सुरेंद्र प्रताप उर्फ एसपी को याद करने दिल्ली में 27 जून दिन शनिवार, दोपहर 3 बजे, पत्रकारों की जो जुटान हुई, उसके बिखरने का वक्त था। ऐलान भी कर दिया गया। तभी एक लड़की मंच की तरफ आती है। कुछ कहने की इजाजत मांगती है। संचालक ने सभी से अनुरोध किया- प्लीज रुक जाइए, इनकी भी सुन जाइए। और वह लड़की बोली। जो जहां जिस मुद्रा में था, रुका। कुछ ने उसके सवाल करने के जज्बे को सराहा। कुछ ने जवाब देने की कोशिश की। लेकिन बिखरती सभा को कितनी देर संभाला जा सकता था, सो, सब लोग चले गए। लड़की भी सवाल को दिमाग में चकरघिन्नी की तरह घुमाते सवाल की तरह चली गई। उसे जवाब न मिला। मिलना भी न था।
दरअसल, पुण्यतिथि के मौके पर एसपी की याद में प्रेस क्लब आफ इंडिया के सभागार में जो सभा आयोजित हुई, सच मायने में वो शुरू ही तब हुई जब बिखरने लगी। और वह शुरुआत उसी अनजान लड़की ने की। पर वक्त हो चुका था। लड़की ने जो शुरुआत की, वह उसी लड़की पर ही खत्म हो गई।
लड़की, जिसने अपना नाम शिखा बताया, जिसने खुद को बिजनेस स्टैंडर्ड में कार्यरत बताया, ने मासूमियत और भोलेपन के साथ जो सवाल किया, वह बहुत सामान्य था लेकिन आज के दौर के लिए बहुत जटिल। सवाल था, सरोकार रखने वाले जेनुइन पत्रकारों को अब परेशान क्यों किया जाता है? आजकल के संपादक अपने मालिक के सामने तनकर खड़े क्यों नहीं हो पाते? ये संपादक पत्रकारिता के प्रति निष्ठावान और सरोकार रखने वाले पत्रकारों की कलम की धार की रक्षा क्यों नहीं कर पाते? मशहूर पत्रकार राम बहादुर राय ने मंच पर बैठे-बैठे ही माइक संभाला, लड़की को समझाने की कोशिश की, लेकिन उनकी धीमी आवाज और सभा विसर्जन की मुद्रा-माहौल के कारण उनकी बात लोगों तक कम पहुंच पाई। कई लोगों तक पहुंचीं पर उन्हें कम समझ में आई। अगर कुछ लोगों को समझ में आई भी तो कम से कम उस लड़की को देखकर नहीं लगा कि उसे कहीं से कोई जवाब रूपी भरोसा मिला है, पत्रकारिता और कलम के पक्ष में अड़े-डटे रहने के लिए।
एसपी की पुण्यतिथि पर उनके पुत्र चंदन प्रताप सिंह ने जिस स्मृति सभा का आयोजन किया, उसमें एसपी से जुड़े पत्रकारों व करीबी दोस्तों ने एसपी को अपने-अपने तरीके से याद किया। राम बहादुर राय, संतोष भारतीय, पुण्य प्रसून वाजपेयी, आशुतोष, उमेश जोशी, अरविंद कुमार सिंह, सुप्रिय प्रसाद, सुमित अवस्थी, परवेज अहमद, केसी त्यागी, दिलीप मंडल आदि ने संस्मरण सुनाए। शख्सियत बयां की। घटनाएं और किस्से सुनाए। पत्रकारिता और समाज के प्रति उनकी सोच को समझाया। आज के पत्रकार और पत्रकारिता को लेकर कुछ सवाल उठाए। बाजार और व्यवस्था में पिस रही वर्तमान मीडिया पर उंगली उठाई।
पर कुछ ही लोग ऐसे थे जिन्होंने एसपी को याद करते हुए अपनी सचेतन जनपक्षधर इतिहास दृष्टि को जिंदा रखा। आज के दौर में किसी एसपी की अनिवार्य जरूरत पर बल दिया। आज के दौर में एसपी होते तो वे क्या सिखलाते, क्या करते, क्या कराते, क्या लिखाते, क्या सोचते क्या बताते….इस बारे में बातें न के बराबर हुईं। ज्यादा वक्त आज के दौर को कोसने और एसपी को महान साबित करने में बीता।
राम बहादुर राय ने लालगढ़ के आम जन के आंदोलन को माओवादी आंदोलन बताकर उसे सत्ता द्वारा संरक्षित फौज-फाटे से नष्ट कराने की कोशिशों की निंदा की और मीडिया को मनुष्यता के साथ खड़े होने की बात कही। पुण्य प्रसून वाजपेयी ने मीडिया में खत्म होती जनपक्षधरता को बचाने के लिए और मनुष्यता के प्रति सरोकार जिंदा रखने के लिए संघर्ष शुरू करने की वकालत की। उमेश जोशी ने भ्रष्ट हो चुके पत्रकारों की खबर लेते हुए एसपी जैसी ईमानदारी को अपनाने की सलाह दी। संतोष भारतीय ने एसपी के जीवन और विचारधारा को नई पीढ़ी तक पहुंचाने के लिए स्मृतियों को व्यवस्थित तरीके से लिपिबद्ध कर पुस्तक प्रकाशन पर जोर दिया। एसपी के साथी रहे और राजनेता केसी त्यागी ने राजनीति के चरम पतन के बाद पत्रकारिता के चरम पतन का ऐलान किया और इसे न स्वीकार कर पाने के कारण पत्रकारों को प्यार से खरी-खोटी भी सुनाई। अन्य सभी वक्ताओं ने भी एसपी के साथ गुजारे पलों, उनकी सोच और विचारधारा के बारे में विस्तार से बताया।
पर एसपी की स्मृति सभा में एसपी वाले तेवर नदारद थे। एसपी वाली खांटी समझदार दृष्टि और देसज बोल गायब थे। हर कोई खुद को जस्टीफाई करने और दूसरे को समझाने-सुधारने में व्यस्त था। दरअसल, एसपी स्मृति सभा एलीट पत्रकारों की भाषण सभा में तब्दील होकर रह गई। दिल्ली के जमे-जमाए और बड़े पदों पर बैठे पत्रकार आए, बोले और गए। सभा खत्म। कहीं कोई बहस नहीं, धार नहीं, तेवर नहीं, तकरार नहीं। शायद, एसपी होते तो इतनी मुर्दा शांति पसंद नहीं करते। पर यह सच है कि हर आयोजन एक औपचारिकता लिए हुए होता है और इस औपचारिकता की दीवार को न लांघा जाए, व्यावहारिकता के नाते इसकी कोशिशें आयोजकों की तरफ से हमेशा की जाती हैं। यहां भी ऐसा ही हुआ। उन्हीं लोगों से बुलवाया गया जो अपने संबोधन में शुरू से अंत तक …एसपी, एसपी, एसपी, एसपी, एसपी, एसपी, एसपी, एसपी….करते रहे। केवल गिने-चुने लोगों ने एसपी को हांड-मांस के एक मनुष्य की जगह मजबूत विचारों वाले व्यक्तित्व के रूप में याद किया।
रामबहादुर राय ने माना कि एसपी एक अच्छे पत्रकार से ज्यादा एक सामाजिक सरोकार वाले व्यक्ति थे तो प्रेस क्लब के वर्तमान अध्यक्ष परवेज अहमद ने बताया कि कैसे संबंधों को निभाने के लिए एसपी अपनी नौकरी भी दांव पर लगा देते थे। केवल पत्रकार ही नहीं बल्कि उनके पुराने राजनीतिक मित्र केसी त्यागी ने भी कहा कि पत्रकार तो बहुत दिखाई देते हैं लेकिन दूसरा एसपी दिखाई नहीं देता। संतोष भारतीय ने एसपी द्वारा अनगढ़ लोगों को गढ़कर तेवरदार व धारधार बनाने के उदाहरण गिनाए और अब ऐसा न किए जाने पर हताशा जताई। पुण्य प्रसून ने एसपी वाले सरोकार अब न रहने की बात कहते हुए पत्रकारों को विपरीत हालात में लड़ना न सिखाए जाने पर अफसोस जताया। सुप्रिय प्रसाद ने एसपी द्वारा खबर के साथ एकाकार होकर स्टूडियो में ही रो पड़ने और दुखी मनुष्यों के मुंह पर बाइट लेने के लिए जबरन माइक लगाने वाली पत्रकारिता से तौबा करने की बात कहने के प्रसंग सुनाए।
सिर्फ एक पैमाने की बात करें, जो रोने वाला और पत्रकारिता से तौबा करने वाला प्रसंद सुप्रिय प्रसाद ने सुनाया, तो पता चलता है कि एसपी की सोच वाली पत्रकारिता की आज पूरी तरह हत्या हो चुकी है और हत्या करने वालों में उनके कथित चेले ज्यादा हैं। तान दो, खेल दो, फाड़ दो, काट दो…..जैसे टीवी जर्नलिज्म के नारे एसपी ने पैदा नहीं किए। इन्हीं सतही नारेबाजियों के चलते परंपरागत मीडिया माध्यम अब कोई चौथा खंभा नहीं रह सके हैं। ये परंपरागत मीडिया हाउस अब बिजनेस घराने में तब्दील हो गए हैं जो पैसा उगाही के लिए विचार की हत्या संगठित तरीके से कर रहे हैं और मुद्रा हासिल करने को पत्रकारिता के सबसे बड़े आधुनिक गुण-धर्म के रूप में स्थापित कर रहे हैं। बाजारू ताकतों के हाथों फंसी परंपरागत मीडिया माध्यम का इस्तेमाल ज्यादा से ज्यादा बिजनेस पाने की खातिर किया जा रहा है और बिजनेस पाने के लिए येन-केन प्रकारेण अधिकतम प्रसार और टीआरपी बटोरने पर जोर दिया जाता है। और इसी सब गैर-पत्रकारीय उद्देश्यों को हासिल करने के लिए नान न्यूज को न्यूज बनाकर पेश किया जा रहा है। शुद्ध आर्थिक लाभ के उद्देश्य से न्यूज को दबा दिया जा रहा है। शुद्ध मुनाफे की खातिर पैसे लेकर खबरें प्रकाशित की जा रही हैं। मोटा लाभ पाने के लिए पूरा का पूरा प्राइम टाइम का स्लाट इंटरटेनमेंट कंपनियों को बेच दिया जाता है।
एसपी होते तो पत्रकारिता के सामने दैत्य की तरह सवाल बनकर खड़े इन मुद्दों पर कैसे सोचते, कैसे रिएक्ट करते, कैसे बहस चलाते, मीडिया के नए माध्यमों को बढ़ाते, बाजार के दौर में भी दो जून की दाल-रोटी के बदले जान दांव पर लगाने वाले जुझारू और रीयल पत्रकारों को संगठित कर जर्नलिज्म को बेसिक की ओर लौटाने के लिए नए मीडिया माध्यमों का इस्तेमाल करने की सोचते…….इन सब पर बातें नहीं होनी थीं क्योंकि इन पर बातें वो करते हैं जिन्हें अपने पेट और अपने भविष्य की चिंता नहीं होती। जो दूसरे के दुख व भूख को महसूस कर पाने में सक्षम होते हैं, जो दूसरों के ग़म को देख रो पड़ते हैं और जो चरम संवेदना के क्षणों में कुर्सियों पर लात मारकर किसी फकीर-कबीर की तरह गांव की पगडंडी पर निकल पड़ते हैं, सबसे बेहतरीन न्यूज स्टोरी को लिखने के लिए।
पुराने लोग एसपी को किस रूप में जानते हैं यह जानना जितना जरूरी है उतना ही जरूरी यह जानना भी है कि नई पीढ़ी के पत्रकार एसपी को किस रूप में जानते हैं, याद करते हैं, सीखते हैं, सबक लेते हैं? लेकिन आश्चर्य देखिए यह बात स्मृति सभा में निकलकर इसलिए नहीं आ सकी क्योंकि नए लोगों को सामने आने का मौका नहीं दिया गया। संतोष भारतीय ने आखिर में याद दिलाया कि कैसे एसपी नये लड़कों के साथ काम करते थे और उन्हें आगे बढ़ाते थे लेकिन एसपी को ही याद करने के लिए आयोजित की गयी सभा में यह चूक कैसे हो गयी? कारपोरेट मीडिया हाउसों और दैत्याकार मीडिया हाउसों की संस्थान प्रतिबद्ध पत्रकारिता से इतर, संसाधनविहीनता और बाजारू दबावों को धता बताकर, नए माध्यमों के जरिए पत्रकारिता की असल आत्मा को जिंदा रखने के लिए जद्दोजहद कर रहे दर्जन भर वेब, ब्लाग व प्रिंट के पत्रकार और सरोकार रखने के चलते हाशिए पर धकेल दिए गए कम प्रतिष्ठित पत्रकार इस स्मृति सभा में मौजूद थे लेकिन उन्हें एसपी पर बोलने लायक नहीं समझा गया। दरअसल, यहां एसपी को एक व्यक्ति के बतौर ज्यादा याद किया गया, विचार और सरोकार के प्रतीक के रूप में कम।
12 वर्षों बाद भी एसपी की पुण्यतिथि पर आयोजित स्मृति सभा में अगर नए पत्रकार पहुंचे तो केवल इसलिए कि वे एसपी को पत्रकारिता के लिए, कलम के लिए, सरोकार के लिए, मनुष्यता के लिए, साथियों के लिए, संवेदना के लिए, हार्डकोर खबर के लिए लड़ने वाले जुझारू पत्रकार के रूप में ज्यादा जानते हैं, न्यूज मैनेजर और संस्थान चमकाऊ पत्रकार के रूप में कम, जो कि आजकल के कथित मुख्यधारा के ज्यादातर पत्रकार हो गए हैं। एसपी के लिए नौकरी में बने रहना महत्वपूर्ण नहीं होता था, आडंबर-पाखंड महत्वपूर्ण नहीं था, लाखों-करोड़ों रुपये सेलरी पाने की इच्छा महत्वपूर्ण नहीं थी। वे अपनी सोच, संवेदना और शख्सियत को इन सबसे उपर रखते थे।
एसपी को सच में अगर किसी ने जिंदा रखा हुआ है तो वो अनाम-गुमनाम पत्रकार हैं जो एसपी के जीवन दर्शन को अपने व्यवहार में जी रहे हैं। जो अभावों-तनावों के बावजूद ईमानदारी की राह से हटे नहीं हैं। मनुष्यता के पक्ष में खड़े होने की आदत से डिगे नहीं हैं। हाशिए पर ठेल दिए गए आम इंसान के सुख-दुख से परे नहीं हैं। मनुष्यता और जनता के साथ खड़े होने वाले ऐसे ही पत्रकारों के भीतर बसते हैं एसपी। अमानवीय बाजार के क्रूर हाथों, कारपोरेट घरानों की संवेदनहीन महत्वाकांक्षाओं और सत्ता-संस्थानों के मनुष्य विरोधी कारनामों से टकराने वाले एक्टिविस्टों और डाउन टू अर्थ पत्रकारों के अंदर विराजते हैं एसपी। जो लोग वहां एसपी को याद करते हुए मौजूद थे, बकौल केसी त्यागी, वे भी बाजार के शिकार हो चुके हैं। बस दिक्कत यह है कि ऐसे पत्रकार अब भी यह मानने को तैयार नहीं कि वे अब सिर्फ बाजार के लिए काम करते हैं।
इतने सब के बावजूद, इस स्मृति सभा का स्वागत किया जाना चाहिए क्योंकि इसी बहाने दिल्ली में नए और पुराने, रोजगारशुदा और बेरोजगार, संस्थान प्रतिबद्ध और मुक्त, अनुशासित और अराजक पत्रकार एक जगह बैठ पाए। एक दूसरे को इकतरफा ही सही, सुन-समझ पाए।
एसपी उर्फ एक मजबूत विचार के सहारे हम अपने समय को ज्यादा जन पक्षधर, ज्यादा सरोकार वाला और ज्यादा मानवीय बना पाएं, इसके लिए इस जुटान को कमजोरियों से भरी शुभ शुरुआत मानें, आगे फिर बैठने और दो-तरफा संवाद करने का इरादा करें, तब तो कोई सार्थकता है वरना प्रेस क्लब में ऐसी सभाएं आए दिन हुआ करती हैं और इनकी यादें कुछ घंटे भी जेहन में टिक नहीं पातीं।