादा चिंता की जाती है पर उसे कितने लोग देखते हैं :  मैं मैनेजर नहीं, प्रोड्यूसर हूं : दिमाग में टीआरपी, दिल में देश और समाज है :

अजीत अंजुम

अजीत अंजुमहमारा हीरोअजीत अंजुम : मैनेजिंग एडीटर, न्यूज 24 :

”हां, मैं थोड़ा एरोगेंट, शार्ट टेंपर्ड हूं  : असलियत सिर्फ वही नहीं जो सामने है :  सरकार तो चाह रही कि सारे चैनल दूरदर्शन बन जाएं : लोकसभा टीवी पर देश की सबसे ज्यादा चिंता की जाती है पर उसे कितने लोग देखते हैं :  मैं मैनेजर नहीं, प्रोड्यूसर हूं : दिमाग में टीआरपी, दिल में देश और समाज है :


-शुरुआत बचपन से करिए। जन्म, शिक्षा और पत्रकारिता में आने के सपने के बारे में बताएं।

अजीत अंजुम और यशवंत सिंह-बिहार के बेगूसराय शहर में 8 अप्रैल 1966 को पैदा हुआ। सात साल की उम्र से ही बिहार के विभिन्न शहरों में टहलता रहा। वजह, पिता जी जूडीशियरी अफसर रहे, जिनका तबादला कभी हजारीबाग, कभी छतरा, कभी दरभंगा, कभी मुजफ्फरपुर होता रहा और उनके साथ हम लोग भी घूमते रहे। मुजफ्फरपुर के एलएस कालेज में ग्रेजुएशन करने के दौरान ही पत्रकारिता की तरफ रुझान हुआ। तब लेटर टू एडीटर लिखने लगा था। जब छपने लगा तो लिखने की आदत ऐसी पड़ी कि फिर पढ़ाई में मन नहीं लगा। पटना के पाटलीपुत्र टाइम्स में छपने लगा था। मुजफ्फरपुर के मीनापुर कस्बे का मैं संवाददाता बन गया और मुजफ्फरपुर में बैठकर खबरें मीनापुर डेटलाइन से लिखा करता था। बीए फर्स्ट इयर में ही पत्रकारिता का यह नशा चढ़ चुका था। किसने क्या लिखा, किसका क्या छपा …देखने के लिए हर रोज सुबह-सुबह हम लोग कल्याणी चौक इकट्ठा होते थे। उन दिनों पटना में नभाटा के संपादक दीनानाथ मिश्र थे। तब कैंपस रिपोर्टर रखने की शुरुआत हुई। मुजफ्फरपुर के एलएस कालेज का कैंपस रिपोर्टर मुझे बनाया गया। 1984 से 87 तक ग्रेजुएशन करने के बाद 1987 में पत्रकारिता में बहुत कुछ करने का सपना लिए ड्रीम सिटी पटना पहुंचा।

-क्या आपका शुरू से नाम अजीत अंजुम था या अंजुम शब्द बाद में जुड़ा।

-आज जो नाम है वह छठवीं बार के बदलाव से पैदा हुआ। सबसे पहले नाम था अजीत कुमार सिंह। फिर अजीत कुमारअजीत कुमार अभिषेकअजीत कुमार अकेला। अजीत कुमार अंजुम। इसमें से कुमार इसलिए हटाना पड़ा क्योंकि बाइलाइन के वक्त नाम बड़ा होने की शिकायत एक वरिष्ठ पत्रकार साथी ने कर दी। छठीं बार जो नाम रखा वही स्थायी हुआ। मेरे नाम बदलने से घर वाले काफी नाराज होते थे। लेकिन मुझे जो करना था वो मैंने किया।

-जब आप सन 87 में अपने सपनों के शहर पटना संघर्ष करने पहुंचे तो वहां क्या रिस्पांस मिला?

अजीत अंजुम के साथ यशवंत-पटना में जितने बड़े नाम हुआ करते थे, उन जैसा बनने का ख्वाब लिए पटना पहुंचा। उन दिनों के जो बड़े नाम थे, जिनसे मैं प्रभावित रहता था, वो हैं- अरुण रंजन, विकास कुमार झा, सुरेंद्र किशोर, जयशंकर गुप्त, उर्मिलेश, वेद प्रकाश वाजपेयी, हेमंत, श्रीकांत, सुरेंद्र किशोर। ये लोग जैसा लिखते थे, सिस्टम के खिलाफ अपनी लेखनी से बिगुल बजाया करते थे, वो काफी प्रभावित करता था मुझे। ये एग्रेसिव जर्नलिज्म का दौर था, उसके जो हीरो थे, उसी जैसा बनने पटना आया। दिल्ली जाने की बात तब मेरी सोच में नहीं थी। ड्रीम सिटी पटना का हिस्सा बनने के बाद पता चला कि हकीकत ज्यादा चट्टानी है। अपने जैसे संघर्षशील लोगों की पटना में संगत बनने लगी। इसमें अभि मनोज, विकास मिश्रा, रवि प्रकाश, हरि वर्मा, विकास रंजन आदि थे। हम सभी स्थापित पत्रकारों के समानांतर खड़े होने की कोशिश करने लगे। होटल पिंटू के बाहर पत्रकारों – संपादकों की जुटान होती थी तो हम लोगों ने अड्डा हुंकार प्रेस के बाहर चाय की दुकान पर जमाया। यहीं सभी लोग चंदा कर शराब और अंडा मंगाते थे। मैं शराब पीता नहीं, इसलिए अपना हिस्सा ज्यादा अंडे खाकर पूरा करता था। इस जुटान से हम लोगों में अजनबीपन और एकाकीपन खत्म हुआ। आत्मविश्वास बढ़ा। पटना कुल दो साल रहा। 87 से 89 तक। समझ में आया कि जितनी भी अखबार-मैग्जीनें हैं, धर्मयुग, दिनमान, रविवार, जनसत्ता, उनका मुख्यालय दिल्ली-मुंबई है। पटना में सिर्फ फ्रीलांसिंग संभव है। इसमें भी तगड़ा कंपटीशन। बिहार में नरसंहार बहुत हआ करते थे। इसकी कवरेज पहले भेजने की होड़ होती थी। एक नरसंहार पर खबरों के कई पैकेट मैग्जीनों के मुख्यालय कुरियर से भेजते थे। जिनका पहले पहुंचता, उनका छपता था। मशहूर फोटोग्राफर कृष्ण मुरारी किशन के भाई और प्रतिभावान फोटोग्राफर कृष्ण मोहन शर्मा के स्कूटर पर बैठकर नरसंहार स्थल जाता था। इतना पैसा कहां था कि खुद जा पाते। वहां से रिपोर्ट तैयार कर लाते और कुरियर से फटाफट भेज देता। तीन बड़ी मैग्जीनों में लिखने वाले हम 13 लोग थे। जिस दिन मैग्जीन को पटना में आना होता था, उस दिन बेचैन रहते थे। दिनमान में एक रिपोर्ट मेरी प्रकाशित हुई, बेगूसराय से अजीत अंजुम नाम से। तस्वीर के साथ। ऐसे कुल तीन चार लेख छपे। एक अखबार जनशक्ति नाम का छपता था पटना से। अखबार का कैचलाइन था- वामपंथी चेतना का अग्रदूत। सोच में एग्रेसिव अखबार था। इसके लिए पटना के गांधी मैदान के पास स्लम पर स्टोरी की। 25-30 पेज का लेख लिखा। लेख इस अखबार के रविवासरीय में छपा। फुल पेज का शेष पेज अंदर था। कुल डेढ़ पेज। फोटो भी खुद खींचे थे। संपादक को पसंद आया तो उन्होंने हर रविवार लिखने को कह दिया। इसके 50 रुपये मिलते थे। उन्हीं दिनों आज अखबार में कुछ लोगों की बहाली होने की सूचना मिली। ट्राई करने मैं भी पहुंचा। वहां पहुंचा तो जिन्होंने इंटरव्यू लिया उन्होंने केवल तीन सवाल पूछे- जाति क्या है, नाम क्या है, जिला कौन सा है। मेरा सेलेक्शन नहीं हुआ। दूसरे साथी को उन्होंने रख लिया। शायद उसकी जाति उन्हें सूट कर गई। बताया गया कि उन्हें भूमिहारों से चिढ़ है। मैं सोचता रहा कि उन्हें किसी एक भूमिहार से दिक्कत हुई तो सबको दुश्मन क्यों मान लिया? घर से मेरे पर प्रेशर पड़ने लगा। बैंक में क्लर्क बन जाओ, पीओ बन जाओ पर ये पत्रकारिता छोड़ो। पत्रकारों की जो इमेज मेरे परिवार में थी वो वही थी जो उन दिनों जिले के पत्रकारों की स्थिति थी। सीमेंट, कोयला, राशन का परमिट लेकर बेचते थे और इसी से पैसा कमाते थे। पत्रकारिता से तो उन्हें कुछ मिलता नहीं था। पिता जी मेरे सपोर्ट में थे। वे मुझे अपने हिसाब से करने की छूट देते थे। घर से पैसे वगैरह भी मिल जाते थे। दो साल में पटना में रहने के बाद लगा कि यहां कुछ खास नहीं होने वाला है। उन्हीं दिनों गुवाहाटी से उत्तरकाल नामक एक अखबार निकालने की तैयारी हो रही थी जिसके लिए पत्रकारों का चयन पटना में किया जा रहा था। इसके लिए हम सात लोग चुने गए। 900 रुपये में नौकरी मिली। गुवाहाटी पहुंच गए। रहने के लिए फ्लैट भी अखबार ने दे दिया। अखबार के संपादक चंद्रेश्वर हुआ करते थे। हम जो सात लोग वहां गए उनमें ओम प्रकाश अश्क, रत्नेश कुमार आदि थे। हम सब एक ही फ्लैट में रहते थे। अखबार का मालिक सीमेंट कोराबारी था और उसका बर्ताव घटिया किस्म का था। वहां पता चला कि हम लोगों को अखबार के लिए विज्ञापन भी लाना पड़ेगा। डेढ़ महीने बाद ही मैने नौकरी न करने का ऐलान कर दिया। उधर, जब हम लोग पटना से गुवाहाटी चलने को हुए थे तो मेरे घर पर पूजा पाठ कर आवारा बेटे के लायक बनने की घोषणा कर दी गई और इधर नौकरी छोड़कर फिर पहले वाली स्थिति में पहुंच गया था। दरअसल मैं थोड़ा रिएक्शनरी किस्म का हूं। गुवाहाटी में उम्र में तो सबसे छोटा था पर सब अजीत अंजुममुझे नेता मानने लगे थे। बाद में अखबार मालिक ने दो लोगों के नाम चिट्ठी भेजकर फ्लैट से बुलवाया पर हम तीन मैं, रत्नेश और सुनील अखबार मालिक के फ्लैट को छोड़कर 10 रुपये रोज पर एक बहुत ही घटिया टाटनुमा रूम में रहने लगे। उन दिनों बोडो आंदोलन के चलते ट्रेनें बंद थीं इसलिए हम लोग 9 दिनों तक बेहद खराब हालत में रहे। अश्क जी और एक अन्य साथी ने उसी अखबार को ज्वाइन कर लिया। चंद्रेश्वर जी ने हम लोगों को कुछ चिट्ठियां थमाईं। दिल्ली मे प्रबाल मैत्र और राम बहादुर राय के नाम। 89 जनवरी में गुवाहाटी पहुंचे थे और इसी साल मार्च में दिल्ली आ गए। पटना जा नहीं सकते थे क्योंकि वहां किस मुंह से वापसी करते। प्रबाल मैत्र जी ने दिल्ली में सदाशयता दिखाई और चौथी दुनिया में सुधेंद्र पटेल ने नौकरी दे दी। यहां आठ महीने रहा। चौथी दुनिया के बाद प्रबाल जी जो अमर उजाला में ब्यूरो चीफ थे, उनसे मिला। उन्होंने राजेश रपरिया जी से मिलवाया। फिर अतुल माहेश्वरी से मुलाकात कराई गई। उसके बाद अमर उजाला ज्वाइन कर लिया। यहां 90 मार्च से 93 सितंबर तक रहा। उसके बाद 94 अंत में बीएजी (बैग) में ज्वाइन किया। 2002 अक्टूबर में आज तक पहुंचा। 2003 में फिर वापस बैग आ गया।

-बैग में आपने शून्य से शुरू कर आज आप मैनेजिंग एडीटर जैसे पद तक पहुंचे। कैसी रही यह यात्रा?

-94 में बैग छोटा सा प्रोडक्शन हाउस था। अनुराधा प्रसाद के नेतृत्व में हम लोगों ने काम शुरू किया। यहां ग्राउंड लेवल के काम करने से काफी कुछ सीखने को मिला। दो-तीन कमरों से शुरू हुई बैग की यात्रा आज चौदह सालों बाद यहां तक पहुंची है। यहां मैंने कभी नौकरी नहीं की। एक फेमिली की तरह रहा। इमोशनल लगाव है। इसलिए बैग के हर छोटी बड़ी चीज में खुद को पूरी तरह इनवाल्व रख सका।

-टीवी न्यूज चैनल रेवेन्यू और टीआरपी पर ज्यादा ध्यान देते हैं, जर्नलिज्म पर कम। क्या यह सच है?

अजीत अंजुम-अगर अखबार के लिए प्रसार संख्या एक हकीकत है तो टीवी के लिए टीआरपी। टीवी चलाने के लिए साल भर में 70 से 100 करोड़ रुपये चाहिए। टीआरपी से मार्केट में आपकी पोजीशन तय होती है और इसी पोजीशन से पैसा आता है। तो चैनल चलाने के लिए टीआरपी एक सच है। फिर इसे हेय दृष्टि से क्यों देखिए? वेश्या क्यों समझिए? सोच में प्राब्लम है। जो लोग टीवी को नहीं समझ रहे, वो ऐसी बातें करते हैं। एकतरफा सोच है। टीआरपी है क्या?  हमें कितने लोग देख रहे हैं, इसका पैमाना है। टीआरपी की मेथोडोलाजी पर बहस हो सकती है, पर इसे खारिज कैसे कर सकते हैं? रही बात न्यूज की तो दस-बीस साल पहले जो न्यूज की परिभाषा थी, वो अब बदली है। न्यूज का दायरा बढ़ा है। इसमें सिनेमा, इंटरटेनमेंट, स्पोर्ट्स, टीवी, टेक्नालजी जैसी चीजें भी शामिल हुई हैं। पहले न तो बिग बास था, न सिंगिंग कंपटीशन थे,  न इंडियन आइडल था, न सास बहू था, सो ये चीजें न्यूज नहीं हुआ करती थीं। आज हैं तो न्यूज हैं। हां, कुछ चैनल इसे ज्यादा दिखा रहे हैं तो कुछ कम पर इसके लिए जिम्मेदार दर्शक भी तो है। सोनिया आडवाणी मनमोहन में आम आदमी का इंट्रेस्ट नहीं है। माल कल्चर के नौजवानों को आप टीवी पर राजनीतिक कचकच दिखाइए, कालाहांडी, विदर्भ, डेवलपमेंट पर स्टोरी दिखाइए। कितने लोग देखते हैं?  ऐसा नहीं की टीवी के पास अच्छे संपादक नहीं। नकवी, आशुतोष, रामकृपाल…ये सभी पत्रकार हैं पर कहीं न कहीं बाजार का दबाव है और दर्शकों का बदला टेस्ट है। मैं तो गर्व से कहता हूं, हां, मैने सनसनी और पोलखोल जैसे कार्यक्रम बनाए। ये सही है, बैक आफ द माइंड, टीआरपी का दबाव होता है पर ये न्यूज भी तो हैं। सनसनी ने न जाने कितने क्रिमिनलों, बाबाओं, ढोंगियों, अपराधियों को जेल के अंदर कराया। पोलखोल ने सिस्टम और नेताओं की बखिया उधेड़ी। सही कहें तो टीवी वाले एग्रेसिव जर्नलिज्म करते हैं। जितने आपरेशन हुए, स्टिंग हुए, वो क्या हैं? आपरेशन दुर्योधन क्या है? सरकार तो चाह रही है कि सारे चैनल दूरदर्शन बन जाएं। लोकसभा टीवी पर देश की सबसे ज्यादा चिंता की जाती है पर उसे कितने लोग देखते हैं? दौर बदल रहा है। स्ट्रेसफुल लाइफ है। टीवी न्यूज में इंटरटेनमेंट आया है। एनडीटीवी के लिए डाक्टर प्रणय राय ने तय कर दिया है कि उन्हें टीआरपी मिले या नहीं, उन्हें नान न्यूज नहीं दिखाना है। इसलिए इस चैनल के बौद्धिक लोग बकबक करते दिखते हैं। जिस दिन डाक्टर प्रणय राय यह तय कर देंगे कि उन्हें मार्केट शेयर में 20 प्रतिशत हिस्सा चाहिए, उस दिन मैं देखूंगा कि आज बकबक करने वाले लोग इस्तीफा देते हैं या वहीं काम करते हैं। अल्टीमेटली, जिसका पैसा लगा है, वो पैसा निकालना चाहेगा। जिनकी जिम्मेदारी नहीं है, जो भाषण दे रहे हैं, उन लोगों ने क्यों नहीं लखटकिया नौकरी का मोह छोड़ दिया। क्यों नहीं वो दस हजार रुपये में असली पत्रकारिता करते दिखते हैं। क्योंकि पैसा उन्हें चाहिए और खूब चाहिए। इसके बाद भाषण देते रहते हैं। खुद को महानता के शिखर पर ले जाना चाहते हैं लेकिन ये लोग अंदर से कुछ और होते हैं। ऐसे लोगों से मुझे चिढ़ है।

-आप टीवी के किन पत्रकारों का नाम लेना चाहेंगे जिन्हें आप अच्छा मानते हैं?

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-राजदीप, आशुतोष, अर्नब गोस्वामी, पुण्य प्रसून। मैं इनका प्रशंसक हूं। ये लोग जनता से इंटरैक्ट करते हैं। हिंदी में आशुतोष और प्रसून बेस्ट एंकर हैं। पब्लिक कनेक्ट है इनका। और भी कई लोग हैं। रिपोर्टर की बात करें तो दीपक चौरसिया का मैं कायल हूं। इतनी एनर्जी और वेरायटी वाला हिंदी में और कोई रिपोर्टर नहीं है। भाषा व रिपोर्ताज के स्तर पर रवीश कुमार और कमाल खान बेजोड़ हैं।

-आप पर आरोप है कि आप न्यूज रूम में आक्रामक हो जाते हैं, जमकर गुस्सा करते हैं?

अजीत अंजुम-हां, मैं थोड़ा एरोगेंट हूं। शार्ट टेंपर्ड हूं। गुस्सा जल्दी आता है लेकिन उतनी ही जल्दी इसे समेटना जानता हूं। मैं परफेक्शनिस्ट हूं। अगर मैं किसी को कोई चीज तैयार करने के लिए उसके ए से जेड तक बता देता हूं और वह उस तरह का नहीं हो पाता तो खीझ होती है। यह तात्कालिक होता है। टीवी ऐसा माध्यम है जिसमें थोड़ी सी गलती पूरे देश में चैनल की प्रतिष्ठा दांव पर लगा देती है। इसलिए चाहता हूं कि गलती बिलकुल न हो। पर यह संभव नहीं। आदमी है तो गलतियां करेगा ही लेकिन यह गलतियां समय रहते ठीक कर ली जाएं, कम से कम हों, यह कोशिश रहे। अखबार तो एक बार निकालना होता है, उसे छापने से पहले दस बार ठीक कर सकते हैं पर टीवी में तो चीजें तुरंत आन एयर हो जाती हैं। अगर कोई समझाने के बावजूद एक ही तरह की गलती बार बार करता है तो गुस्सा स्वाभाविक है। वैसे, मैं अपने साथियों से प्यार भी बहुत करता हूं। हमेशा उनके साथ रहना और काम करना चाहता हूं। दोनों ही पक्ष हैं।

-आपके जीवन में संघर्ष और उतार-चढ़ावों के बीच प्रेम के लिए कितना स्थान रहा है?

-मेरे जैसे आदमी से एकबारगी मिलकर किसी को यही लगेगा कि इतना खड़ूस, सूखा, नीरस और कुछ लोगों के शब्दों में बददिमाग आदमी प्रेम कैसे कर सकता है। लेकिन जब मैंने प्रेम किया था तो डूबकर किया। इस चक्कर में अमर उजाला से मेरी नौकरी चली गई। वो प्रेम के दिन थे। मेरे तत्कालीन ब्यूरो चीफ मुझसे हर रोज एक या दो खबर चाहते थे। मैं खबर क्या देता, मैं तो खुद बेखबर था। जिनसे प्रेम करता था, उनका नाम है गीताश्री है। वरिष्ठ हिंदी पत्रकार हैं। आउटलुक हिंदी में फीचर एडीटर हैं। वही मेरी पत्नी हैं। मैं सिंगल ट्रैक पर चलने वाला आदमी हूं, लिहाजा मुहब्बत के सिंगल ट्रैक पर चल रहा हूं। हालांकि प्यार मुझे कालेज के जमाने में भी हुआ था। तब शायद बचपना था, लेकिन तब भी मैं इस कदर पागल था, कि प्रेम में मरते मरते बचा। एक दिलचस्प किस्सा है। गीताश्री और मेरा एक कामन दोस्त था। गीताश्री आर्ट और कल्चर पर लिखा करती थीं। मैंने उनके लेखन को लेकर कुछ प्रतिकूल टिप्पणी की तो दोस्त ने गीताश्री को जाकर बता दिया। वो लगीं मुझे तलाशने। एक बार आईएनएस पहुंचा और वो गेट से आ रहीं थीं। मेरा मित्र भी वहीं था। उसने गीताश्री को बता दिया कि यही अजीत अंजुम हैं। इतना सुनते ही मैं वहां से भाग निकला। जाकर प्रेस क्लब के पास रुका। गीताश्री के बारे में सुन रखा ता कि वो लाउड हैं, खूब बोलती हैं। बाद में एक दिन उनसे परिचय हुआ। उनकी लिखी कविताएं और लेख मैं पढ़ता था। साहित्य आदि पर बातचीत होने लगी। दोस्ती हो गई। एक दिन हम लोगों ने शादी करने का इरादा कर लिया। जिंदगी में प्रेम बहुत जरूरी है। एकाकीपन और संघर्ष में प्रेम से मानसिक सपोर्ट मिलता है।

-बेगूसराय का एक सामान्य नौजवान आज जिस ऊंचाई पर है उसकी कभी कल्पना आपने की थी?

अजीत अंजुम-सच कहूं तो बिलकुल नहीं की थी। साइकिल से रिपोर्टिंग करता था और बदले में पचास रुपये मिलते थे। घर मकान नौकरी की कभी कल्पना नहीं की थी। मुझे बहुत कुछ मिला। जिन दिनों मैं अखबार में आया तब पत्रकारिता में आने पर लाभ मिलने की सोच नहीं थी। कभी महत्वाकांक्षा नहीं पाली। मेरे भीतर बेचैनी है। मेरा गुस्सा मेरी बेचैनी का प्रतीक है। वो बेचैनी ही है जिससे काम अच्छे से अच्छा करने की प्रेरणा मिलती है। हर पल में जीता हूं। जो मिल गया सो मिल गया। कभी मिलने पाने के बारे में बहुत सोचा नहीं। टीवी में मैं केबिन में बैठने की बजाय आउटपुट और इनपुट के लोगों के पास बैठकर काम करना कराना ज्यादा पसंद करता हूं। काम को इंज्वाय करता हूं। मैनेजर नहीं हूं। मैं प्रोड्यूसर हूं। हिंदी मीडिया पर भी बहुत से ऐसे अंग्रेजीदां लोग हावी हैं जो खुद आधे घंटे का एक अच्छा प्रोग्राम नहीं बना सकते, जो खुद तीन मिनट की अच्छी स्टोरी हिंदी में नहीं लिख सकते लेकिन वो लीडर बने रहते हैं क्योंकि उन्हें खुद को पैकेज करना आता है।

-क्या आप आगे राजनीति में आना चाहेंगे?

-मेरे जैसा अराजक, एरोगेंट आदमी, सेल्फ रेसपेक्ट वाला आदमी राजनीति नहीं कर सकता। मैं राजनीति कर भी नहीं पाता। अपने दफ्तर में भी नहीं कर पाता। राजनीति होती है तो उसमें मैं हमेशा मात खाता हूं। कोई मेरा आदमी नहीं मैं किसी का आदमी नहीं। मैं निर्गुट हूं। अनुराधा प्रसाद (एमडी, बीएजी) का मुझ पर भरोसा है, तभी मैं सरवाइव कर पा रहा हूं। मेरा उनसे भरोसे का रिश्ता है। अगर राजनीति के आधार पर चीजें तय हो रही होतीं तो मैं कबका बाहर हो चुका होता। आज तक में जब गया था तो मेरे अंतरंग दोस्तों ने विरोध किया। राजनीति करने वाले और लोग हैं,  मैं नहीं कर सकता।

-पत्रकारिता में आपने कई लोगों को अपना विरोध बना रखा है। क्या वजह है?

-ये सच है कि मेरे बहुत विरोधी हैं। इसकी वजह मेरी सफलता से ईर्ष्या है। आईएनएस की संजय की दुकान पर हम कई लोग इकट्ठे होते थे। एक दिन मैं वहां खुद की मारुति से पहुंचा। कई लोगों को दिक्कत होने लगी। कल तक ये साथ था, आज मारुति पर कैसे सवार हो गया। तो ये जो सफलता है वो खुद ब खुद आपके विरोधी पैदा कर देती है। बाकी कई चीजें फैलाई जाती हैं। सुना सुनाया परसेप्शन भी बना लिया जाता है। मैं यह भी कहना चाहूंगा कि मेरे कई अंतरंग मित्र हैं जिनके चलते मैं ताकत पाता हूं। हम जो कई दोस्ते हैं वो हमेशा एक दूसरे के सुख-दुख में खड़े रहते हैं। ये एक बड़ी ताकत है जो विरोधियों की चाल को कभी सफल नहीं होने देती।

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-पत्रकारिता और निजी जिंदगी में आपने बहुत कुछ पाया। क्या कुछ खोया भी है जिसका मलाल हो?

-निजी तौर पर मेरे लिए एक बहुत बड़ा सदमा रहा है मेरे आठ साल के बच्चे की मौत। 5 दिनों तक वो अस्पताल में बीमार रहा पर मैं उसे देखने नहीं गया। वर्कोहलिक (ज्यादा काम करने वाला) स्वभाव के चलते मैंने बच्चे की बीमारी को हलके में लिया और उसे डाक्टरों को दिखाने की सलाह फोन पर देता रहा। छठें दिन बीमारी ने सीरियस रूप ले लिया और बेटा गुजर गया। तब मुझे लगा कि अपने लिए भी समय निकालना चाहिए, परिवार के लिए भी समय निकालना चाहिए। मेरी लापरवाही थी। इसका मुझे मलाल है। जिंदगी भर ये दुख रहेगा। टीवी की ये दिक्कत है कि चाहते हुए भी यहां टाइम नहीं मिलता। कितना कुछ करने को बाकी है। कभी नौकरी नहीं रहेगी तो वो सब करूंगा जो दिल चाहता है।

-एक संपादक के रूप में आपको ऐसा कुछ करना पड़ा जो आप नहीं करना चाहते थे?

अजीत अंजुम-पिछले तीन साल से टीवी में बहुत कुछ ऐसा हो रहा है जो नहीं करना चाहते थे। जो दिल नहीं चाहता उसे दिमाग के हिसाब से करना पड़ता है। दिल दिमाग का युद्ध बढ़ा है। दिमाग में टीआरपी है। दिल में देश और समाज है। मैं इसे कनफेस करता हूं। हम लोगों की जवाबदेही है। पर फ्लेक्सीबल होना पड़ता है। समझौते करने पड़ते हैं। अगर कोई चैनल साईं का अवतार चार घंटे लगातार चलाता रहे तो हम लोगों पर भी प्रेशर बनता रहता है कि नहीं चलायेंगे तो रेटिंग से हाथ धोयेंगे। हर गुरुवार जिंदगी के लिए खतरनाक है। अगर टीआरपी न हो तो टीवी की तस्वीर दूसरी होती। टीआरपी को भी हर हफ्ते की बजाय तीन महीने में एक बार आना चाहिए। मैं तो चाहता हूं कि हर चीज वही चले जो न्यूज कहलाती है पर इनकी रेटिंग नहीं आती। साईं का अवतार सरासर फ्राड है पर उसे दो घंटे चलाइए तो लोग आंखें फाड़कर देखते रहते हैं।

-साहित्य में कितनी रुचि है? किनको पढ़ा है?

-मैं हिंदी वाला आदमी हूं। हिंदी साहित्य में रुचि है। निर्मल वर्मा की कोई ऐसी किताब नहीं जो मैंने पढ़ी न हो। वे बिम्ब और भाषा के लेवल पर बहुत प्रभावित करते हैं। कमलेश्वर मुझे इसलिए पसंद हैं क्योंकि उनके लेखन में आक्रामकता बहुत है। मुझे मेरे नेचर के हिसाब से एग्रेसिव स्टोरी पसंद है।  कहानियों का खासकर शौकीन हूं। उदय प्रकाश, संजीव जैसे कथाकार इसलिए पसंद हैं क्योंकि इनके लेखन में गांव की बारीकियां और वास्तविक चित्र होते हैं। इनके अलावा और भी बहुतेरे लोग हैं जिन्हें मैं पसंद करता हूं। मेरे व्यक्तिगत संग्रह में दो हजार कहानियों और उपन्यास की किताबें हैं।

-खबरिया चैनलों की कहानियों पर हंस का कहानी विशेषांक आया था, जिसका संपादन आपने किया था। बाद में वो किताब की शक्ल में भी आया। यह आइडिया कहां से आया?

-करीब दो साल पहले मुंबई में स्टार न्यूज के एडिटर शाजी जमां के साथ यूं ही बैठा था। टीवी की दुनिया पर बात होने लगी। बातों बातों में आइडिया आया कि क्यों न कहानी लिखें। सवाल आया कि कहानी छपे कैसे और कहां? मैंने कहानी लिखी और हंस के संपादक राजेंद्र यादव से बात की। उन्हें कहानी पसंद आ गई। उसके बाद मुझे लगा कि क्यों न अपने जैसे 20-25 लोगों से बात करके कहानी विशेषांक निकलवाया जाए। बस फिर क्या था। आदतन मैं जिद्दी, जुनूनी और धुन का पक्का हूं। सिंगल ट्रैक पर काम करता हूं। धुन सवार हो गई तो तुरंत बैठकर अलग अलग चैनलों में काम करने वाले 30 लोगों की लिस्ट बनाई जिसमें संपादक से लेकर संवाददाता तक शामिल थे। हाथ धोकर उन तीसों के पीछे पड़ गया। यकीन मानिए इनमें से कोई भी ऐसा आदमी नहीं होगा, जिसको मैंने 30-30 बार फोन न किया हो। कुछ लोगों ने पीछा छुड़ाने के लिए कहानी लिखने में ही भलाई समझी। हमारी इस मुहिम में रवींद्र त्रिपाठी भी साथ थे। आखिरकार हंस का वो अंक निकला। ऐसा पहला विशेषांक था वो जो हाथों हाथ बिक गया। हर चैनल में लोग अपने आपको उन कहानियों में तलाशते देखे गए। इन कहानियों के किरदार तमाम चैनलों से ही उठाए गए थे। कुछ लोगों ने एक दूसरे पर भी कहानियां लिखीं। दो कहानियों का किरदार तो मैं भी हूं। बाद में इन कहानियों का संग्रह किताब की शक्ल में छापा राजकमल ने। इसको नाम दिया- वक्त है एक ब्रेक का। इन कहानियों की खास बात ये थी कि इनमें से ज्यादातर लेखकों की ये पहली कहानी थी और ये कहानी अपने निजी अनुभवों से उपजी थी।

-जीवन के जो कई तरह के खट्ठे-मीठे अनुभव हैं, उसे किताब की शक्ल देना चाहेंगे?

-टीवी से रिटायर होने के बाद लिखूंगा। बहुद विवादास्पद लिखूंगा। किस तरह सबसे करीबी आदमी धोखा करता है, इस बारे में बताऊंगा। आकांक्षा, महत्वाकांक्षा और दूसरे को पीछे करने की ख्वाहिश किस तरह आदमी को मक्कार बना देती है, इस बारे में लिखूंगा। मुझे कोई चाहे जो कहे पर मुझे पता है मुझे कोई मक्कार नहीं कहेगा, मुझे कोई दलाल नहीं कहेगा, मुझे कोई बिकने वाला और झुकने वाला नहीं कहेगा। मैं मानता हूं कि मैं बिलो इंटेलीजेंस का आदमी हूं। अपनी मेहनत से सरवाइव करता हूं। मैं आनेस्टी से काम करता हूं। ढेर सारे लोग हैं जो जितनी तनख्वाह लेते हैं उतनी मेहनत नहीं करते। हिप्पोक्रेसी पर जरूर लिखूंगा। हिप्पोक्रेसी को बेहद करीब से देखा है। असलियत सिर्फ वही नहीं होती जो सामने दिखता है। जो सच दिख रहा है वो धोखा है। मृगतृष्णा है। पीछे के सच को सामने ले आउंगा। लड़कीबाजी और सेटिंग-गेटिंग में मैं कभी नहीं रहा पर इन भयावह रंगों से रंगे लोगों को आगे बढ़ते देखा है। सही कहूं तो मेरी कंपनी के प्रमोटर मुझे झेल रहे हैं। मुझे और कोई नहीं झेल सकता। मेहनत, ईमानदारी, निष्ठा, वफादारी और काम, यही मेरी पहचान है। काम करता रहा इसलिए मुझे आज सब कुछ मिला। जो लोग भाषण देते हैं, संस्थानों से लंबी सेलरी उठाते हैं वे भी वही कर रहे हैं जो बाकी कर रहे हैं लेकिन ये हिप्पोक्रेटों खुद को इससे अलग होने का दावा करते हैं। फिर ये बगावत करके विंध्याचल क्यों नहीं चले जाते। ऐसे हिप्पोक्रेटों के बारे में किताब में लिखूंगा। उनके नाम खोलूंगा।

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-बैग के कर्ताधर्ताओं में राजीव शुक्ला भी हैं जो कांग्रेसी हैं। चैनल में उनका हस्तक्षेप कितना है?

-कांग्रेस सरकार के खिलाफ विश्वासमत को लेकर जो कार्यक्रम हम लोगों ने चलाए, वही यह बताने के लिए काफी है कि न्यूज में किसी का दखल नहीं होता। हमने सांसदों की खरीद फरोख्त को लेकर देख तमाशा दल दल का कार्यक्रम चलाया। हमनें देश में धमाकों के बाद गृह मंत्री के बयानों को कंपाइल कर एक धारधार कार्यक्रम बनाया, जागिए गृह मंत्री। हर ब्लास्ट के बाद गृह मंत्री का सिर्फ बयान आता है, सिर्फ भर्त्सना करते हैं। इस कार्यक्रम को लेकर सरकार के भीतर खलबली मची। मुझे कभी नहीं लगा कि हम लोगों पर कोई दबाव है।

-पत्रकारों के इंटरप्रेन्योर बनने का दौर है। इस प्रवृत्ति को आप शुभ मानते हैं?

अजीत अंजुम-जब राजदीप नंबर वन थे तो उसके उपर भी उन्हें जाना था पर उसके उपर कोई पद नहीं था। विकास स्वाभाविक है। उसी क्रम में एक पत्रकार इंटरप्रेन्योर बनता है। जब आप कहीं नौकरी करते हैं तो आपको उसके ढांचे, नियम कानून और उसके सिस्टम के हिसाब से चलना पड़ता है। जब एक पत्रकार अपनी मीडिया कंपनी खड़ी करता है तो वो अपने मन की कर पाता है। तो इस लिहाज से यह ट्रेंड स्वागतयोग्य है। टीवी ने इतना तो किया है कि पत्रकार को ब्रांड बना दिया है। कानपुर जैसे छोटे शहर से पत्रकारिता शुरू करने वाले राजीव शुक्ला और अनुराधा प्रसाद ने आज जो कंपनी खड़ी की है उसमें 1200 लोग रोजगार पा रहे हैं जिसमें 300 पत्रकार हैं। किसी बड़े बिजनेसमैन का बेटा न होते हुए भी राजीव शुक्ला ने अपने इंटरप्रेन्योर स्किल के चलते एक-एक कदम आगे बढ़ाते हुए मीडिया कंपनी खड़ी करके हिंदी पट्टी के करोड़ों नौजवानों के सामने एक उदाहरण प्रस्तुत किया है। यह बड़ी बात है।

-पत्रकारिता में जो नई पीढ़ी आ रही है उसको लेकर क्या तजुर्बा है?

-20-25 साल पहले जो लोग पत्रकारिता में आए, वो पैशन के चलते आए। तब यह पता नहीं होता था कि पत्रकार बनने जा रहे हैं तो शादी भी होगी या नहीं। सिर्फ सरकार और सिस्टम को ठोंकने, इस पर हमला करने, इसकी बखिया उधेड़ने का ध्यान रहता था। अब जो लोग आ रहे हैं वो पहले ही दिन से प्रोफेशन में आ रहे हैं। नए लोगों में लिखने का सिलसिला नहीं रहा। दिखने की बीमारी है। 100 में नब्बे लोग सीधे रिपोर्टर और एंकर बनना चाहते हैं। डेस्क पर काम करने में रुचि नहीं है। ये लोग जल्दबाजी में हैं। मैं निजी तौर पर उन नए लोगों को ज्यादा प्रीफर करता हूं जिनका कोई गाडफादर नहीं होता और जो ईमानदार होते हैं। ऐसे लोगों को जगह होने पर हमेशा मौका देना चाहा और चाहूंगा।

-अजीत जी, आपने इतना वक्त दिया, हम आपके दिल से आभारी हैं।

-मुझे भी अच्छा लगा आपसे बात कर। बहुत दिनों बाद पीछे मुड़कर देखने और कहने का मौका मिला। धन्यवाद।


((इंटरव्यू पर अजीत अंजुम तक आप अपनी राय [email protected] पर मेल कर पहुंचा सकते हैं))

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0 Comments

  1. ABHAY PARASHAR

    January 17, 2010 at 6:26 pm

    सर, आपका पूरा इंटरव्यू पड़ा…मुझे बहुत अच्छा लगा…हां ये तो सच है कि आप गुस्से वाले है…क्योंकि मैं खुद न्यूज़ 24 में इंटरनशिप कर चुका हूं…लेकिन ये आपका काम और गल्तियों को लेकर गुस्सा ही है…जो आज न्यूज़ 24 एक ब्रांड बन चुका है…

  2. vinay singh

    April 4, 2010 at 9:23 am

    ajit sir parnam ,aap dekh kar bahut kuch sikhta hoon kyonki mein hamesha sikhna chahta hoon aajkal news 24 mein in..ship kar raha hoon lekin kuch dinon aapko dekhne ka mauka nahi mal pa raha hi na hi news room na hi tv par aasha karta hon jald hi kisi na kisi se swal jwab karte huai dekhoonga. from v.singh 9350933421

  3. b.s.

    April 7, 2010 at 10:13 am

    sir parnam, sir kuch dinon se charcha sun raha hoon ki aap n-24 ko bye kar chuke hain agar aap thik samjhen tau is mudde par comment dede taki logon ke munh band ho jai.

  4. parul tiwari

    October 1, 2010 at 3:48 am

    sir maine aapka pura interview padha .jise padh kar aisa laga ki insan wasisa bilkul nahi hota jaisa dikta hai .i am your big fan maine bhi news 24 mai internship ki hai iss liye mai kah sakti ki aap keval galtiyo par hi gussa hote hai

  5. abhishek anand

    October 3, 2010 at 4:21 am

    अक्सर आज के मेरे मित्रों को पढने की आदत नहीं होती. मैंने इस इंटरव्यू के हर एक शब्द को पढ़ा हैं, सोचा हैं, पहले भी अजित जी और यशवंत जी से वार्तालाप हूई हैं, कुछ चीजे अच्छी लगी, बस युहीं जो अच्छा लगा उसे बता न चाहता हूँ, मेरे भी परिवार वाले चाहते हैं की मैं बैंक में पीओ या क्लर्क बन जाऊ, मैं भी आज तक साइकिल से चलता हूँ इत्यादि, मैं भी बिहार के एल. एस. कॉलेज के पास ही रहता हूँ, इस कॉलेज से भले ही न पढ़ पाया, लेकिन अभी स्नातक द्वितीय वर्ष (पत्रकारिता और जनसंचार) में हूँ लेकिन अभी से पत्रकारिता करने में कुछ ज्यादा ही रूचि हैं…
    i m on facebook with email id [email protected]

  6. rajesh

    October 19, 2010 at 8:54 pm

    sir media line me sirf ek aap hi hai jo tv pr kam aana or dikhna chacte ho,
    varna sabhi ko tv pr aane ki bhook rehti hai chahe wah rajt sharma ji ho ya vinod dua pr aap sabse alag ho….
    main aapka bada eain houn sir….
    sir ho sake to kabhi khajuraho aaiyega….

    rajesh chourasia 09424910001

  7. Shahnawaz Hassan

    August 23, 2011 at 10:21 pm

    Ajit Ji,
    Aap ke bare me jankar laga ki abhi patrkarita karne wale muthi bhar hi sahi par imandar log hain,warna Pankaj pachauri, Prabhu Chawla, Veer Sanghvi, Dipak Chaurasia jaise chatukaron ne hum patrkaron ka sir sharm se jhuka diya tha,Alok Tomar ji ke baad ek shuny sa banta dikh raha tha,jise Aap se umeed jagi hai ki………ab shayad aisa na ho. Join me kindly at my FB Account “Birsa Vani”

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