वक्त है एक ब्रेक का। दौड़ती हांफती इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में दौड़ते-हांफते पत्रकारों का ब्रेक…। कुछ अपने लिए ब्रेक और कुछ अपनी दुनिया के लोगों के लिए ब्रेक। 25 कहानियों का ब्रेक। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की चकाचौंध भरी दुनिया के भीतर के स्याह अंधेरे, भरी पूरी जिंदगी के खोखलेपन, आसमान के तारे तोड़ लाने वाली बहादुरी के पीछे बैठे भय का मुकम्मल दस्तावेज है- ‘वक्त है एक ब्रेक का‘।
ये एक किताब है, जिसे प्रकाशित किया है राजकमल प्रकाशन ने।
इस किताब में उनकी कहानियां हैं जो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के धुरंधर पत्रकार हैं। इसमें असिस्टेंट प्रोड्यूसर से लेकर चैनल हेड तक की लिखी कहानियां शामिल हैं। हर कहानी का कैनवास कहानीकार के इर्द गिर्द का माहौल है। पात्र भी वही हैं जो आस पास हैं, बस नाम बदले हुए हैं। किताब पढ़कर आपको ऐसा लग सकता है कि एक कहानी में जो लोग किरदार हैं वो किसी और कहानी का लेखक है, जिसमें पहला लेखक भी किसी किरदार में मिल सकता है। जो लोग टीवी की अंदरूनी दुनिया को जानते हैं, वो इसे बखूबी जान समझ सकते हैं। लेकिन ये कहीं से घालमेल नहीं है, बल्कि एक रोचक सिलसिला है। इस किताब का संपादन किया है हंस के संपादक राजेंद्र यादव, न्यूज 24 के मैनेजिंग एडिटर अजित अंजुम और वरिष्ठ पत्रकार रवींद्र त्रिपाठी ने।
संग्रह की पहली कहानी है, न्यूज 24 के एसोसिएट एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर राकेश कायस्थ की। डर लागे अपनी उमरिया से…। यकीन मानिए कि ये कहानी आपको राग दरबारी के शिल्प की याद दिलाएगी। कहानी में टीवी चैनल में काम करने वाले पोषित और शोषित दोनों तरह के पात्र हैं। बयालीस साल के वाचस्पति हैं, जो बोलते पहले हैं और सोचते बाद में। कई बार तो सोचना उनकी शान के खिलाफ होता है और दूसरी तरफ हैं वाल्मीकि, जो ‘हिलाते रहो’ में यकीन रखते हैं। वाल्मीकि हिल गए, लेकिन वाचस्पति को कोई हिला नहीं पाया, आखिर क्यों। पढ़िए। ये कहानी गुदगुदाती भी है, कचोटती भी है, डराती भी है।
बतौर पाठक मैं ये कह सकता हूं कि इस संग्रह की सबसे छू लेने वाली कहानी लिखी है, इंडिया टीवी के मैनेजिंग एडिटर विनोद कापड़ी ने। शीर्षक है- कितने मरे..। ये प्रोफेशन किस तरह इंसान को जानवर बना देता है, कितनी रुखाई और बेदिली है यहां और यहां वो भी हैं जिनके जेहन का रास्ता अभी भी दिल से होकर गुजरता है। जिस शीतल के नाम पर जान दे देता है भगवान सिंह… वो शीतल तो उसे पहचानती तक नहीं। इस कहानी पर आपको वितृष्णा होगी, क्रोध आएगा, शायद आंसू भी निकलें।
आईबीएन7 के मैनेजिंग एडिटर आशुतोष की कहानी ‘मृगमरीचिका’ की नायिका एंजला खुद मृग मरीचिका में भटक रही है। न्यूजरूम में उसकी हनक है, क्योंकि वो बॉस की दुलारी है। बॉस उसके लिए कुछ भी करने को तैयार। उसके सामने है एक मायावी दुनिया। इस मायावी दुनिया से वो बाहर निकलना चाहती है, जिंदगी के करीब होना चाहती है, लेकिन ये इतना आसान नहीं है। नायक से पूछती है-क्या मैं गंदी लड़की हूं..। फिर बोलती है-मैं दोहरी जिंदगी नहीं जी सकती। लेकिन उसके सामने जिंदगी खुद एक पहेली बन गई है, एक भंवर में फंसी वो छटपटाती है, लेकिन शायद इस भंवर से निकल पाना उसके बस में नहीं है। आशुतोष की ये छोटी सी कहानी दिल को छू जाती है, कई सवाल भी छोड़ जाती है।
न्यूज 24 के मैनेजिंग एडिटर अजीत अंजुम की कहानी है- ‘फ्राइडे’। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में बॉस। हर फ्राइडे को पूरे दफ्तर को इंतजार रहता है कि बॉस का चेहरा कैसा होगा। हर रंग के चेहरे का अलग मतलब। चढ़ती उतरती टीआरपी से बदलते चेहरे के रंग। बॉस को खुश करने में जुटे साथी। आइडिया वही जो बॉस मन भाए। कौन लगाएगा टीआरपी का बेड़ा पार। कोई आइडिया उछाल रहा है, किसी के पास पूरी लिस्ट है, कोई मन मसोस रहा है, किसी की बात अधूरी रह जाती है, क्योंकि बॉस ने बीच में ही उसे डांटकर चुप करा दिया है। रनडाउन पर बैठा पत्रकार, जिसके सत्तर भतार हैं। करे तो मरे, न करे तो मरे। वहीं लम्बी गाड़ी में घूमते और दफ्तर में जुगाली करते पॉलीटिकल एडिटर। दूसरे चैनल देखकर अपने चैनल को कोसना..। जान बचाने के लिए खबरों का जुगाड़ करते पत्रकार। खबरों पर कुंडली मारकर बैठी नागिन। अजीत अंजुम ने न्यूजरूम का ऐसा नक्शा खींचा है कि कहानी शुरू होने से लेकर खत्म होने तक पाठक न्यूजरूम से हिल नहीं पाता। बेलाग और बिंदास शैली में उन्होंने लिखा है….कहीं संकोच नहीं किया है। जो इस मीडिया में हैं और इसे जानते हैं, उनके सामने सिनेमा की तरह चलती है ये कहानी। हालांकि इस कहानी की गालियां आपको सन्न कर सकती हैं। ये कहानी जब लिखी गई थी तब टीआरपी शुक्रवार को आती थी। अब बुधवार को आती है। अगर आज की तारीख में ये कहानी लिखी जाती तो शायद इसका शीर्षक होता-वेडनेसडे।
आईबीएन7 के एक्जीक्यूटिव एडिटर संजीव पालीवाल की कहानी ‘बम विस्फोट’ अखबार से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में आए पत्रकार की अंतरसंघर्ष की कथा है। जिस पर बॉस की नजर टेढ़ी है। बार बार बेइज्जत होता है। गालियां सुनता है। नौकरी बचाने के लिए अपने वजूद को तिल तिलकर खत्म कर रहा है। सब कुछ सह रहा है और सपने में बॉस की गर्दन दबोचता है। आंख खुलती है तो पता चलता है कि वो गर्दन पत्नी की है। इसी दौरान दिल्ली में फटता है बम। बम से ज्यादा फटता है बॉस का गुस्सा। और उससे ज्यादा भयानक है कथा के नायक का विस्फोट।
स्टार न्यूज के संपादक शाजी जमां की कहानी- ‘एक एंकर का इश्क’ में जाजू साहब हैं, जिन्होंने दुनिया देख रखी है, उनकी आंखें कई इश्क देख चुकी हैं। चंद्रकांत का तमन्ना से इश्क भी देखा है। साधक और साधना का इश्क। लेकिन तमन्ना का इश्क था सिर्फ कैमरे के साथ। एक नाच है, जिंदगी का नाच, जिसमें बार बार सवाल गूजता है-क्या कभी किसी एंकर को इश्क होते देखा है..। स्टार न्यूज के एक्जीक्यूटिव एडिटर विजय विद्रोही की प्रेत पत्रकारिता खबरों से दूर होकर भुतहे रास्तों पर भटकते चैनलों को आइना दिखाती है। एक पुरानी हवेली में शूट की गई कपोलकल्पित प्रेत कथा। इस प्रेत कथा में एक ही सच था कि कथा से जुड़े दो लोग खुद प्रेत बन गए। सब कुछ प्रसारित हुआ, इस सच के सिवा। (ये कहानी जिन दिनों लिखी गई थी, उन दिनों आज तक पर ‘खौफ’, स्टार न्यूज पर ‘कौन है’, जी न्यूज पर ‘भूत बंगला’ और आईबीएन 7 पर ‘जिंदा हूं मैं’ जैसे प्रोग्राम आते थे और भूत के होने न होने का एहसास कराते इन प्रोग्रामों के लिए रिपोर्टर भूत और भुतहा हवेली की तलाश में निकलते थे।
आज तक के डिप्टी एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर राणा यशवंत की कहानी ‘ब्रेकिंग न्यूज’ में बंगाली उपन्यासों की तरह श्रृंगार है। स्टूडियो में प्रसन्न जोशी गरजते हैं तो घर में मोबाइल बजते ही उनकी पत्नी गरजने लगती हैं। दफ्तर में कई चुनौतियां हैं, बॉस के चेहरे पर मुस्कान देखने की चाहत है तो हेमंत सहाय का लटका हुआ चेहरा भी देखना चाहते हैं। एक मिताली है, जो हेमंत सहाय के हाथ लगती है। प्रसन्न जोशी हाथ मलते रह जाते हैं। इस कहानी में ये किरदार कौन हैं, आपको पहचानते शायद देर न लगे। हालांकि न तो जोशी आज तक में हैं और न ही सहाय।
स्टार न्यूज के सीनियर प्रोड्यूसर रवींद्र त्रिपाठी की कहानी उबकाई उस पत्रकारिता को आईना दिखाती है, जिसे किसी फैसले पर पहुंचने की जल्दबाजी होती है। शौहर की हत्या के आरोप में जेल पहुंची एक स्त्री की कहानी के बहाने रवींद्र त्रिपाठी ने इस बात का अच्छा खाका खींचा है कि जज बनती पत्रकारिता क्या से क्या कर गुजरती है।
एनडीटीवी इंडिया के सीनियर प्रोड्यूसर दीपक चौबे की कहानी-काटो काटो काटो.. कौतुक कथा है। त्यागी जी जो शेर थे, लेकिन राखी सावंत के चक्कर में बकरी बन गए, गलत चीज काट दी। काटो काटो का खेल पीसीआर में भी है तो न्यूज रूम में। हर कोई हर किसी की काट रहा है। न्यूजरूम का कोना महकाती चंदा में ब्यूरो चीफ की तरह कॉन्फिडेंस है, तो इसकी वजह क्या है। दीपक की इस कहानी का व्यंग्य बड़ा मारक है और भाषा बेहद चुस्त। एक सांस में पढ़ जाने वाली कहानी है।
आईबीएन7 के पंकज श्रीवास्तव की कहानी ‘दिव्या मेरी जान’ में रिपोर्टर का संघर्ष है। उस पर टीआरपी लाने वाली खबर का दबाव है, वो देख रहा है कि उसके साथी किस तरह माधवराव सिंधिया का भूत खोजकर बॉस की वाहवाही लूट रहे हैं। उसके पास खबरें हैं, लेकिन कभी वो बिक नहीं पातीं तो कभी उन्हें डाउनमार्केट कहकर खारिज कर दिया जाता है। उसके सामने सच यही है कि सौ गरीब मरकर भी उतनी बड़ी खबर नहीं बना सकते, जितना पांच अमीरों की बीमारी बनाती है..।
स्टार न्यूज की वरिष्ठ पत्रकार संगीता तिवारी की कहानी ‘चौथा पाया’ में मेज का चौथा पाया हिल रहा है, लोकतंत्र का चौथा पाया हिलते हुए आप महसूस कर सकते हैं। ये कहानी आपको भीतर तक हिला देगी।
बीबीसी की उत्तराखंड संवाददाता शालिनी जोशी की कहानी ‘स्याह-सफेद’ आपको राहत देगी, क्योंकि ये संग्रह की सुखांत कथा है। हर डर सही नहीं होता, इसकी बानगी है इसमें।
दिल्ली आज तक के एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर अमिताभ की कहानी- ‘होता है शबोरोज तमाशा मेरे आगे में’ तना हुआ बॉस है तो बिलबिलाता हुआ सबार्डिनेट। रात में दो बजे का एसएमएस भी है-तुम अगर मुझको न चाहो तो कोई बात नहीं, तुम किसी और को चाहोगे तो मुश्किल होगी..। ये प्रेम संदेश नहीं है, ये धमकी है ‘एम’ की। और भी तमाशे हैं, जो कहानीकार के सामने से रोज गुजरते हैं।
इनके अलावा इस संग्रह में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के वरिष्ठ पत्रकार राजेश बादल, मुकेश कुमार, गोविंद पंत राजू, प्रियदर्शन (एनडीटीवी), सुधीर सुधाकर (एईपी, न्यूज 24), रवि पराशर (जी न्यूज), रवीश कुमार (ईपी, एनडीटीवी इंडिया), परवेज अहमद (एआरवाई टीवी), नीरेंद्र नागर (नवभारत टाइम्स डॉट कॉम), अनुराग मुस्कान (स्टार न्यूज) और संजय नंदन (स्टार न्यूज) की कहानियां हैं। हर कहानी का कैनवास अलग है। हर कहानी जिंदगी के करीब है, क्योंकि ये जिंदगी से गुजरी हुई है। हर कहानी के पात्र आस पास ही हैं।
दरअसल जनवरी 2007 में साहित्यिक पत्रिका हंस का एक विशेषांक निकला था। ये पूरा विशेषांक इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर केंद्रित था। सारे कहानीकार इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े थे। ये एक शानदार कोशिश थी। राजेंद्र यादव के साथ इस अंक का संपादन किया था बीएजी फिल्म्स के मैनेजिंग एडिटर अजीत अंजुम और वरिष्ठ पत्रकार रवींद्र त्रिपाठी ने। ये अंक इतना लोकप्रिय हुआ था कि हजारों कॉपियां हाथों हाथ बिक गई थीं। जितने लोगों ने खरीदा, उससे ज्यादा तादाद उन लोगों की है, जिनके हाथ ये विशेषांक नहीं लगा। वक्त है एक ब्रेक में वही कहानियां हैं। इसमें दो नई कहानियां हैं। इन सभी कहानियों को किताब की शक्ल दी है राजकमल प्रकाशन ने। कहानियों में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े तकनीकी शब्द बहुतायत में हैं, लिहाजा किताब के शुरू में ही उनका मतलब समझा दिया गया है। ये किताब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के तिलिस्म में ले जाती है तो वहां काम करने वालों की मनःस्थिति को भी बयां करती है। दफ्तर की राजनीति, आगे बढ़ने, दूसरों की टांग खींचने की कवायद भी है इसमें।
कहानियां जिंदगी के करीब हैं तो उनमें भाषाई संयम भी टूटता है, गालियों की भरमार है। जो लोग कहानी के शिल्प से वाकिफ हैं, उन्हें इन कहानियों के शिल्प में कुछ खामियां भी नजर आ सकती हैं, लेकिन इन्हें इस संदर्भ में देखना चाहिए कि करीब करीब सारी कहानियां ऐसे लोगों की है, जिन्होंने पहली बार कहानी लिखी है। अजीत अंजुम ने एक एक पत्रकार को 25-30 बार फोन करके कहानी लिखवाई थी। राजेंद्र यादव और अजीत अंजुम की लिखी भूमिकाओं में आपको परस्पर विरोधी बातें दिख सकती हैं। बहरहाल ये कहानियां अब किताब की शक्ल में आपके सामने हैं। इस संग्रह की कहानियों की भाषा पर भी आपको एतराज हो सकता है। फिर भी इस किताब में कहानी का रस लेने वालों के लिए पूरी खुराक है। बार बार पढ़ने का मन करता है।
आम पाठक के लिए तो ये किताब संग्रहणीय है ही, लेकिन उन लोगों की लाइब्रेरी के लिए भी ये अनिवार्य जैसी है, जो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में आना चाहते हैं या फिर आ चुके हैं। आप भी पढ़िए क्योंकि ये ब्रेक जरूरी है…
- किताब- वक्त है एक ब्रेक का
- संपादक- राजेंद्र यादव, अजीत अंजुम, रवींद्र त्रिपाठी
- प्रकाशक- राजकमल प्रकाशन
- पता- 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली-32
- मूल्य- 150 रुपये
anurag pradhan
December 16, 2010 at 4:55 pm
नमस्कार सर , मै भड़ास पढ़ कर खुस हू ,मै यह बुक खरीदा भी है ,मै मिडिया स्टूडेंट हू और यह बुक पढ़ कर आगे आने बाले दिनों के बारिकियों से रुबुरु रहेंगे
Vivek Rai
November 24, 2011 at 2:03 am
Dada Pranam.
Isme aap ki bhi kahani honi chahiye thi…….dada tommy wala kahani padha….achha laga….jab main waha rahta tha tab bhi hota tha……Mata ek Pita 10-12…