Ajit Anjum : हर हफ्ते टीआरपी आने का सिलसिला खत्म होना चाहिए? अगर अखबार को सरकुलेशन हर हप्ते नहीं आता है तो टीवी की रेटिंग क्यों? मैं लगातार ये कह रहा हूं कि टैम की रेटिंग तीन या छह महीने में आने लगे तो टीवी न्यूज चैनलों की तस्वीर बदल जाएगी. मैंने तीन साल पहले हंस में एक कहानी भी लिखी-फ्राईडे. तब रेटिंग शुक्रवार को आया करती थी… अब बुधवार को. आज आशुतोष ने भी टीआरपी खत्म करने की वकालत की है. आप क्या सोचते हैं? शनिवार को आईबीएन-7 के कार्यक्रम मुद्दा में भी मैंने यही कहा था टीआरपी टीवी पत्रकारिता की दुश्मन है. राजदीप सरदेसाई, सतीश जैकब, एनके सिंह और चंदन मित्रा भी मुद्दा के गेस्ट थे. राजदीप ने कहा कि कई चैनल टीआरपी खत्म करने के पक्ष में नहीं भी हो सकते हैं क्योंकि विज्ञापन इसी आधार पर तय होते हैं.
Vineet Kumar : रवीश कुमार ने आज की पोस्ट में आशुतोष के इस लेख और आपका दोनों का जिक्र किया है। क्या है टेलीविजन का अर्थशास्त्र,लेख में मैंने सब्सक्रिप्शन इकॉनमी की बात की है। एक तरीका ब्रैंड इमेज पैदा करने की भी हो सकती है। मुझे लगता है हमें इस बहस को आगे बढ़ाना चाहिए औऱ मामला सिर्फ विमर्श तक न होकर कार्यवाही के स्तर पर भी हो।..
Sachin Gaur : agar news 24 trp ke game no 1 aaney lagega tab bhi aap yahi kahenge.
Ajit Anjum : रवीश की पोस्ट मैं पढ़ चुका हूं. मैं कुछ मुद्दों पर असहमत हं. उस पर बात करूंगा. एनडीटीवी का तो इतने सालों का ब्रांड इमेज है फिर क्या एनडीटीवी में कुछ बदलाव नहीं दिख रहा है आपको, पहले की तुलना में. वहां तो एक से एक दिग्गज पत्रकार हैं, चेहरे हैं, इन्फ्रास्ट्रचर है. क्या नहीं है. फिर क्यों बदलना पड़ा. हम तो उनके मुकाबले नए हैं. हमारे पास मां है वाली बात है. एनडीटीवी क्यों सबसे आगे नहीं है.
Ajit Anjum : सचिन मैंने ये बात करीब सवा तीन साल पहले पहली बार कही थी. कहानी लिखी. लेख लिखे थे. तब न्यूज 24 नहीं था. मेरी राय थी. है और रहेगी.
Vineet Kumar : बिल्कुल, ब्रांड इमेज की बात मैंने इसी लिए यहां लायी। अब ज्यादा बेहतर बहस हो सकती है। बिना किसी तरह की गलतफहमी और खुशफहली के। मैं इस मामले में किसी भी तरीके से एनडीटीवी का समर्थन करने के बजाय टीआरपी को लेकर चलनेवाली बहस को आगे ले जाने के पक्ष में हूं।
Hasan Jawed : AAP K IMANDAAR KOSHISH H PR IS SE AUDIENCE KO FARK KYA PARTA H… CAHNNEL MALIK K APNI DAPHLI APNI RAAG H…. JO CHAHE KR LEN… AAP K PROG KO WAKI LOG DEKHTE HN AISA MANNA TRP K AADHAR GALAT H…. RHI BAAT ADD K TO TRP K BAHANE MILE YA UGAHI K.. CHANNEL WALE KAM NIKAL H LETE HN..UGAHI KO SUNKAR AITRAZ BHALE HI HO PR IS MAMLE M REGIONAL CHANNEL BHUT AAGE HN
Sanjay Bhardwaj : सही कहा आपने कि अगर अखबार की प्रसार संख्या एबीसी यदि साल में एक बार जारी करता है तो टीआरपी हर हफ्ते क्यों? लेकिन यहां भी देखना आवश्यक है कि प्रिंट मीडिया एक संगठित उद्योग है और इलेक्ट्रानिक मीडिया अभी तक यह दर्जा हासिल नहीं कर सका है..ऐसी चर्चा को परिणति तक पहुंचाने के लिए आवश्यक है कि बहस का दायरा बढ़े..इसमें सरकार की भूमिका भी अहम हो जाती है.. जैसे पहले अखबारों को कागज पर सरकार द्वारा सब्सिडी [हालांकि अब यह समाप्त हो चुका है] दी जाती थी और आज सरकारी विज्ञापन दिया जाता है उसी तरह टीवी उद्योग को विज्ञापन या अन्य तरीके से सहायता करनी चाहिए जिससे टीआरपी का दबाव कम हो सके और दर्शकों तक बेहतर और ज्ञानवर्द्धक कार्यक्रम पहुंचाया जा सके..।
Ajit Anjum : एक सवाल जो मैं लगातार सबसे पूछता हूं लेकिन जवाब नहीं मिलता. गंभीर खबरों के प्रति दर्शकों का नजरिया चार सालों में बदला है. इसे आप जैसे गंभीर लोग मानने को तैयार नहीं होते. कई बार मुझे ये एक किस्म की हिप्पोक्रेसी भी लगती है. एनडीटीवी इंडिया को व्यक्तिगत से मैं साफ सुथरा चैनल मानता हूं लेकिन खबरें जितना लोग देखते हैं उससे अधिक दूसरे चैनलों के तमाशे वाले कंटेंट को. मुझे लगता है कि कहने के लिए एनडीटीवी इंडिया बोलते हैं क्योंकि खुद को बड़े ब्रांड से जोडऩे का सवाल है और देखने के लिए कई बार तमाशे को देखते हैं. क्या बकवास है, क्या बकवास है कहते जरूर हैं लेकिन देखते भी हैं. आप जनता से पूछने निकलो तो शायद ही कोई मिलेगा तो एनडीटीवी का पैरोकार न हो, लेकिन देखने वक्त क्या ये व्यूअरशिप में तब्दील होता है? विनीत आपकी राय क्या है.
Dilip Mandal : टीवी पर मनोरंजन बिकेगा, एक्साइटिंग बिकेगा और अगर कुछ बेहद काम का हुआ तो बिकेगा। बाकी कुछ बेचने बैठेंगे तो दुकान पर मक्खियां मंडराएंगी। एनडीटीवी को ये बात देर से समझ में आई है पर समझ में आई जरूर है। वैसे भी वो क्रिकेट और टीवी एंटरटेनमेंट-फिल्मी खबरों का चैनल है। बाकी के खाली स्पेस में समाचार आदि भर दिया जाता है। खाली और बाकी बची जगह में समाचार सभी भरते हैं। किसी को दोष क्यों दें?
Shashaank Shukla : ये एक ऐसा मुद्दा आपने उठाया है जिस पर मालिकों को कान खडे हो गये होंगे
Ajit Anjum : दिलीप जी, रास्ता बताइए क्या किया जाए. आलोचना तो सब करते हैं, रास्ता क्या हो. रास्ता इतना आसान होता तो ये टंटा ही खत्म हो गया होता.
Dilip Mandal : कोई रास्ता नहीं है। हम सब अपनी छाती पर ये बोझ लेकर ही मरेंगे। हम एक बेहद बड़ी और निर्मम मशीन के छोटे नट बोल्ट हैं। मशीन बेहद तेजी से घूम रही है। किसी को लीवर सिरोसिस के बहाने टपकाएगी, किसी को हार्ट अटैक से तो किसी को ब्रेन स्ट्रोक से। और जो बचेंगे वो इस भ्रम में जी रहे होंगे कि उनकी मौत नहीं हुई है।
Vikas Zutshi : लगता तो यही है कि, बहुत कठिन है नगर पंगट की
Ajit Anjum : जो लोग खुद को साफ सुथरी खबरों का चैंपियन मानते हैं, वही कुछ ऐसा कर दिखाते कि हम उनको फॉलो ही कर लेते. कई भाई लोग बड़ी बड़ी बातें करते हैं और खुद एकाध चैट शो और बहस करके समझते हैं हम असली पत्रकारिता कर रहे हैं बाकी बंटाधार कर रहे हैं. आप विकल्प तो खड़ा करके दिखाइए.
Sajid Khan : sahi baat… yeh TRP ka khel band hoona chayen..100 karore se zayeda ke hidustaniyo ke sirf kuch hazaroo ke ghar mai box lga kar kaise jaan sakte hai ki hindustani kya dekhna pasand karte hai aur kya nahi..yeh gorakdhanda band hoona chayen..biklul sahi hai trp ka khel band hoona chayen..dusri baat sir aap ki FRIDAY khahani padhna chahoonga..
Dilip Mandal : अजित जी,साफ सुथरी खबरों का चैंपियन तो इस समय सिर्फ डीडी न्यूज है, और वहां का साफ सुथरापन सरकारी होने की वजह से है और बाकी आलस्य है। उस साफ सुथरे से तो निजी चैनल ही भले हैं। ऐसा साफ चैनल किसे चाहिए। कम से कम निजी चैनलों में भूत-पिशाच और नाग-नागिन के साथ समय का कुछ तनाव तो दिख जाता है।
Nadim Akhter : 110 percent…TRP system should be abolished…if it can be made trimonthly or half yearly…better for the news channels, better for d viewers…..nd better fr d nation..
Dilip Mandal : विकल्प किसी के पास होता तो वो पर्दे पर दिख जाता। जो कंटेंट बेचा जा रहा है वो किसी का शौक नहीं है। सभी पत्रकार दिल के अच्छे हैं। अच्छी पत्रकारिता करना चाहते हैं। सबने पत्रकारिता करने के लिए ही इस पेशे को चुना था। सभी पत्रकारिता करके ही मोहल्ले में इज्जत पाना चाहते हैं। भूत प्रेत और एलियन दिखाकर मजाक का पात्र बनना किसे अच्छा लग रहा है? अच्छा पत्रकार कहलाना किसे अच्छा नहीं लगेगा। लेकिन ये संभव नहीं है।
Gagandeep Sethi : ajitji… I believe that TRPs have in many ways liberated news channels from political biases and business interests… rather than worrying about their political masters, today channels worry about about what their viewers want to want to see …
Samarendra Singh : इस बहस में कोई भी नंबर वन, नंबर टू, नंबर थ्री और नंबर फोर चैनल से नहीं है। यह बात उनकी तरफ़ से भी आए तो बात बने। वैसे भी जो लोग टीआरपी का विरोध कर रहे हैं उन सभी ने टीआरपी पाने के लिए सारे हथकंडे आजमा लिए हैं। आप रवीश कुमार से पूछिए कि बीते सवा साल से वो एनडीटीवी इंडिया के आउटपुट हेड हैं और उन्होंने कितनी स्टोरी ऐसी की हैं जो उन्होंने दिबांग के दौर में की थी? सिर्फ़ रवीश ही क्यों? आप टीआरपी का विरोध कर रहे सभी लोगों से पूछिए कि इन्होंने एंटी इस्टैब्लिशमेंट कितनी स्टोरी अपने चैनल पर प्रसारित की हैं। नाच-गाने और नौटंकी को कितने लोगों ने अपने चैनल पर बैन किया है। यह सब फालतू की बात है। आप बाज़ार में खड़े हैं और बाज़ार के नियमों के आधार पर ही आपको चलना होगा। आप चाहे जितना जोर लगा लें टीआरपी का हौव्वा ख़त्म नहीं होगा। यह सिर्फ़ इसी देश की बात नहीं है। पूरी दुनिया की बात है।
Samarendra Singh : आप कहते हैं कि एडिटर्स को तय करने दें। जो एडिटर्स कंटेंट डिसाइड नहीं कर पा रहे हैं वो बाज़ार के नियम कैसे तय करेंगे? उन्हें क्या हक़ है बाज़ार के नियम तय करने का? आप सोचिए और बताइए?
Sudesh Srivastava : सब्स्क्रिप्शन विग्यापन जाल से मुक्ति का एक विकल्प हो सकता है. पर मीडिया मालिकान को टी आर पी की ऐसी लत लगी है कि निकलना बहुत मुश्किल है. आखिर रेवेन्यू स्ट्रैटेजी तो वित्तीय प्रबन्धक और सी ए. ही समझाते होंगे उन्हें. शायद टी आर पी तुरत पैसा बनाने की जुगत है और सब्सक्रिप्शन मे जेस्टेशन अवधि लम्बी है. अब देखिये न डी टी एच सेवाओं मे लगभग सभी समाचार चैनल पेड हैं. अब जैसे जैसे डीटीएच उपभोक्ताओं की संख्या बढ़ेगी, रेवेन्यू तो आएगा ही. पर ऐसी स्थिति होने पर क्या ऎड बन्द या कम कर दिये जाएंगे?
Samarendra Singh : आपमें से बहुत से लोग निर्णायक ओहदों पर हैं। ऊपर उठने की सीमा तय नहीं कर सकते तो क्यों नहीं मिल कर नीचे गिरने की सीमा तय कर लेते। एक बार तय कर लीजिए. मुश्किल आसान हो जाएगी। लेकिन ऐसा नहीं होगा। नीचे गिरने की भी कोई सीमा तय नहीं करना नहीं चाहता और टीआरपी को दोष दे देता है। ऐसे थोड़े ही होता है। चित्त भी मेरी, पट्ट भी मेरी और अंटा मेरे बाप का। व्यवस्था ऐसे नहीं चलती सर।
Samarendra Singh : अजीत जी, जिसे आप साफ-सुथरी पत्रकारिता कहते हैं, दरअसल वो भांट पत्रकारिता है। जिन चैनलों को आप साफ -सुथरी पत्रकारिता का पक्षधर मानते हैं उन चैनलों का इतिहास देखिए। उन्हें राज्य सत्ता ने क्रिएट किया है। उनमें इतना साहस नहीं कि राज्य सत्ता को चुनौती दे सकें। आप एनडीटीवी का कोई स्कूप मुझे बताइए जिससे सत्ता हिली हो आपको आज तक के कई स्कूप मैं गिनवा दूंगा। आज तक को बीजेपी का पक्षधर लोग बताते हैं लेकिन मैं यह भी बता दूंगा कि एनडीए के शासनकाल में उतने कितनी स्टोरी कीं जिनसे एनडीए और बीजेपी को फजीहत हुई। लेकिन आप एनडीटीवी के एक स्टोरी बता दीजिए जिससे कांग्रेस के शासनकाल में कोई चुनौती पैदा हुई हो। दलित की दुकान और गरीबी पर स्टोरी तो आज के दौर में कोई भी चला लेगा। जरूरत सत्ता तंत्र को एक्सपोज करने की है। यह साहस साफ सुथरी पत्रकारिता करने वालों में नहीं है। अब पत्रकारिता भी नहीं करनी और टीआरपी की रोना भी रोना है। दोनों काम थोड़े चलते हैं। अगर स्कूप नहीं होगा… अगर हार्ड स्टोरी नहीं होंगी … अगर व्यवस्था पर सवाल नहीं खड़ें होंगे तो फिर सेक्स, क्राइम, सिनेमा और क्रिकेट बेचने के अलावा क्या उपाय बचता है?
Ajit Anjum : समरेन्द्र, शुक्रिया तुम्हारी चिंता और कमेंट के लिए. हम जहां हैं, वहां रहकर ये सुनने के लिए अभिशप्त हैं और आप जहां हैं, वहां से बोलने के स्वतंत्र. कभी रोल बदले तो पता चले कि जो हम नहीं कर सके वो समरेन्द्र तो कर देंगे.
Om Singh : सबसे बड़ी समस्या यह है कि यदि टीआरपी सिस्टम को खत्म कर दिया गया तो फिर नया सिस्टम क्या होगा ? आज कम से कम न्यूज चैनल में संपादक से लेकर स्ट्रिंगर तक इस रेस में लगा हुआ है कि टीआऱपी कैसे आएगी । यदि टीआरपी सिस्टम ही खत्म कर दिया गया तो हालत और खराब हो सकती है। संपादक से लेकर स्ट्रिंगर तक, सभी इस बात पर कनफ्यूज हो सकते हैं कि उन्हें अब करना क्या है। और सबसे बड़ी समस्या यह होगा कि हर कोई अपने ढंग से चैनल चलाने की कोशिश करेगा । इसका फायदा भी है लेकिन खतरा भी बहुत ज्यादा है। इसलिए बेहतर है कि बाजार को ही न्यूज चैनल चलाने दें।
Dilip Mandal : बाजार सैकड़ों करोड़ के विज्ञापन टीवी न्यूज चैनलों पर यूं ही न्योछावर तो नहीं करेगा। कोई मापदंड तो रहेगा ही लोकप्रियता नापने का। हिंदी में क्लास ऑडियंस है, ये कोई मानता नहीं है। इसलिए मास ऑडिएंस में तो नंबर ही गिना जाएगा। इस गणित में मुझे टीआरपी से छुटकारे की कोई सूरत कम से कम फिलहाल तो नजर नहीं आती। लोकप्रिय होने के लिए क्या करना पड़ता है, क्या फॉरमूले है, इससे अब कोई नावाकिफ नहीं है। निजी चैनलों के बाजार में माल बेचने के लिए कोई देवता नहीं खड़ा है। इसलिए किसी को ये कहने का हक नहीं है कि सामने वाला नंगा है। ऐसे में कंटेंट में कोई नाटकीय बदलाव की अपेक्षा नहीं की जा सकती। हां सरकार से ये निवेदन जरूर किया जा सकता है कि टीवी न्यूज इंडस्ट्री में काम करने वालों की सेहत के मद्देनजर टीआरपी को तिमाही या छमाही कर दिया जाए।
Ajit Anjum : समरेन्द्र जी, आप जैसे लोग ही अब रास्ता बताएं .
Samarendra Singh : सर मैंने अपना रोल बदल लिया है और यकीन मानिये मुझे ज़रा भी दुख नहीं है। मैं सुकून से जी रहा हूं। भ्रम में ही सही ऐसा लगता है कि जो करना था कर रहा हूं। मैं वो करने के लिए खुद को अभिशप्त नहीं पाता जो नहीं करना चाहता था। आप ज़रा भी बुरा मत मानिएगा। यह राह मैंने बहुत सोचने के बाद चुनी है। थोड़ा अपने वरिष्ठों से नाराज़ भी हूं। लेकिन उतना ही जितना खुद से नाराज़ हूं। इसलिए बुरा मत मानिएगा। कुछ ग़लत कहा तो माफ़ कर दीजिएगा। लेकिन बस यही लगता है कि आप लोग भी अगर व्यवस्था नहीं बदल सकते तो फिर रोने से क्या फायदा? अगर आप सब मिल कर कुछ फैसला नहीं सकते तो फिर बोलने से क्या फायदा? मैं बहस में ज़रा भी हिस्सा नहीं लेना चाहता था। लेकिन आज रोक नहीं सका। यह बहस तब क्यों नहीं हुई जब विनोद कापरी ने ग़लत ख़बर अपने चैनल पर डंके की चोट पर चलाई … यह बहस तब क्यों नहीं हुई जब एनडीटीवी ने भी सेक्स और क्राइम बेचना दोबारा शुरू किया … यह बहस तब क्यों नहीं होती जब सत्ता के ख़िलाफ़ ख़बरें सेंसर की जाती हैं? बस यही शिकायत है और कुछ नहीं।
Ajit Anjum : दिलीप जी आपसे सहमत हूं. टीआरपी का पैमाना तो ठीक किया ही जा सकता है. जिस धर्मकांटे पर आप सबकुछ तौल रहे हैं वो ही खोटा है. सैंपलिंग तो कई गुणा बढाई जा सकती है. हर हफ्ते का खेल तो बंद हो सकता है. हालांकि ये होने वाला नहीं है, क्योंकि किसी दो चार आदमी के कहने से कुछ तय नहीं हो सकता है. इसी टीआरपी के आधार पर कोई नंबर वन -टू या थ्री है. फिर बाजार… को कोई पैमाना तो चाहिए. अब सवाल सिर्फ पैमाने का है. मैं तो कहता हूं समरेन्द्र जैसे जिन आलोचकों को लगता है कि उन्हें जो बात आसानी से समझ में आ रही है वो हम लोगों को समझ में नहीं आ रही है तो आएं ..बताएं …हम मार्गदर्शक मानने को तैयार हैं .
Samarendra Singh : सर आप भी जानते हैं और हम सब जानते हैं। टीआपी की सैंपलिंग बीते कुछ साल में काफी बढ़ी है। कई नए जोन जोड़े गए हैं और कई का वेटेज भी बदला गया है। लेकिन उससे चैनलों के नतीजों पर कोई खास फर्क नहीं पड़ा। यकीन मानिए कुछ और जोन जोड़ लिए जाएंगे तो भी कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा। या तो आप सिरे से खारिज कीजिए या फिर मिल बैठ कर कंटेंट की गुणवत्ता का पैमाना तय कीजिए। पैमाना तय होगा नहीं। वहां पर आज़ादी ख़तरे में पड़ने लगती है। इसलिए टीआरपी के अलावा कोई भी पद्धति और तरीका अपनाया जाएगा तो यही चुनौती सामने होगी। इसलिए आज ज़रूरत बाज़ार को कोसने की नहीं बल्कि संपादकों को मिल बैठ कर न्यूज़ क्या है यह तय करने की है।
Dilip Mandal : सैमुअलसन की थ्योरी है डॉलर वोट की। हर आदमी बराबर नहीं होता। टीआरपी के मीटर तो महानगरों और खाते-पीते इलाकों और घरों में ही लगेंगे। टीआरपी सिस्टम पर सवाल मीडिया नहीं उठा सकता। सवाल वो उठा सकते हैं जो इस आंकड़े के आधार पर चैनलों को करोड़ों रुपए के विज्ञापन देते हैं। विज्ञापन देने वालों को ये आंकड़ा ठीक लगता है तो मीडिया के विरोध की कोई औकात नहीं है। विज्ञापन देने वालों को जिस दिन लग जाएगा कि ये डाटा गड़बड़ है और उनका विज्ञापन का पैसा बर्बाद हो रहा है, उसी दिन टैम को अपना तरीका बदलना होगा। मीडिया की भूमिका फिर उस नए तरीके के हिसाब से नंबर गेम में दौड़ने की होगी।
Rajesh Chandra Mishra : sir i think TRP is just a game part of tv/news show.dil se lene wali baat nahi hai.this type of discussion is also making trp.we can do one thing healthy trp.
Rahul Goel : टैम के मुकाबले में कुछ और एजेंसियों को भी खड़ा किया जाना चाहिए …ताकि आंकड़ो में निषपक्षता आयें ..और सभी चैनलों को मिलकर एक व्यापक सर्वे कराना चाहिए दर्शकों के बीच में..
Darain Shahidi : अजीत जी, बहुत अच्छी बहस शुरू की है आपने. आपको क्या लगता है कि टीआरपी हर हफ्ते न आकर साल में दो बार आने लगेगी तो सबकुछ ठीक हो जायेगा ? अभी तो कम से कम ये होता है कि किसी हफ्ते न्यूज़ दिखाकर कोई चैनल नंबर एक हो जाता है तो बाकी दो तीन नंबर वाले अगले हफ्ते न्यूज़ दिखाने लगते हैं. और कोई गन्दगी दिखाकर नंबर एक होता है तो बाकी अगले हफ्ते गन्दगी पर उतर आते हैं. चलिए अगर छमाही सिस्टम आ गया तो हो सकता है कि कम से कम छ महीने न्यूज़ देखने को मिले लेकिन डर ये भी है कि कहीं छः छः महीने गन्दगी न झेलनी पडे.
टीआरपी बंद करना या छमाही तिमाही करना कोई समाधान नहीं देगा… विज्ञापन देने वाले बाजा़र को जानते हैं… वो अन्दर की बात जान लेंगे… प्राइवेट सर्वे करवा लेंगे… फिर आपको वही करने पर मजबूर करेंगे जो आप नहीं करना चाहते… अख़बारों में तो ये होता ही आया है… अंग्रेजी के एक बडे अखबार में ये ड्रामा हो चुका है. कई संपादक छोड़ कर चले गए लेकिन फिर कुछ वापस भी आ गए. मालिक का क्या बिगडा. रही बात सैम्पल की तो कहीं पढा था कि अगर सैम्पल बहुत ज्यादा बडा कर दिया गया तो हो सकता है कि दूरदर्शन न्यूज़ नंबर एक हो जाये. पता नहीं सही है या गलत….
सर आप जिस स्थान पर हैं वहाँ सचमुच ऊहापोह की स्थिति होगी… क्या करें क्या न करें… चैनल चलाना एक धंधा है… है कि नहीं… ये भी सही है कि यहाँ बाजार हावी है… इस बाजार में मालिक मुनाफा कमाने के लिए बैठे हैं… हर धंधा हर कारोबारी को कहीं न कहीं विवश बनाता है… कहीं निवेश के नाम पर… कहीं राजनैतिक प्रतिबद्वताओं और मजबूरियों के नाम पर… आज न जाने कितने संपादक या मालिक राजसभा की सीट का सपना पाले बैठे होंगे… कौन जानता है.
आलोचना से घबराना नहीं चाहिए… ये देखा जाना ज़रूरी है कि आलोचना कौन कर रहा है. आजकल हिंदी न्यूज़ चैनल को गरियाना फैशन हो गया है. पंजाब केसरी जैसे अखबार भी अब हिंदी न्यूज़ चैनल पर उपदेशात्मक संपादकीय लिखने की जुर्रत करने लगे हैं. अब आप समझ सकते हैं. समरेन्द्र सही कह रहे हैं… मेरा भी ये मानना है कि आपलोग आपस में बैठ कर तय करें कि कितना नीचे जाना है. और वो सीमा ऐसी हो कि आपको भविष्य में माफी मांगने के लिए मजबूर न करे. बल्कि तब भी आप गर्व से ये कह सकें कि हाँ बाजार की मजबूरी के तहत हमने ये किया लेकिन इसमें भी पत्रकारिता की शुचिता के साथ खिलवाड़ नहीं किया.
Rahul Goel : sahi kaha aapne
Shubhomoy Sikdar : Dushyant Babu kehte the:
Ho gayi hai pir parbat si pighalni chahiye
Is himalaya se ab koi ganga nikalni chahiye
hamaare jaise media students yahi ummeed kar sakte hain ki Ganga bahe aur jaldi bahe……Salman Katrina ka Prem Rog ki jagah shakkar ka prcinig mechanism samajhne mein meri zyada dilchaspi hai…
Shyam Parmar : मैं कहता हूँ कि TRP के इस सिस्टम कि CBI जांच होनी चाहिए, गोलमाल ही गोलमाल निकलेगा… CBI से मेरा तात्पर्य एक दुरुस्त जांच टीम से है… जिसमे मुझे भी शामिल किया जाए…
Rangnath Singh : जिन लोगो को फौरी समाधान चाहिए उन्हें ऐसी किसी बहस से दूर हट जाना चाहिए। “बहस” कोई डिसपैंसरी नहीं होती जहां बीमारी के लक्षण बताया नहीं कि डाक्टर ने गोली लिख दी। अजीतजी आपने अखबारों का जिस तरह से हवाला दिया है वो पूरी तरह अनुचित है। अखबारों में टीआपी नही होती लेकिन नम्बर वन का तमगा उन्हें भी मिलता है। वो उसका दुरू या सद उपयोग भी करते हैं। आप के कहे से ऐसा लगता है कि अखबारों में पत्रकारिता बची हुई है ! हम जानते हैं कि हर मीडियम की अपनी सीमाएं होती हैं। अखबारों में जो चीज नहीं दिखाई देती वो उसके विजुअल न होने के ही कारण है। टाइम्स आफ इण्डिया या पंजाब केशरी या दैनिक जागरण विजुअल होने लगे तो वो अपने हमराह चैनलों से भारी ही पड़ेंगे। जिन समूहों के अखबार और चैनल हैं उनकी पालिसी हर मीडियम में एक ही होती है। दिलीपजी ने गौरतलब बात रखी है कि टीआरपी तो विज्ञापनदाताओं के लिए है न कि जनता के लिए। उसकी जरूरत या गैर-जरूरत का निर्णय वो करेंगे न कि नौकरीजीवी मध्यमवर्गीय पत्रकार। यह भी सही है कि साधुवाद से सुधार की गंजाइश होती तो दूरदर्शन कि यह दुर्गती न होती। चैनलों के कंटेट में आ रही गिरावट अपनु मूल में राजनीतिक-अर्थशास्त्र का प्रश्न है। मोंटेक-मनमोहन-चिंदबरम की एलपीजी पालिसी के तहत लागु की जाने वाली नीतियां ही इसके लिए जिम्मेदार है। ध्यान रहे खुली प्रतिस्पर्धा वाले बाजार में नैतिकता के ब्रेकर नहीं होते। यहां एक बुनियादी मतभेद यह भी हो सकता कि समाचार या मनोरंजन चैनलों का उद्देश्य क्या है ? मुझे तो लगता कि चैनलों पूंजीपतियों के लिए मदारी का काम करते हैं। जिस तरह सड़क पर बैठा मदारी लुभावनी और हरदिलअजीज भाषा बोलकर भीड़ इकट्ठ करता है क्योंकि उसे कुछ अपने उत्पाद को बेचना है। उसी तरह प्रच्छन्न रूप से हर चैनल इन एमएनसी के उत्पाद को बेचने के लिए चैनल चलाते हैं। विज्ञापन ही ब्रह्मास्त्र है जिसके द्वारा चैनल रेगुलेट किए जाते हैं। सरकारी भी भारी विज्ञापन देती है लेकिन वो भी सरकारी विज्ञापनों का मीडिया को रेगुलेट करने के लिए खूबसूरती से इस्तेमाल करती है। अतः मीडिया में गिरावट एक राजनीतिक प्रश्न है। इसका किसी टुटीफ्रुटी टाइप टीआरपी से कोई सीधा संबंध नहीं दिखता। और यह गिरावट सभी क्षेत्रों में है। इसका जो भी समाधान होगा वो राजनीतिक होगा। सर्जरी करनी ही होगी। होम्योपैथिक इलाज से कोई उम्मीद नहीं रखे।
Madhukar Rajput : रवीश जी ने इस मामले पर एक शोध करने वाला सवाल छोड़ा है अपने ब्लॉग पर, उनका कहना है कि प्रतियोंगिता से उत्पाद सुधरता है। फिर टीवी की टीआरपी प्रतियोगिता में उलट क्यों हो रहा है। आपका विचार भी ठीक है। जो प्रतियोगिता उत्पाद और उत्पादक दोनों की मिट्टी पलीत करती हो, उसका गाहे बगाहे होना ही बेहतर है। आपकी हंस में छपी कहानी मैंने पढ़ी थी। तब छात्र पत्रकार था। वो अंक मैंने आज भी सहेज कर रखा है।
Vivek Vajpayee : हां सर जिसमें फ्राइडे को ब्लैक फ्राइडे बताया गया था हंस का वो विशेषांक आज भी सुरक्षित मेरे पास रखा है और जब कुछ पढ़ने को नहीं होता है तब उसकी एक कहानी दोबारा से पढ़ता हूं। आपने बहुत सही लिखा था और लिखा है ये जरुर बंद होनी चाहिए मैंने तो अभीतक अपने किसी जानने वाले के यहां टीआरपी मेजेरमेंट का कोई उपकरण नहीं देखा जबकि दिल्ली का ये हाल है तो छोटो कस्बे या गांव की बात करना भी बेइमानी है पता नहीं कहां ये टीआरपी नापते हैं।
Rakesh Kumar : sir me aap se kafi had tak sehmat hoon
बिहार गौरव : गौरव sir, क्या ये जरूरी है की टीआरपी हमेशा आदर्शों की बलि लेकर ही आती हैं..?
Kiran Deep : If there is no pressure of TRP’s , then the channels will truly become NEWS CHANNELS.
(फेसबुक पर न्यूज24 के मैनेजिंग एडिटर अजीत अंजुम द्वारा शुरू की गई बहस और उस पर आईं टिप्पणियां)
sindhu jha
January 14, 2010 at 2:37 pm
ajit bhai sarthak bahas shuru karne ke liye badhai. jnu ke comradon main ek charcha aksar hoti thee kee kranti chai ke pyale main janm lekar cigarattes ke dhuyen ke sath uurr jati hai. Akhir NDTV gambhirta kaa labada kab tak odhe rakhegi. ye sahi hai kee NDTV ne koi scoop sirkar ke khilaph nahi diya. Oxford se marx bad padhkar bharat aaye prakash karat pranay roy ke sambandhi hai aur pranay bhi karat ke aadamber main aastha rakhte deekh rahe hai. sorrry 2 say
Jeet Bhati
January 15, 2010 at 8:30 am
Dekhte hai, es bahas ka parinam kya nikalta h ya yunhi baat aayi gayi ho jaegi,
koi yeh q nhi kehta ki achhi or gambhir khabro se bhi TRP laye ja sakte h, qki TRP kbi b band nhi ho skte, TRP Vigyapan daata ka haq h yeh janne ka ki wo jahan apna paisa lga raha h, veh kitne logo tak pahuch raha h, usse is baat se kuchh b lena dena nhi h ki aap kis madhyam se or kese TRP laten h, ye to aap jaise Diggaj log hi aey krte h ki kya dikhana h, jahan tak TRP rating pr Barosha karne ki baat h to yeh to khud hi hmesha se sandeh ke ghere m rha h,
Ajeet Sir pls ab aapne ye beda utha hi liya h to koi sarthak parinam tk le jae or hme es tatha kathit ” Bhondi Patrakatira ” se mukti dilaye,
aap sabhi ka es gambhir vishey pr sochne k lye dhanyawad.
ekpatrkar
January 22, 2010 at 2:45 pm
Trp ko lekar bahas hona badi aam baat ho gayi hai ….main bahut chota sa patrkar hu … ek baat sabhi editors level ke logo se puchana chaunga …ki aap log hamesha trp aur content sudharne ki baat karte rehte hai ….lekin kabhi yeah baat karte nahi suna ki iss proffession me kam karne waale patrkar logo ki naukri surakshit kaise reh sakti hai ….ek editor ya phir channel head kisi bhi nai jagah join karta hai toh sabse phele waha se purane logog ko kick out karta hai ….aur phir suru ho jata hai apne logog ko laane ka sinsila ….mai ajit ji se he poochna cahata hu ki aap trp aur media me sudhar ki baat karte hai lekin keya baat hai aap ke channel me log zyada dinn nahi tik paaate …..aaj mujhe yeah lagta hai ki editor ya phir channel head aur managing editor pe baithe log puri tarah se marketing ke log ho chuke hai…..unhe marketing bahut acchi tarah se aati hai …..aab we log khud ko professional kehlwane me bada maza aa raha hai …..mai aap logo se yeah anurodh karunga ki zara iss pur bhi vichar karega aap log
vinay singh
February 9, 2010 at 11:34 am
g ajit g bat tau aap thik kar rahe hain lekin haqikat trp hi hai agar trp nahi tau kahan se chal jaiga chnl.,trp ka khel hona chahia compn… ki bhavna paida karta hai.lekin saf tarika se.ek baat aur guruji,ye trp hi hai joindia tv ko chaLA rahi hai woh logo ko khajane dikha,bhoot dikha,brahmand dikha, ye sab dika 2 kar public ka boot bana kar apne khajane bhar kar brahmand choone ki kosish kar raha hai.trp hai islia na sir ,logo ka chutianand bana raha hai aur log ban rahe hain.
vinay singh
February 13, 2010 at 9:08 am
parnam agit guru g ,,, JAB TAK BAVKUF DARSAK AUR AKLMAND CHNL.WALE HAN CHNL. KUPOSAN KA SIKAR NAHI HO SAKTA. JAISE KI INDIA TVVVVVVVVVVVVVVVVV