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सम्मान

लखनऊ में तेरा-मेरा उनका सम्मान

बहुत दिनों बाद लखनऊ आना हुआ. उसी लखनऊ, जहां बरास्ते बनारस पहुंचा था 13 साल पहले, पत्रकार बनने. तब ट्रेनी था, पत्रकारिता का और शहर की जिंदगी जीने का. 13 साल बाद फिर लखनऊ पहुंचा, बरास्ते दिल्ली, एवार्ड लेने. पत्रकारिता का और गंवई स्टाइल में खरी-खरी कहने का.

बहुत दिनों बाद लखनऊ आना हुआ. उसी लखनऊ, जहां बरास्ते बनारस पहुंचा था 13 साल पहले, पत्रकार बनने. तब ट्रेनी था, पत्रकारिता का और शहर की जिंदगी जीने का. 13 साल बाद फिर लखनऊ पहुंचा, बरास्ते दिल्ली, एवार्ड लेने. पत्रकारिता का और गंवई स्टाइल में खरी-खरी कहने का.

प्रेस क्लब का हाल भरा था. मीडियाकर्मियों से. सब सादा-सादा. सब उच्च विचार सा. बाजारू पुरस्कारों की भव्यता आयोजन से नदारत थी. लग रहा था, पुरस्कार कम, प्रोत्साहन ज्यादा है, उन लोगों के लिए जो नई उमर में कुछ बड़ा-बड़ा सा कर रहे हैं. मंच पर चितरंजन भाई, वंदना दीदी, अमिताभ ठाकुर, नूतन, सिद्धार्थ कलहंस आदि. संचालन उत्कर्ष. सामने अनिल यादव, कामता प्रसाद, हरेराम त्रिपाठी, राजू मिश्रा समेत ढेर सारे परिचित, प्यारे और बड़े.

रात में ट्रेन छूटने के कारण मजबूरन जहाज से आना पड़ा. ऐन वक्त से देर में पहुंचा. पुरस्कार सबको दिया जा चुका था. शेष मैं था. ज्यों पहुंचा त्यों थमा दिया गया. मंच के पीछे सबको खड़ा कर फोटो खिंचाया गया. डाक्टर साहिबा, सुपर थर्टी वाले भइया, बुंदेलखंड में अलख जगा रहे साथी, और मैं. सब गदगद थे. एवार्ड जैसा भी हो, पाने पर अच्छा तो लगता ही है. मैंने कैसे किया भड़ास4मीडिया. बोलने को कहा गया.

क्या बोलूं. कुछ किया हो तो बोलूं. बस सब हो गया. मजबूरन. और नशे नशे में. यही बोला. शायद बात पहुंची या नहीं. पर सच तो यही है कि बौने समाज में रास्ते पर चलते जाना भी आपको बौनों में महानता दिलाने लगता है. और, आपको महान बताकर ढेर सारे लोग खुद को अपंग मान चलने से डरे रहते हैं. पुरस्कारों और महानताओं की एक दिक्कत यही है कि कुछ लोग महान बना दिए जाते हैं और ढेर सारे लोग खुद को महान न मानने की मनःस्थिति में पहुंच जाते हैं.

पर इसका दूसरा पहलू भी है जो मंच से वंदना दीदी ने कहा. इंस्पायर करती हैं कहानियां नए लोगों को. अलग-थलग संघर्षों को जुबान और जान मिल जाती है.

आईपीएस. डराता है यह शब्द. पर अमिताभ ठाकुर के नाम के आगे लगता है तो प्यार से बुलाता है. पति-पत्नी का एक्टिविजम मिसाल बन रहा है. दोनों से इंटरनेटी फेसबुकिया परिचय रहा है. आमने-सामने देखादेखी हुई. आयोजक कम, साथी ज्यादा लगे.

हिंदी समाज का बौद्धिक एलीट इन दिनों आनलाइन हो गया है. ढेर सारे कर्म नेट से संचालित कर रहा है. सोशल नेटवर्किंग और सामाजिकता, सब आनलाइन है. कई लोग ऐसे मिले जो फेसबुक के जरिए परिचित थे या नेट से संपर्क में थे. वर्चुवल दुनिया की दोस्ती ने रीयल में फ्रेंड रिक्वेस्ट कुबूल किया. आयोजन के खात्मे की घोषणा हुई तो चाय-नमकीन बीतते बीतते शराबी पत्रकारों की आंखें चार होने लगीं.

इतने में ही एक भाई ने बाइट के लिए मनुहार की. कैमरे से मुखातिब हुआ, और सवाल से भी- सर, आपमें कई पत्रकार आदर्श देखने लगे हैं? मैंने कहा- ये वाकई एक गंभीर सवाल है. अगर यही हालत आज के नए पत्रकारों की है तो पत्रकारिता का क्या होगा. गुन तो न था कोई भी…. पूछने वाला पत्रकार अचकचाया तो मैंने उसे समझाया. अपने पैरों पर खड़े रहना और चलते रहना… इसमें कोई आदर्श नहीं है लेकिन पैर वाले बच्चे खुद को अपंग मान डोली का इंतजार करते फिरें तो उन्हें  दूसरा थोड़ा अजीब, थोड़ा अलग दिखेगा ही. ये क्यों. दोस्त हैं हम सब. थोड़ा वो चले. थोड़ा मैं चलूं. कुछ उनसे मैं सीखता हूं, अगर वो कुछ मुझसे सीखते हैं तो उनका बड़प्पन. लेकिन प्लीज, मूर्तियों से भरे इस देश में तराशने के लिए और पत्थर न उठाएं. बल्कि फर्जी मूर्तियों को तोड़ें.

आंखें चार से चौदह तक पहुंच गईं. सबने मूक संवाद किया. एक सीढ़ी बढ़ लिए. ग्राउंड से फर्स्ट फ्लोर पर पहुंच गए. सीमित मजमे में भावुकता पिरोना शुरू कर दिया टेबल के सेंटर में रखी खाली होती जाती बोतल ने. काशी के अस्सी के प्रसंगों से लेकर दारू न होती तो आफलाइन बची-खुची सामाजिकता भी खत्म हो जाती जैसी चर्चाएं-लड़खड़ाती लाइनें गूंजने लगीं.

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उमस, दारू, एवार्ड, यात्रा, बतकही से फारिग हो प्रेस क्लब से आउट हुए तो शांति मिली. ठंडक बाहर थी.

पर उन लोगों ने तो पिया ही नहीं जिनने लखनऊ में 13 बरस पहले पीना सिखाया था. तो मान लें, उम्र और अनुभव की एक नई सीढ़ी पर पहुंच गए हैं ये. चेहरों को गौर से देखा. शांत संतई या बेचैन गृहस्थी या बीच का कुछ कुछ. पकड़ नहीं पा रहा.

चितरंजन भाई ने मंच से याद दिलाया तो याद आया. 13 साल पहले वे गांधी प्रतिमा के नीचे आमरण अनशन पर बैठे थे, सोए थे. बैठे वाले वक्त में मैं जागरण आफिस में होता. सोए वाले वक्त में उनके साथ सोता. जर्नलिस्ट प्लस एक्टिविस्ट. मन ही मन अपनी पीठ खुद थपथपाया.

उन दिनों अनिल संग उनके स्कूटर के पीछे बैठ फर्राटे से लखनऊ नापते रहते. सिस्टम, शराब, क्रांति, कामरेड, जिंदगी, प्रेम… जाने किन किन पर बतियाया करते. पर कुछ मिसिंग है. वो कहां हैंय़ अनेहस शाश्वत??

अनेहस शाश्वत नहीं दिखे. बहुत दिनों से सुन रखा है कि वो संत हो गए हैं.

याद आया. अपने स्वर्गीय मां-पिता का गहना गिरवी रख पैसे लिए और उसका एक हिस्सा मुझे थमा दिया, आदेश के साथ- लो, देश में जहां जहां भी हिंदी अखबारों के मुख्यालय है, वहां जाकर संपादकों से मिलो, नौकरी की तलाश जारी रखो. लखनऊ के भरोसे न बैठो. और चला गया था. जयपुर, मेरठ, भोपाल, आगरा आदि आदि. कहीं नौकरी न मिली. पैसे भी खत्म. फिर अनेहस शाश्वत और अनिल यादव के साथ त्रिकोण बन गया.

बाहर की ठंडक से बहुत कुछ याद आ रहा था.

कपार में रासायनिक गुनगुनाहट लिए सब अलग हुए, उस न पूरे हुए वादे के साथ, इसी प्रेस क्लब में कुछ घंटों बाद मिलते हैं नए उत्साह और जोश के साथ, ब्रेक के बाद. पर दुबारा न मिले क्योंकि यह लखनऊ में 13 साल बाद का वक्त है. सबकी उमर में 13 साल जुड़ गए हैं. ज्यादातर के लिए वक्त का अधिकतर हिस्सा पहले से तय कामों के लिए तय है. आवारगी बचे-खुचे शेष वक्त में.

आवारगी का कम होते जाना, आवारगी न होना बहुत खतरनाक है. आवारों, पगलों, अराजकों, अतिवादियों ने ही जाने कितने बड़े बड़े काम किए. गुडी गुडी बबुआ बबुनी के पास अपने घर से इतर सोचने का वक्त कहां है.

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संत शाश्वत के दर्शन न हुए. एक पत्रकार, जो इतना रूठा पत्रकारिता और समाज से, कि दोनों छोड़ बैठा. कितनों में साहस है ये. एवार्डी तो शाश्वत जी हैं. हम लोग तो प्लांड रिवोल्यूशनरी हैं. शाश्वत बिना अधूरा है लखनऊ, मेरे लिए कम से कम. साथ रहा तो लगा नहीं कि लखनऊ में मेरे मां-पिता नहीं है. ममता और फटकार, दोनों दिए उनने. जो पूर्ण होगा, वही संन्यासी होगा. दोनों ही तो हैं उनमें. जो सहज होगा, जो सब पर हंसता होगा, वही सब छोड़ सकता है. कुटिल और महत्वाकांक्षी और दुनियादार… ये सब ना बूझें बैरागी का संसार.

देखते हैं शाश्वत जी कब मिलते हैं. अभी आज भी हूं लखनऊ में.

लखनऊ के संसार से इतने बरस बाद मिलाने के लिए आयोजक साथियों को आभार तो कह ही दूं.

किनको किसलिए कौन सा एवार्ड किस संस्था की ओर से दिया गया, इसे जानने के लिए इसे पढ़ें- आईआरडीएस एवार्ड

यशवंत

एडिटर

भड़ास4मीडिया

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0 Comments

  1. lucknow se IPN News

    July 25, 2010 at 5:53 am

    ये है कार्यक्रम की प्रेस रिलीज
    [b]पांच अलग-अलग क्षेत्रों के लोग आईआरडीएस-2010 पुरस्कार से हुए सम्मानित
    [/b]
    लखनऊ, 24 जुलाई 2010 (आईपीएन)। स्वास्थ्य, मानवाधिकार, पत्रकारिता, विधि और शिक्षा के क्षेत्र में एक जज़्बा लिए कुछ अलग तरह का कार्य करने वाले पांच लोगों को राजधानी लखनऊ में आईआरडीएस-2010 पुरस्कार से नवाज़ा गया। प्रेस क्लब में आयोजित आईआरडीएस एवार्ड-2010 कार्यक्रम में शनिवार को लखनऊ चिकित्सा विश्व विद्यालय में सहायक प्रोफेसर के पद पर तैनात डॉ. अमिता पाण्डेय को चिकित्सा एवं स्वास्थ्य के क्षेत्र में उत्क्रष्ट कार्य करने के लिए पत्रकार वन्दना मिश्रा ने आनंदीबाई जोशी पुरस्कार और मानवाधिकार के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य करने वाले जालौन के संजय सिंह को सामाजिक कार्यकर्ता चितरंजन सिंह ने सफ़दर हाशमी पुरस्कार से सम्मानित किया। वहीं पत्रकारिता जगत में भड़ास फॉर मीडिया वेबपोर्टल के जरिए मीडिया से जुड़ी हर छोटी-बड़ी ख़बरों को निश्पक्षता से रखने और मीडियकर्मियों की अपनी समस्याएं और भड़ास को जगह देने वाले यशवंत सिंह को प्रेस क्लब के अध्यक्ष सिद्धार्थ कलहंस ने सुरेन्द्र प्रताप सिंह पुरस्कार और विधि के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करने वाले एस.एम. जैदी को लखनऊ विश्व विद्यालय के डीन ए.के. अवस्थी ने वी.एन. शुक्ला पुरस्कार से सम्मानित किया। साथ ही शिक्षा के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय कार्य करने वाले पटना के आनन्द कुमार को लखनऊ विवि के प्रोफेसर रमेश दीक्षित ने एस. रामानुजम पुरस्कार से सम्मानित किया।

    पुरस्कार वितरण के बाद भड़ास मीडिया के संस्थापक यशवंत ने बताया कि अपने गांव से ईमानदारी परक संस्कार लेकर शहर पहुंचे युवाओं को वहां के झूठ, फरेब, चमचागिरी जैसे संस्कारों से दो-चार होना पड़ता है। ऐसे में थोड़े समय के लिए परेशान तो हो सकता है युवा, लेकिन गांव की मिट्टी से जुड़ा होने के नाते वह बुरे संस्कारों का देर तक आत्मसात नहीं कर सकता। भड़ास फॉर मीडिया (बी4एम) की स्थापना के लिए यशवंत कहते हैं कि यह सब कुछ नशे-नशे में हो गया।

    समारोह में पटना के आनन्द कुमार कहते हैं कि आज तक 212 बच्चों को आईआईटी में भेजने के बाद वह अपने स्वयं के वैज्ञानिक बनने के सपने को इन बच्चों में देखते हैं। लखनऊ चिकित्सा विवि की सहायक प्रोफसर डा. अमिता पाण्डेय ने बताया कि यूपी में करीब 40,000 महिलाओं की मृत्यु प्रसव के दौरान हो जाती है। डा. पाण्डेय बताती हैं कि वह सस्ती चिकित्सा पद्धति को हर गरीब महिला तक पहुंचाने के कार्य में जुटी हैं। वहीं संजय सिंह का कहना है कि समाज के लिए किसी भी किये गये कार्य के लिए समाज से रिटर्न मिलने की चिन्ता त्यागकर ही कार्य करना चाहिए। उन्होंने कहा कि अब समाज में किसी के कार्य की प्रशंसा करने की प्रवृत्ति समाप्त होती जा रही है और आलोचना करने की प्रवृत्ति घर कर रही है। इसी तरह समारोह में एस.एम. जैदी ने अपने द्वारा विधि विषय पर किये गये कार्य के बारे में बताया कि उन्होंने सर्विलांस तकनीक, डीएनए टेस्ट जैसी तमाम अनछुए क्राईम के तकनीकी विषयों पर विधि की किताब लिखी है। समारोह के इस मौके पर आईआरडीएस के अध्यक्ष अमिताभ ठाकुर, उपाध्यक्ष उत्कर्ष कुमार सिन्हा और सचिव नूतन ठाकुर मौजूद थे।

  2. Vikram

    July 25, 2010 at 10:14 am

    Jaan kar accha laga ki yashwant jii ko un ke utkrsit karyon kr liye puraskrit kiya gaya hai .Waki unhone ek aisa manch uplabdh karaya hai jis k jariye ab koi bhii apni baat bina kisi sankoch ke lag lapet ke bina , bhaymukt ho kar kah saktey hain.

    Abhi tak to sach baat kahney ke liye bhii swanamdhanya sampadkon k chakkar par chakkar lagane padtey they , Yashwant bhai ne sara khel hi platkar rakh diya hai , NO CHAAKAR – NO CHAMCHA BAJI ” ..The G8 Yashwant ……

  3. rajesh patel

    July 25, 2010 at 11:21 am

    badhai ho. satya hi shashwat hota hai. shashwat ji sahi me satya hai. mile to mera bhi pranam boliyega.

  4. Sanjay Bhati Editar SUPREME NEWS

    July 26, 2010 at 3:15 am

    yesvant bhai aapko nasa bhe achchha chada jisme Bhadas 4 media suru ho gyi .

  5. pankaj ohri cameraman lko

    July 26, 2010 at 3:51 am

    लखनऊ में तेरा-मेरा उनका सम्मान mey apko meri traf sey ……………………….Aap ko mile khusiyo key sare rang, jivan mey bhar jaye umang tarang, ley chalo hamey bhi apney sang, nahi dalenge rang me bhang

  6. alokrai

    July 26, 2010 at 6:29 am

    yashwat ji app IRDS awrad ki bahut badaiya

  7. Mandhata

    July 26, 2010 at 6:30 am

    यशवंत जी, जितना बड़ा पुरस्कार दिया गया है, आपने उससे कहीं बहुत बड़ा काम किया है। हमारे जैसे पत्रकारों को पत्रकारिता जगत की खबरों से वाकिफ कराने और विद्रोही मित्रों को अपनी भड़ास निकालने का जो निर्भीक मंच आपने दिया है, वह काबिले तारीफ है। यह बात पुरस्कार मिलने के कारण ही नहीं कह रहा हूं। आपको अगर याद हो तो मैंने ही भड़ास शुरू करने के समय आपके इस कार्य को यह कहते हुए सराहा था कि -भड़ास निकालें मगर थोड़ा संयम से। तब भड़ास में छपा मेरा लेख ( गांव को गांव ही रहने दे यारों ) जब दैनिक भास्कर ने छापा था तो आपने मुझे सूचित भी किया था। भड़ास तब अपनी बेबाकी की पहचान बना रहा था। अब तो लगता है कि भड़ास नहीं पढ़ा तो शायद मीडिया जगत की खबरें नही जान पाएंगे। इस उपलब्धि के लिए बधाई। मुझे भरोसा है कि कत्लगाहों से गुजरे संघर्ष के उस दौर से अब पुरस्कार तक का सफर ही आपकी मंजिल नहीं हैं। माइल्स टू गो,,,,,,,,,,,,,,,,,,।

  8. anil lucknowi

    July 26, 2010 at 7:07 am

    कौन जाए गालिब लखनऊ की गलियां छोड़ कर,,,,,लेकिन नौकरी की तलाश लखनऊ से तो बाहर ले ही आई….लखनऊ की यादों को ताजा कराने के लिए औऱ पुरस्कार के लिए बधाई

  9. kumar peyush

    July 26, 2010 at 7:08 am

    badhai pyare.

  10. ruby

    July 26, 2010 at 8:01 am

    bahut bahut badhai ho yashvant ji kam se kam ek sai deserving ko to samman mila. baki sab to khela hai jod tod ki gadit

  11. vinay bihari singh

    July 26, 2010 at 10:38 am

    भाई यशवंत जी
    पुरस्कार के लिए मेरी बधाई स्वीकार करें। आप बीच- बीच में वैराग्य की बातें करने लगते हैं। पर देखिए- आपका काम कितना महत्वपूर्ण है। बधाई और शुभकामनाएं।
    – विनय बिहारी सिंह

  12. Rajan sharma

    July 26, 2010 at 1:20 pm

    Nazar Nazar me utrna kamaal hota hai
    Nafas nafas me bhikhrna kamaal hota hai
    Bulandiyo pe pahuchna koe kamaal nahi
    Bulandiyo pe thahrna kamaal hota hai

    Yashwant g, aap bulandiyo par thahre hi nahi ho balki bulandi pe bulandi pate ja raho ho bhagwan aap Khabar banaane walo ki isi tarah khabar lete raho aur dete raho award ke liye bhadhae

  13. Rajan sharma

    July 26, 2010 at 1:27 pm

    Nazar nazar me utrna kamaal hota hai
    Nafas nafas me bhikhrna kamaal hota hai
    Bulandiyo pe pahuchna koe kamaal nahi
    Bulandiyo pe pahuchna kamaal hota hai

    bulandi pe bulandi pane ke liye Bhadhae

  14. Rudra Shekhar Singh

    August 13, 2010 at 8:32 am

    bhaiya aapke samman k bare me suna, achchha laga. aapka lekh padha bahut achhchha tha khair mere kahne ka kya matlab jab duniya kah rahi hai to mai kaun sa vacharak hu . aapka anuj

  15. vishal

    March 27, 2011 at 6:07 am

    yaswant ji , sahi arthon main dekha jaye to amoman sare patrakar peedamai anubhav hi rakhte hai mai ek sajha manch bana raha hoon in peedaon ke shaman ke liye kam se kam itna to ho jaega ki khud se hi amantrit ki gai in peedaon ko ham sambhal sake.
    vishal, bhopal

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