एक कहानी (6) : बनारस में धंधा बंद होने की खबर पाकर दिल्ली से कंडोम बाबा आए। साठ-बासठ साल के बुजुर्ग बाबा वेश्याओं को सेक्सवर्कर कहते थे और उन्हें एड्स आदि यौन बीमारियों से बचाने के लिए देशभर के वेश्यालयों में घूमकर कंडोम बांटते थे। ये कंडोम उन्हें सरकार के समाज कल्याण विभाग और कई विदेशी संगठनों से मिलते थे। वे लड़कियों की तस्करी और वेश्याओं के पुनर्वास की समस्याओं को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर उठाते थे। वे समर्पित, फक्कड़ सोशल एक्टिविस्ट लिखे जाते थे। उन्हें फिलीपींस का प्रतिष्ठित मैगसायसाय पुरस्कार मिल चुका था। वे सर्किट हाउस में ठहरे। तड़के उठकर उन्होंने गंगा-स्नान और विश्वनाथ मंदिर में दर्शन किया। फिर फूलमंडी गए। वहां एक ट्रक से ताजा कटे लाल गुलाबों के बंडल उतर रहे थे। उन्होंने गिनकर एक सौ छिहत्तर फूलों का बंडल बंधवाया और सर्किट हाउस लौटे। प्रेस और टीवी वालों के साथ दनदनाता हुआ उनका काफिला मड़ुवाडीह से थोड़ा पहले सड़क किनारे रुक गया जहां उन्होंने अपना श्रृंगार किया।
कार में बैठे-बैठे उन्होंने सबसे पहले कई राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय ठप्पों वाली टी -शर्ट पहनी, दो कंडोम खोलकर दोनों कानों में लटका लिए, जो हवा चलने पर सीगों की तरह तनने लगते थे वरना बकरी के कानों की तरह लटके रहते थे। कई कंडोमों को थोड़ा सा फुलाकर एक धागे में बांधकर उनकी माला गले में डाल ली। वे ऐसे अंगुलिमाल लगने लगे, जिसने किसी पारदर्शी दानव की उंगलियां काटकर गले में पहन ली हों। ड्राइवर से उन्होंने कई गुब्बारे कार के आगे पीछे बंधवा दिए। उन्होंने पहले ही जिलाधिकारी से अनुमति ले ली थी और उनके साथ समाज कल्याण विभाग का एक अफसर भी था, जिस कारण बदनाम बस्ती में घुसने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं हुई।
बस्ती में सन्नाटा था, यहां-वहां कुछ बच्चे खाली सड़क पर खेल रहे थे। बच्चों ने उनकी गाड़ी को घेर लिया और गुब्बारे मांगने लगे। उन्होंने उन्हें खदेड़ते हुए कहा कि बच्चों को कंडोम देना संसाधनों की बर्बादी है। जब तक उनकी कंडोम से संबंधित जिज्ञासाओं का समाधान करने वाले कार्यकर्ता हर घर तक नहीं पहुंचेंगे, बच्चे उन्हें गुब्बारा ही समझते रहेंगे। इसके बाद वे हर दरवाजे पर जाकर वेश्याओं को ताजे लाल-लाल गुलाब के फूल भेंट करने लगे। यह कंडोम बाबा का अपना खास तरीका था जिस रेड लाइट एरिया में वे जितने दिनों बाद जाते थे, उतने गुलाब के फूल बांटते थे। यहां वे कोई छह महीने बाद आए थे। उन्होंने कंडोम देने चाहे तो वेश्याओं ने मना कर दिया। एक बुढ़िया ने उन्हें डांटा, जब धंधा ही बंद है तो गुब्बारा लेकर क्या करेंगे, उबालकर खाएंगे कि तुम्हारी तरह झुमका बनाकर पहनेंगे। ज्यादातर कंडोम दलालों और भडुंओं ने झपट लिए, वे इन्हें ग्राहकों को बेचते थे।
फूल बांटने के बाद उन्होंने एक तेरह साल की लड़की को कंडोम देना चाहा तो वह शरमा गई। उसके कंधे पर हाथ रखकर वे उसे कैमरों के सामने लाते हुए उन्होंने पूछा, ‘बेटी कंडोम का इस्तेमाल करती हो?’
वह चुप खाली आंखों से उन्हें देखती रही। उन्होंने फिर उससे पूछा, ‘लकड़ी खाती हो या नहीं?’
लड़की घबराकर भाग गई।
कान में लटके कंडोम की चिकनाई को अंगूठे और तर्जनी के बीच मलते हुए वे अब प्रेस की तरह मुखातिब हुए, ‘लकड़ी खिलाना एक तकनीक है जो कम उमर की लड़कियों को धंधे में लाने के लिए अपनाई जाती है। इसमें सोला लकड़ी का इस्तेमाल होता है जो पानी में बहुत जल्दी फूल जाती है। लड़की के भीतर इस लकड़ी को डालकर उसे रोज पानी के टब में या पोखर में नहलाया जाता है। जल्दी ही लड़की धंधे के लायक हो जाती है… जब धंधे से बचा नहीं जा सकता तो इसे करने में हर्ज ही क्या है, इससे लड़कियों को तकलीफ नहीं होती।’ प्रेस वाले वेश्याओं के जीवन के बारे में उनकी जानकारी से चकित थे।
देर तक बुलाने के बाद कुछ वेश्याएं इकट्ठा हुईं। उन्होंने एक छोटा सा भाषण दिया, कुछ दिन पहले धार्मिक नगरी उज्जैन की नगर पालिका ने वेश्याओं को लइसेंस दिए थे, हमने मांग की है कि काशी में भी ऐसा किया जाए। इसके लिए मेयर और जिलाधिकारी से बात हुई है… जब से दुनिया है तब से सेक्स वर्कर हैं। डंडे के जोर पर वेश्यावृत्ति कोई नहीं रोक पाया है। एक सौ छिहत्तर देशों में सेक्स वर्करों को धंधे के लाइसेंस दिए गए हैं। यूरोप में तो लाइसेंस है, बीमा होता है, मेडिकल जांच कराई जाती है, ऐसी सुविधाएं दी जाती हैं जो हमारे यहां के सरकारी कर्मचारियों को भी नहीं मिलती हैं। अगर वेश्यावृत्ति बंद करनी है तो पुनर्वास के अंतर्राष्ट्रीय मानकों का पालन किया जाना चाहिए। पहले ऐसी परिस्थितियां बनाई जाएं कि समाज, सेक्स वर्करों को सामान्य नागरिक की तरह स्वीकार कर सके, फिर उन्हें धंधा छोड़ने को कहा जाए वरना कोई नतीजा नहीं निकलेगा।’ उन्होंने नारा दिया, ‘काशी को उज्जैन बनाओ’ और जाने लगे। बच्चों से घिरी एक औरत ने रास्ते में रोककर उनसे कहा कि क्या वे कंडोम बांटने के बजाय यहां खाने का कुछ सामान नहीं भिजवा सकते। यहां से कोई न जा सकता है, न अंदर आ सकता है। हम लोगों के पास जो कमाई थी, खत्म हो चली है। यही हाल रहा तो हम लोग बीमारी से पहले भूख से मरेंगे। उन्होंने उसे गुलाब का फूल देते हुए कहा कि वे जिलाधिकारी के पास जा रहे हैं, उनसे इस बारे में बात करेंगे। बस्ती से वे जिलाधिकारी के पास चले गए। अगले दिन उन्हें किसी सम्मेलन में थाइलैंड जाना था।
कंडोम बाबा जिस समय गुब्बारे मांगने वाले वेश्याओं के बच्चों को लंगड़ाते हुए खदेड़ रहे थे छवि ने ठीक उसी समय फोन पर बताया, उसे आशंका है कि वह प्रेगनेन्ट हो गई है। प्रकाश ने उसे बधाई देते हुए बताया कि कल अखबार के मेन पेज पर उसकी ऐसे आदमी से मुलाकात होने वाली है, जो अगर इस दुनिया में न होता तो वह अब तक एक दर्जन बच्चों की मां बन चुकी होती।
अगले ही क्षण उसे लगा कि उसके पैरों के नीचे से जमीन खिसक रही है और वह अंधेरे में धंसता जा रहा है। छवि ने शांत ढंग से कहा कि उसने कई महिलाओं से बात की है जिनका कहना है कि बारह हफ्ते से ज्यादा हो चुके हैं। कंधे पर लटका उसका बैग धप्प से गिर पड़ा। वह लड़खड़ाता हुआ एक मकान के आगे निकले चबूतरे पर बैठकर आंखे फाड़े कंडोम बाबा को देखने लगा। उसे कुछ दिखाई नहीं दे रहा था, आंखों के ठीक आगे मटमैले धुंधले चकत्ते उड़ रहे थे। उसकी तरफ किसी का ध्यान जाए इससे पहले उसने खुद को जबर्दस्ती खींच कर खड़ा कर करने की कोशिश की तो चक्कर आ गया, माथे पर हाथ फिराते हुए उसने महसूस किया कि वह जाड़े में भी पसीने से भीगा हुआ है। थोड़ी देर बाद अकस्मात पहली चीज उसके दिमाग में यही आई कि छवि उस लड़की के साथ बलात्कार की घटना के बारे जानती है। वह फिर घड़ी के पेंडुलम की तरह झूलने लगा, जानती है…..नहीं जानती….जानती है। उसकी पूरी जिंदगी इस एक सवाल पर जैसे आकर टिक गई थी और उसे बहुत जल्दी फैसला करना था। अक्सर सिर उठाने वाले शर्मिंदंगी से भरे संदेहों और उनके शांत होने पर उससे भी भीषण आत्मघाती पश्चाताप में सुलगने का समय जा चुका था क्योंकि छवि के भीतर एक बच्चा लगातार बड़ा हो रहा था और वह किसी भी चीज का इंतजार नहीं करने वाला था। …जारी…
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Comments on “कंडोम बाबा की करूणा”
काशी को मोक्षदायिनी माना गया है काशी का इतिहास जितना पुराना है शायद उतना ही पुराना है यहां की नगरवधुओं का इतिहास…प्राचीनकाल से ही अब तक भारतीय संस्कृति में लगातार बने रहने वाली परम्पराओं में से यह भी एक खास परम्परा है …यह अलग बात है कि इसका रुप बदल गया…पहले के राजे महाराजाओं के मनोरंजन के अलावा यौन पिपासा को शान्त करने के लिए तकरीबन हर छोटे- बड़े राज्य में बकायदा इनका मोहल्ला होता था….लेकिन कदाचित अधिक अतिवादी माने जाने वाले शासकों के दौरान भी दो जून रोटी के लिए इन्हे कभी तरसना नहीं पड़ा। चाहे स्त्री देवी मानने वाले प्राचीन राजा हों या फिर स्त्री को भोग की वस्तुमात्र मानने वाले मध्यकालीन शासक…मगर लोकतन्त्रात्मक प्रणाली वाले इस देश में एक बड़े वर्ग की यह दुखद स्थिति काफी शर्मनाक है.. कभी संस्कृति की दुहाई तो कभी नैतिकता का हवाला देकर इन्हे उपेक्षा और शोषण के गहरे कुंए में मरने के लिए छोड़ दिया गया है। पुलिस दलाल और समाज के भूखे भेड़ियों के आगे……..यह सवाल सबसे बड़ा है कि आखिर क्या इनके प्रति कोई जबाबदेही नही है…यह सभी जानते है कि यह परम्परा कभी समाप्त नहीं हो सकती ऐसे में इनको कानूनी मान्यता देने में हर्ज ही क्या है….शोषण से भरी जिल्लत की रोटी खाने या फिर रोटी के लिए तरसते हुए मरने देने के लिए छोड़ देने से तो बेहतर यही विकल्प है मगर क्या इनकी आवाज बहरे हो चुके रहनुमाओं तक पहुंचेगी यह एक बड़ा सवाल है?
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