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इस युवा पत्रकार के सवालों का जवाब है आपके पास?

बेपरवाह जिज्ञासा : यशवंत जी, नमस्कार, अखबार की दुनिया में मेरा छह साल का सफर है। जहां पहले खड़ा था, लगभग आज भी अपने को वहीं पाता हूं। बस बढ़ गई हैं तो पारिवारिक जिम्मेदारियां। आपके पोर्टल पर गुब्बारे में मछली और कमर पर पत्थर बांधे कार्टून ने सोचने को बहुत मजबूर किया। कुछ प्रश्न हैं, उन्हें एक विद्यार्थी की हैसियत से आपके समक्ष रखना चाहता हूं। यह वह आवारा विचार हैं जिनको कभी कभी मेरे साथियों ने दुत्कार दिया। तो कभी किसी ने सहानुभूति से पुचकार लिया। कभी आपके शब्दों से इन पर रोशनी भी पड़ी लेकिन टुकड़ा-टुकड़ा, धज्जी-धज्जी। आपको भी पूरा हक है कि इन तर्कहीन सवालों विचारों को हाशिए पर डाल दें। दफना दें। …..मैं वादा करता हूं आप शायद मेरी आखिरी उम्मीद हैं। आपके बाद में अपनी इस बेपरवाह जिज्ञासा का जबाव किसी से मांगने की कोशिश नहीं करूंगा।

<p align="justify"><strong><font color="#003366">बेपरवाह जिज्ञासा : </font></strong>यशवंत जी, नमस्कार, अखबार की दुनिया में मेरा छह साल का सफर है। जहां पहले खड़ा था, लगभग आज भी अपने को वहीं पाता हूं। बस बढ़ गई हैं तो पारिवारिक जिम्मेदारियां। आपके पोर्टल पर <a href="index.php?option=com_content&view=article&id=3859:media-job&catid=27:latest-news&Itemid=29" target="_blank">गुब्बारे में मछली और कमर पर पत्थर बांधे कार्टून</a> ने सोचने को बहुत मजबूर किया। कुछ प्रश्न हैं, उन्हें एक विद्यार्थी की हैसियत से आपके समक्ष रखना चाहता हूं। यह वह आवारा विचार हैं जिनको कभी कभी मेरे साथियों ने दुत्कार दिया। तो कभी किसी ने सहानुभूति से पुचकार लिया। कभी आपके शब्दों से इन पर रोशनी भी पड़ी लेकिन टुकड़ा-टुकड़ा, धज्जी-धज्जी। आपको भी पूरा हक है कि इन तर्कहीन सवालों विचारों को हाशिए पर डाल दें। दफना दें। .....मैं वादा करता हूं आप शायद मेरी आखिरी उम्मीद हैं। आपके बाद में अपनी इस बेपरवाह जिज्ञासा का जबाव किसी से मांगने की कोशिश नहीं करूंगा। </p>

बेपरवाह जिज्ञासा : यशवंत जी, नमस्कार, अखबार की दुनिया में मेरा छह साल का सफर है। जहां पहले खड़ा था, लगभग आज भी अपने को वहीं पाता हूं। बस बढ़ गई हैं तो पारिवारिक जिम्मेदारियां। आपके पोर्टल पर गुब्बारे में मछली और कमर पर पत्थर बांधे कार्टून ने सोचने को बहुत मजबूर किया। कुछ प्रश्न हैं, उन्हें एक विद्यार्थी की हैसियत से आपके समक्ष रखना चाहता हूं। यह वह आवारा विचार हैं जिनको कभी कभी मेरे साथियों ने दुत्कार दिया। तो कभी किसी ने सहानुभूति से पुचकार लिया। कभी आपके शब्दों से इन पर रोशनी भी पड़ी लेकिन टुकड़ा-टुकड़ा, धज्जी-धज्जी। आपको भी पूरा हक है कि इन तर्कहीन सवालों विचारों को हाशिए पर डाल दें। दफना दें। …..मैं वादा करता हूं आप शायद मेरी आखिरी उम्मीद हैं। आपके बाद में अपनी इस बेपरवाह जिज्ञासा का जबाव किसी से मांगने की कोशिश नहीं करूंगा।

मैं जानता हूं इस पूरे पूछने-पाछने से मुझे कोई आर्थिक लाभ नहीं होगा लेकिन जो मिलेगा—

जहां कांरवां भूल जाते हैं रस्ता

वहीं से निकलती हैं मंजिल की राहें

लेकिन अब उम्मीद करता हूं कि कोई बड़ी बात नहीं होगी। सिर्फ सीधी सच्ची प्रतिक्रिया मिले तो बात हो। आपके पास आलोक तोमर हैं, जिनकी बातें बड़ी राहत देती हैं। उनसे भी पूछिएगा। साधारण से साधारण पत्रकार से लेकर बड़े नामों को पूरी फेहरिस्त है। वह भी शामिल होना चाहें तो क्या बात है।

–यह बात अक्सर मन में आती थी लेकिन आई नेक्स्ट के आगरा संस्करण में छपी एक खबर से आपसे कहने की भूमिका बन गई। खबर में बताया गया था कि महंगाई के जमाने में पति-पत्नी सहित चार सदस्यों वाले एक परिवार का न्यूनतम खर्च 14700 रुपये बैठता है। यानि कि अखबार स्वीकार करता है कि इससे कम में घर चलाना आज के समय बेहद कठिन है। इसके बाद भी—–

  1. इसी अखबार में काम करने वालों को छह हजार से दस हजार तक मिलता है, जिसने यह खबर लिखी उसे भी शायद….

  2. बहुत चर्चा हुई कि शोषण की बात कहने लिखने वाला पत्रकार ही शोषण का सबसे ज्यादा शिकार है। तो फिर एक ऐसी नियामक संस्था गठित करने के लिए सभी क्षमतावान पत्रकारों ने पहल क्यों नहीं की जिससे इस क्षेत्र में काम करने वालों के जीवन अधिकार कायम रहें।

  3. क्यों हमेशा समस्याओं पर ही बहस और चर्चा हुई। कभी हल के लिए जिम्मेदार लोगों ने पहल नहीं की। क्या इस भट्ठी में पढ़ी लिखी जवानियां इसी तरह होम होती रहेंगी।

  4. माना कि यह पेशा अधिकतर अपनी स्वेच्छा से ही चुनते हैं लेकिन अराजकता को मौन रहकर सबसे जागरूक वर्ग देख रहा है। यह क्या है।

  5. वह बड़ा पत्रकार जो मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री से लोकदायित्व की बात कहता है और पूछता है लेकिन अपने सिपाहियों और सहयोगियों को भूखे पेट निहत्थे मैदान में लड़ने को कहता है।

  6. समाज के प्रभावशाली और सक्षम लोगों की यह जिम्मेदारी है कि वह जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं के लिए तो इंतजाम करना सुनिश्चित करें।

  7. एक अखबार में लिखवा लिया गया कि हम शौकिया काम करते हैं वेतन नहीं मिलता। सभी खामोश रहे। अंदर भी बाहर भी। हंसते रहे व्यवस्था पर। कहां है नेतृत्व कर्ता हाब्स का लेबियेथॉन।

  8. क्या सिर्फ बातें, बहसें, आरोप, प्रत्यारोप, चर्चा,उचित-अनुचित पर ठहराव, अनिर्णय पर टिकी ब्लाग पर टिप्पणियां ही आएंगी। या फिर आएगी कोई ठोस पहल जो आंदोलन बनेगी। कोई मशाल जो रास्ता दिखाएगी।

———- अंत में, मुझे एक शायर का शेर याद आ रहा है…

मकतल में बैठे-बैठे हमें रात हो गई

जल्लाद इस कतार की कहीं इंतेहा तो हो

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आपका

दीपक शर्मा

[email protected]

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0 Comments

  1. ek patrkar

    January 27, 2010 at 11:23 am

    deepak ji ,,,namaskar … aap ne akhbar ke baare me likha hai main iss me electronic meddia ko bhi jodna chaunga ….keyo ki tv channel bhi bhaut tez aur unchi aawaz me samaaj ke me failay bhrushtachar aur soshan ka virod karti hai l…elkin tv channels me bhi soshan kam nahi hai ….waha sabse bada soshan naukri bina sifarish ke nahi lagti ….aur waha bhi salary kafi kam hoti hai …mai yeah manta hu ki kuch ek bade channels ko chor de to baki kisi bhi chneel me naukri ki koi grauntee nahi hai …..baki mujhe lagta hai ki aap ke prashno ka jawab kisi ke pass bhi nahi hai …keyo ki hamam me sab nangay hai ….aap mera matlab samajh he gaye honge

  2. Shashi Ranjan Verma

    January 27, 2010 at 11:25 am

    deepak ji,
    aapne bilkul sahi likha hai. aaj patrakaritha chatukarita ban gai hai. kahene ko to yah pade lihe logon ke liye yeh media hai lakin is media me wahi badhta hai jise chaploosi karni ya baat banani aatio kam ka koi mol nahi. ek baat aur media sabke shoshan ko ujagar karthi hai lakin yahan ho rahea shoshan ko kaun ujagar karega

  3. A. K. Sharma

    January 27, 2010 at 11:59 am

    If you have ability then why r you not change your company. More chane in market to develop for self.
    kamal to kichad me hi khilta hai na.
    Regds
    A. k. Sharma

  4. A. K. Sharma

    January 27, 2010 at 12:09 pm

    Pl. change the Organation more chanses in market

  5. M.RIZWAN QURESHI

    January 27, 2010 at 12:13 pm

    Deepak ji apka cell no. kya hai apse apke vicharo par baat karni hai aap hamse 096900-00964 par baat kar sakte hai ya fir apna cell no. [email protected] par mail kar sakte hai……

  6. pawan tiwari

    January 27, 2010 at 1:26 pm

    yes, deepak….u r right.

  7. bhanu pratap singh

    January 27, 2010 at 2:17 pm

    KATI PATANG KA RUKH THA MERE GHAR KI ZANIB, USE BHI LOOT LIYA LMBE HAATH WALON NE.

  8. Sachin Sharma

    January 27, 2010 at 2:55 pm

    Dost Sabse pehale sorry for NO ANSWER!!!!!!!!!!!!!!!

    Phir ek vichar : kya naitikta Kagaj mein hi hoti hai. Kyoun ki jis yug ko maine kagaj par padha hai bus woh hi naitik lagata. chahe woh histrory ki books hon ya badi badi moral ki books. Jis yug mein jee raha hun uske baare mein aapke vichar se mere vichar milate. PAR DOST MEIN US YUG KE BAARE MEIN BHI SURE NAHIN HUN JO MEINE KAGAJON MANE PADHA HAI. kyonki kagajo mein hum bhi bade lagate hain. Hamare aage aane jab hume kagajo mein padhange to nishchit hi bahut prabhabhit honge. kuchh aise ……………..
    na kalisha na shialaya na haram jhoote hain such to yeh hai hum jhoote hain tum jhoote ho and so n so …………………………………………………

  9. winit

    January 27, 2010 at 3:03 pm

    Deepak ji, ye vicharottejak lekh agar sirf uttejna paida karne ke liye hai to ap anshik roop se safal bhi ho sakte hai,
    ye wo open secret hai jo har koi janta hai ,shoshit patrakar bhi aur shoshan karne wale bhi…….
    maine electronic news channel ki naukri chhodi, noida chhod ke lucknow aaya uski vajah bhi isse milti julti thi..
    lekin mai chup nahi baitha,, mere piche aj 134 patrakar jo alag alag kshetro me apni sewaye de chuke hai, unko sath leke ek sangathan banaya hai aur wo apne arthik hito ke sath sath samajik jimmedari ka bhi vahan kar rahe hai….
    yakin janiye in punjivati media jagat ko napunsak pratirodho se nahi badla ja sakta apna jawab dene ki than baithiyega to karwan apne ap banta jayega;
    SIRF HUNGAMA KHADA KARNA MERA MAQSAD NAHI
    SHART YE HAI KI HALAT BADALNE CHAHIYE
    [email protected]

  10. पुनीत निगम

    January 27, 2010 at 5:07 pm

    दीपक भाई ,

    बात आपकी सोलह आने सही है। दूसरों के हक की बात करने वाला पत्रकार अपनी व्‍यथा किसी से नहीं कह पाता है । पर अगर वो कहे तो क्‍या कोई उसे छापेगा। क्‍योंकि अखबारों पर नियंत्रण तो मालिकों का ही होता है। और भाई मेरे, पत्रकारिता शेरसवारी होती है , जब तक आप शेर पर बैठे हैं तब तक आप का भोकाल टाइट है कि भाई बडा जिगरे वाला है पर कहीं गलती से उतर गये तो शेर खा जायेगा ।

    इसी तरह पत्रकारिता की गली में भी वन वे होता है। दूसरे शब्‍दों में पत्रकारिता के वाइरस होते हैं जो एक बार लग गये तो सारी जिंदगी ठीक होने की गुंजाइश नहीं होती । अपनी खबर छपी या चलती देख कर पत्रकार को वही सुख प्राप्‍त होता है जो बच्‍चा पैदा करने के बाद मां को होता है जिससे वो सारा दर्द भूल जाती है। आप भी शिकायतें चाहे जितनी कर लो पर पत्रकारिता को छोड आप भी नहीं पाओगे , क्‍योंकि छोडना होता तो कब का छोड लेते 6 साल से चिपके न होते ।

    एक बात और कोई किसी को तमंचा लगा कर तो पत्रकार बनाता नहीं है लोग स्‍वेच्‍छा से इस काम को करते हैं और पैसे कम मिलने/ न मिलने के बाद भी करते हैं कभी सोचा कि ऐसा क्‍यों होता है । क्‍योंकि काम और सम्‍मानजनक काम दो अलग अलग बातें हैं और इस काम में अभी भी थोडा बहुत सम्‍मान बाकी है। वैसे ज्‍यादातर तो परिचय पत्र की लालच में आते हैं कि पुलिस चेकिंग में भोकाल बना कर छूट जायेगें । या गाडी पर प्रेस लिखा कर रंगबाजी करेगें और दलाली करके पैसे कमायेगें । तो भाई मेरे, रंगबाजी करने , दलाली करने की भी कोई सैलरी देता है ।

    अब थोडी आदर्शवादी बातें – पत्रकारिता एक मिशन है । यह एक किस्‍म की समाजसेवा है । इसमें वो ही आये जिसमें सेवा करने का हौंसला हो , हिम्‍मत हो, वरना मूंगफली का ठेला लगा ले । गयारह साल पहले ग्रेजुएशन करके मैं इस वनवे में आया था। साथ साथ पढाई भी करता रहा आज एमबीए, एमए(समाजशास्‍त्र), एमएससी, एमसीए, एलएलबी, करने के बाद भी यहीं झक मार रहा हूं। क्‍योंकि कहीं और मन ही नहीं लगा ।
    पैसे कम मिले ,कहीं-कहीं नहीं मिले पर साला मन था कि यहीं चिपका रहा। कभी कभी गुस्‍सा भी आता था कि ये साले संपादक/प्रकाशक काम करा लेते हैं और पैसे देने में नानी मरती है पर अब जब मैं खुद उस पद पर हूं तो मैं भी सोचता हूं कि कोई फ्री में काम करने वाला मिले तो ज्‍यादा अच्‍छा है। पता है कि ये गलत है पर क्‍या करें मजबूरी है कम बजट में काम चलाना पडता है जैसे बहाने बता कर आत्‍मा को संतुष्‍ट कर लेता हूं।

    लगता है ज्‍यादा हो गया , कुछ बुरा लगा हो तो भाई एक रोटी ज्‍यादा खा लेना ।

    पुनीत निगम
    संपादक/प्रकाशक
    मासिक पत्रिका खास बात एवं साप्‍ताहिक खबरदार शहरी

  11. twinkle

    January 28, 2010 at 5:28 am

    दीपक जी आजकल आपके हमारे जैसे पत्रकार हर रोज टीवी में अखबार में सिर्फ एक ही मुद्दे को दिखाते है और वो है महंगाई…महंगाई वो मुद्दा जो झोपड़ पट्टी से लेकर कोठियों तक में गूंजता है…टीआरपी….के लिहाज से सबसे ज्य़ादा बिकने वाला मुद्दा है… ये पत्रकार नेता और संगठन सब समझते है….लेकिन चैनल में काम करने वाला पत्रकार या फिर अखबार में कार्यरत पत्रकार.. स्टोरी की खोज में उस बेचने के फेर में कुछ अलग करने के जोश में सब कुछ भूल कर सिर्फ इसी उद्देश्य में लगा होता है कि उसकी स्टोरी को पहचान मिले.. वहीं मालिक लोग..विज्ञापन से आए मोटी रकम का लेखाजोखा देखते रहते है…..मॉर्निंग मीटिंग में खबरो के डिस्कशन के दौरान हर रोज हम ये सुनते है कि आज दाल पर खेलो.. आज दूध पर खेलो….सरकार महंगाई कम नहीं कर रही…..राहत पैकेज सफल नहीं हो रहे आम आदमी बेहाल है.. इस खबर को अच्छे से तानो…..लेकिन इसी मिटिंग में बैठे उच्च पदाधइकारी सो कॉल्ड.. एडिटर्स ने ये सवाल कभी नहीं पूछा.. कि अपने नीचे काम करने वाले 8 से 15 हजार रूपए महिने वाले पत्रकार अपना खर्च कैसे चला रहे है…..सराकरी महकमो में मंहगाई भत्ता मिलता है.. डीडी सैसी जगह पर मिनीमम सेलरी 15 हजार है.. लेकिन चैनल में मालिक का बस चले तो फ्री में एक साल तक काम करा ले…..ये सवाल या शिकायत नहीं है.. ये बातें पत्रकारिता का वो हिस्सा है जिसे जब जब कुरेदा गया है….तब तब भावनाएं बाहर आयी है.. नहीं खबरो की तलाश में रेंगता हुआ पत्रकार यू हीं अपनी नौकीर को बचाने की जुगत में चला जाता है.. बाहर वाले से सवाल कर नहीं कर सकता पेशे का अपमान होगा.. सम्मान जनक नौकरी पर ठेस लगेगी और अपने ऑफिस में कह नहीं सकते …..नौकरी से हाथ धोना होगा….मालिक की मेहरबानी हो जाती है जब सेलरी वक्त पर आ जाती है.. और कोई क्या कहे तो दीपक भाई आपेक अंदर चल रहे जो सवाल है वो आज ऊंचे पदों पर बैठे पत्रकारों के अंदर भी उठे होंगे.. लेकिन तब जब वो आपकी स्थिती में होंगे… आज तो हालात वहीं है जो पुनीत जी ने कहा फ्री में ही कोई मिल जाए तो फिर कोई लरी में पत्रकारिता क लिए प्लॉट क्यों दे……इसलिए अच्छा है अपनी खबर को देखर खुश हो जाइए… और इन सब माया से ऊपर उठ जाइए… दिलो दिमाग में एख बात अच्छे से बैठा लिजिए….भइया सब माया है…..भगवान ने धरती पर ऊतारा है तो पेट भी भरेगा….इंतजार करों तुम्हारा वक्त भी आएगा….फिर कहीं ना कहीं जुगाड़ फिट ह जाएगा

    धन्यवाद

    एक पत्रकार

  12. Rishi Dixit

    January 28, 2010 at 5:43 am

    दीपक जी यदि पत्रकार और उसके परिवार को भरपेट भोजन मिलता रहा तो वह ऊंगने लगेगा। देश और समाज की बुराइयों पर कलम घिसने की जहमत नहीं उठायेगा। इसीलिए पत्रकार जितना पीड़ित होगा उतनी ही उसकी कलम आग उगलेगी। वही आग पत्रकारिता की पहचान बनेगी। शायद यही सोच इस पेशे को जिंदा रखे हुए है। धैर्य रखें। परेशान न हों जौहरी सौने को भी आग पर तपाता है।

  13. purnesh verma

    January 28, 2010 at 6:11 am

    प्रिय दीपक जी आपकी जिज्ञासा को पढा और समझा। इससे रूबरू होने के बाद इतना तो यकीन हो गया कि दूसरों की अच्‍छाइयों, समाज की बुराइयों व लोगों की मुसीबतों पर जीवन भर आवाज उठाने वाले अपने साथ होने वाली नाइंसाफी के बारे में भी सोंचते और समझते हैं। विडम्‍बना यह है कि मीडिया जगत में समय के साथ सब कुछ कार्पोरेट हो गया , अगर नहीं बदली है तो सिर्फ पत्रकारों से नाम के बदले काम लेने की सोच। सोंचना यह है कि इसके लिए जिम्‍मेदार कौन है।

  14. Niranjan Parihar

    January 28, 2010 at 8:49 am

    लिखा बिल्कुल सही हा। हालात भी यही है। माहौल को बदलने का माद्दा रखने वाला पत्रकार अपना हालात को बदलने में नाकाबिल है, यह सही है। पर, यह आज की बात नहीं है। यह रीत पुरानी है। पहले लोग पेट पालने के लिए पत्रकारिता में नहीं आते थे। वे काम करने आते थे। समाज को बदलने के लिए आते थे। सो, सारी तकलीफों के बावजूद काम करते रहते थे। इसलिए उनको किसी भी किस्म की तकलीफ या शोषण का अहसास ही नहीं होता था। पर अब लोग पत्रकारिता में काम करने नहीं आते। एक मकसद तो लोकर आते हैं। लेकिन उस मकसद के साथ दिसरा मकसह भी होता है, पेट पालने का। पर, जब पेट आगे आ जाता है, तो सारे मकसद खत्म हो जाते हैं। मेरा कहना – लिखना खराब लगेगा। मगर, पत्रकार अगर पेट के लिए काम कर रहे हैं, तो मालिक लोग भी तो अपने पेट के लिए ही अखबार निकाल रहे हैं। सो पत्रकारिता की नौकरी के जरिए पेट पालने की आस में किसी को भी अपना बहुमूल्य वक्त खराब करने की जरूरत नहीं हैं। जब हम नौकरी कर रहे होते हैं, तो पत्रकार बाद में और पहले अपने मालिक के नौकर, मालिकजी की कंपनी के एंप्लोई होते हैं। सो, नौकरी करके कोई प6कारिता ना कर पाया है, और ना ही कर सकेगा। यह अपना मानना है। पता नहीं, आप क्या मानते है?

  15. anil sharma

    January 28, 2010 at 11:35 am

    dear sky is open, dont cry on situation, Khud ko kar buland ethna ki kudha (market) apka swagat karey

    anil sharma

  16. S P Yadav

    January 28, 2010 at 2:40 pm

    yes, deepak….u r right. I am agreeYour view.

  17. रमन

    January 28, 2010 at 3:27 pm

    दीपक भाई, यदि पैसा बढ़वाने तक की ही बात है तो अपने सीनियर्स, डेस्क, संपादक के साथ व्यवहार बदलो। आपके शब्दों से ही लग रहा है कि आपमें अग्रेशन की कमी नहीं है, आप भी जानते होंगे कि आपके ही साथ काम करने वाले कुछ लोग — पानी मारकर — ज्यादा इन्क्रीमेंट हासिल कर गए और आप रह गए। भाई पानी भले ही न मारो लेकिन मक्खन तो लगाना शुरू करो, इससे आपके पैसे बढ़ने के चांसेज बढ़ेंगे।
    बाकी रही बात, यदि पूरे मीडिया जगत में पत्रकारों को गुजारे लायक पैसे दिलवाना चाहते तो हो इस विचार को छोड़ देना ही बेहतर होगा। सभी मीडिया ग्रुप मुनाफाखोरी के लिए अखबार-चैनल चला रहे है और खास बात यह है कि उनके लिए मुफ्त में काम करने वालों की बहुत बड़ी फौज भी तैयार खड़ी है। आप छोड़ोगे तो अगले एक-दो वर्ष के लिए उन्हें आपको दी जाने वाली सेलरी से भी निजात मिल जाएगी।

  18. रमन

    January 28, 2010 at 3:28 pm

    उपर नाम सही नहीं आया

  19. desh deepak singh

    January 28, 2010 at 5:49 pm

    deepak bhai mey tho kahta hu ki chord do inkey barey mey kuch kahna bus itna maan lo ki AGAR INHEY GURUR HAI KI HUMEY PATAL MEY DHASA KER RAKKHEYNGEY……THO HUMARI BHI JHID HAI KI HUM ASMA KOCHUKAR DIKHAYNGEY….. Pichley 5 saal ka patrakarita ka anubhav leykar mey bhi aap ki katar mey khada hu leykin thaka nahi hu diga nahi hu nirantar bard hi raha hu

  20. ashok chouhan

    January 29, 2010 at 6:54 am

    Deepak bahai, Patrakarita ab sirf ek bazar bankar kar rah gaya hai aur es bazar me aaj ki tarikh me chor-lutero ka jamwada ho ga hai. Patrakarita aaj ki tarikh me kothe ki rakhailho bankar rah gail hai. Aur es peshe me jude log sirf………..ban kar rah gai hai. Duniya ki sachai dikahane aur likhane wale kabhi v aapne aangan me pade kude ko nahi dikhate. Itna yad rakhiyae ki ati ka aant nishchit hoto hai. Ek din eska bhi aant hoga aur usi din aapke sare sawalo ka jabab mil jayega.

  21. sanjay mishra editor mumbai news

    January 29, 2010 at 7:03 am

    kahte hain kadam chum leti hai khud badh ke manzil musafir agar apni himmat na hare……lekin apne aap ko hasiye par rakh patrakarita karne wale patrakar bhaiyon ke samne aaj jo daur chal raha hai wo behad kathin aur chunauti bhara hai jise sunane aur samajhne ka vaqt aaj kisi ke pas nahi hai…aaj to bas TRP..TRP..bas TRP aur kuchh nahi koi khabar yadi kisi channel par chal jaye to bas baki sabhi channel ke varishthh noida me baithh kar phone ghumane lagte hain ki kisi bhi soorat me unhe vah story chahiye..TRP ka chakkar hi yadi samapt kar diya jaye to yakinan koi bada sa badlav electronic media me dekha ja sakta hai aur rahi baat patrakaron ki to ve bas BOSS IS ALWAY RIGHT ki tarj par hi kaam karte hain…

  22. sanjay mishra editor mumbai news

    January 29, 2010 at 7:10 am

    aaj vartman me mahangai ke is daur me patrakaron ka ghar kaise chalta hoga ye koi sunana ya samajhna nahi chahta…aaj 12 saal beet gaye patrakarita kshetra me lekin aaj bhi hamari sthiti” jaise the” ki hai aur kuchh nahi.. isi baat par ek shair arj karta hun ki ” samay ne jab bhi andheron se dosti ki hai jala kar khud apna ghar humne roshni ki hai, saboot hai..saboot hai mere ghar me dhuyen ke wo dhhabbe jahan par ujalon ne kabhi khudkushi ki hai”

  23. danish azmi

    January 30, 2010 at 8:55 am

    khudi ko ker buland itna ,ki har taqdeer se pehle
    khuda bande se khud puche bata teri raza kyaa hai

    media shosan kaa sabse bada adda ager khaa jayee too galut nahi hoga .kyoo ki dosroo kay adhikaroo ki ladayee ladney wali media apne hi partishthan main kaam kerne waloon ki andekhi hoti hai aur ,media see jude hue loog jan adhikaroo ki bahali aur loktantra ki baat kerte hai shayed yee be mani hai aur shayed yahi karan hai ki media see logo ki vishwas uthta jaa rhaa hai , iss ke pichey bhi media pertisthan hi zimedar hai , samay per vetan naa dena ,vetan kay naam par shoshan kerna aur mandey kay naam par majboori kaa fayeda uthana aur office main baith ker media see judey hue log kafi tees maar khaa bante hai jab ki sachchai yee hai ki field main kaam kerne wala reporter aur stringer media perththan ki reedh ki haddi hai feer bhi uski koye sudhi lene wala nahi hai ,wahi janta kay adhikaroo ki ladaye kay naam per apni jeab bherne wali media 6 pay commision lago kerne ki wakalat apne apni samachar patra main kerte hue nahi thakte hai jabki sach too yee hai ki uss samachar patra main kaam kerne wale worker gareebi rekhaa see niche jiwan yapan kerne par majboor hai aur unki koye bhi sudhi lene wala nahi hai .yee wahi khaawat charitarhth hoti hai dhak kay teen paat . media apney pertishthan ki sachachaye ko chupa kar dosroo ki gultiyoo ko ujager ker yee sabit kerne main laga huaa hai, aur yee sabit kerna chate hai ki media kay log ki hum rashtra kay prarti samarpit hai ,mager yee sikkay kaa alag pehloo hai , hathi kay dant khane kay kuch aur dikhane kay kuch aur yee main nahi pure desh see media say juday hue loog jo chote padoo par media main kaam karte hai unki durdasha aur media say judi huye portal pedhne kay baad yee saaf hota hai ki media main har perkar kaa shoshan hota hai , eak mahila journalist ki maney too media course kerne kay baat wo eak naye navele news channel main lagi too waha per puri raat kaam kerne kaa dabaoo banaya jata thaa aur boss jab delhi see aataa too mumbai unit say juday hue loog yee kehte ki boss say nazdiki badha loo ,media main kiss tarah say gire hue loog aa chuke hai aur yee dbaoo wo zyada din tak nahi berdasht ker saki aur usni uss media group ko alvida keh diyaa , too is baat see saaf hai ki media main jamker har perkar kaa shoshan hota hai , sosit samaj ko adhikar dilane wali media iss vyaparik youg main apne mission say bhatak chuka hai , ab paap ki iss handi kay footne kaa samy aa chuka hai , wahi manday kay naam per stringroo koo 1000-1500 dene wale media group yee chate hai ki iss 1500 kay badle uss stringer say 20 guna zyada kaam karayaa jayee aur uske badle milte hai sirf us stringer koo 1000-1200 yee khani print media ki hai jab ki editor aur group editor khud apna Ta/Da aur selary lakoo main banate hai aur pure mahine main sirf 15 artical likhte hai aur stringer aur reporter ko heen bhawna say dekhte hai ager aisa nahi hai too unkio bhi jiwan yapan kerne itni salary dena chahiyee magar aisa naa kar media kay loog apney hi samaj kay logo kaa soshan karne par amada hai media shoshan kerne waloo ,aur shoshitoo kaa addaa banta jaa rhaa hai , media kay logo nay waqt rehte iss per jintan manan nahi kiyaa too wo din door nahi jab media pertishthaan ki khbareen sabko hila ker rakh dengi aur sawaloo kaa jawab shayed hi media kay logo kay pass rahey aur desh key kisanoo ki tarah media say jude hue loog iss mehgai aur kaam vetan main khud kushi kerne per majboor honge.

  24. sunil saral

    January 30, 2010 at 12:27 pm

    deepak babu aap yeh likhkar kya aur kisse kahna chate hai. apni vifalta ke liye dunia ki sahanubhuti batorne se kya hoga. agar parivar ka kharch nahi chalta to ande ka thela laga sakte hai ya sarkari babu ya ias bhi ban sakte hai. sabhi option khule hue hai. aap kisse madad mangne ya apne sawalon ka uttar maan rahe hai. inke uttar aap khud kyon nahi dete. aapne is samasya se niptane k liye kya kiya hai..darasal yah samakya hai hee nahi yeh jeevan ka yatharth hai.. sadiyon se aise sthitiyann rahi hai aur aage bhi bani rahengi. dusri bat yeh jindagi ek sangharsh hai..jo jeetega wahi aage badhega. aur sab to jeet nahi sakte hai…to apne ko majbut kare aur jeetne ki kosis kare..isi proffession se bina kisi k sahare logon ne bahur kuch haasil kiya hai…bali hamesha bakre ki dee jati hai, sher ki bali dete hue kabhi suna hai. to dipak g sher bane. sawal jawab se kuch nahi hoga…

  25. उपदेश अवस्थी

    January 31, 2010 at 4:21 am

    आपके ज्यादातर हमले समाचार पत्र के प्रबंधन की ओर किए गए हैं। आपने संपादकीय विभाग की ओर से प्रतिनिधित्व किया है तो प्रबंधन की ओर से प्रतिनिधित्व करने का दायित्व मैं स्वयं उठाता हूं और क्रमशः उनके उत्तर प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूं।
    इससे पूर्व आई-नेक्स्ट में छपी उस खबर पर मेरे भी दो शब्द, जिसके कारण दीपक बाबू के दर्द को शब्द मिल गए। क्या दीपक बाबू ने यह पता लगा लिया है कि उक्त खबर जिसमें लिखा है कि पति-पत्नी सहित चार सदस्यों वाले परिवार का खर्च 14700 रुपए होता है, आई नेक्स्ट के संपादक महोदय ने प्रबंधन से पूछकर छापी थी। यदि नहीं तो यह स्वतः स्पष्ट है कि इस खबर से अखबार के स्थानीय संपादक सहमत हो सकते हैं, अखबार के मालिक या प्रबंधन नहीं। क्या खबर लिखने वाले पत्रकार महोदय कोई अर्थशास्त्री थे या इस खबर का स्त्रोत वित्तमन्त्रालय से जुड़ा था। आईनेक्स्ट के संपादक महोदय ने यह खर्चा केवल आगरे के लिए माना था या पूरे भारत के लिए और सबसे बड़ी बात यह कि क्या प्रतिमाह 14700 रुपए से कम आय वाले लोग जीवित नहीं हैं…? यदि हैं तो इस खबर को सिरे से खारिज कर दिया जाना चाहिए और दीपक बाबू (यहां दीपक बाबू से तात्पर्य मेरे मित्र दीपक शर्मा के शब्दों से सहमत सभी पत्रकार साथियों से है) को यह पता लगाना चाहिए कि आखिर कैसे यह तय किया जाता है कि एक व्यक्ति को जीवनयापन के लिए न्यूनतम कितना खर्च करना पड़ता है।
    अब शुरु होते है प्रश्नपत्र के क्रमशः उत्तर
    1. इस अखबार में क्या भारत के सभी अखबारों में 1500 रुपए के हॉकर से लेकर 5 लाख+ कुल नेटप्राफिट का 1.2 प्रतिशत प्रतिमाह वेतन तक के सीईओ काम करते हैं। सवाल यह उठता है कि क्यों एक हॉकर को 1500 रुपए दिए जाते हैं और एक सीईओ को लाखों। सवाल यह भी है कि वेतन का निर्धारण आखिर किस बात पर किया जाना चाहिए, मंहगाई के आधार पर या योग्यता के…?
    2. दीपकबाबू देर अभी भी नहीं हुई है आप क्रान्तिकारी बन जाइए, आप कीजिए ऐसी नियामक संस्था का गठन जो अखबारों में काम करने वालों के जीवन अधिकार कायम रखें। केवल पत्रकार ही क्यों, हॉकर से लेकर मैनेजर्स तक सभी के। आप क्यों चाहते हैं भगत सिंह का जन्म हो लेकिन पड़ौस में। आप खुद क्यों भगत सिंह नहीं बन जाते..? आप किसी अवतार की प्रतीक्षा में क्यों हैं…? क्या आपमें वो सभी चीजें नहीं हैं जो सुभाषचन्द्र बोस, भगत सिंह, लाला लाजपत राय या सरदार बल्लभभाई पटेल में थीं। ताकत नहीं है तो महात्मा गांधी का मार्ग भी है कुछ तो अपनाओ। आपका घर सुधारने कोई दूसरा क्यों आए…?
    3. क्योंकि हमेशा समस्याग्रस्त लोगों ने भी आपस में सभाएं की हैं। जिनके हाथ में समस्याओं के हल हैं उन्हें भी आमन्त्रित कीजिए। यदि आप चाहते हैं कि प्रबंधन आपका दर्द समझे तो आपको भी प्रबंधन का दर्द समझना होगा। प्रबंधन ने पढ़ी लिखी जवानियों को पीले चावल नहीं भेजे, आप खुद आए थे नौकरियां मांगने, पसन्द नहीं तो छोड़ दीजिए। हमारी बाध्यता हो जाएगी तो हम ज्यादा भी देंगे। जब कम मजदूरी पर लोग मौजूद हैं तो ज्यादा क्यों दें…? क्या आप तैयार हैं एक मटका 5000 रुपए में खरीदने के लिए, क्योंकि उस कुम्हार के महीने भर में केवल 2 ही मटके बिके थे, तीसरा आप खरीदने आए..?
    4. आपके प्रश्र्नक्रमांक 4 का उत्तर में उत्तरक्रमांक 2 में ही दे चुका हूं। अराजकता को मत देखिए, चूंकि आप 6 साल से पत्रकारिता में हैं अतः निश्चित रूप से योग्य हैं, और आपने भड़ास में लिखा अतः आप जागरुक भी हैं। आप क्यों देख रहे हैं। कानून की किताब उठाइए। देखिए श्रम कानून क्या कहते हैं। हाथ में जनहित याचिका लिए आगे बढ़िए। सुप्रीम कोर्ट आपकी प्रतीक्षा में है।
    क्योंकि वह बड़ा पत्रकार जानता है कि बैलगाड़ी के नीचे चल रहा कुत्ता, बैलगाड़ी के नीचे चल रहा है, बैलगाड़ी चला नहीं रहा।
    6. यह जिम्मेदारी किसने निर्धारित कर दी। हां, राजा का यह कर्तव्य अवश्य होता है कि उसकी प्रजा में कोई भूखा न मरे, और यह कर्तव्य अब सरकार की जि मेदारी है।
    7. सवाल यह उठता है कि क्यों आपके साथियों ने लिखा। आप सहन करोगे तो अत्याचार होते ही रहेंगे। सहन करना बन्द करो।
    8. मेरे खयाल से एक ठोस पहल आ गई है। आपको ही तय करना है अपने घर से सुप्रीम कोर्ट तक का रास्ता। यदि आप जीत गए तो यकीन मानिए दीपक बाबू भारत के हर प्रेसक्लब के भवन में आपकी मूर्ति लगेगी या फिर अपनी सभाओं में हम प्रबंधकों को भी आमन्त्रित कीजिए। छातियां पीटने के बजाए हमसे पूछिए कि आखिर क्यों हम आपका खयाल नहीं रखते। हमारे दर्द भी सुनिए, कोट और टाई के भीतर दिल हमारा भी है और यकीन मानिए इसी दिल के कारण आज आप 8-10 हजार वेतन पा भी रहे हैं। आपके धर्मप्रेमी आदर्श संपादकों के हाथों प्रबंधन रहता तो आज आज भी पत्रकारिता में करियर नहीं तलाश पाते, समाजसेवा ही कर रहे होते, वो भी जेब से पैसे लगाकर।
    दीपकबाबू सवाल उठाना आसान है, लेकिन संस्थान चलाना बहुत मुश्किल। हम चाहते हैं आपके जैसे युवा पत्रकार साथी हमारे साथ आएं और कंधे से कंधा मिलाकर संस्थान चलाएं। वेतन की समस्या नहीं है, आप संस्थाहित की बात तो कीजिए। यदि आप चाहते हैं कि वेतन संस्थान से मिले और खबरों के मामले में मनमानी का लायसेंस भी तो यह सम्भव नहीं है।

    हम बिल्कुल नहीं चाहते कि आप अपनी कलम बेचें, लेकिन हम यह प्रतिबद्धता अवश्य चाहते हैं कि यदि आपने अज्ञानतावश, भूलवश या जानबूझकर अपनी कलम का दुरुपयोग किया तो दण्डित करने का हक भी उसी प्रबंधन के हाथ में रहेगा जिसके नाम पर आप छातियां पीट रहे हैं।

    बिगड़े हुए हालातों को ठीक करना है तो संपादकीय के साथियों को अपनी आदर्श आचारण संहिता पर अमल करना होगा, जो वो भूलते जा रहे हैं।

    उपदेश अवस्थी
    उपमहाप्रबंधक
    राज एक्सप्रेस
    भोपाल

  26. deepak sharma

    January 31, 2010 at 2:04 pm

    उपदेश अवस्थी जी,
    आपके मशवरे के लिए शुक्रिया–समझ सकता हूं चोट गहरी लगी है। आप जहां बड़े पद पर हैं वहां से अक्सर लोग ऐसे ही देखते हैं। कॉस्ट कटिंग करके मालिकों को फायदा पहुंचाना। या किसी भी तरह फायदे का ग्राफ मेंटेन करके दिखाना ही विवशता है। –और आपने बिल्कुल सही कहा है—बैलगाड़ी को बधिया बैल ही खींचता है। कुत्ता नहीं। नायक्तव का प्रतीक सांड भी नहीं।

    बकौल जमना प्रसाद राही—

    न सताइश की तमन्ना, न सिले की परवाह
    गर नहीं न सही मेरे अश्आर में मानी न सही
    दीपक शर्मा-पत्रकार
    098370-17406[b][/b]

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