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दुख-दर्द

…कछु कानै, काम जनम भर रानै…

[caption id="attachment_17621" align="alignleft" width="99"]स्व. दिग्विजयस्व. दिग्विजय[/caption]: उदार व साफ समझवाले दिग्विजय जी : वर्षों पहले पढ़ा. मेनेंदर (ईसा से 342-292 वर्ष पहले) का कथन. जिन्हें ईश्वर प्यार करते हैं, वे ही युवा दिनों में मरते हैं. दिग्विजय जी के निधन की सूचना मिली. यह कथन फिर याद आया. भारतीय राजनीति में 70-75 के बाद लोग युवा दिखते हैं. वह तो 55 के ही थे. लगभग महीने भर पहले फोन से बात हुई. एक अंतराल के बाद. देर तक बातें होती रहीं. पहले निजी, फिर राजनीति और समाज की. बिहार की राजनीति को लेकर लंबी चर्चा हुई.

स्व. दिग्विजय

स्व. दिग्विजय

स्व. दिग्विजय

: उदार व साफ समझवाले दिग्विजय जी : वर्षों पहले पढ़ा. मेनेंदर (ईसा से 342-292 वर्ष पहले) का कथन. जिन्हें ईश्वर प्यार करते हैं, वे ही युवा दिनों में मरते हैं. दिग्विजय जी के निधन की सूचना मिली. यह कथन फिर याद आया. भारतीय राजनीति में 70-75 के बाद लोग युवा दिखते हैं. वह तो 55 के ही थे. लगभग महीने भर पहले फोन से बात हुई. एक अंतराल के बाद. देर तक बातें होती रहीं. पहले निजी, फिर राजनीति और समाज की. बिहार की राजनीति को लेकर लंबी चर्चा हुई.

उनसे भिन्न विचार थे. पर वे धैर्य पूर्वक सुने. कहा, कुछ ही दिनों बाद मैं और अनुराग जी रांची आयेंगे. पूरे एक दिन साथ रहने और बहुत सवालों पर सिर्फ बात करने. वह अत्यंत नेक इंसान थे. उनसे आप अपनी असहमति जता सकते थे. भिन्न विचार रखते हुए भी साथ रह सकते थे. एक अदभुत श्रेष्ठता (एक्सेलेंस), मर्यादा और मानवीय उष्मा थी. उनके न रहने की सूचना मिलते ही बुंदेली कवि महादेव की पांच पंक्तियां याद आयीं-

ऐंगर (पास) बैठ जाओ

कछु कानै (कहना है) काम जनम भर रानै (रहेगा)

इत (यहां) की बात इतईं (यही) रै (रह) जैहे (जायेगी)

कैबे (कहने को) खां रै (रह) जैहे (जायेगी)

ऐसे हते (थे) फ़लाने (वे)

कहावत बुंदेली में है. शब्दों के अर्थ भी दिये हैं. पर आशय है कि ऐ मित्र बैठो. कुछ कहना है. काम तो जन्म भर रहेगा. यहां की बात यहीं रह जायेगी. फिर यह बात कहने को शेष रहेगी कि फलां ऐसे थे.

अब यही शेष है, कहने को कि कैसे थे दिग्विजय जी? दो दशकों से भी पुराना संबंध रहा. मित्रों का उनका बड़ा संसार था. दल और विचार भले अलग-अलग हों, पर मानवीय संबंध और मैत्री प्रगाढ़. बाजार की दुनिया में जब संबंध नफ़ा-नुकसान के गणित से बनते-बिगड़ते हों, तब दिग्विजय जी का असमय जाना, निजी संसार में बड़ा सूनापन छोड़ गया. न जाने उनके साथ कितनी स्मृतियां हैं? दिल्ली, देवघर, रांची, पटना, गिद्दौर, मुंबई, लंदन, सूरीनाम, मसूरी, चेन्नई, सिताबदियारा, हजारीबाग, बोकारो वगैरह में. मेरे मित्र अनुराग चतुर्वेदी और वह साथ-साथ जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में पढ़े. दोनों के बीच प्रगाढ़ रिश्ता रहा.

वह उस विचार संसार की देन थे, जो रिश्तों में जीता था. दो दशकों के संबंध में कभी उन्हें अकेले नहीं देखा. मित्रों की मंडली साथ रहती थी. एक तरफ जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के श्रेष्ठ मनीषी अध्यापकों से उनका निजी संबंध रहा, तो दूसरी ओर अपने इलाके के गरीब से गरीब लोगों के बीच भी पैठ रही. उनकी शालीनता और समझ ही कारण थे कि पाकिस्तान के राष्ट्रपति मुशर्रफ़ की भारत यात्रा के दौरान भारत सरकार ने उन्हें साथ रहने के लिए चुना.

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वह बदलाव की राजनीति में हिस्सेदार होना चाहते थे. पर न उन्हें जीवन ने लंबा मौका दिया और न ही देश और समाज के हालात उस अनुकूल बने. उनका जाना, राजनीति से एक शिष्ट, उदार, समझदार और मानवीय चेहरा का असमय अंत है. यह हरिवंशवक्त है, जब भारतीय राजनीति को बंजर बनने से रोकने के लिए ऐसे अधिकाधिक संवेदनशील लोग भारतीय राजनीति में आयें. इस वक्त उनका असमय जाना सार्वजनिक जीवन में भी रिक्तता पैदा करता है. निजी स्तर पर, न भर पानेवाला नुकसान, पर देश और राजनीति की दृष्टि से एक उदार, साफ समझवाले, संवेदनशील राजनेता का अंत.

लेखक हरिवंश बिहार-झारखंड के प्रमुख हिंदी दैनिक प्रभात खबर के प्रधान संपादक है. उनका यह लिखा प्रभात खबर में प्रकाशित हुआ है. इसे वहीं से साभार लेकर यहां प्रकाशित किया गया है.

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0 Comments

  1. अमित गर्ग. राजस्थान पत्रिका. बेंगलूरु

    June 25, 2010 at 4:24 pm

    हरवंश जी, नमस्कार।
    उम्र और अनुभव दोनों में ही हम आपसे बहुत छोटे हैं, इसलिए आपको बधाई भी नहीं दे सकते। शब्दों के जरिए आपने किसी राजनेता के व्यक्तिगत जीवन को बेहद खूबसूरत अंदाज में बयां किया है। वह भी उस दौर में, जब राजनीति तथा राजनेताओं से आम आदमी का भरोसा ही उठ गया है। फिर भी…!

  2. संजय पाठक

    June 29, 2010 at 5:15 pm

    आदरणीय हरिवंश जी,

    नमस्कार,

    प्राय: राजनीति में जिस शुचिता और सौम्यता कि बात होती है, उस का आभाष स्मृतिशेष दिग्विजय जी से मिल कर हुआ था. सन २००० के आखिरी दिनों में एक मित्र के पिता जी (पूर्व रेल कर्मी) के कुछ कार्य वश, शेखपुरा निवासी एक मित्र के माध्यम से दिग्विजय जी से रेलवे बोर्ड के दफ्तर में मुलाकात का अवसर प्राप्त हुआ था. दोपहर के २ बज गए थे और भूख से हमारा बुरा हाल हो रहा था. बातचीत के दरम्यान ही किसी का फ़ोन आया और दिग्विजय जी बातचीत में तल्लीन हो गए. हमने अपने मित्र से अपनी बात कही और जल्दी चलने का अनुरोध किया. दिग्विजय जी ने शायद हमारी बात सुन ली और फ़ोन रखते ही मित्र से मेरा परिचय पूछा. मैंने उन्हें बताया कि मैं गोरखपुर का निवासी हूँ और राष्ट्रीय सहारा में कार्यरत हूँ, बोले – उपाध्याय जी, ये भी अपने ही तरफ के हैं. हम तो समझे कि ये दिल्ली के ही हैं. खैर बातचीत तो होती रहेगी, चलिए पहले कुछ पेट पूजा कर लिया जाय और तुरंत हम सभी को अपने विश्राम-कक्ष में ले जाकर शानदार भोजन कराया. उस के उपरांत उन्होंने अपने निजी सहायक को हमारे कार्य के बारे में उचित कार्यवाही सुनिसचित करने के साथ ही कार्य हो जाने के बाद हमें फ़ोन पर सूचित करने निर्देश दिया. एक लम्बे अन्तराल के बाद उनसे पुनः दिल्ली में एक निजी कार्यक्रम में मुलकात का संयोग बना और मेरी आशा के विपरीत उन्होंने मुझे बुलाया और बोले – शायद मैं आप को पहचान रहा हूँ, क्या आप मुझे जानते हैं ?

    हरिवंश जी, आप की विशिष्ट शैली में लिखित दिग्विजय जी पर केन्द्रित आप का यह पोस्ट पढ़ कर उन से मुलाकात, उनकी शिष्टता, सौम्यता, स्वागत-सत्कार की उनकी उदात्तता – बरबस याद आ गयी. भारतीय राजनीति को आज जिस तरह के राजनेताओं कि जरूरत है, दिग्विजय जी उन के रोल-मॉडल हो सकते हैं. उन का असमय जाना हम सभी के लिए, तथा खास तौर पर – बिहारी और भारतीय राजनीति के लिए निश्चित ही एक बड़ा आघात है. इश्वर उनकी आत्मा को चिर शांति दें तथा उन के परिजनों को इस से उबरने का संबल प्रदान करें.

    संजय पाठक, गोरखपुर

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