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वह भी कोई देश है महाराज

[caption id="attachment_15661" align="alignleft"]अनिल यादवअनिल यादव[/caption]पुरानी दिल्ली के भयानक गंदगी, बदबू और भीड़ से भरे प्लेटफार्म नंबर नौ पर खड़ी मटमैली ब्रह्मपुत्र मेल को देखकर एकबारगी लगा कि यह ट्रेन एक जमाने से इसी तरह खड़ी है। अब कभी नहीं चलेगी। अंधेरे डिब्बों की टूटी खिड़कियों पर उल्टियों से बनी धारियां झिलमिला रही थीं जो सूख कर पपड़ी हो गईं थीं। रेलवे ट्रैक पर नेवले और बिल्ली के बीच के आकार के चूहे बेखौफ घूम रहे थे। 29 नवंबर की उस रात भी शरीर के खुले हिस्से मच्छरों के डंक से चुनचुना रहे थे। इस ट्रेन को देखकर सहज निष्कर्ष चला आता था कि चूंकि वह देश के सबसे रहस्यमय और उपेक्षित हिस्से की ओर जा रही थी इसलिए अंधेरे में उदास खडी थी। इसी पस्त ट्रेन को पकड़ने के लिए आधे घंटे पहले, हम दोनों यानि शाश्वत और मैं तीर की तरह पूर्वी दिल्ली की एक कोठरी से उठकर भागे थे। 

अनिल यादव

अनिल यादवपुरानी दिल्ली के भयानक गंदगी, बदबू और भीड़ से भरे प्लेटफार्म नंबर नौ पर खड़ी मटमैली ब्रह्मपुत्र मेल को देखकर एकबारगी लगा कि यह ट्रेन एक जमाने से इसी तरह खड़ी है। अब कभी नहीं चलेगी। अंधेरे डिब्बों की टूटी खिड़कियों पर उल्टियों से बनी धारियां झिलमिला रही थीं जो सूख कर पपड़ी हो गईं थीं। रेलवे ट्रैक पर नेवले और बिल्ली के बीच के आकार के चूहे बेखौफ घूम रहे थे। 29 नवंबर की उस रात भी शरीर के खुले हिस्से मच्छरों के डंक से चुनचुना रहे थे। इस ट्रेन को देखकर सहज निष्कर्ष चला आता था कि चूंकि वह देश के सबसे रहस्यमय और उपेक्षित हिस्से की ओर जा रही थी इसलिए अंधेरे में उदास खडी थी। इसी पस्त ट्रेन को पकड़ने के लिए आधे घंटे पहले, हम दोनों यानि शाश्वत और मैं तीर की तरह पूर्वी दिल्ली की एक कोठरी से उठकर भागे थे। 

ट्रेन छूट न जाए, इसलिए मैं रास्ते भर टैक्सी ड्राइवर पर चिल्ला रहा था। हड़बड़ी में मेरे हैवरसैक का पट्टा टूट गया, अब गांठ लगाकर काम चलाना पड़ रहा था। यह हैवरसैक और एक सस्ता सा स्लीपिंग बैग उसी दिन सुबह मेरे दोस्त शाहिद रजा ने अपने किसी पत्रकार दोस्त लक्ष्मी पंत के साथ ढूंढकर, किसी फुटपाथ से खरीद कर मुझे दिया था।

मैं पूर्वोत्तर के बारे में लगभग कुछ नहीं जानता था। कभी मेरे पिता डिब्रूगढ़ के एयरबेस पर तैनात रहे थे। वहाँ व्यापार करने गए एक रिश्तेदार की मौत ब्रह्मपुत्र में डूबकर हो गई थी। उनका रूपयों से भरा बैग हाथ से छूटकर नदी में गिर पड़ा था और उसे उठाने की कोशिश में स्टीमर का ट्यूब उनके हाथ से छूट गया था। मेरे ननिहाल के गाँव के कुछ लोग असम के किसी जिले में खेती करते थे। इन लोगों से और बचपन में पढ़ी सामाजिक जीवन या भूगोल की किताब में छपे चित्रों से मुझे मालूम था कि वहाँ आदमी को केला कहते हैं। चाय के बगान हैं जिनमें औरतें पत्तियां तोड़ती हैं। पहले वहाँ की औरतें जादू से बाहरी लोगों को भेड़ा बनाकर, अपने घरों में पाल लेती थी, चेरापूंजी नाम की कोई जगह हैं जहाँ दुनिया में सबसे अधिक बारिश होती है।

इसके अलावा मुझे थोड़ा बहुत असम के छात्र आंदोलन के बारे में पता था। खास तौर पर यह कि अस्सी के दशक के आखिरी दिनों में बनारस में तेज-तर्रार समझे जाने वाले एक-दो छात्रनेता फटे गले से माइक पर चीखते थे, गौहाटी के अलाने छात्रावास के कमरा नंबर फलाने में रहने वाला प्रफुल्ल कुमार मंहतो जब असम का मुख्यमंत्री बन सकता है तो यहाँ का छात्र अपने खून से अपनी तकदीर क्यों नहीं लिख सकता। इन सभाओं से पहले भीड़ जुटाने के लिए कुछ लड़के, लड़कियां भूपेन हजारिका के एक गीत का हिंदी तर्जुमा गंगा तुम बहती हो क्यों गाया करते थे।

हैवरसैक में कभी यह गीत गाने वाले दोस्त, पंकज श्रीवास्तव की दी हुई (जो उसे किसी प्रेस कांफ्रेस में मिली होगी) एक साल पुरानी सादी डायरी थी जिस पर मुझे संस्मरण लिखने थे। आधा किलो से थोड़ा ज्यादा अखबारी कतरनें थी, दो किताबें (वीजी वर्गीज की नार्थ ईस्ट रिसर्जेंट और संजय हजारिका की स्ट्रेंजर्स इन द मिस्ट) थीं जिन्हें तीन दिन की यात्रा में पढ़ा जाना था। किताबें एक दिन ही पहले कनाट प्लेस के एक चमाचम बुक मॉल से बिना कन्सेशन का आग्रह किए शाश्वत के क्रेडिट कार्ड पर खरीदी गई थीं। कुछ गरम कपड़े थे वहीं बगल में जनपथ के फुटपाथ से छांटे गए थे। वहीं से खरीद कर मैने शाश्वत को एक चटख लाल रंग की ओवरकोटनुमा जैकेट, ड्राई क्लीन कराने के बाद शानदार पैकेजिंग में भेंट कर दी थी। बड़ी जिद झेलने के बाद मैने जैकेट की कीमत नौ हजार कुछ रूपये बताई थी जबकि वह सिर्फ तीन सौ रूपये में ली गई थी। वही पहने, स्टेशन की बेंच पर बैठा वह बच्चों को दिया जाने वाला नेजल ड्राप ऑट्रिविन अपनी नाक में डाल रहा था। उसकी नाक सर्दी में अक्सर बंद हो जाया करती थी। बीच-बीच में वह जेब से निकाल कर गुड़ और मूंगफली की पट्टी खा रहा था। उसे पूरा विश्वास था कि पूर्वोत्तर जाकर हम लोग जो रपटें और फोटो यहाँ के अखबारों, पत्रिकाओं को भेजेंगे, उससे हम दोनों धूमकेतु की तरह चमक उठेगे और तब चिरकुट संपादकों के यहाँ फेरा लगाकर नौकरी मांगने की जलालत से हमेशा के लिए छुटकारा मिल जाएगा।

शाश्वत की अटैची में यमुना पार की कोठरी की सहृदय मालकिन के दिए पराठे, तली मछली और अचार था, तीन फुलस्केप साइज की सादी कापियां थीं।

अपनी-अपनी करनी से मैं पिछले एक साल से और वह पांच महीनों से बेरोजगार था। कई बार वह सुबह-सुबह नौकरी का चक्कर चलाने किसी अखबार मालिक या संपादक से मिलने हेतु जिस समय तैयार होकर दबे पाँव निकलने को होता, मैं रजाई फेंक कर सामने आ जाता। मैं साभिनय बताता था कि छोटी सी नौकरी के लिए डीटीसी की बस के पीछे लपकता हुआ वह कैसे किसी अनाथ कुत्ते की तरह लगता है। खोखली हंसी के साथ उसका एकांत में संजोया हौसला टूट जाता, नौकरी की तलाश स्थगित हो जाती और मैं वापस रजाई में दुबक जाता। मैं खुद भी अवसाद का शिकार था। उस साल मैने कई महीने एक पीली चादर फिर रजाई ओढ़कर अठारह-अठारह घंटे सोने का रिकार्ड बनाया था। इसी मनःस्थिति में हताशा से छूटने, खुद को फिर से समझने और अनिश्चय में एक धुंधली सी उम्मीद के साथ यह यात्रा शुरू हो रही थी।

उत्तर-पूर्व जाकर मैं करुंगा क्या, इसका मुझे बिल्कुल अंदाज नहीं था। इसलिए मैने खुशवंत सिंह, राजेंद्र यादव, प्रभाष जोशी, मंगलेश डबराल, आनंद स्वरूप वर्मा, राजेंद्र घोड़पकर, अभय कुमार दुबे, यशवंत व्यास, रामशरण जोशी, रामबहादुर राय, अरविंद जैनादि के पास जाकर एक काल्पनिक सवाल पूछा था और उनके जवाब एक कागज पर लिख लिए थे। सवाल था-

“जनाब। फर्ज कीजिए कि आप इन दिनों उत्तर-पूर्व जाते तो क्या देखते और क्या लिखते?”

जैसा हवाई सवाल था, वैसे ही कागज के जहाजों जैसे लहराते जवाब भी मुझे मिले। इन्हीं जवाबों को गुनते-धुनते मैं अपना और शाश्वत का मनोबल ट्रेन में बैठने लायक बना पाया था। हंस के संपादक राजेंद्र यादव का कहना था कि इस यात्रा में कोई लड़की मेरे साथ होती तो ज्यादा अच्छा होता। इससे वहाँ के समाज को समझने में ज्यादा सहूलियत होती और मीडिया में हाईप भी बढिया मिलती। सबसे व्यावहारिक सुझाव, रियलिस्टक स्टाइल में खुशवंत सिंह ने दिया था। मिलने के लिए निर्धारित समय से बस आधे घंटे लेट उनके घर पहुंचा तो बताया गया कि मुलाकात संभव नहीं है। पड़ोस के एक पीसीओ से फोन किया तो व्हिस्की पी रहे बुड्ढे सरदार ने कहा,

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“पुत्तर तुम नार्थ-ईस्ट जाओ या कहीं और, मुझसे क्या मतलब।”

अपने कागज पर मैने खुशवंत सिंह के नाम के आगे लिखा,

“जरूर जाओ बेटा। बहुत कम लोग ऐसा साहस करते हैं। मैं तुम लोगों का यात्रा-वृत्तांत अंग्रेजी में पेंग्विन या वाइकिंग जैसे किसी प्रकाशन में छपवाने में मदद करूंगा।”

यह शाश्वत को पढ़वाने के लिए था क्योंकि पैसा उसी का लग रहा था। खुशवंत सिंह के आशीर्वचन का पाठ करते हुए मुझे अपने छोटे भाई सुनील की याद आई। छुटपन में उसे साइकिल पर खींचते-खींचते जब मैं थक जाता था, इसे भांप कर वह कहता था कि बगल से गुजर रहे दो आदमी आपस में बातें कर रहे थे यह लड़का हवाई जहाज की तरह साइकिल चलाता है। मैं उसका चेहरा नहीं देख पाता था क्योंकि वह डंडे पर बैठा होता था।


लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार अनिल यादव का यह यात्रा वृत्तांत त्रैमासिक पत्रिका ‘प्रतिलिपि’ में प्रकाशित हुआ है। अनिल से संपर्क के लिए 09452040099 का सहारा ले सकते हैं। यात्रा वृत्तांत कई भाग में है। अगर इसके आगे पढ़ना चाहते हैं तो क्लिक करें….. प्रतिलिपि

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0 Comments

  1. ashutosh bajpai

    March 11, 2010 at 2:23 am

    anil, tussi great ho
    ashutosh

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