यह कहानी करोड़ों रुपए की उस ठगी के बारे में है जिसे बाकी सबको तो छोड़िए, अपने आपको बहुत चतुर मानने वाला मीडिया भी बहुत इज्जत देता है। इस ठगी का नाम टीआरपी है। टीआरपी यानी टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट्स। ये टीआरपी ही तय करती है कि कौन-सा टीवी चैनल सबसे लोकप्रिय है। अगर टीआरपी की वजह से चैनलों को मिलने वाले धंधे की गिनती कर ली जाए तो यह घपला अरबों रुपए तक पहुंचेगा। टीआरपी की तथाकथित मेरिट लिस्ट कैसे बनाई जाती है? एक संस्था है टैम यानी टेलीविजन ऑडियंस मिजरमेंट और दूसरी है इनटैम। पहली वाली संस्था में इंडिया का इन लगा दिया गया है। दोनों के पास टीवी से जोड़ कर रखने वाले पीपुल मीटर नाम के बक्से हैं जो यह दर्ज करते रहते हैं कि किस टीवी पर कौन-सा चैनल कितनी देर तक देखा गया और टीआरपी तय हो जाती है। ऐसा नहीं कि टीवी चैनलों के धुरंधर मालिकों और विज्ञापन एजेंसियों के चंट संचालकों को इस धोखाधड़ी का पता न हो कि टीआरपी असल में देश का असली सच नहीं बताती है। आम धारणा है कि टीआरपी देश के सभी टीवी वाले घरों का प्रतिनिधित्व करती है पर यह सच नहीं है।
पांच साल पहले तक देश के सिर्फ पांच महानगरों में गिनती के पीपुल मीटर लगे मीटर लगे थे जो अब तीस शहरों में हैं। टैम के पास आज की तारीख में 4405 और इनटैम के पास 3454 पीपुल मीटर हैं। सबसे ज्यादा यह मीटर मुंबई में लगे हैं और लगभग दो करोड़ की आबादी वाली मुंबई में 600 घरों में यह मीटर तय करते हैं कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक सबसे लोकप्रिय कार्यक्रम कौन सा है और सबसे ज्यादा कौन सा टीवी चैनल देखा जाता है। पता नहीं क्यों ठगी और धोखाधड़ी का मामला इन फर्जी आंकड़े देने वालों के खिलाफ दर्ज कर के इन्हें जेल में नहीं डाला जाता।
कुछ बड़े शहरों में 120 मीटर लगे हैं। पूरे उत्तर प्रदेश में 300 मीटर लगे हैं। बिहार में सिर्फ 40 मीटर लगे हैं और हर सप्ताह टैम के कर्णधार जो रिपोर्ट चैनलों से लाखों रुपए ले कर जारी करते हैं उसमें उनका फतवा होता हैं कि कभी आज तक ऊपर तो कभी स्टार न्यूज आगे तो कभी इंडिया टीवी फतह कर रहा होता है। इन आंकड़ों पर विश्वास करने के पहले एक चीज जान लीजिए। अपनी तमाम बाधाओ और सीमाओं के बावजूद दूरदर्शन भारत में सबसे ज्यादा देखा जाने वाला चैनल है। क्रिकेट मैच होते हैं तो लोग सारा दिन दूरदर्शन पर अटके रहते हैं। इसके अलावा लोकसभा चैनल जिसकी यह टैम वाले गिनती तक नहीं करते, सोमवार और मंगलवार को लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट पर झगड़े के दौरान सबसे ज्यादा पूरे दिन देखा गया। दूरदर्शन और लोकसभा चैनल की कोई टीआरपी नहीं है। आप कितना विश्वास करेंगे इन आंकड़ों पर।
इसके अलावा पीपुल मीटर को गौर से देखें तो एक बच्चा भी उसका एक बटन दबा कर उसमें दर्ज सारे आंकड़ों को तितर-बितर कर सकता है। फिर भी उस डिब्बे की रिपोर्ट पर सप्ताह की टीआरपी जारी कर दी जाएगी। टीवी चैनल स्थापित करना और चलाना महंगा काम जरूर है लेकिन अब वह इतना महंगा नहीं रह गया है। पांच करोड़ में आप चैनल स्थापित भी कर सकते हैं और कम से कम साल भर चला भी सकते हैं। मगर दस अच्छे पत्रकारों को जितना वेतन मिलता है उतना टैम वाले इन चैनलों से वसूल लेते हैं। चैनल वाले बाजार में रहने के लिए अच्छी खबर हो या न हो, टैम की सदस्य बनना ज्यादा जरूरी मानते हैं। हर सप्ताह टैम के लोग चैनलों के ऊपर नीचे होने का फतवा जारी करते रहते हैं और दुनिया की खबर लेने वाले और दुनिया को खबर देने वाले चैनल इसे प्रसाद की तरह ग्रहण करते हैं।
टैम एक बहुत बड़ा धोखा हैं और टीआरपी एक धूर्त और नाटकीय आंकड़ा है। जब सारे चैनलों को लाइसेंस भारत सरकार देती हैं तो वह चैनलों से ही पैसा लेकर उनकी लोकप्रियता की निगरानी क्यों नहीं कर सकती? पीपुल मीटर हजार रुपए से भी कम का आता हैं और सरकार का जो तंत्र हैं वह हर जिले में कम से कम हजार पीपुल मीटर लगा सकता है जिसके आंकड़ों की समीक्षा प्रमाणिक जानकारी रखने वाले विशेषज्ञ करें और हर सप्ताह प्रामाणिक टीआरपी जारी करें। जब अखबारों और पत्रिकाओं के मामले में ऑडिट ब्यूरो ऑफ सर्कुलेशन के प्रमाण पत्र को विज्ञापन से ले कर बाकी सरकारी काम काज में मान्यता दी जाती हैं तो यूपी के एक शहर में बैठे कुछ चालाक कारोबारी डेढ़ अरब की आबादी वाले देश की रुचियों और टीवी देखने की प्राथमिकताओं के प्रवक्ता क्यों बने?
इसके अलावा भारत भले ही गांवों में बसता हो मगर टीआरपी दर्ज करने वाले मीटर शहरों में लगे हैं। जाहिर है कि टीआरपी इंडिया पर तो नहीं ही कटती, असली भारत का प्रतिनिधित्व नहीं करती। इसलिए टैम और इनटैम के आंकड़े अक्सर अलग होते हैं। ये दोनों टीआरपी दुकानें चैनलों से पांच लाख रुपए से ले कर पचास लाख रुपए तक सलाना लेती हैं और चैनल चूंकि इन्हीं आंकड़ों को आधार बना कर विज्ञापन वसूल करते हैं इसलिए उन्हें चाहे स्टाफ की छंटनी करनी पड़े, वे टीआरपी के दुकानदारों को नियमित पैसा देते हैं। अब तो भारत में इंडियन ब्राडकास्टिंग फाउंडेशन और नेशनल ब्राडकास्टिंग एसोसिएशन जैसी संस्थाएं भी हैं जो आसानी से आंकड़ों की निगरानी कर सकती हैं। एनबीए के सदस्य तो लगभग सारे टीवी चैनल हैं और वे मिल कर आसानी से यह निगरानी तंत्र चला सकते हैं मगर सच में आखिर किसकी दिलचस्पी हैं? कौन चाहेगा कि दूरदर्शन पचास का आंकड़ा पार कर जाए और बाकी पांच से लेकर पंद्रह तक में टिके रहें? इसीलिए टीआरपी नामक फ्राड लगातार चल रहा है। विशेषज्ञों के अनुसार टीआरपी नामक मुहावरे के आधार पर जो हजारों करोड़ का कारोबार चल रहा है उसमें धोखा देने वाले भी शरीक हैं और जानबूझ कर इस धोखे को प्रोत्साहन देने वाले चैनल भी उतने ही दोषी है।
एक और गलतफहमी की ओर ध्यान से देखना होगा। अगर टीआरपी के आंकड़ों पर विश्वास करें तो भारत में प्रिंट मीडिया खत्म हो जाना चाहिए। मगर दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण, अमर उजाला, पंजाब केसरी, नव भारत टाइम्स और दूसरी भाषाओं के अखबारों के प्रसार लगातार बढ़ते जा रहे हैं और कई चमकदार क्षेत्रीय अखबार हाल में प्रकाशित होने शुरू हुए हैं और फायदे की ओर बढ़ रहे हैं। दैनिक हिंदस्तान में तो जैसे अपना फिर से अविष्कार किया है। सच यह है कि टीवी पर खबर देखने के बाद लोग सबेरे अखबारों से उसकी पुष्टि करते हैं और एक टीवी चैनल में काम करने के कारण मुझे यह भी पता है कि अखबारों में छपी खबरों का विस्तार ही आम तौर पर टीवी चैनलों में पूरे दिन किया जाता है।
लेखक आलोक तोमर देश के जाने-माने पत्रकार हैं.
Lalit kumar sain
August 13, 2010 at 9:16 am
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Lalit kumar sain
August 13, 2010 at 9:18 am
chadni chand se hoti ha, sitaro se nahi
muhbbot ak se hoti hai hajaro se nahi
Manoi
December 14, 2010 at 5:38 am
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