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साहित्य

अयोध्याकांड और मीडिया : अर्धसत्य के आगे (2)

[caption id="attachment_17165" align="alignleft"]अरविंद कुमार सिंहअरविंद कुमार सिंह[/caption]4 दिसंबर से ही पत्रकार विहिप की गिरफ्त में थे : नई दिल्ली 17 दिसम्बर। अयोध्या में काले रविवार यानि 6 दिसंबर को देशी-विदेशी प्रेस के साथ क्या कुछ घटा इसकी चर्चा अभी धीमी नहीं पड़ी है, अपितु इसमें नए-नए आयाम जुड़ते जा रहे हैं। पत्रकारों और छायाकारों पर संगठित हमले के लिए सभी लोग जिला प्रशासन से लेकर विहिप और भाजपा के प्रमुख नेताओं तक को गुनाहगार बता रहे हैं। वे गुनहगार हैं भी, क्योंकि उन्होंने ही हर पत्रकार की सुरक्षा का ठेका ले रखा था। सभी जानते हैं कि 7 दिसंबर तक अयोध्या विहिप शासित क्षेत्र हुआ रहा था, जहां कारसेवक राजा थे,जबकि बाकी सभी प्रजा। 

अरविंद कुमार सिंह

अरविंद कुमार सिंह4 दिसंबर से ही पत्रकार विहिप की गिरफ्त में थे : नई दिल्ली 17 दिसम्बर। अयोध्या में काले रविवार यानि 6 दिसंबर को देशी-विदेशी प्रेस के साथ क्या कुछ घटा इसकी चर्चा अभी धीमी नहीं पड़ी है, अपितु इसमें नए-नए आयाम जुड़ते जा रहे हैं। पत्रकारों और छायाकारों पर संगठित हमले के लिए सभी लोग जिला प्रशासन से लेकर विहिप और भाजपा के प्रमुख नेताओं तक को गुनाहगार बता रहे हैं। वे गुनहगार हैं भी, क्योंकि उन्होंने ही हर पत्रकार की सुरक्षा का ठेका ले रखा था। सभी जानते हैं कि 7 दिसंबर तक अयोध्या विहिप शासित क्षेत्र हुआ रहा था, जहां कारसेवक राजा थे,जबकि बाकी सभी प्रजा। 

इन कारसेवकों ने 3 दिसंबर से ही पत्रकारों के साथ अपना बाहुबल दिखाना शुरु कर दिया था और कई पत्रकारों और उनके ड्राइवरों का गला जय श्रीराम का नारा लगाते-लगाते बैठ गया था। कारसेवक उनसे जबरदस्ती  नारा लगवा रहे थे। नारा न लगाने पर उनके साथ दुर्व्यवहार भी होता था। अयोध्या से 6 दिसंबर के हादसे के बाद अधिकतर पत्रकार और छायाकार वहां से वापस चले गए थे और उन्हीं के अनुभवों के आधार पर राष्ट्रपति और उ.प्र. के राज्यपाल के अलावा आम लोगों को यह पता चल सका कि अयोध्या में प्रेस के साथ क्या बीती है। पर अयोध्या के स्थानीय पत्रकारों तथा वहां मौजूद रहे बाहर के उन पत्रकारों के साथ अयोध्या में 6 दिसंबर के बाद भी क्या-क्या बीता, यह बात प्रकाश में नही आयी। व्यावसायिक दबाव और अन्य कारणों से बहुत से पत्रकारों को नितांत विपरीत परिस्थितियों में काम करना पड़ा। अयोध्या कांड के सबसे बड़े शिकार तो छायाकार और महिला पत्रकार बने थे। 3 से 15 दिसंबर के बीच मैं और अमर उजाला के हमारे कई और साथी अयोध्या-फैजाबाद में तैनात रहे थे। वहां अन्य तथ्यों के साथ प्रेस पर बीती घटनाओं का भी ब्यौरा भी हमने इकठ्ठा किया।

दरअसल 3 दिसंबर से ही पत्रकार अयोध्या में कारसेवकों के दुर्व्यवहार का शिकार बनने लगे थे। लेकिन तब तक बात सहनीय थी। 5 दिसंबर के सांयकाल रामकथा कुंज पर आयोजित जनसभा में अशोक सिंघल ने बी.बी.सी. लंदन के खिलाफ बाकायदा एक निंदा प्रस्ताव पास कराया। तभी से उग्र कारसेवकों को जैसे विदेशी पत्रकारों से दुव्र्यवहार करने का लाइसेंस सा मिल गया। संयोग से बी.बी.सी. लंदन के मशहूर पत्रकार मार्क टुली, रामदत्त त्रिपाठी एक साथ ही थे। मार्क टुली और हम लोग शताब्दी एक्सप्रेस से 3 दिसंबर को नयी दिल्ली से लखनऊ पहुंचे थे। शताब्दी एक्सप्रेस में जिस कोच में हम थे, उसमें एक टाइम बम बरामद हुआ जिसे पुलिस ने साहिबाबाद में निष्क्रिय कर दिया गया। इस बम के विस्फोट में चंद मिनट ही बाकी थे। उस समय लखनऊ से अयोध्या के लिए उपलब्ध ट्रेनें हो या बसें, सब पर कारसेवकों का ही कब्जा था। मार्क टुली या बाकी पत्रकार शताब्दी एक्सप्रेस में भले सकुशल निकले पर अशोक सिंघल के फतवे के बाद मार्क टुली अगर उग्र कारसेवकों के हाथ पड़ जाते तो उनकी हत्या हो सकती थी।

संयोग से मार्क टुली को देश भर से जुटी कारसेवकों की जमात में कम ही लोग पहचानते थे। इस कारण उनकी निगाह में हर विदेशी पत्रकार मार्क टुली बन गया था। तभी विदेशी पत्रकारों के साथ ही सबसे ज्यादा घटनाएं हुईं और कइयों का तो धन भी लूट लिया गया। दरअसल 6 दिसंबर के पूर्व बी.बी.सी. लंदन ने अयोध्या की स्थिति पर एक फीचर दिया था जिसमें 1990 में हुई अयोध्या की घटनाओं के फाइल फोटो भी दर्शाए गए थे। खास घटनाओं के समय ऐसे फाइल फोटो का उपयोग आम बात है। पर इसे देखने के बाद अहमदाबाद के एक विहिप समर्थक ने अशोक सिंघल को फोन पर बताया कि बी.बी.सी. में ऐसी स्टोरी चली है। आप उसका खंडन करें नहीं तो बवाल हो सकता है। बिना तथ्यों की जांच-पड़ताल किए अशोक सिंघल ने कारसेवकों को ललकार दिया। बी.बी.सी. के खिलाफ सिंघल का निंदा प्रस्ताव 5 दिसंबर को रामकथा कुंज पर दिए गए 4 बजे के भाषण में आया। मार्क टुली को उसी के आधे घंटे के बाद उग्र कारसेवकों ने धर लिया। वे पूरे दो घंटे तक बंधक की हालत में रहे तथा बाद में कुछ वरिष्ठ साधुओं और जिलाधिकारी की मदद से सुरक्षित निकल सके। 

6 दिसंबर की सुबह मैं 2.77 एकड़ क्षेत्र पर बने चबूतरे पर मार्क टुली के साथ घंटे भर था। उस समय उनका एक-एक पल सफाई देने में बीत रहा था। वे सबको यही समझा रहे थे कि उन्होंने कोई गलत खबर नही भेजी थी। जो फाइल फोटो चलायी गयी उसी से भ्रम खड़ा हो गया था। वहीं आरएसएस नेता कु.सी. सुदर्र्शन ने भी परिसर में मार्क टुली से बातचीत की और इस बात पर अफसोस जताया कि थोड़ी गलती दोनों ओर से हो गयी थी। बी.बी.सी. को पुरानी फोटो नहीं दिखानी चाहिए थी। उससे लोग घबड़ा गए थे और जगह-जगह से फोन आने लगे थे। यह बात इतनी बढ़ गयी कि देर रात मार्क टुली को अपनी फाइल की गयी पूरी स्टोरी अशोक सिंघल को दिखानी पड़ी। अशोक सिंघल का कहना था कि कल हम इस बारे में कारसेवकों के बीच सब कुछ साफ कर देंगे। लेकिन उनकी ओर से कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया। इसी नाते 6 दिसंबर को सुबेरे परिसर में मार्क टुली से साधु-संत यही सफाई मांग रहे थे आप जैसे गंभीर आदमी ने ऐसी गलती कैसे कर दी ? 6 दिसंबर को विवादित ढंाचे तथा परिसर के इर्द-गिर्द देशी-विदेशी 300 के करीब छायाकार-पत्रकार और स्तंभकार बगैरह रहे होंगे।

इन लोगों में अमर उजाला के हमारे सहयोगी आशीष अग्रवाल (बरेली ), सुनील छइयां (मेरठ), भानुप्रताप सिंह(आगरा), त्रियुग नारायण तिवारी (अयोध्या) और ओंकार सिंह (कानपुर) और मैं एक साथ थे। हमारे कुछ और साथी भी इर्द-गिर्द थे। करीब 11.30 बजे के करीब हमें भूख लगी तो आशीष अग्रवाल और सुनील छइयां के साथ मैं हनुमानगढ़ी की गली की ओर रवाना हुआ। पर आसपास उमड़ रही भीड़ और बढ़ रहे तनाव को देख कर सुनील बीच से ही लौट गए। तय हुआ कि उनके लिए हम खाने का कुछ सामान साथ लाएंगे। वहां उस दिन प्राय: दुकानें बंद थी। हनुमानगढ़ी के पास ही एक चाट की दुकान से हमने कुछ खाना शुरू ही किया था कि भगदड़ सी मची दिखी। फैजाबाद के अतिरिक्त जिला अधिकारी यू.सी. तिवारी भी दौड़ते चले आ रहे थे। अयोध्या में उनको ए.डी.एम. रामलला के नाम से जाना जाता है। वहां से हम तत्काल राम जन्मभूमि न्यास कार्यालय की ओर से होकर मानस भवन की तरफ बढ़े, ताकि वस्तुस्थिति को आंखों से देख सकें और गोलीबारी होने की स्थिति में भी सुरक्षित रह सकें। उस समय लोग गुबंद पर चढ़ रहे थे और भाजपा-विहिप के नेता कारसेवकों को उतारने के लिए लाउडस्पीकर से अनुरोध कर रहे थे। पर कारसेवक किसी की सुन नहीं रहे थे। ढांचे पर जहां कारसेवकों ने हमला कर दिया था वहीं साथ ही पत्रकारों की पिटाई भी शुरू चालू थी। पीटने और लूटने वाले यह भी नही देख रहे थे कि प्रेस का कार्ड लगाए लोगों में वे उनको भी पीट रहे हैं, जो भाजपा-विहिप और संघ के सहयोगी अखबारों के संवाददाता हैं। पांचजन्य के मुख्य संवाददाता सुभाष सिंह के साथ भी ऐसा ही घटा। पत्रकारों के गायब सामानों और लूटपाट की सूची तो बहुत लंबी होगी।

लेकिन राम जन्मभूमि न्यास द्वारा जारी प्रेस का बिल्ला लगाए पत्रकारों में शायद ही कोई रहा हो जो न पिटा हो। मानस भवन की छत पर आशीष अग्रवाल तो चढऩे में सफल रहे लेकिन मैं फंस गया। वहां कारसेवक सीढिय़ों पर एक दक्षिण भारतीय फोटोग्राफर का बैग लूट कर कैमरा छीनने की कोशिश कर रहे थे। मैंने बीच-बचाव करके उसे छुड़ाना चाहा तो वे मुझ पर यह कहते हुए टूट पड़े कि इसका रिश्तेदार भी आ गया है, इसे न छोडऩा। इसी दौरान फोटाग्राफर भाग निकला। तभी हमारे साथी आशीष छत पर बंद पड़े दरवाजे को खुलवा कर लौटे और मुझे अपने साथ यह कह कर वापस ले गए कि यह भी प्रेस के ही हैं, आने क्यों नहीं देते। संयोग से मेरा प्रेस कार्ड मिल नहीं रहा था।  मानस भवन की छत से नीचे और सामने गुबंद पर जो तूफान दिख रहा था, उसकी अभिव्यक्ति करने लायक शब्द नहींं मिल रहे हैं। ढांचे के साथ ढह रहे पत्रकारों की भी कमी नहीं थी। कुछ कैमरे तो मानस भवन की छत से भी फेंके जा रहे थे। इस घटना के दौरान हमें अपने सहयोगी सुनील छइयां की विशेष चिंता हो रही थी, पर कुछ नुकसान उठा सुनील छइयंा ने बहादुरी से इन गुंडों का मुकाबल किया और निश्चिंत भाव से  मानस भवन तक आ पहुंचे।

आगरा के हमारे साथी भानुप्रताप सिंह के लिए यह अयोध्या का प्रथम दर्शन था। वे यहां की गलियों से अनजान थे। पर घटना के तत्काल बाद वे गुपचुप यहां से निकल गये और अमर उजाला, आगरा के दफ्तर में फोन करके 12.30 बजे तक का सारा ब्यौरा भी नोट करा दिया। लेकिन वहां उन्हें शिवसेना के कुछ हथियारबंद लोग मिले जिन्होंने धमकी दी कि शाम तक कोई खबर भेजी गयी तो ठीक नहीं होगा। इसके बाद में हम अपनी गाड़ी की तलाश में हम काफी भटके और फिर एक लंबा रास्ता पकड़ कर कोई 7 कि.मी. का सफर तय करके लौटे। राह में भी कई जगह लूटपाट हो रही थी। हमारी गाड़ी का मुस्लिम ड्राइवर ढांचे पर हमले के बाद ही वहां से भाग गया था। उस गाड़ी में हमारे गर्म कपड़े थे। समय याद नहीं कि हम अपने ठिकाने पर कब पहुंचे। थोड़ी ही देर में हमारे साथी ओंकार यह खबर लेकर पहुंचे कि कारसेवकों ने तीसरा गुंबद भी गिरा दिया है।

पत्रकारों की ओर से राष्ट्रपति को ज्ञापन देने के पहले भी बहुत सी खबरें अखबारों में छप चुकी हैं। लेकिन कुछ सवाल अभी भी अनुत्तरित है तथा कुछ भ्रम भी जिनमें (1) क्या कुछ छायाकारों ने कारसेवकों को ललकारते हुए यह कहा कि ढांचे पर नहीं चढोगे तो फिर बढिय़ा फोटो कैसे बनेगी ? (2) क्या पीएसी के कुछ जवानों ने (जो ढांचे की सुरक्षा के लिए तैनात थे) कारसेवकों के पथराव के बाद सुरक्षा से बगल होते हुए छायाकारों और पत्रकारों की ओर इशारा किया और कहा कि हम तो तुम्हारी मदद कर रहे हैं, लेकिन यह लोग ही हमारी नौकरी ले लेंगे। तभी वे पत्रकारों और फोटोग्राफरों की ओर मुखातिब हो गए। लेकिन इन दोनों अफवाहों पर यकीन नहीं किया जा सकता है। विहिप-भाजपा  के लोग पत्रकारों पर हमले और लूटपाट का जिम्मेदार किसे ठहराएं,यह 10 दिसंबर तक तय नहीं कर सके। पत्रकारों के प्रेस पास राम जन्मभूमि न्यास की ओर से जारी हुए थे। न्यास के अध्यक्ष रामचन्द्र दास परमहंस और उपाध्यक्ष नृत्यगोपाल दास ने 10 दिंसबर को देशी-विदेशी पत्रकारों पर 6 दिसंबर को हुए हमलों की माफी मांगी। इसके बाद औरों ने भी माफी मांगी। पर पत्रकार अभी तक इस नतीजे पर नहीं पहुचें यह हमला सुनियोजित था या अकस्मात। चूंकि अभी तक एक भी कैमरा या सामान की रिकवरी नहीं हो सकी हैं, ऐसे में यह तो साफ है कि यह सब अपराधी किस्म के लोगों का काम है। पर कुछ ऐसे वरिष्ठ पत्रकार भी हैं, जिन्हें यह सुनियोजित लगता है। अयोध्या के वरिष्ठ पत्रकार त्रियुग नारायण तिवारी कहते हैं प्रेस पर हमले बाकायदा एक संकेत के तहत हुए। ढांचा ढहाने की योजना बनाने वालों ने प्रेस के लिए भी एक दस्ता बना रखा था और वे ही कैमरे तोडऩे, पत्रकारो को पीटने और उन्हें बंधक बनाने के साथ अयोध्या में टेलीफोन के तार काटने में लगे थे, ताकि खबर तत्काल बाहर न जा सके।

प्रेस पर हमले का प्रत्यक्ष दोषी तो विहिप का अपना मीडिया सेंटर है जिसने इस बार कवरेज में पत्रकारों को परेशानी न हो, इसके मद्देनजर राम जन्मभूमि न्यास की तरफ से प्रवेश पत्र जारी किया था। बिना इसके प्रवेश नहीं हो सकता था। हर पत्रकार को वह परिचय पत्र डिस्प्ले करना था। जिसा प्रशासन को भी पता था कि यहां बड़ी संख्या में विभिन्न प्रांतों के साथ विदेशी पत्रकार भी पहुंचे हैं। फिर भी उनकी हिफाजत का काम उन्होंने पुलिस को नहीं सौंपा। विहिप के लोग यह दर्शाते रहे कि उनकी ही छत्रछाया में पत्रकार सुरक्षित हैं। घटना के हफ्ते भर बाद 12 दिसंबर को न्यास के मीडिया सेंटर के निदेशक रामशंकर अग्निहोत्री  का बयान आया कि निश्चय ही इस घटना मे अपराधी तत्वों का हाथ था, जो अनियंत्रित होकर मानस भवन की पत्रकार दीर्घा में जबरन घुसे। विहिप तथा संघ परिवार इससे दुखी है। उनका कहना है कि चूंकि उस दिन पत्रकारों को न्यास ने आमंत्रित किया था, लिहाजा न्यास अपने दायित्व बोझ से मुक्त नहीं हो सकता। लेकिन विहिप को कवर करने वाले पत्रकार जानते हैं कि न्यास तो एक मोहरा है और इसको नाहक दोषी ठहराने का षडयंत्र रचा जा रहा है। मुख्य दोषी तो विहिप के नेता और उनके आमंत्रण पर अयोध्या पहुंचे कथित कारसेवक हैं जिन्होंने कारसेवा में लूट-डकैती के साथ महिला पत्रकारों से अभद्रता और छेड़छाड़ तक का काम किया है।

प्रेस ने जो भोगा, उसका अर्धसत्य ही सामने आया

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नई दिल्ली, 18 दिसम्बर : अयोध्या कांड में प्रेस के साथ जो सलूक हो चुका है, उसकी अनदेखी करते हुए मीडिया के लोग ही दो हिस्सों में बंट चुके हैं। दो बड़े पत्रकार संगठनों में एक-दूसरे के आरोपों को गलत ठहराने की होड़ लगी है। अयोध्या में  प्रेस के साथ क्या गुजरा, वह कुछ लोगों को अतिरंजित लग रहा है, जबकि कुछ लोग पत्रकार संगठनों के आंदोलन के तौर-तरीकों से असहमत हैं। इसी कारण अयोध्या में प्रेस के साथ जो कुछ घटा है, उसका अर्धसत्य ही सामने आ सका है। दरअसल, अयोध्या में जो पत्रकार उस समय मौजूद थे, वे यह इसाइनमेंट लेकर नहीं पहुंचे थे कि उन्हें अयोध्या में पत्रकारों की पिटाई पर लिखना है। उस दिन अयोध्या-फैजाबाद में एक साथ इतनी घटनाएं हुई थीं कि साधन संपन्न 20 लोगों का ब्यूरो भी पत्रकारों की व्यथा के मुद्दे पर स्टोरी नहीं बना सकता था। जब दुनिया की उस दिन की सबसे बड़ी खबर अयोध्या बन गयी थी तो पत्रकार अपने पर बीती को खबर भला कैसे बना सकते थे?

वहीं दूसरी ओर बड़ी संख्या में देखी-विदेशी पत्रकार 7 दिसंबर को इस सूचना पर होटलों से चेकआउट करा कर लखनऊ की ओर रवाना हो गए कि कारसेवकों का एक जत्था पत्रकारों पर धावा बोलने आ रहा है। हमारे पास दो गाडिय़ां थीं फिर भी कारसेवकों के आतंक के नाते हम लोग साधन विहीन होकर अयोध्या में  6 दिसंबर की रात भर पड़े रहे और फैजाबाद के अपने होटल शान-ए-अवध तक नहीं पहुंच सके। अयोध्या से बाहर कहीं फोन भी नहीं मिल रहे थे। प्राय: पत्रकारों के घरवालों ने दफ्तर में पहुंची स्टोरी के आधार पर ही कयास लगाया कि वे सुरक्षित हैं। आनंद बाजार पत्रिका और टेलीग्राफ के दिल्ली कार्यालय के प्रमुख छायाकार जगदीश यादव की 6 दिसंबर की बाबरी मस्जिद ध्वंश से संबंधित दो फोटो रीलें मेरे पास थी। जब पत्रकार-छायाकार वहां पिट रहे थे, तो पड़ोस की एक झाड़ी के पास से जगदीश यादव निकले और रेशान हो रहे थे। हमारे सहयोगी सुनील छइयां ने जोखिम लेकर जो रील बनाई थी, उसे लखनऊ भेजना भी जटिल समस्या थी। इस काम के लिए सुबह जो गाड़ी हम तय करके लाए थे और विवादित ढांचे के पीछे जिसे खड़ा कराया था, उसमें हमारे कानपुर कार्यालय के एक सहयोगी बैठे थे। गाड़ी का ड्राइवर और हमारे सहयोगी दोनों वहां से ढांचे की तोडफ़ोड़ के साथ भाग खड़े हुए, क्योंकि पत्रकार सामने पिट रहे थे पीछे उनकी गाडिय़ां टूट रही थीं। मुश्किल से एक गाड़ी जुटाकर हम ओंकार सिंह को लखनऊ रवाना कर सके। तब तक अयोध्या-फैजाबाद में कफ्र्यू लग चुका था। ओंकार सिंह लखनऊ से 7 दिसंबर की शाम तक बड़ी मुश्किल से फैजाबाद वापस पहुंचे। मैं खुद अयोध्या-फैजाबाद के सरहद पर खड़ी प्रेस की एक गाड़ी में, जिसमें पहले से ही ड्राइवर समेत सात लोग सवार थे, उससे लिफ्ट लेकर फैजाबाद पहुंचा, ताकि अपने सहयोगियों का कफ्र्यू पास बनवा सकूं।

प्रशासन यहां प्रेस को कितना सहयोग दे रहा था, यह इसी से साबित है कि रात में आदेश जारी होने के बाद भी कफर््यू पास 8 दिसंबर की दोपहर तक बन कर हमारे पास पहुंचा। प्रशासन ने कफ्र्यू के  दौरान उन पत्रकारों के लिए जरुर छूट दे दी थी जिनके पास पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) भारत सरकार या राज्य सरकारों के प्रेस मान्यता कार्ड थे। लेकिन कई सुरक्षा जवान इन कार्डो को भी मान नहीं रहे थे। नए कलेक्टर और कमिश्नर की प्रेस से पहली मुलाकात 8 दिसंबर की शाम को जब पीआईबी की अधिकारी स्वतंत्रा राधाकृष्णन की सलाह पर हुई, तो पत्रकारों ने सबसे अधिक हल्ला कफर््यू पास को लेकर ही मचाया। न्यूज ट्रैक की कैमरा तथा काफी सामान गंवा बैठी टीम के कुछ सदस्यों ने कमिश्नर को बताया कि उन्होंने जो एफ.आई.आर. लिखवायी थी उसकी कापी तक हमें अभी नहीं मिली है। प्रेस को यहां केवल एक ही जगह ऐसी दिखी, जहां उनके लिए सम्मानजनक व्यवस्थाएं विद्यमान थीं। वह था फैजाबाद का केंद्रीय तार घर है। वहां प्रेस रुम से लेकर काफी इंतजाम थे।

अयोध्या में पत्रकारों और छायाकारों ने जिस आतंक और असुरक्षा में समय बिताया, वह दिल्ली और लखनऊ में सुनाई गई पत्रकारों की व्यथा से बहुत अधिक है।  जिन होटलों में पत्रकार ठहरे थे, वहां खतरा होने के बाद भी एक सिपाही तक तैनात करने की बात प्रशासन के दिमाग में नहीं आयी। प्रेस और प्रशासन में यहां इतनी गहरी संवादहीनता थी कि फैजाबाद में प्रशासन क्या करने जा रहा है, यह जानकारी अयोध्या में पत्रकारों को लखनऊ की खबरों को पढऩे के बाद मिलती थी। इन सबसे इतर जिससे पत्रकार किसी सुरक्षा की उम्मीद कर सकते थे, वह उ.प्र. पुलिस थी। लेकिन वह तो खुद ही पत्रकारों को पीटने के लिए कारसेवकों को उकसा रही थी। इसी नाते कई पत्रकारों को कारसेवकों का भेष बना कर रामनामी दुपट्टा धारण कर भागना पड़ा। पत्रकार क्यों पिटे ? इसके लिए अगणित कहानियां और किस्से अब तक गढ़े जा चुके हैं। एक कहानी मार्क टुली और कुछ विदेशी पत्रकारों को लेकर उछाली हुई है। यह कि वे बिस्कुट उछाल कर कारसेवकों का भिखारी-सा पोज लेना चाहते थे। इसी से स्वाभिमान के चक्कर में पत्रकारों की पिटाई शुरु हो गई, लेकिन जो मार्क टुली को जानते हैं, वे यह भी जानते हैं कि वे किसी भी भारतीय पत्रकार से अधिक भारतीय हैं और यहां के लोगों और परंपराओं तथा रीति-रिवाजों को तो गहराई से जानते ही हैं और स्थानीय कई बोलियों का भी उनको ज्ञान है। पर कहानी गढऩे से रोक कौन सकता है? गनीमत है मामला बिस्कुट तक है। पर दुव्र्यवहार का अंत 6 दिसंबर को ही नहीं हुआ। यह आगे भी जारी रहा।

डेकन क्रॉनिकल की पत्रकार प्रभा, जनमोर्चा की सुमन गुप्ता, वरिष्ठ पत्रकार सुश्री रुचिरा गुप्ता, स्वतंत्र भारत की सरिता सिंह समेत कई महिला पत्रकारों पर भी कारसेवकों का कोप बरपा। इन्होंने किसी का क्या बिगाड़ा था? कुछ महिला पत्रकारों के साथ ऐसी बदसलूकी हुई कि अगर आम दिनों में हुई होती तो शायद ऐसा करने वालों को अयोध्या के स्थानीय लोग मार ही डालते। पर कारसेवकों की बदतमीजी के आगे सभी चुप थे। कई विदेशी-देशी पत्रकारों और छायाकारों की कम से कम सवा करोड़ रुपये की संपत्ति का नुकसान हुआ है और 50 पत्रकारों-छायाकारों की बुरी तरह पिटाई हुई है। जो मौके की नजाकत देख भागने में सफल रहे, वे ही पूर्णतया सलामत हैं। किसका कैमरा छिना, किसकी घड़ी और पर्स, ये बातें तो प्रकाश में आ ही गई हैं।  पर अयोध्या के वरिष्ठ पत्रकार वी.एन. दास से लेकर कृपा शंकर पांडे और त्रियुग नारायण तिवारी किस हालात में काम कर रहे थे या अयोध्या फैजाबाद के पत्रकारों पर क्या बीती यह किसी को क्या पता?  फैजाबाद अंचल कार्यालय में नेशनल हेराल्ड के ब्यूरो प्रमुख कृपाशंकर पांडे कहते हैं कि 30 साल से अधिक की पत्रकारिता में उन्होंने कभी न ऐसी घटना देखी है और न सुनी है। यह सब बड़े-बड़े नेताओं की मौजूदगी में घटा। श्री पांडे को सहयोग देने लखनऊ कार्यालय से कौमी आवाज के संवाददाता ओबैदुल्ला नासिर, नेशनल हेराल्ड के पी.के. दामोदरन और मुख्य फोटोग्राफर नैयर जैदी के साथ 6 दिसंबर को जो बीती उससे वे इतना आतंकित थे कि 7 दिसंबर को अयोध्या ही नहीं गए। इनकी पिटाई हुई और कैमरा तोड़ दिया गया। श्री पांडेय ने जब हेराल्ड के महाप्रबंधक  से कहा कि वे कहीं नजर नहीं आ रहे हैं तो उनका जवाब था कि आप ही जो कुछ रिपोर्ट कर सकें वही ठीक है, वे लोग बेहद डर गए हैं।  

विहिप की हिटलिस्ट में शामिल फैजाबाद के अखबार जन मोर्चा की वरिष्ठ पत्रकार सुश्री सुमन गुप्ता का कैमरा छीन लिया गया और उनके साथ दुव्र्यवहार हुआ। इसी तरह अमृत प्रभात इलाहाबाद के फोटोग्राफर एस.के. यादव द्वारा खींची गई रील को कब्जे में लेने के लिए कारसेवकों ने उनकी आयातित जैकेट का चीथड़ा कर डाला। 7 दिसंबर को भी कैमरा रील वीडियो कैमरा छीनने की घटनाएं घटीं। लालकृष्ण आडवाणी के आगमन पर भी कुछ पत्रकार अकबरपुर में भी पिटे, जबकि 12 दिसंबर को वीडियो फिल्मांकन को लेकर फैजाबाद जिला अस्पताल में दो लोग कारसेवकों की चपेट में आए। अयोध्या में पत्रकारों पर क्या बीती, यह पता राम जन्मभूमि थाने से नहीं लग सकता। फिर भी अयोध्या जांच आयोग और भारतीय प्रेस परिषद अगर वास्तव में इन घटनाओं की तह में जाना चाहते हैं, तो उसका काफी ब्यौरा फैजाबाद के तीन मुख्य होटलों में ठहरे पत्रकारों के पते और अखबारों के मार्फत मिल सकता है। अयोध्या में भारतीय प्रेस परिषद को मलबा भी नहीं मिलेगा। उसे भी वे राम भक्त उठा ले गए हैं, जिनके सबसे बड़े शत्रु पत्रकार थे। क्या आयोग भविष्य के लिए कुछ ऐसा पुख्ता बंदोबस्त कराने में मददगार हो सकेगा जिससे दोबारा ऐसी घटनाएं न घटे। इस कांड में केवल विहिप दोषी हैं और प्रशासन साफ-सुथरा, ऐसा भी नहीं है? गलतियां दोनो तरफ से हुई हैं। पर देखना यह है कि सजा किसे मिलती है? जहां तक पत्रकारों का सवाल हो तो जिसने अयोध्या में यह सब देखा है, उन्हें यह मंजर जिंदगी में कभी भूलेगा नहीं। 

(वरिष्ठ पत्रकार अरविंद कुमार सिंह की किताब ”अयोध्या विवाद : एक पत्रकार की डायरी” से साभार)

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0 Comments

  1. chandan srivastava

    March 23, 2010 at 10:08 am

    वाकई अरविन्द जी आप दिलेर पत्रकारों की ही बदौलत उस काले रविवार का काफी सत्य दुनिया के सामने आ सका. मुझे याद आता है कि उसी दौरान दैनिक जागरण धीरे धीरे अपना विस्तार बढ़ा रहा था और इसकी ख़बरें कारसेवकों और मंदिर आन्दोलन का पक्ष लिए हुए छपती थीं. अपनी प्रसार संख्या बढ़ाने के लिए इस अख़बार ने यही तरीका अपनाया हुआ था. मेरी उम्र उस वक़्त ग्यारह साल थी पर मुझे याद है कि दैनिक जागरण के मुख्य पृष्ठ पर एक बॉक्स आईटम छपा था जो शब्दशः तो याद नहीं पर उसका सार ये था कि “एक बीबीसी के पत्रकार ने कारसेवकों को कहा कि कार्सेवक्स आर बेगर. इसके बाद एक चांटा उस पत्रकार को पड़ा.” ये खबर ऐसे लिखी गयी थी जैसे कारसेवकों की छोटी सी वीर गाथा हो.

  2. KUNVAR SAMEER SHAHI journalist

    March 23, 2010 at 11:54 am

    sir ji ham log to aap jaise mhan logo ke anugami hai ..aapke vicharo se awgat hua is lekh ke madhyam se..aapne sahi likha hai ..chuki ham log ayodhya se jude hai hamne bhi un ghtnawo ko dekha hai ..patrkaro ke sath jo kuch hua wah bilkul glat tha..lekin mere samjh me nhi aata ki in sab ke baad hamne kya kiya..kya hamari jimmedari nhi thi ki ham apne upar huye atyacharo ke khilaf aawaz utthate..fir bhi jo nhi hua uski baat kya karna…abhi to hamne aapki book padha nhi ..lekin padunga jarur..hmari subhkamnaye aapke sath hai…

  3. prakash

    March 23, 2010 at 12:42 pm

    viprit paristhitiyon me kisi ghatna ko cover karne ke liye mauke par khada rahna kitna mushkil hota hai arvind sir ke lekh se pata chalta hai. aisi ghatnae aaj bhi rooki nahi hai. 2008 me delhi blast ke baad hue Batla Encounter ke baad jab Sabhi news Channels cheekh cheekh kar Breaking News chala rahe the Azamgarh me unke pratinidhi aaropiyon ke pariwar waalon aur akroshit gramino ke haathon Ghanto pit rahe the aur unke jina nahi bachne ki baat lagataar ki ja rahi thi. bachne ke liye gai force bhi hamla hua.badi mushkil se jaan bachi thi.

  4. Imtiaz ahmad ghazi

    March 23, 2010 at 1:34 pm

    arvindji apne likha ko bahut bebaki se hai; isme koi shak nahin.aplogon ne sahsik patrakarita ki hai; na jaane kitne naujawano ke preranasrotra haih aap.6dec 1992 par abtak do logon ki kitaben maine padhi hai,un sabme apne alag hatkar satik baat kahi hai. padh kar lagta ki shayad aapki baat jyada sahi aur pardarhi hai. magar ek jagah apne likha hai ki karsewak gumbad gira rahe the aur bhp-bjp ke loog aisa na karne ke liya maik se elaan kar rahe the, yeh baat kuch hajam nahin ho rahi. jab inko rokna hi tha to wahan ikattha hi kyo hue the. kya bhp-bjp ka maqsad masjid girana nahin tha.

  5. arvind kumar singh

    March 23, 2010 at 3:10 pm

    Imtiaz bhai
    mane jo dekha wahi likha hai.bahut si baten hajam nahi hoti hai par yah sach hai ki manch se rokne kaa elan hua tha.lekin use sun kaun raha tha.vahan unmadiyon ka alag khel chal raha tha aur kya-kya ho raha tha vah 6-10 dec 1992 ki khabron se apko jankari mil jayegi.ayodhya par mane kitab librhan ayog ki tarah ki kasrat karke nahi likhi hai.mane jo dekha hai vahi likha.suni-sunai baaton par likhna apni adat me hi nahi hai.

  6. anil singh

    March 28, 2010 at 1:35 pm

    Arvind bhai, congrats for this new book. samaj ke samne sach ana hi chahiye.allahabad engineering college ke ghar par baithiki ke yad taza ho gaye. likhna jari rakhiye. karmane vadhikaraste ma fhaleshu kadachan:

  7. ashish mishra

    November 25, 2010 at 5:13 pm

    सादर प्रणाम ..
    सर्वप्रथम बहुप्रतिक्षित और ऐतिहासिक पुस्तक के लिये हार्दिक बधाई….
    आशा है आपकी निष्पक्ष, बेबाक एवं साहसिक पत्रकारिता भावी पत्रकारों को भी प्रेरणा प्रदान करेगी । आपका निर्भीक पत्रकारीय जीवन युवा पत्रकाकारों के लिये प्रेरणा का श्रोत है।
    आशा है कि यह पुस्तक सिर्फ डायरी न रह कर एक ऐतिहासिक महत्व को प्राप्त करेगी……।

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