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पत्रकारिता के इन धुरंधरों ने मेरी धुरी काट दी

आकाश श्रीवास्तवछंटनी के शिकार आकाश ने न्यूज वेबसाइट लांच कर एनडीटीवी में भोगे गए अपने दिनों की कहानी बयान की : पिछले दिनों रिसेशन के नाम पर एनडीटीवी प्रबंधन ने इनपुट एडिटर के पद पर काम करने वाले आकाश श्रीवास्तव को संस्थान से बाहर का रास्ता दिखा दिया। इस घटना से आकाश इतने आहत हुए कि उन्होंने कहीं और नौकरी न करने का इरादा कर लिया। खुद आकाश के शब्दों में- ‘पिछले करीब चौदह साल के अनुभवों के बाद अब न्यूज़ चैनलों के दफ्तरों में बायोडाटा लेकर घूमने के लिए हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। चूंकि बगैर किए कुछ होता नहीं इसलिए हमनें भी कुछ करने का निश्चय किया और अपनी एक न्यूज़ वेबसाइट लांच की है जिसका नाम है “थर्ड आई वर्ल्ड न्यूज़”।’ इस वेबसाइट में आकाश ने एनडीटीवी के अपने दिनों पर एक संस्मरण भी लिखा है, जिसका शीर्षक है- ‘एनडीटीवी, एक दुखद अनुभव का अंत’ आकाश का यह संस्मरण आंखें खोलने वाला है और एनडीटीवी के अंदर के माहौल को लेकर कायम कई तरह के भ्रमों को खत्म करने वाला है। आकाश की नई वेबसाइट के बारे में ज्यादा जानकारी से पहले आइए, उनकी आपबीती पढ़ें, जो उनकी अपनी वेबसाइट पर प्रकाशित है-

आकाश श्रीवास्तव

आकाश श्रीवास्तवछंटनी के शिकार आकाश ने न्यूज वेबसाइट लांच कर एनडीटीवी में भोगे गए अपने दिनों की कहानी बयान की : पिछले दिनों रिसेशन के नाम पर एनडीटीवी प्रबंधन ने इनपुट एडिटर के पद पर काम करने वाले आकाश श्रीवास्तव को संस्थान से बाहर का रास्ता दिखा दिया। इस घटना से आकाश इतने आहत हुए कि उन्होंने कहीं और नौकरी न करने का इरादा कर लिया। खुद आकाश के शब्दों में- ‘पिछले करीब चौदह साल के अनुभवों के बाद अब न्यूज़ चैनलों के दफ्तरों में बायोडाटा लेकर घूमने के लिए हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। चूंकि बगैर किए कुछ होता नहीं इसलिए हमनें भी कुछ करने का निश्चय किया और अपनी एक न्यूज़ वेबसाइट लांच की है जिसका नाम है “थर्ड आई वर्ल्ड न्यूज़”।’ इस वेबसाइट में आकाश ने एनडीटीवी के अपने दिनों पर एक संस्मरण भी लिखा है, जिसका शीर्षक है- ‘एनडीटीवी, एक दुखद अनुभव का अंत’ आकाश का यह संस्मरण आंखें खोलने वाला है और एनडीटीवी के अंदर के माहौल को लेकर कायम कई तरह के भ्रमों को खत्म करने वाला है। आकाश की नई वेबसाइट के बारे में ज्यादा जानकारी से पहले आइए, उनकी आपबीती पढ़ें, जो उनकी अपनी वेबसाइट पर प्रकाशित है-


‘एनडीटीवी मीडिया का एक ऐसा नाम जिसे लोग सम्मान से लेते हैं। कहा जाता है कि इसके मालिक डॉक्टर प्रणय रॉय भारतीय मीडिया का ऐसा सम्मानित चेहरा है जिसका कोई जवाब नहीं। मीडिया में काम करने वालों का एक सपना होता है कि हम एक बार एनडीटीवी में जरूर काम करें। एनडीटीवी में मैंने नवंबर 2007 से जुलाई 2009 तक बतौर इनपुट एडिटर काम किया। इस दौरान यहां की सभी कार्य-प्रणाली और कार्य करने वाले लोगों को बड़े करीब से देखा, जाना। मैं एक चीज बड़े साफ शब्दों में कह सकता हूं कि एनडीटीवी के साथ मेरा बड़ा दुखद और त्रासदपूर्ण अनुभव रहा। एनडीटीवी ने मुझे बेहद मानसिक पीड़ा दिया। एक चीज जो यहां सबसे गौरवपूर्ण है, वह है एनडीटीवी का कुत्ता प्रेम। यह कुत्ता प्रेम देखकर लगा कि यहां आदमियों से ज्य़ादा कुत्तों का खयाल रखा जाता है। इन कुत्तों के लिए बकायदा रसोई में दूध-भात, बिरयानी का विशेष प्रबंध किया जाता है। दिन-रात इनका खयाल रखने वाले लोग बड़ी ईमानदारी से अपनी जिम्मेदारी को निभाते हैं। जाड़े में इनके लिए गद्दा और रजाई की व्यवस्था की जाती है। इन्हें अगर कोई दुतकारता और मारते हुए देख लिया जाए तो समझ लो उसके दिन पूरे हो गये हैं। आप सोच रहे होंगे कि फिर एनडीटीवी की तरह ये कुत्ते भी विशेष नस्ल प्रजाति के होंगे, तो आपके मन में बहुत बड़ी ग़लतफहमी है। ये कुत्ते शुद्ध “झबरा” नस्ल के हैं।

करीब पौने दो साल यहां काम करने के दौरान मैंने यहां महसूस किया कि एनडीटीवी के बारे में जो पुरानी अवधारणा थी, वह अब ख़त्म हो चुकी है। काम करने का स्वस्थ माहौल यहां भी नहीं है। चापलूसों और जी हजूरी करने वालों की संख्या अपने चरम पर है। काम करने वालों की पूछ नहीं है। झूठ-मूठ की बॉस के सामने हो हल्ला करने वालों की अच्छी ख़ासी फौज मौजूद है। जो काम कर रहा है, अगर वह 10 घंटे की शिफ्ट करने के बावजूद आधा घंटे और काम करके निकल रहा है, तो बॉस के चमचे कान भरने में ज़रा भी कसर नहीं छोड़ते। देखो सर, वह जा रहा है। चमचे यहां के बड़े शातिर हैं। घंटों सीट से गाय़ब रहने के बाद भी न्यूज़ रूम से कुछ कदमों की दूरी पर जब देखेंगे कि उनका वरिष्ठ या बॉस खड़ा है तो झूठ-मूठ का हो-हल्ला करना शुरू कर देते हैं। मोबाइल से तुरंत किसी स्ट्रिंगर बेचारे को बेफिजूल डाटते हुए ऐसे आएंगे जैसे पूरे चैनल की टीआरपी बढ़ाने का जिम्मा इन्हीं पर है। चैनल पर इस समय कौन सी ख़बर ब्रेकिंग न्यूज़ के तौर पर चल रही है और किसकी दी हुई चल रही है, कुछ पता नहीं होता है। उन्हें यह पता नहीं होता है कि जिस स्ट्रिंगर को वो अपना गुलाम समझकर उसकी ऐसी तैसी करने में लगे हैं, वह ख़बर उसी की ही दी हुई है। स्ट्रिंगर की पूरी बात सुने बिना उसे सौ बातें सुना दी। यह सब नाटक इसलिए किया जाता है कि बॉस को लगे कि ‘म’ नाम का अमुक व्यक्ति चैनल के प्रति कितना वफादार, जिम्मेदार है। बॉस भी कोई त्रिकालदर्शी तो होता नहीं। महाभारत में संजय जो जानकारी धृतराष्ट्र को देते थे, उस पर विश्वास करने के अलावा और कोई चारा भी तो धृतराष्ट्र के पास नहीं होता था।

काम करने वाले लोगों की कोई कद्र हर जगह की तरह यहां भी नहीं है। कुछ समय पहले यहां के एक एक्स़ीक्यूटिव एडिटर को पटना भेज दिया गया। इससे पहले वह व्यक्ति जब दिल्ली आया तो पूरे जोर-शोर से चैनल की टीआरपी बढ़ाने की कवायद में जुट गया था। कभी सुबह छह बजे आकर रात को बारह बजे तक जुटा रहता। स्वाभाविक है कि कहीं न कहीं उसके अंदर भी अपना नंबर बढ़ाने की भावना रही ही होगी। दिन रात काम करने के बाद नतीजा यह रहा कि उसे सत्ता से बेदखल कर दिया गया। रिपोर्टिंग के लिए देश के जिस कोने में रिर्पोटर नहीं रहता, वहां पर लगा दिया जाता जबकि उससे पहले वह एनडीटीवी इंडिया संपादकीय विभाग का बॉस होता था। वह अपनी आदतों से भी मजबूर था। लोगों पर अनायास चिल्लाने और गरियाने का काम भी बखूबी करता था। ये सब करने के बाद भी उसके शातिर सहयोगी के आगे उसकी कुछ भी नहीं चली, और सत्ता से बेदखल कर दिया गया।

एनडीटीवी में भी “टारगेट” बनाने और बाहर निकालने का खेल बड़े शातिराना ढंग से खेला जाता है। मंदी की मार से जहां पूरी दुनिया बेहोश है, उससे एनडीटीवी भी कैसे बच सकता था। मंदी के बहाने जब लोगों को निकाले जाने का दौर चला तो उसमें मैं भी शामिल था। इसके बहाने यहां उन लोगों को निकालने का षडयंत्र रचा गया जो काम करने में सचमुच विश्वास करते थे। जिन्हें झूठ-मूठ की जी हज़ूरी और चापलूसी की कला नहीं आती थी। हो हल्ला करने की आदत नहीं थी। जो अपना काम करके समय पर चले जाते थे। एनडीटीवी से निकालने का सिलसिला देश के कई हिस्सों में चला। शुरू में ऐसे लोगों को बाहर का रास्ता दिखाया गया, जो मोटी तनख्वाह लेने के बावजूद कंपनी के साथ नमक-हरामी कर रहे थे। उसके बाद उनका नंबर आया जिनके खून में बॉस का पैर पकड़ने और बिना मतलब हां सर, हां सर कहने की आदत नहीं थी। इन लोगों की मंदी का ढाल बनाकर गर्दन रेत दी गयी। यही वो लोग थे जो बॉस की आंख के किरकिरी थे। बास लोगों को काम से नहीं बल्कि पास आकर खड़े रहने और जी सर-जी सर, हां सर-हां सर कहलवाने की आदत थी।

मुझे जब यहां मंदी का शिकार बनाया गया तो मेरे लिए यह कोई आश्चर्यजनक नहीं था क्योंकि इस साजिश का हमें पूर्वाभास हो गया था। हमें और हमारे कुछ सहयोगियों को विदाई पत्र दिए जाने का वो समय आ गया था। इनपुट और आउटपुट, दोनों के तारणहारों ने एक-एक करके अपने नापसंदों को शुभ सूचना देने की जिम्मेदारी निभानी शुरू कर दी थी। इनपुट विभाग के प्रभारी ने जब हमसे कहा कि, आपको मैनेजिंग एडिटर बुला रहें हैं, तो मैं जान गया कि कहानी पूरी लिखी जा चुकी है, और हमारा पूर्वाभास सही था। एनडीटीवी इमारत के ठीक सामने बायीं तरफ एक ढाबे में मैनेजिंग एडिटर एक-एक करके जिन लोगों को निकाले जाने का शुभसंदेश सुना रहे थे, उसी दौरान मैं भी वहां पहुंच गया। चूंकि मुझसे पहले हमारे एक सहकर्मी को विदाई संदेश का भाषण वे दे रहे थे, इसलिए मुझसे कहा गया कि एक मिनट में आपको बुलाता हूं। उसके थोड़ी देर बाद मैं वहां पहुंचा तो सबसे पहले उन्होंने नीबू पानी पीने का प्रस्ताव दिया। मैंने सोचा कि जिस व्यक्ति ने आज तक सीधे मुंह कभी बात नहीं की आज हमारे विदाई समारोह को कितने सम्मानित ढंग से मनाने की बात कर रहा है। फिलहाल मैंने मना कर दिया और उन्हें धन्यवाद दिया, और उनसे कहा कि जो होता है अच्छा होता है।

इससे पहले भी मुझे एनडीटीवी से एक बुरा अनुभव मिल चुका था। मैं सन् 2003 में ईटीवी रामोजी राव फिल्मसिटी, हैदराबाद में कार्यरत था। अक्टूबर महीना था। त्रिपतिमाली में मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू पर भीषण नक्सली हमला हुआ। एनडीटीवी को इसकी जानकारी चाहिए थी। उन्होंने मुझसे जानकारी फोन पर ली और उसे फोनो बनाकर चला दिया। उसके बाद मेरी नौकरी चली गयी। संजय अहिरवाल जो एनडीटीवी के ब्यूरो चीफ थे, जब उनको मेरी नौकरी जाने का पता चला तो अफसोस जाहिर किया। उनका यह अफ़सोस मेरे लिए बड़ा कष्टदायी साबित हुआ। उस समय एनडीटीवी के हरफनमौला राजदीप सरदेसाई, देबांग और संजय अहिरवाल ने आश्वासन दिया कि आपको कहीं जाने की जरूरत नहीं है, हम आपको अपने यहां रख लेंगे। आश्वासन का यह सिलसिला करीब आठ महीने तक चलता रहा और अंत में पत्रकारिता जगत की धुरी कहे जाने वाले इन धुरंधरों ने हमारी धुरी काट दी और साफ मना कर दिया। हमसे कहा कि आपको अपने यहां हम नहीं ले सकते। हमने कहा कि जो बात आठ महीने में आप लोगों ने कही, उसे 8-10 दिन में भी कह सकते थे। संजय अहिरवाल ने मेरी नौकरी जाने की कीमत पांच हजार रुपये लगायी। मैं उस पांच हजार रुपये को ले नहीं रहा था, लेकिन उनके बार-बार कहने पर मैंने ले लिया, क्योंकि वक्त उस समय यही कुछ कह रहा था। मैं एनडीटीवी के तबके इन मौकापरस्त चेहरों को समझ नहीं पाया था। इस घटना के बाद हमें दिल्ली जैसे शहर में एक अलग तरह के संघर्ष का सामना करना पड़ा।

वक्त ने करवट बदला और मैंने एनडीटीवी में नौकरी की। धीरे-धीरे हमें और जगहों की तरह यहां भी लगभग सब कुछ वैसा ही लगने लगा। एनडीटीवी के प्रति जो एक अच्छी छवि कभी दिलो-दिमाग में हुआ करती थी, वह धीरे-धीरे धूल-धूसरित हो गयी। एक पत्रकार दुनिया में होने वाले हर शोषण की कहानी को अपनी कलम से लोगों को परिचित कराता है, लेकिन एक पत्रकार एक पत्रकार से किस तरह ज़लील होता है, कितना अहंकार उसके अंदर होता है, वह अपने कनिष्ठों को कितनी बुरी तरह से प्रताड़ित करता है, उसका शोषण करता है, यह दुनिया को नहीं पता चलता। पत्रकार का नंगा चेहरा दुनिया को नहीं दिखायी देता। समाज़ का चौथा स्तम्भ कहे जाने वाले इस मुखौटे के अंदर क्या-क्या घिनौनापन होता है, उसे दुनिया नहीं जानती। अपवाद से नहीं बचा जा सकता।

किसी भी कम्पनी में कर्मचारियों की अपने बॉस से सबसे बड़ी जरूरत पड़ती है छुट्टी लेने की। छुट्टी मांगने पर जो विभाग प्रमुख होता है, उसे लगता है जैसे उसके मां-बहन को उसका कनिष्ठ सहयोगी गाली दे रहा है। छुट्टी लेने के लिए महीनों से कतार में रहना पड़ता है। उसी कतार में यदि कोई वीआईपी खड़ा (चमचा) है तो उसे पहले छुट्टी दे दी जाती है। आपकी छुट्टी साल के अंत में भले ख़त्म हो जाए, उससे उसका कोई मतलब नहीं होता। वह तो इतने से ही फूलकर आषाढ़ का मेढ़क हो जाता है कि वह (कनिष्ठ सहयोगी) छुट्टी मांग रहा था और हमनें मना कर दी। जब तक वह अपने सामने अपने कनिष्ठ सहयोगी को गिड़-गिड़वा नहीं लेता, नतमस्तक नहीं करवा लेता, तब तक वह उसे छुट्टी नहीं देता। कुछ साल पहले एनडीटीवी की जिस प्रतिष्ठा के बारे में मैने सुना था, तमाम अनभुवों के बाद मैं कह सकता हूं कि वह सब एक मिथ्या है, उसके अलावा कुछ भी नहीं।

एनडीटीवी में अगर कुछ अलग है तो वह व्यक्तिगत तौर पर डॉक्टर प्रणव रॉय। आज भी न्यूज़ रूम में वे आम पत्रकारों की तरह रहते हैं। हां यह बात अलग है कि करीब दो साल तक उनके संगठन में काम के दौरान मैंने उनके मुंह से हिंदी में कभी एक शब्द भी नहीं सुना। शायद हिंदी को वो अच्छा नहीं समझते? धन्य हैं वे, जहां कर्मचारियों के साथ कुत्तों का भी ध्यान कम नहीं रखा जाता है। इसे आपमें से कई मेरे लिखे को एनडीटीवी के प्रति हमारी भड़ास कह सकते हैं, जो सही भी हो सकती है। इस लेख के बाद हमारे पास दबाव और धमकी के फोन भी आ सकते हैं। पर अगर मेरे साथ बुरा हुआ है, मैंने बुरे अनुभव हासिल किए हैं तो उसे दुनिया के सामने लाने के लिए अभिव्यक्ति के अधिकार का इस्तेमाल नहीं कर सकता?’


देखा आपने। आकाश में कितनी आग है। आकाश की हिंदी की इस न्यूज वेबसाइट को लांचिंग के बाद कई जाने-माने लोगों ने सफलता हेतु शुभकामना संदेश प्रेषित किए हैं। आकाश ने अपनी साइट लांच करने के बाद दोस्तों को जो मेल भेजा है, उसमें उन्होंने साइट की कमियों के लिए राय आमंत्रित की है। मेल में कहा गया है- ‘दोस्तों, ढूंढो तो हर चीज में एक नहीं, थर्ड आई वर्ल्ड न्यूजहजारों कमियां मिलती हैं। संसार की कोई ऐसी चीज नहीं है जिसमें कमी न हो और जिसमें कमियां न निकाली जा सकें। इसलिए मेरी यानि आपकी न्यूज़ वेबसाइट में अगर कोई कमी या कमियां हैं तो उसे मैं मानने के लिए तैयार हूं और सदैव तैयार रहूंगा। हमने कोशिश की है कि वेबसाइट अच्छी हो और हमारे विजिटर/पाठक को हर कुछ मिले, जो वह एक न्यूज़ पोर्टल में चाहता है। हमारा प्रयास निरंतर विकास का होगा। हमारी कोशिश होगी कि हम अपनी कमियों को दूर करते रहें और वेबसाइट को अच्छा बनाएं। हम हकीकत और सच्चाई को वेबाक तरीके से आपके सामने रखेंगे, यह आपसे वादा करते हैं। हम हमेशा आपके सहयोग की कामना करते हैं।’

: आकाश की वेबसाइट पर जाने के लिए क्लिक करें- थर्ड आई वर्ल्ड न्यूज : आकाश से संपर्क स्थापित करने के लिए, उन्हें अपना फीडबैक देने के लिए, उन्हें अपनी टिप्पणी से अवगत कराने के लिए आप इनका सहारा ले सकते हैं- [email protected] या 9818094425 :

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0 Comments

  1. Ravi Shukla Bilaspur Chhattishgarh

    December 5, 2010 at 10:41 am

    akash ji hum apke jajbat ki kadra karte hai himmat na hare

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