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इंटरव्यू

वे अब समझ गए हैं, मैं भागने के लिए नहीं आया : प्रो. निशीथ राय

प्रो. निशीथ रायइंटरव्यू : प्रो. निशीथ राय (चेयरमैन, डेली न्यूज एक्टिविस्ट, लखनऊ)

इस जमाने में कोई आदमी यह सोचकर अखबार निकाले कि उसे विशुद्ध मिशनरी पत्रकारिता करनी है, सच को पूरी ताकत से सामने लाना है, सत्ता और दबावों के आगे झुकना-डरना-टूटना नहीं है, बल्कि सत्ता और सत्ताधारियों की करतूतों का खुलासा करना है तो आप सोच सकते हैं कि उसे किस-किस तरह की स्थितियों का सामना करना पड़ सकता है। लखनऊ से डेली न्यूज एक्टिविस्ट नाम से एक अखबार निकलता है।

प्रो. निशीथ राय

प्रो. निशीथ रायइंटरव्यू : प्रो. निशीथ राय (चेयरमैन, डेली न्यूज एक्टिविस्ट, लखनऊ)

इस जमाने में कोई आदमी यह सोचकर अखबार निकाले कि उसे विशुद्ध मिशनरी पत्रकारिता करनी है, सच को पूरी ताकत से सामने लाना है, सत्ता और दबावों के आगे झुकना-डरना-टूटना नहीं है, बल्कि सत्ता और सत्ताधारियों की करतूतों का खुलासा करना है तो आप सोच सकते हैं कि उसे किस-किस तरह की स्थितियों का सामना करना पड़ सकता है। लखनऊ से डेली न्यूज एक्टिविस्ट नाम से एक अखबार निकलता है।

लखनऊ के मीडियाकर्मी अच्छी तरह से जानते हैं कि इस अखबार और इससे जुड़े लोगों को क्या-क्या झेलना पड़ा है। पहले तो कोशिश हुई कि यह अखबार ही न निकलने दिया जाए। शासन और सत्ता में बैठे लोगों ने इस अखबार के आफिस की बिजली काट दी और प्रिंटिंग मशीन को सील कर दिया। पर अखबार निकला और पूरे तेवर के साथ निकला। इसे निकलते हुए डेढ़ साल हो गए। इन डेढ़ वर्षों में इस अखबार ने जाने कितनी मुसीबतें झेली हैं, इसलिए कि उसने सत्ता में बैठे लोगों की करतूतों का भंडाफोड़ किया। जब दूसरे अखबार सत्ता से मिलने वाले लाभों के चक्कर में सिर्फ-सिर्फ गुडी-गुडी खबरें छापते रहे तो इस अखबार ने सत्ताधारी नेताओं और नौकरशाहों के घोटालों, घपलों और गड़बड़ियों पर विशेष रपटें छापीं। इसी अखबार के चेयरमैन प्रोफेसर निशीथ राय पिछले दिनों दिल्ली में थे। निशीथ राय का बैकग्राउंड बिजनेस का नहीं है। मार्केटिंग का नहीं है। वे एक पढ़े-लिखे और वैचारिक रूप से सचेत परिवार से ताल्लुक रखते हैं।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय से प्राचीन इतिहास से एमए और शोध करने वाले निशीथ राय बाद में लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रोफेसर बन गए। इन दिनों भी वे रीजनल सेंटर फार अरबन एंड इनवायरमेंटल स्टडीज, लखनऊ में बतौर निदेशक कार्यरत हैं। ‘‘जिस समाज में हम रहते हैं उस समाज के लिए कुछ कर गुजरने” के पिता डा. रामकमल राय के मंत्र को फलीभूत करने के लिए प्रो. निशीथ राय ने एक ट्रस्ट बनाकर और समान विचार वाले लोगों को जोड़कर डेली न्यूज एक्टिविस्ट (डीएनए) का प्रकाशन लखनऊ से 13 अक्टूबर 2007 से शुरू किया। अगले महीने 17 नवंबर 2007 को इस अखबार का इलाहाबाद संस्करण शुरू किया। लेकिन सत्ता और शासन का विरोध तो देखिए कि इस अखबार को आरएनआई की स्वीकृति लेने के लिए लखनऊ जिला प्रशासन ने आज तक डिक्लयरेशन नहीं दिया है। आरएनआई न होने से यह अखबार डीएवीपी के जरिए सरकारी विज्ञापन तक नहीं पा सकता। इसके बावजूद यह अखबार डेढ़ साल से केवल मजबूत इरादे, जी-तोड़ मेहनत और शुभचिंतकों के समर्थन के चलते निकल रहा है।

प्रो. निशीथ राय ने अखबार से जुड़े अपने अनुभवों को भड़ास4मीडिया के एडिटर यशवंत सिंह के साथ साझा किया। पेश है इंटरव्यू के अंश-


-पहले तो तेवरदार अखबार लांच करने और उसे चलाते रहने के लिए बधाई। अखबार किस प्रकार शुरू किया, इसके बारे में बताएं?

डीएनए का पहला अंक-यह अखबार यूपी फाउंडेशन ट्रस्ट के तहत 13 अक्टूबर 2007 को लांच किया गया। एक ट्रस्ट के जरिए अखबार निकाले जाने की योजना जब यूपी सरकार को लगी तो सरकार में बैठे लोगों के कान खड़े हो गए। उन लोगों को लगा कि ये कोई कारपोरेट हाउस नहीं है जिसे प्रभावित या आतंकित कर अपने मन-मुताबिक खबरें छपवाई जा सकती हैं। हम लोगों को जेहादी मानते हुए सरकार ने अखबार न निकल पाए, इसके लिए साजिशें शुरू कर दी। 13 अक्टूबर 2007 को अखबार लांच होने से पहले 25 सितंबर को जब हम लोगों ने सरकार के पास अखबार प्रकाशित करने की सूचना भेजी तो ट्रस्ट की तरफ से अखबार छापने के लिए जो प्रिंटिंग मशीन स्थापित की गई थी, उस मशीन को सरकार ने सील कर दिया गया और बिजली काट दी। एक एफआईआर भी हम लोगों के खिलाफ यह कहते हुए दर्ज करा दिया गया कि हम लोग अधिकृत न होते हुए भी अखबार की डमी प्रकाशित कर रहे हैं। बाद में हम लोगों ने पायनियर प्रेस से अखबार की प्रिंटिंग के लिए लिखित एग्रीमेंट किया। सरकार ने पायनियर भी प्रेशर क्रिएट करना शुरू कर दिया कि वह डीएनए न छापे। पर लिखित एग्रीमेंट होने के चलते पायनियर मुकर न सका।

13 अक्टूबर को ‘इतिहास बदलने की शुरुआत’  शीर्षक से संपादकीय के साथ अखबार का पहला अंक जनता के बीच आ गया। हम लोग सरकारी उत्पीड़न के खिलाफ हाईकोर्ट गए और वहां से आदेश मिलने के बाद मशीन की सील खुली। बिजली जोड़ी गई। मुझे लखनऊ वि.वि. से हटाने के लिए कुलपित के उपर सरकारी दबाव पड़ा। मुझे रहने के लिए जो मकान मिला था, उसका प्रो. निशीथ रायएलाटमेंट कैंसल कर दिया गया। इसके पीछे आधार बनाया गया कि अखबार के चेयरमैन के घर के पते में जिस जगह का नाम दिया गया है वह सरकारी है। इस मसले पर भी मैं कोर्ट गया। आरएनआई नंबर मिलने के लिए जिला प्रशासन को जो डिक्लेयरेशन देना होता है, उसे रोक दिया गया। इसके खिलाफ भी हम लोग हाईकोर्ट गए और वहां से डीएम, कमिश्नर को एक माह के अंदर जवाब दाखिल करने के लिए नोटिस मिला। बाद में डीएम ने डिक्लयरेशन फारवर्ड नहीं किया, रिजेक्ट कर दिया। फिर हम लोग इसके खिलाफ प्रेस काउंसिल गए। वहां 16 मार्च को डेट लगी थी। 16 मार्च को कई सरकारी वकीलों ने जाकर प्रेस काउंसिल से समय मांगा। काउंसिल ने उन्हें समय दिया है। देखते हैं अगली सुनवाई में क्या होता है।

-पत्रकारिता में आते ही आपको इतना कुछ झेलना पड़ा। क्या आपने इसकी कल्पना की थी?

-तटस्थ पत्रकारिता करना इतना मुश्किल होगा, मुझे बिलकुल अंदाजा नहीं था। हम लोगों को जितना टार्चर किया जा सकता था, सरकारी मशीनरी ने उतना टार्चर किया। जीना दूभर हो गया था। लेकिन वे लोग कुछ नहीं कर पाए। मुझे अब लगता है कि जो अच्छे लोग होते हैं उनके आगे बढ़ने का रास्ता अपने आप बनता जाता है। कोई अदृश्य ताकत है जो अच्छे लोगों की मदद करती है। निष्पक्ष पत्रकारिता कर पाना सबसे मुश्किल काम है। एक काकस है जो आपको अपने हिसाब से चलने के लिए कहता है, अगर उनके मुताबिक नहीं चलते हैं तो वे आपको नष्ट करने पर उतारू हो जाते हैं। और तो और, दूसरे स्थापित मीडिया घराने भी अपरोक्ष रूप से हमारे पीछे पड़े हुए थे कि हम लोग अखबार न निकाल सकें। वे लोग जिस तरह से भी हम लोगों का नुकसान कर सकते थे, करने की पूरी कोशिश की। 19 महीने बाद अब लखनऊ के बड़े अखबारों को भी लगने लगा है कि ये लोग भागेंगे नहीं, डरेंगे नहीं, झुकेंगे नहीं। ये लोग भी मीडिया में रहने के लिए आए हैं।

-डीएनए को लखनऊ में जमाने में आपके अखबार के प्रधान संपादक प्रभात रंजन दीन का काफी बड़ा हाथ माना जाता है। प्रभात अचानक चले क्यों गए?

-प्रभात जी और मैंने मिलकर काफी कुछ किया, काफी कुछ झेला। प्रभात ने कलम के जरिए अखबार को तेवरदान बनाया। उनकी निजी और पारिवारिक परिस्थितियां ऐसी थी कि उन्हें छुट्टी पर जाना पड़ा। उनके जाने के बाद अखबार निकालने के लिए किसी को जिम्मेदारी देनी थी। हमने प्रधान संपादक किसी को नहीं बनाया। अखबार में काम करने वाले साथियों ने जिनका नाम सुझाया, उन्हीं को प्रमोट कर हमने स्थानीय संपादक बना दिया। मैं यह कह सकता हूं कि प्रभात रंजन दीन के जाने के पीछे सरकार का किसी तरह का कोई दबाव नहीं था। यह विशुद्ध इंटरनल और मैनेजमेंट का मसला था।

-डीएनए के जरिए आपने अभी तक ऐसा क्या काम किया, जिससे आपको संतोष होता हो?

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प्रो. निशीथ राय-हम लोगों ने पहले पन्ने पर बाटम एक कालम शुरू किया, ‘जनहित याचिका’ नाम से। जनहित याचिका केवल कोर्ट की ही चीज नहीं है। मीडिया संस्थाओं को भी जनहित याचिकाएं आमंत्रित करनी चाहिए और उनका निदान कराना चाहिए। तो इस जनहित याचिका कालम में हमने जनता की दिक्कतों, मुसीबतों को आमंत्रित किया और उन्हें राहत पहुंचाने में मदद दी। इस काम से मुझे दिली सुकून मिलता है कि हम लोगों की वजह से कई लोगों की जिंदगी में रोशनी आई।

-अखबार निकालने की प्रेरणा कहां से मिली?

-मेरे बाबूजी प्रो. रामकमल राय लोहिया जी के अनन्य सहयोगी थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग में प्रोफेसर थे। वे हमेशा कहते रहते थे कि हर आदमी को अपने समाज के लिए कुछ न कुछ सकारात्मक योगदान करना चाहिए। समाज में कुछ करने के लिए वे मीडिया को एक बेहतर प्लेटफार्म बताते थे। उनकी बातों से ही मीडिया का काम शुरू करने का आइडिया मिला। अब जब इस फील्ड में आ गए हैं तो पता चल रहा है कि मीडिया की विश्वसनीयता कितनी कम हो गई है। उद्योगपतियों ने इसे धंधा बना लिया है। दूसरे उद्योगों से पैसा कमाने वाले लोगों ने मीडिया हाउस शुरू कर अपने मूल धंधे को मजबूती देने में और सत्ता से ताकत खींचने में लगे हुए हैं। मैं कभी-कभी सोचता हूं कि समाज के लोअर मिडिल क्लास के लोग अखबार क्यों नहीं चला सकते। क्यों केवल पूंजीपति ही अखबार शुरू कर सकता है और चला सकता है।

-सरकारी मशीनरी ने आप लोगों को परेशान किया तो इसका असर आपके घर के माहौल पर भी पड़ा होगा?

प्रो. निशीथ राय-मत पूछिए। घरवालों की तो बुरी स्थिति थी। विजिलिंस, आईबी, पुलिस पीछे पड़ी थी। मेरे बेटे को उन्हीं दिनों बुखार आ गया था। तीन महीने तक बुखार ठीक नहीं हुआ। डाक्टर के पास ले गए तो डाक्टर ने कहा कि आप इस बच्चे की जान ले लेंगे। यह घर के तनाव व दहशत के माहौल के चलते बुखार से उबर नहीं पा रहा है। मुझे अपनी बेटी को घर से बाहर कहीं दूसरी जगह पढ़ने के लिए भेजना पड़ा। मुश्किल के दिनों में मेरी मदद मेरे मित्रों ने ही नहीं की, मुझे इसकी बहुत तकलीफ है। सब डर गए थे। लोग बातें करते हैं मदद देने की, समर्थन देने की लेकिन जब आपको वाकई मदद की जरूरत होती है तो कोई सामने नहीं आता। मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ। किसी ने हाथ नहीं बढ़ाया, किसी ने हाथ पकड़ने की कोशिश नहीं की।

-आपके पास सरकारी विज्ञापन नहीं हैं। सरकार का रुख आपके खिलाफ है। ऐसे में अखबार कैसे चला पा रहे हैं?

-बहुत घाटे में चल रहे हैं हम लोग। नए वित्तीय वर्ष में डीएनए से जुड़े सभी लोग प्रतिबद्ध हुए हैं कि अखबार को वित्तीय मजबूती देने के लिए और घाटे से उबारने के लिए सभी लोग समाज में जाएंगे। जनता से मदद मांगेंगे। समर्थ और सक्षम भले लोगों से बात करेंगे। हम लोगों को पैसे की जरूरत है लेकिन इसके लिए किसी प्रकार का कोई जनविरोधी समझौता नहीं करेंगे। मैं इस देश के सिस्टम में विश्वास करता हूं और इस देश में बहुत सारे ऐसे समर्थ लोग हैं जो अच्छे काम में पूंजी लगा सकते हैं। मैं उन सभी लोगों से मिल रहा हूं जो खुले दिल से निष्पक्ष पत्रकारिता के अभियान को बढ़ावा देना चाहते हैं। सहयोग के बिना अखबार नहीं चल सकता। मैं बहुत आशावान हूं। यहां एक वाकया बताना चाहूंगा। एक प्रतिष्ठित बिल्डर ने खुद अपना विज्ञापन हम लोगों के अखबार में दिया। जब सरकारी मशीनरी की उस पर नजर पड़ी प्रो. निशीथ रायतो बिल्डर को फोन कर धमकाया गया कि उसे यूपी में अपना कामधाम करना है या समेटना है। उस बिल्डर ने हाथ जोड़ लिया। कहा, भई, हम लोग बिजनेसमैन हैं, सत्ता से पंगा नहीं ले सकते। तो ये हैं राम कहानी जो अब भी जारी है। मुझे खुशी सिर्फ इस बात की है कि हम लोगों को अपार जनसमर्थन मिला है। लोग जिस तरह के पत्र लिखकर हम लोगों को सपोर्ट करने की बात कहते हैं, उसे पढ़कर ऊर्जा मिलती है। इरादा और बुलंद हो जाता है।

-अखबार को लेकर आगे की क्या योजनाएं हैं?

-बहुत सारी योजनाएं हैं। जल्द ही डीएनए को आगरा, गोरखपुर और मेरठ से लांच करने की योजना है। इस अखबार का एक राष्ट्रीय एडिशन दिल्ली से प्रकाशित करने की योजना है। यह सब अगले कुछ महीनों में करना है। मुझे देशभर के सच्चे और सचेत मीडियाकर्मियों व समर्थ लोगों का साथ चाहिए ताकि बाजार के दबाव के इस भीषण दौर में निष्पक्ष और जनपक्षधर पत्रकारिता की लौ को जलाए रखा जा सके।

-आपकी योजनाएं सफल हों, स्वस्थ पत्रकारिता की परंपरा को कायम रखने के आपके इरादे को मजबूती मिले, मैं तो यही कह सकता हूं। आपने इतना वक्त दिया, इसके लिए आपको धन्यवाद।

-यशवंत जी, आपको भी धन्यवाद।


प्रो. निशीथ राय से संपर्क करने के लिए आप उन्हें [email protected] पर मेल कर सकते हैं।
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0 Comments

  1. anand

    February 15, 2010 at 5:30 am

    प्रो. निशीथ तेरे जज्बे कोटि-कोटि सलाम। वकई आप जैसे विचारको व सर्थक सोच वालो की बदौलत ही देश और समाज कलयुग के असुरो से मह्फ़ूज है ।

  2. Rakesh Pandey

    August 28, 2010 at 6:52 pm

    thanx for the efforts u made. Really this tempo will save thi…..

  3. Rakesh Pandey

    August 28, 2010 at 6:53 pm

    Thanx for the efforts. due to this the mission will save…..

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