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साहित्य

लवली त्रिपाठी की आत्महत्या

एक कहानी (1) : छवि जिसे फोटो समझती थी, दरअसल एक दुःस्वप्न था। रास्ते में चलते-चलते अक्सर उसे प्रकाश के हाथों में एक चेहरा दिखता था और उसके पीछे अपने दोनों हाथ सीने पर रखे, कुछ कहने की कोशिश करती एक बिना सिर की लड़की….। प्रकाश जिसे सपना जानता था, एक फोटो थी जो कभी भी नींद की घुमेर में झिलमिला कर लुप्त हो जाती थी- रात की झपकी के बाद जागते, अलसाए घाट, लाल दिखती नदी और सुबह का साफ आसमान है। एक बहुत ऊंचे झरोखेदार बुर्ज के नीचे सैकड़ों नंगी, मरियल, उभरी पसलियों वाली कुलबुलाती औरतों के ऊपर काठ की एक विशाल चौकी रखी है। उस डोलती, कंपकंपाती चौकी पर पीला उत्तरीय पहने उर्ध्वबाहु एक कद्दावर आदमी बैठा है जिसके सिर पर एक पुजारी तांबे के विशाल लोटे से दूध डाल रहा है। चौकी के एक कोने पर मुस्तैद खडे़ एक मुच्छड़ सिपाही के हाथों में हैंगर से लटकी एक कलफ लगी वर्दी है जो हवा में फड़फड़ा रही है। थोड़ी दूर समूहबद्ध, प्रसन्न बटुक मंत्र बुदबुदाते हुए चौकी की ओर अक्षत फेंक रहे हैं।

एक कहानी (1) : छवि जिसे फोटो समझती थी, दरअसल एक दुःस्वप्न था। रास्ते में चलते-चलते अक्सर उसे प्रकाश के हाथों में एक चेहरा दिखता था और उसके पीछे अपने दोनों हाथ सीने पर रखे, कुछ कहने की कोशिश करती एक बिना सिर की लड़की….। प्रकाश जिसे सपना जानता था, एक फोटो थी जो कभी भी नींद की घुमेर में झिलमिला कर लुप्त हो जाती थी- रात की झपकी के बाद जागते, अलसाए घाट, लाल दिखती नदी और सुबह का साफ आसमान है। एक बहुत ऊंचे झरोखेदार बुर्ज के नीचे सैकड़ों नंगी, मरियल, उभरी पसलियों वाली कुलबुलाती औरतों के ऊपर काठ की एक विशाल चौकी रखी है। उस डोलती, कंपकंपाती चौकी पर पीला उत्तरीय पहने उर्ध्वबाहु एक कद्दावर आदमी बैठा है जिसके सिर पर एक पुजारी तांबे के विशाल लोटे से दूध डाल रहा है। चौकी के एक कोने पर मुस्तैद खडे़ एक मुच्छड़ सिपाही के हाथों में हैंगर से लटकी एक कलफ लगी वर्दी है जो हवा में फड़फड़ा रही है। थोड़ी दूर समूहबद्ध, प्रसन्न बटुक मंत्र बुदबुदाते हुए चौकी की ओर अक्षत फेंक रहे हैं।

इस फोटो और सपने को एक दिन, पूरी शक्ति के साथ टकराना ही था और शायद सबकुछ नष्ट हो जाना था। मृत्यु हमेशा जीवन के बिल्कुल पास घात लगाए दुबकी रहती है लेकिन जीवन के ताप से सुदूर लगती है। यह दिन भी उन दोनों से बहुत दूर – बहुत पास  था। फोटोजर्नलिस्ट प्रकाश जानता था कि यह सपनों की फोटो है जो कभी नहीं मिलेगी लेकिन इसी अंतर्वस्तु की हजारों तस्वीरें उन दिनों गलियों, घाटों, सड़कों और मंदिरों के आसपास बिखरी हुई थी, जिनमें से एक को भी वह कायदे से नहीं खींच पाया। सब कुछ इतनी तेजी से बदल रहा था कि कैमरा फोकस करते-करते दृश्य कुछ और हो चुका होता था और अदृश्य सामने आ जाता था। लगता था पूरा शहर किसी तरल भंवर में डूबता-उतराता चक्कर खा रहा है।

लवली त्रिपाठी की आत्महत्या

धर्म, संस्कृति और ठगी के पुरातन शहर बनारस में सहस्त्राब्दि का पहला जाड़ा वाकई अजब था। हाड़ कंपाती, शीतलहर में लोग ठिठुर रहे थे लेकिन घुमावदार, संकरी, अंधेरी गलियों में और भीड़ से धंसती सड़कों पर नैतिकता की लू चल रही थी। लू के थपेड़ों से समय का पहिया उल्टी दिशा में दनदना रहा था।

नैतिकता की इस लू के चलने की शुरुआत यूं हुई कि सबसे पहले एक कुम्हलाती पत्ती टूट कर चकराती हुई जमीन पर गिरी।

उस दिन के अखबार के ग्यारहवें पन्ने पर सी. अंतरात्मा के मोहल्ले के एक घर की ब्लैक एंड व्हाइट, डबल कालम फोटो छपी। आधा ईंट-आधा खपरैल वाले घर के दरवाजे के बगल में अलकतरे से एक लंबा तीर खींचा गया था, जिसके नीचे लिखा था, ‘यह कोठा नहीं, शरिफों का घर है।’ तीर की बनावट में कुछ ऐसा था जैसे खुले दरवाजे की ओर बढ़ने में वह हिचकिचा रहा हो और शरीफों में छोटी इ की मात्रा लगी थी। घर के आगे एक भैंस बंधी थी जो आतुर भाव से इस लिखावट को ताक रही थी। फोटो के नीचे इटैलिक, बोल्ड अक्षरों में कैप्शन था- ‘ताकि इज्ज्त बची रहेः बदनाम बस्ती में आने वाले मनचले अब पड़ोस के मुहल्लों के घरों में घुसने लगे हैं। लोगों ने अपनी बहू बेटियों के बचाव का यह तरीका निकाला है। महुवाडीह में इन दिनों करीब साढ़े तीन सौ नगर-वधुएं हैं।’

सी. अंतरात्मा ही प्रकाश को लेकर वहां गए थे। दोनों को अफसोस था कि अंदर के पेज पर काले-सफेद में छापकर इतने अच्छे फोटो की हत्या कर दी गई है।

काशी की संस्कृति के गलेबाज कहा करते थे कि यहां के अखबार आज भी बहन-बेटी का संबंध बनाए बिना वेश्याओं तक की चर्चा नहीं करते। यह आचार्य चतुरसेन के जमाने की भाषा की जूठन बची हुई थी। वे अपहरण को बलान्नयन, बलात्कार को शीलभंग, पुलिस की गश्त को चक्रमण और काकटेल पार्टी को पान-गोष्ठी लिखते थे। धोती वाले संपादक ही नहीं प्रूफ रीडर, पेस्टर, टाइपराइटर और टेलीप्रिंटर भी विदा हो चुके थे लेकिन सूट के नीचे जनेऊ की तरह अखबरों के व्यक्तित्व में ये शब्द छिपे हुए थे, और कई लक्षणों के साथ इस भाषा से भी अखबारों की आत्मा की थाह मिलती थी।

रोज की तरह उस दिन भी बयालीस साल के संवाददाता सी. अंतरात्मा अपनी खटारा स्कूटर से जिसके आगे पीछे की नंबर प्लेटों के अलावा स्टेपनी पर भी लाल रंग से प्रेस लिखा था, शाम को चीरघर गए। लाशों का लेखा-जोखा उनका रूटीन असाइमेंट था। उन्होंने चौकीदार को चाय पिलाई, एक बीड़ा पान खिलाया, खुद भी जमाया और कागज कलम निकालकर इमला घसीटने लगे। मर्चुरी में उस दिन आई लाशों के नाम, पते, मृत्यु का कारण और कुछ किस्से नोट कर दफ्तर लौट आए। उन्होंने रिपोर्टिंग-डेस्क से पुलिस के भेजे क्राइम बुलेटिन का पुलिंदा, निंदा, बधाई, चुनाव, मनोनयन, की विज्ञप्तियां बटोरीं और अखबार के सबसे उपेक्षित कोने में जाकर बैठ गए। रात साढ़े दस तक वह मारपीट, चेन छिनैती, स्मैक बरामदगी, आलानकब और प्रथम सूचना रपट दर्ज की सिंगल कॉलम खबरें बनाते रहे। ग्यारह बजे क्राइम रिपोर्टर को ये खबरें सौंपकर वे सीनियरों को पालागन के दैनिक राउंड पर निकलने ही वाले थे कि उसने पूछा, ‘यह लवली त्रिपाठी कौन हैं जानते हैं?’

‘सल्फास खाकर आई थी, किसी अफसर की बीबी है, पोस्टमार्टम तुरंत हो गया अब तो दाह संस्कार भी हो चुका होगा।’ उन्होंने बताया।

‘और यह रमाशंकर त्रिपाठी, आईपीएस कौन है?

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उन्होंने सिर खुजलाया। मतलब था, आप ही बताइए कौन हो सकते हैं।

क्राइम रिपोर्टर बमक गया, अरे बुढ़ऊ रात ग्यारह के ग्यारह बज रहे हैं। चार घंटे से चूतड़ के नीचे डीआईजी की बीबी की आत्महत्या की खबर दबाए बैठे हो और अब सिंगल कालम दे रहे हो। कब सुधरोगे। कब डेवलप होगी, कब जाएगी, यह कब छपेगी। सी. अंतरात्मा की घुन्नी आंखें चमकीं, जरा जोर से बोले हम क्या जानें, हम तो समझे थे कि आपको पहले से पता होगा। प्रकाश ने भी जानकारी दी कि अंतिम संस्कार की फोटो भी है, तीन बजे मणिकर्णिका घाट पर हुआ था।

कोई जवाब देने के बजाय रिपोर्टर ने लपककर खाली पड़े एक टेलीफोन को गोद में उठा लिया। पौन घंटे तक सिपाही, दरोगा, ड्राइवर, नर्सिंग होम की रिसेप्शनिस्ट की मनुहार करने के बाद उसने पूरा ब्यौरा जुटा लिया। खबर का इंट्रो कम्प्यूटर में फीड करने के बाद उसने सी. अंतरात्मा को बुलवाया जो दफ्तर के बाहर पान की दुकान पर अपनी मुस्तैदी और क्राइम रिपोर्टर की चूक की शेखी बघार रहे थे। उसने उनकी ड्यूटी रात डेढ़ बजे तक के लिए डीआईजी के बंगले के बाहर लगा दी। अंतरात्मा जानते थे कि बंगले बाहर अब कुछ नहीं मिलना है, इसलिए उन्होंने जी भईया जी कहा और अपने घर चले गए।

डीआईजी की बीबी सुंदर थी, सोशियोलाइट थी, शहर की एक हस्ती थी। उसने भरी जवानी में आत्महत्या क्यों की। इसके बारे में सिर्फ कयास थे। एक कयास यह था कि डीआईजी रमाशंकर त्रिपाठी के अवैध संबंध किसी महिला पुलिस अफसर से थे, जिसके कारण उसने जान दे दी। लेकिन इस कयास को किसी ने गॉसिप के कालम में भी लिखने की हिम्मत नहीं की, डर था कि तूफान से भी तेज रफ्तार उन जीपों की शामत आ जाएगी जो रात में अखबार लेकर दूसरे जिलों में जाती थीं। तब पुलिस अवैध ढंग से सवारी लादने के आरोप में उनका चालान करती, थाने में खड़ा कराती। एक घंटे की भी देर होती तो सेंटर तक पहुंचते-पहुंचते अखबार रद्दी कागज हो जाता। प्रतिद्वंद्वी अखबारों की बन आती। ऐसे समय क्राइम रिपोर्टर को ही पुलिस के बड़े अफसरों से चिरौरी कर जीपें छुड़ानी पड़ती थीं। मोटी तनख्वाह पाने वाले किसी कॉरपोरेटिया मैनेजर के पास इस देसी हथकंडे से निपटने का कोई ऊपाय नहीं था।

लवली त्रिपाठी, छवि की क्लाइंट थी जिसे वह अपनी दोस्त कहना पसंद करती थी। छवि यूनिवर्सिटी से ब्यूटीशियन का कोर्स करने के बाद अपने बूढ़े, बीमार पिता के असहाय विरोध के बावजूद घर के एक कमरे में व्यूटी पार्लर चलाती थी। डीआईजी की पत्नी से उसकी मुलाकात यूनिवर्सिटी की एक मेंहदी एंड फेशियल कंपटीशन में हुई थी जिसकी वह चीफ गेस्ट थी। अक्सर लवली त्रिपाठी के घर जाने के कारण वह जानती थी कि उसका सोशियोलाइट होना पति की उपेक्षा से त्रस्त आकर, दिन काटने की मजबूरी थी क्योंकि डीआईजी ने कह रखा था कि वह जहां चाहे मुंह मार सकती है या जब चाहे मर सकती है। लवली की दोस्त बनने की प्रक्रिया में छवि को एक नए तरह के फेशियल का आविष्कार करना पड़ा जिससे घूंसों से बने नील और तमाचों के निशान खूबसूरती से छिपाए जा सकते थे। वह लगातार प्रकाश से कह रही थी कि अपराध की फर्जी कहानियां रचने के माहिर डीआईजी ने ही लवली की हत्या की है और उसे फांसी मिलनी चाहिए।

प्रकाश और छवि के तीन साल पुराने प्यार में लवली त्रिपाठी अक्सर तनाव लेकर आती थी जिसके झटके से वह आगे बढ़ता था। प्रकाश को लगता था कि लवली जैसी संपन्न, निठल्ली औरतों के प्रभाव में आकर ही वह कहा करती है कि वह प्रेस फोटोग्राफी छोड़कर मॉडलों के फोटो खींचे और फैशन-फोटोग्राफर बन जाए तभी उसकी कला की कद्र होगी और पैसे भी कमा पाएगा। छवि जानती थी कि यह सुनकर उसके भीतर के जर्नलिस्ट उर्फ वाच डॉग को किलनियां लगती हैं, तब यह सलाह आती है कि अगर वह तमाचों के निशान छिपाने की मेकअप कला का पेटेंट करा ले तो करोड़ों महिलाएं उसकी क्लाइंट हो जाएंगी और टूटते परिवारों को सुंदर और सुखी दिखाने के अपने हुनर के कारण वह इतिहास में अमर हो जाएगी। समझौता यहां होता था कि कृपा करके अपनी-अपनी सलाहें उन बच्चों के लिए बचा कर रखीं जाएं जो भविष्य में पैदा होने हैं और अभी इस तरह से प्यार किया जाए कि वे पैदा न होने पाएं।………क्योंकि शादी होने में अभी देर है। 

प्रकाश के पास एक लवली त्रिपाठी की एक सहेली थी जो डीआईजी और उसके झगड़ों की प्रत्यक्षदर्शी थी और खुलेआम डीआईजी की फांसी की मांग भी कर सकती थी। लेकिन प्रकाश उसे किसी जोखिम में नहीं डालना चाहता था। उसने भी और पत्रकारों की तरह अपने प्रोफेशन और निजी जीवन को अलग-अलग जीना सीख लिया था क्योंकि दोनों का घालमेल इस नाजुक से रिश्ते को तबाह कर सकता था। फिर भी छवि को दुखी, परेशान देखकर उसने वादा किया कि इस मामले में सच सामने लाने के लिए उससे जो बन पड़ेगा जरूर करेगा।  

अनिल यादवबिना पुख्ता सबूत के हाथ डालना खतरनाक था। लेकिन इस सनसनीखेज मुद्दे को छोड़ा भी तो नहीं जा सकता था। इसलिए रिपोर्टरों को लवली त्रिपाठी के मायके दौड़ाया गया, उसकी सहेलियों को कुछ याद करने के लिए उकसाया गया, समाजसेवियों को उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर रोशनी डालने के लिए कहा गया। प्रकाश ने एक स्टूडियो से डीआईजी की फैमिली अलबम की कुछ पुरानी तस्वीरों का जुगाड़ किया। कुछ चर्चित आत्महत्याओं का ब्यौरा जुटाया गया और लच्छेदार शब्दों में ह्यूमन एंगिल समाचार कथाओं का सोता पन्नों से फूट निकला। समाचार चैनलों पर भी यही कुछ, जरा ज्यादा मसालेदार ढंग से आ रहा था।

…जारी…

लेखक और इस कहानी के बारे में ज्यादा जानने के लिए तस्वीर पर क्लिक करें.

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0 Comments

  1. c. Antaraatma

    February 28, 2010 at 12:26 am

    आगाज ने दिलचस्पी बढ़ा दी। फिर आगे क्या हुआ, इन्तजार रहेगा।

  2. prabhat tiwari

    March 3, 2010 at 3:36 am

    anil bhiya pranaam. jabse es blog per pada tha ki aapki likhi hui kahani aanewali hai tabhi se entizaar kar raha tha. wakai starting too lazwaab hai.aap ek achche patrkaar hai yeh too pta tha likin aap etne badiya kahanikaar hai yeh nahi pta tha. me aapki kahani ke second part ka waite kar raha huu……………….[

  3. satish yadav

    March 17, 2010 at 4:07 pm

    anil ji bebaak lekhte ha aap.satish yadav from meerut photo gernalist dainik prabhat.

  4. kaushlendra mishra

    March 18, 2010 at 12:47 pm

    kya khub dub kar likha hai. thori savdhani ke sath aage badhe.

  5. RajeevKrishna(Annu)

    March 23, 2010 at 5:30 pm

    ANIL BHAI, Desh k mahaul me itna dard kyo hai aur kya ham sab ab apne-2 dardon se itna dab k khatam ho chuke hain ki ab sab normal sa lagne laga hai..kitni vichitr-2 ghatnayen samne ajati hai ki ankho aur kano pe vishwas nhi hota….2 roj pahle 1 TvChnl.pe dikhaya gaya ki 70 lakh tan gehun(wheat) khule aasman k niche pada-2 sad raha hai,jo sarkaar ne deshvasiyon k tamaam tarah k tax k paise se khareeda hai,isi desh me lakhon log dinbhar me sirf ek waqt hi khana kha pate hain,ab dekhiye kya sambandhit FCI k varishth,kanishth adhikariyon, vibhagiya mantri se leke wnha pe pahra dene wale gaurd tak ko malom hai ki sara anaaj bindaas sad raha hai..kitne andhe aur bahre logo k hanthon me ham sab kathputliyon ki tarah shayad an-mane dang ki swechha se khel rhe hain,aur Anil Bhai jo vishay aapne uthaya hai woto aur marmik aur rooh ko bhi kanpa dene wala hai…. Lekin Anil Bhai.shayad nhi ! pakke taur se ye sab kuch badla jasakta hai.. magar kaise…ham sochte hain aap bhi sochen..jab kuch samajh me ayega aapko jaroor batayenge…ek vichitr ghatna aur hai …Allahabad me ek mohalla hai govindpur,janhan pe ek chota sa Anaath Baal Grah hai theek ghani aabadi k beech me us Baal Grah me 2 sal se leke 7-8 saal tak k bahut hi chote 40-45 bachhe rahte hain,ek mere paramesnehi bade bhaisahab Dixit ji joki allahabad me tab CO k pad pe police me the,ki kripa se hame 2 saal pahle Baal Grah jane ka mauka mila…wanha bachchon ki badi kharab dasha thi,ye bachhe jis Baal Grah me hain aur usme jo 4-5 kamre hain unme ya Baal Grah me knhi bhi dhoop aane ki koi bhi vyawastha nhi hai,thand,garmi,barish,harwaqt andhre seelan boodaar kamron me hi 10-14 bachho ko ek sath waqt gujarna hota hai,wanha pe bistar tak dhang k nhi hain,sab fate aur badbodaar…wanha karyrat karmchari apni naukri jane k dar se bachho ko bilkul bhi bahar nhi jane dete,ki knhi bachhe kho gaye to unki naukri jayegi,upar se unsab ko kuch na kuch sawsthy samsyaen bhi thi kisi ko khujli kisi ko bukhaar kisi ko aankh me prblm kisi k kan me dard aur wo bhi kai-2 dino se….dawa-…dr….sab sirf aur sirf emrgncy me hi uplabdh hote hain, aur wanhi theek agal bagal charon taraf pori ghani basti hai achhe-2 log rahte hain,lekin kbhi unlogon ne wanha jakar nhi dekha ki 2 se 8 saal k chote-2 bachhe kaisa narkiya jeevan jeene ko majboor hain…jabki sarkari taur pe wanha ka salana kharcha lakhon me hai..wanha pe kaam karne wale log bhi ghar-baar wale pariwaar wale log hain lekin wo to unke liye shayad naukri bhar hi hai…bhawnatmk shonyata ka ahsaas wanha 4-6 bar jane k bad hi samjh me hopata hai, choti moti sansthaye kbhi kbhar wanha pe fal mithi,kapde wagairah le jati hai lekin wo sab log samajh nahi pate ki bachhe kaisa jeevan jee rahe hain,chote-2 bachho ka 4-6 days na nahana wanha aam baat hai,jabki log sirf wanha jake bachho se haal khabar lete rahe aur smbandhit adhikariyo,karmchariyon se bhi milte rahe to Bal Grih k bachho k duruh jeevan me kuch sudhaar jaror aayega…! ki in bachho ko kya mila kya nhi mila koi to pochne wala ho to dene wale ko bhi thoda jimmedari nibhani hogi…

  6. RajeevKrishna(Annu)

    March 23, 2010 at 5:47 pm

    aap bahut achcha likh rahe hain Anil Bhai…kahani ki atma me man ko andolit karne me sahayak tatv kafi maujood hai..

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