एक किताब ने की मीडिया में जातीय हिस्सेदारी पर बहस की शुरुआत : स्वतंत्र व युवा पत्रकार प्रमोद रंजन की हाल में प्रकाशित किताब मीडिया में हिस्सेदारी ने बिहार मीडिया जगत में नई बहस की शुरुआत कर दी है। बिहार में कार्यरत पत्रकारों की सामाजिक और जातीय स्थिति का विश्लेषण इस किताब में किया गया है। इसके संपादन में फिरोज मंसूरी, अशोक यादव, अरविंद, प्रणय, संतोष यादव व गजेंद्र प्रसाद आदि ने सहयोग किया है।
ये सभी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पिछड़ा और दलित चेतना की गतिविधियों में जुड़े रहे हैं। अपने अध्ययन के हवाले से प्रमोद रंजन ने दावा किया है कि बिहारी मीडिया में करीब 75 फीसदी स्थानों पर अकेले सवर्ण हिंदुओं का आधिपत्य है, जिसमें महिलाएं भी शामिल हैं। पुस्तक के अनुसार बिहार में कार्यरत पत्रकारों में 31 फीसदी ब्राह्मण, 11 फीसदी भूमिहार, 17 फीसदी राजपूत और 16 फीसदी कायस्थ शामिल हैं। पिछड़ी और दलित पत्रकारों की संख्या मात्र 11 फीसदी है। इस धंधे में करीब 16 फीसदी मुसलमान भी कार्यरत हैं, जिसमें अशराफ मुसलमानों की संख्या 12 फीसदी है।
इस पुस्तक में पत्र-पत्रिकाओं और खबरों अलग-अलग आयाम से देखने की कोशिश की गई है। इस पुस्तक में सबसे मजेदार तथ्य है पटना से प्रकाशित चार अखबारों के प्रमुख पदों पर कार्यरत पत्रकारों की जाति का विश्लेषण। इस विश्लेषण में इन अखबारों के 20-20 पदों पर कार्यरत पत्रकारों की जाति चिह्नित की गई है। पुस्तक के अनुसार ज्यादातर बड़े अखबारों के शीर्ष पद पर सवर्णों, खासकर ब्राह्मणों और राजपूतों का कब्जा है। हालांकि लेखक ने स्वीकार किया है कि इसमें कुछ त्रुटि संभव है। बिहार में जहां सब कुछ जातीय आइने में देखा जाता है, उसमें पत्रकारिता का जातीय विश्लेषण एक महत्वपूर्ण पहल है। इससे मीडिया का आंतरिक ढांचा समझ में आता है और कई बार खबरों की प्रस्तुति में पत्रकार की जाति का असर भी दिखता है। हालांकि सवर्णों के आधिपत्य वाली पत्रकारिता में गैर-सवर्णों की संख्या और प्रभाव भी धीरे-धीरे बढ़ने लगा है। यह शुभ संकेत है। यह बता देना भी संदर्भगत होगा कि लेखक और उनकी टीम के सभी सदस्य पिछड़ी जाति के हैं। किताब के लेखक प्रमोद रंजन से संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है। उनका मोबाइल नंबर 09234382621 है।
बृजेंद्र कुमार वर्मा
April 19, 2011 at 2:23 pm
जिस तरह से समाज में दलितों की स्थिति है बिलकुल वैसे ही पत्रकारिता में भी दलित पत्रकारों कि संख्या कम है. अभी तक ये था कि दलित पत्रकारों को इस क्षेत्र में आने का मोका नहीं मिल पा रहा था क्योंकि जो इन्टरव्यू लेने वाले हैं, वे सवर्ण हैं और ऐसे में उन्हें आगे आने नहीं दिया जाता. अब स्थिति दूसरी है जब से अखबार में उसके मालिक का जबरदस्त हस्तक्षेप हुआ है, दलितों को भी अपनी योग्यता दिखाने का मोका मिलाने लगा है….ये संख्या अभी और बढ़ेगी बस थोडा सा वक्त लगेगा !