मकसद की तलाश में जीवन : रूसी एम. लाला मेरे प्रिय लेखकों में हैं. गांधी स्मृति (30 जनवरी) के दिन उनकी भेजी किताब मिली. पुस्तक का नाम ‘फ़ाइंडिंग ए परपस इन लाइफ़, 26 पीपुल हू इंस्पायर्ड द वर्ल्ड. लेखक आर.एम.लाला. प्रकाशक हार्पर कोलिंस पब्लिशर्स इंडिया. कीमत 150 रुपये. हिंदी में पुस्तक का नाम होगा, ‘जीवन में मकसद की तलाश’. 26 लोग जिन्होंने दुनिया को प्रेरित किया. रूसी लाला की यह नयी किताब है. बमुश्किल एक माह पहले उनकी एक और पुस्तक कलकत्ता एयरपोर्ट पर खरीदी. आत्मकथा. पुस्तक का नाम ‘द थ्रेड ऑफ़ गॉड इन माइ लाइफ़’ (मेरे जीवन का ईश्वर से रिश्ता). इस पुस्तक की प्रस्तावना लिखी है, मशहूर कानूनविद फ़ॉली एस. नरीमन ने. यह पुस्तक 2009 के अंत में पेंग्विन बुक्स इंडिया से प्रकाशित हुई है.
1928 में जन्मे रूसी लाला को नजदीक से बाद में देखा. पर मिलने के दशकों पहले, उनके लेखन ने खींचा. उनकी दर्जनों महत्वपूर्ण पुस्तकें हैं. जिनमें चर्चित हैं, द क्रियेशन ऑफ़ वेल्थ : द टाटा स्टोरी. इनकाउंटर्स् विथ द ऐमनेंट, इन सर्च ऑफ़ लीडरशिप. बियोंड द लास्ट ब्लू माउंटेन: ए लाइफ़ ऑफ़ जेआरडी टाटा. ए टच ऑफ़ ग्रेटनेस: इनकाउंटर विथ द ऐमनेंट. द रोमांस ऑफ़ टाटा स्टील. उनकी हर पुस्तक जीवन के बड़े आदर्शो और मूल्यों से प्रेरित है. वह इतिहास के विद्यार्थी रहे हैं. इतिहास में जो Þोष्ठ लोग हुए या खुद रूसी लाला, अपने जीवन में जिन असाधारण लोगों से मिले, उनके बारे में उनके अनुभव, बातचीत या विेषण, अंधेरे में खड़े समाज या इंसान को रोशनी देते हैं. उनकी कई पुस्तकें पुरस्कृत हुईं हैं. खासतौर से कैंसर जैसे असाध्य रोग से गुजरते हुए उन्होंने अपने जो मार्मिक अनुभव लिखे हैं. वे एक-एक शब्द मन को छूते हैं. इस पुस्तक से उनकी असाधारण जीजिविषा और आत्मबल की झलक मिलती है. रूसी लाला की इस पुस्तक का नाम भी अनूठा है. सेलीब्रेशन ऑफ़ द सेल्स : लेटर्स फ्रॉम ए कैंसर सरवाइवर (1999).
19 वर्ष की उम्र में रूसी लाला ने पत्रकारिता शुरू की. 1951 में प्रकाशन का काम संभाला. 1964 में वह हिम्मत वीकली के सह-संपादक बने. बाद में सर दोराबजी टाटा ट्रस्ट के डायरेक्टर रहे. अन्य कई संस्थाओं से जुड़े. उनकी पुस्तकों का अनुवाद जापानी समेत कई भाषाओं में हुआ. छात्र जीवन में उनकी संपादित पत्रिका हिम्मत पहली बार पढ़ा. तब पत्रकारिता में उद्धेश्य, मकसद और मिशन जिंदा थे. उस दौर में भी हिम्मत पत्रिका (अंग्रेजी में) पूरे देश में अपनी छाप छोड़ चुकी थी. बहुत बाद में, कुछेक वर्षो पहले रूसी लाला को नजदीक से जाना. वह जीवन के श्रेष्ठ और बेहतर मूल्यों के पर्याय हैं. अत्यंत संवेदनशील, नैतिक, सजग, सामाजिक दायित्वों के प्रति चौकस और सर्वजनहिताय से प्रेरित. जीवन में दो-दो बार असाध्य बीमारियों से जूङो. फ़िर भी श्रेष्ठ जीवन मूल्यों व सत्वों के प्रहरी. कुछेक वर्षो पहले उनकी एक पुस्तक का दिल्ली में लोकार्पण हुआ, ‘इन सर्च आफ़ इथिकल लीडरशीप’. नैतिक नेतृत्व की तलाश. प्रभावी पुस्तक. उस पुस्तक से स्पष्ट है, कि जिन लोगों ने इतिहास बदला, देश बदला, समाज को दिशा दी, वे कैसे लोग थे? उनकी क्या खूबियां थीं? किस मिट्टी से वे बने थे? इन इतिहास नायकों को पढ़ते हुए पग-पग पर आज के बौने नेतृत्व उभरते हैं. अपनी इस नयी पुस्तक (फ़ाइंडिंग ए परपस इन लाइफ़ 2010) की प्रस्तावना में रूसी लाला ने सोरोकिन को उद्धृत किया है.
सोरोकिन एक जगह कहते हैं कि अंतत: जीसस, बुद्ध, महावीर, लाओत्से या फ्रांसीस असीसी के पास न हथियार थे, न लाखों लोगों पर उनके शारीरिक प्रभुत्व का दबदबा था, कि वे मूल्यों और संस्कृतियों की ऐतिहासिक दशा और दिशा बदल या तय कर सकें. न अपना प्रभुत्व बढ़ाने के लिए उन्होंने घृणा को हथियार बनाया, न ईष्र्या को. न लोभ-लाभ को या मानव समुदाय की स्वार्थपूर्ण लालसा या लिप्सा को ही सफ़ल होने की सीढ़ी बनाया. यहां तक की उनकी शारीरिक संरचना भी बड़े पहलवान (हेवीवेट चैंपियन) की नहीं थी. फ़िर भी अपने मुट्ठी भर साथियों के साथ इन लोगों ने लाखों-लाखों लोगों के व्यवहार, जीवन और मस्तिष्क को प्रभावित किया. संस्कृतियां बदल डालीं. सामाजिक संस्थाओं को नया कलेवर दिया. दृढ़ता से इतिहास की धारा को दिशा दी. इतिहास के बड़े से बड़े विजेता या कोई क्रांतिकारी नेता दूर-दूर तक प्रेम और स्नेह की इन प्रतिमूर्तियों से मुकाबला नहीं कर सकता. इनके कामकाज से जो बदलाव हुए और जितनी दूर तक इन्होंने मानव इतिहास को प्रभावित किया, उसकी बराबरी कहां कोई कर सका है?
सोरोकिन के इस उदाहरण से ही इस पुस्तक का मकसद साफ़ है. जीवन का मूल मंत्र तलाशना? हम इस संसार में क्यों हैं? क्या ईश्वर है? जीवन का अर्थ क्या है? ऐसे सवाल जो शाश्वत हैं, मौलिक हैं और जिनसे मनुष्य भागता है, उन पर चर्चा. बुद्ध ने इन सवालों से दरस-परस किया. महावीर के मन में ये उठे. लाओत्से ने इन पर गौर किया और ये मानव इतिहास में प्रकाश स्तंभ बन गये. शुरूआत में ही रूसी लाला कहते हैं कि हमारी आत्मा तीर्थ यात्रा पर है. जीवन भर हम अंतरयात्रा करते हैं. अपने-अपने जीवन के मकसद की तलाश. जीवन में मकसद न होने से लाखों लोग शराब में, नशीली दवाओं में शरण लेते हैं. अपराध में रमते हैं. भोग और इंद्रिय सुख में आंनद और मुक्ति चाहते हैं. संसार और समाज के ये चलते-फ़िरते रुग्ण इंसान हैं. इनके पास कोई मकसद नहीं है. जिनके पास अपार दौलत है, वे निर्बाध उपभोग में डूबते हैं या सेक्स में. द गुड लाइफ़ (अच्छे जीवन) की खोज में. पर इन सब के बावजूद अंत:करण में बेचैनी है. तड़प है. प्यास है. कहां है, सुख? कहां हैं, आनंद? इस विस्मित करने वाले संसार में मनुष्य अपनी जगह तलाशना चाहता है. वह जगह, जहां वह अपनी आत्मा का लंगर डाल सके. आश्रय ले सके. सुखद पनाह पा सके. जहां उसे दिशा मिल सके. जहां वह अपनी निजी संकीर्णताओं से उठकर समष्टि से जुड़ सके.
रूसी लाला अपनी प्रस्तावना में कहते हैं, जो यह पा लेते हैं, उनकी आत्मा में 80 वर्ष की उम्र में भी चमक है. जो नहीं पा सके हैं, 40 की उम्र में भी उनकी आंखों में सूनापन है. रूसी लाला अपने जीवन की बात भी बताते हैं. कैसे युवापन से ही उनमें जीवन को जानने की भूख थी. वह कहते हैं कि जब वह 14 वर्ष के थे, तो उनके एक माक्र्सवादी अध्यापक ने उनकी आस्था को खत्म किया. 16 वर्ष की उम्र में रूसी, नास्तिकता के रेगिस्तान में भटकने लगे. ईश्वर के अस्तित्व के खिलाफ़ तर्क-वितर्क करते. फ़िर जीवन में अनेक उतार-चढ़ाव रूसी ने देखे. वह ऐसे लोगों से भी मिले, जो आत्मसंतोष और ख्याति की परिधि से बाहर थे. हिम्मत के संपादक के रूप में उन्हें देश-दुनिया के अनेक प्रभावी लोगों से मिलने का मौका मिला. विनोबा भावे ने भी उन्हें गहराई से प्रभावित किया.
अशोक से लेकर गांधी, अब्राहम लिंकन, अल्बर्ट श्वित्जर के जीवन ने उन्हें सूत्र दिये. 120 पेजों की इस पुस्तक को उन्होंने छह अध्यायों में बांटा है. पहले अध्याय में तीन ऐसे महान लोगों का उल्लेख है, जिन्होंने जीवनमें मकसद होने की ताकत को दुनिया को दिखाया. मसलन महात्मा गांधी, अब्राहम लिंकन और अल्बर्ट श्वित्जर. दूसरे अध्याय में आकांक्षा (एंबिशन) और मकसद (परपस)की चर्चा. फ़िर कैरियर और मकसद (परपस) पर बात. वे प्रकृति मूलक मकसद और हासिल किये गये मकसद पर भी विचार करते हैं. तीसरे अध्याय में वह करुणा और संवेदना पर बात करते हैं. कैसे करुणा और संवेदना से प्रेरित काम लाखों की जिंदगी बदल देते हैं. इसके तहत मार्टिन लूथर किंग (अमेरिका), नेल्सन मंडेला व डेसमंड टूटू (दक्षिण अफ्रीका) का हवाला देते हैं. वह उल्लेख करते हैं कि इन तीनों ने इतिहास में खून-खराबा रोका. इतिहास की धारा को मोड़ दिया. फ़िर वह डॉ एपीजे अब्दुल कलाम की चर्चा करते हैं. भारत की उनकी चिंता, विकास की चर्चा, युवकों से लगातार उनका संवाद वगैरह हैं. अंतत: वह मकसद पाने के रास्तों की चर्चा करते हैं.
अंतिम अध्याय में वह कार्डिनल न्यूमैन की वह सुंदर, भावपूर्ण और अत्यंत मशहूर कविता उद्ध्रृत करते हैं, जिसने दुनिया को प्रभावित किया है. गांधीजी भी इससे गहराई से प्रभावित थे.लीड, काइंडली लाइट, ऐमड द इनसर्कलिंग ग्लूम,लीड दाउ मी ऑनद नाइट इज डार्क, एंड आई एम फोर फ्राम होमलीड दाउ मी ऑन.कीप दाउ माइ फ़ीट आई डू नॉट आस्क टू सीद डिस्टेंट सीन वन स्टेप एनफ़ फ़ार मी. इस भावपूर्ण कविता का हिंदी आशय होगा:- राह दिखाओ, हे मेरे कृपालु, सुखद रोशनी! चौतरफ़ा घेरते विषाद, उदासी और अंधेरे में.हे प्रभु, मुङो रास्ता दिखाओ.रात अंधेरी है, और मैं घर से बहुत दूरहमें रास्ता दिखाओ प्रभु. ताकि मैं अपने पैरों पर खड़ा रह सकूंइस अंधेरे में मैं रोशनी नहीं मांग रहा. दूर-दराज के दृश्य, नहीं देखना चाहता, मेरे लिए एक कदम काफ़ी है!
रूसी लाला इस कविता की अंतिम पंक्ति पर कहते हैं, उद्देश्यपूर्ण शब्द हैं. एक बार में एक ही कदम. ईश्वर की रोशनी में, मार्गदर्शन में, बिना अधैर्य के दूसरों के प्रति प्रेम और सदभाव के साथ. ईश्वर में और खुद में विश्वास के साथ, हम कदम बढ़ाएं. फ़िर हर एक के लिए प्रकृति से तय रास्ते, स्वत: खुलते हैं. मकसद साफ़ होते हैं. पुस्तक की अंतिम पंक्ति है. जीवन में तब तक बड़े मकसद या उद्देश्य आप नहीं पा सकते, जब तक खुद के दायरे से बाहर झांकना शुरू न करें. यानी स्व से ऊपर न उठें. यह किताब, मन के समुद्र में अथाह लहरें पैदा करती हैं.
लेखक हरिवंश जाने-माने पत्रकार और प्रभात खबर अखबार के प्रधान संपादक हैं.
shail rai
March 1, 2010 at 11:00 am
हर सवाल की एक उम्र होती है, जिंदगी की तरह। एक अनसुलझी जिंदगी के साथ कई साए अपने मायने तलाश करते हैं। गौर से देखें सब एक मुर्दा सवाल हैं। हर सवाल एक सवाल की टेक लेकर टिका हुआ है। क्योंकि सवालों से निकलते हैं सवाल। अंतहीन सिलसिला। ब्रह्मांड की तरह। एक भीषण रहस्यमय प्रवाह में तिनकों की तरह तैरती जिंदगियां। अपनी बेचैनी से लाचार किसी दूसरे की तलाश में। किसी दूसरे के सवाल पर बहस करती हुई। एक जिंदा सवाल का सामना करना मुश्किल होता है। क्योंकि सवाल में प्रजनन की क्षमता होती है। इस काले ब्रह्मांड में भय एक निश्चित दिशा का नियंता होता है। यही “मैं” हित या अहित होता है। व्यवस्था और अव्यवस्था यही संतुलन को दो छोर हैं। सवाल जो रोज पैदा होते हैं और रोज मरते हैं जिंदगी की तरह। और एक जिंदा सवाल जो सवालों का आईना होता है। बस और कुछ नहीं। एकदम खाली। हर सवाल को शुरु शुरु में अपना अक्स कुछ अजीब लगता है।
फिर ऊबन होती है। सवाल की तरफ मत देखिए मर जाएगा। फिर देखिए फिर जिंदा है। जादू की तरह। आपके “मैं” से टकराकर ही वो बिंब बनाता है। संसार की तरह