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कहिन

कृष्ण को कैद से निकालना होगा

हम अपने नायकों की शक्ति-क्षमता को पहचान नहीं पाते इसीलिए उनकी बातें भी नहीं समझ पाते। हम उनकी मानवीय छवि को विस्मृत कर उन्हें मानवेतर बना देते हैं, कभी-कभी अतिमानव का रूप दे देते हैं और उनकी पूजा करने लगते हैं।

<p style="text-align: justify;">हम अपने नायकों की शक्ति-क्षमता को पहचान नहीं पाते इसीलिए उनकी बातें भी नहीं समझ पाते। हम उनकी मानवीय छवि को विस्मृत कर उन्हें मानवेतर बना देते हैं, कभी-कभी अतिमानव का रूप दे देते हैं और उनकी पूजा करने लगते हैं।</p>

हम अपने नायकों की शक्ति-क्षमता को पहचान नहीं पाते इसीलिए उनकी बातें भी नहीं समझ पाते। हम उनकी मानवीय छवि को विस्मृत कर उन्हें मानवेतर बना देते हैं, कभी-कभी अतिमानव का रूप दे देते हैं और उनकी पूजा करने लगते हैं।

इसी के साथ उनके संदेशों को समझ पाने, उन्हें जीवन में उतार पाने की सारी संभावना से अपने-आप को वंचित कर देते हैं। जीवन के युद्ध में नायक का, उसके विचार का साथ रहना जरूरी होता है। किसी भी समाज का नायक कुछ खास मूल्यों, प्रतिबद्धताओं और आदर्शों का प्रतिनिधित्व करता है। उसका साथ रहना इसलिए जरूरी है कि हम लगातार उसके व्यवहार से, उसके आचरण से सीख सकें, उसकी शिक्षाओं से, उसकी कूटनय से, उसके राजनय से और उसके युद्ध कौशल से अपने को लैस कर सकें।

यह तभी हो सकेगा, जब नायक सबके बीच होगा, सबके पास होगा, सबसे बात कर सकेगा, सबकी समस्याएं सुन सकेगा। अगर वह शरीर से नहीं भी है तो भी उसके विचारों को समझने के लिए सबसे जरूरी है कि हम उसे मनुष्येतर सत्ता न दें। क्योंकि ऐसा करते ही वह हमसे दूर हो जाता है, कभी-कभी निराकार और निस्संग भी। ऐसी हालत में कोई भी उससे क्या सीख सकता है, कैसे उसकी मदद हासिल कर सकता है। यहीं से उसे पूजने की परिपाटी आरंभ हो जाती है। हमारे देश में यह गलती बार-बार दुहरायी गयी। यहां राम, कृष्ण, बुद्ध और कबीर के जीवन और शिक्षाओं को समझने की जगह उन्हें महामानव बना दिया गया, उनकी पूजा की जाने लगी, कतिपय स्थितियों में उन्हें भगवान का दर्जा देकर समाज और देश के लिए अनुपयोगी बना दिया गया।

हर साल कृष्ण जन्माष्टमी मनायी जाती है। लाखों लोग कृष्ण मंदिरों में जुटते हैं, ढोल-मजीरा बजाते हैं, कृष्ण के जन्म का उल्लास मनाते हैं। हर साल कंस मारा जाता है, दुर्योधन पराजित होता है, जरासंध और शिशुपाल का वध हो जाता है, पूतना और बकासुर मारे जाते हैं, पर यह सब सिर्फ नाटकों में होता है, असली जीवन में न कंस मरता है, न दुर्योधन, न जरासंध। बल्कि हर जन्माष्टमी के बाद इनकी संख्या बढ़ जाती है। आये दिन हर शहर चीरहरण का साक्षी बनता रहता है। आज के पांडुपुत्रों की बांहें नहीं फड़कती, वे दुर्योधन के विनाश की शपथ नहीं लेते। सच तो ये है कि द्रोपदियों के अपमान से उन्हें कोई मतलब नहीं। वह न उनकी रुचि का विषय रह गया है, न उनकी जिम्मेदारी। जो पांडुपुत्रों की तरह बहादुर, सत्यनिष्ठ और अपने अधिकार के लिए लड़ने का दिखावा करते हैं, उनमें से ज्यादातर दुर्योधनों के साथ गोपनीय दुरभिसंधि रखते हैं, उसका लाभ उठाते हैं।

आज के हालात बहुत विकट हैं। कृष्ण को भगवान बनाकर कुछ चालाक लोग बिचौलियों की भूमिका में आ खड़े हुए हैं। कोई भी सीधे कृष्ण तक नहीं पहुंच सकता। वे महासमर के मैदान से निकलकर मंदिरों में पहुंच गये हैं। वहां पुजारियों ने उन्हें घेर रखा है। उन पर इतनी फूल-मालाएं डाल दी हैं कि वे उससे बाहर देख ही नहीं सकते। कुछ कथाकारों ने कृष्ण तक पहुंचाने का ठेका ले लिया है और गाजे-बाजे के साथ मंच हथिया लिया है। इस तरह जैसे उन्होंने कृष्ण के नायकत्व और ईश्वरत्व की समझ का पेटेंट अपने नाम करा लिया है। भगवान होते ही कृष्ण ने अपना जननायकत्व खो दिया है। अब वे सबको नहीं मिल सकते, केवल भक्तों को ही उपलब्ध हो सकते हैं, वह भी बिचौलियों के माध्यम से।

कृष्ण का नायकत्व बहुत सोची-समझी रणनीति के तहत हजारों वर्षों के प्रयास से छीना गया है। हर प्रकार की अनीति, अन्याय, शोषण और ज्यादती के खिलाफ युद्ध को तत्पर एक जननेता को अनगिनत चमत्कार कथाओं से महिमामंडित करके पहले उसे उसके प्रियजनों से अलग किया गया और फिर हजारों गोपियों के रास-रंग मंडल में नचाकर उसे एक बिगलित रसनायक की तरह प्रस्तुत कर दिया गया। इसका औचित्य और इसकी महिमा बताने के लिए तमाम रहस्यमय तिलस्मी कथाएं गढ़ डाली गयीं। इस तरह बड़े ही सधे षडयंत्र के तहत सुदामाओं को कृष्ण के अनुग्रह से और उच्च वर्ग के मनमानेपन से त्रस्त द्रोपदियों को शक्तिसंपन्न सामाजिक नेतृत्व के संरक्षण से वंचित कर दिया गया। इस साजिश में पुजारियों, कथावाचकों और शासक वर्ग की संलिप्तता स्पष्ट दिखायी पड़ती है। इन सबने मिलकर कुछ ऐसा इंद्रजाल रचा कि पीढ़ियां दर पीढ़ियां उसके सम्मोहन का शिकार होती गयी। परिणाम यह हुआ कि कृष्ण अपनी सत्ता और अपने विचार के साथ आम भारतवासी से दूर होते चले गये और कुछ खास लोगों के फायदे के औजार बन गये। ऐसे लोग अब भी भाग्य और भगवान की आड़ में कृष्ण कीर्तन की कमाई से आलीशान जिंदगी जी रहे हैं। कृष्ण को इस कैद से निकालने की जरूरत है। वह भौतिक रूप से भले हमारे बीच न हों पर इतिहास के एक लोकनायक के रूप में, आततायियों द्वारा सताये जा रहे लोगों की लड़ाई के लिए एक विचारपुंज के रूप में उन्हें फिर से खोज निकालने की जरूरत है।

वह कृष्ण कहां गये, जिन्होंने हमेशा न्याय का साथ दिया? उनका खुद का संघर्ष अन्यायी और उत्पीड़क सत्ता के विरुद्ध था। उनमें अद्भुत संगठन कौशल था और वे स्वयं किसी भी संघर्ष में अपने लड़ाकू दस्ते का नेतृत्व करने में, सबसे आगे रहने में यकीन करते थे। उनमें शौर्य, साहस और आगे बढ़कर हर चुनौती से टकराने का हौसला था। अपने वर्गशत्रु को किसी   भी तरह पराजित करना उनकी रणनीति का अनिवार्य तत्व हुआ करता था। ताकतवर दुश्मन को ढेर करने के लिए दो कदम आगे बढ़कर एक कदम पीछे लौटने में उन्हें कभी परेशानी नहीं होती थी। अगर न्याय के पक्ष में कभी छल की जरूरत पड़ी तो उन्होंने न संकोच किया, न विलम्ब। उनके पराक्रम में कोई चमत्कार नहीं दिखता, शक्ति और साहस जरूर दिखता है। दुश्मन को घेरकर मारने में उन्हें कतई कोई कठिनाई नहीं आती थी। नैराश्य के क्षणों  में किस तरह अपने सेनानियों में आशा का संचार किया जाना चाहिए, गीता में अर्जुन को दिये गये उनके संदेश से समझा जा सकता है। एक नायक की यह मनोवैज्ञानिक भूमिका मुग्धकारी है। सेना को लगातार अपने नायक के संकेतों की समझ होनी चाहिए। युद्ध में उसकी सुरक्षा भी जरूरी है क्योंकि सेनापति अगर संकट में पड़ता है तो सेना बिखर सकती है। कृष्ण इस रणकौशल को समझते थे, इसीलिए उन्होंने कहा-मामनुस्मर युद्ध च। मतलब युद्ध करो पर मुझे भूलो नहीं, मेरा स्मरण करते रहो। इसका अर्थ यह है कि लड़ते समय भी अपने नेता की, अपने सेनापति की, अपने नायक की चिंता बनी रहनी चाहिए क्योंकि उसी की समर-नीति से विजय हासिल होगी।

इस कृष्ण को हमें फिर से पाना होगा। चाहे उसके विचारों को समझकर या अपने भीतर उसे जगाकर। कृष्ण नाम है किसी भी जुल्म के विरुद्ध पहल का, दमनकारी ताकतों के खिलाफ संगठित प्रतिरोध का, शोषक और निष्क्रिय व्यवस्था के खिलाफ युद्ध के श्रीगणेश का, इमानदारी और मेहनत से अपना जीवन चलाने वाले आमजन की पक्षधरता का और सकारात्मक जनकल्याण की दिशा में परिवर्तन का। अपने में इस कृष्ण को धारण करना ही ज्ञान है। आज हम जिस अराजक, भ्रष्ट, स्वार्थांध और छल-कपट भरी छुद्रता का सामना कर रहे हैं, उसके प्रति तटस्थता ही अज्ञान है। समाज और देश की दुरवस्था और इसके कारक तत्वों की पहचान ही ज्ञान है। इस ज्ञान से भक्ति प्रकट होती है। भक्ति के मायने हैं प्रतिकूल परिस्थितियों को समाप्त करके समाज में नैतिक और मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिए दिल और  दिमाग से पूरी दृढ़ता और संकल्प के साथ खुद को तैयार करना। फिर कर्म की बारी आती है। वांछित और जनप्रिय व्यवस्था की वापसी के लिए संघर्ष ही कर्म है। गीता के ज्ञान, भक्ति और कर्म के त्रिमार्ग को आज के परिप्रेक्ष्य में समझना होगा, तभी कृष्ण की सार्थकता होगी और तभी उनकी प्रासंगिकता भी।

लेखक डा. सुभाष राय वरिष्ठ पत्रकार हैं. डीएलए के संपादक (विचार) हैं. उनसे संपर्क 09927500541 के जरिए किया जा सकता है.

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0 Comments

  1. vikrant vikram shah

    September 4, 2010 at 10:52 am

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  2. Bhagwan Swaroop

    September 2, 2010 at 9:06 pm

    सुंदर रचना की है . अपने में इस कृष्ण को धारण करना ही ज्ञान है।..मैं इसमें लिखी हर बात से सहमत तो नहीं हूँ मगर , ..बिलकुल नया approach लिया गया है . अच्छा लगा

  3. Dr C P Rai

    September 3, 2010 at 3:08 pm

    सुभाष राय जी ने लिखा की कृष्ण को फिर से पाना होगा ,बहुत अच्छा विवेचनात्मक और यथार्थपरक लेख है जो कृष्ण को नई दृष्टि से देखने तथा नई विधा से सोचने को भी मजबूर करता है .ठीक कह रहे है राय साहब कृष्ण का मतलब वो जो सदैव दूसरो का था ,दूसरो के लिए था .जिसकी जन्म देने वाली माँ पीछे छूट जाती है और पालने वाली बाजी मार ले जाती है ,जिसके दोस्त की चर्चा कही बहुत ज्यादा होती है और भाई पीछे छूट जाता है ,जिसकी पत्नी या पत्नियों को उनकी दोस्त से बड़ी जलन होगी और हो सकता है आज भी हो रही हो ,जो एक साथ सोलह हजार को अपना लेने की छमता रखता हो ,जो सत्ता को चुनौती देने की छमता रखता हो और जिसने उस युग में एक युद्ध छेड़ दिया हो की जो खा नही सकता उस भगवान को क्यों खिलाते हो ,शायद सूघ भी नही सकता ,इसलिए लाओ मै खा सकता हूँ मुझे खिलाओ और उन सब को खिलाओ जिन्हें भूख लगती है .केवल चुनौती ही नही देता वरन जब मुसीबत आती है तों सभी की रक्षा में आगे आकर खड़ा हो जाता है .मै सोचता हूँ की इन्द्र के प्रकोप से बचाने के लिए उन्होंने कैसे अपनी छोटी सी उंगली पर इतना बड़ा पहाड़ उठाया होगा ,उनकी उंगली दुखी तों जरूर होगी और शायद आज भी दुख रही है .लेकिन उस पहाड़ के उठाने से ज्यादा उनके नाम पर किये जा रहे पापो के बोझ से उनका सर और पूरा शरीर दुख रहा है .कितना पैदल चले थे कृष्ण ,नाप दिया पूरब से पश्छिम तक भारत को ओर दो छोरो को जोड़ दिया ,परिचय करा दिया इतने बड़े हिस्से का एक दूसरे से.कभी सोचता हूँ की यदि जूआ नही होता रहा होता तों क्या होता ,यदि द्रौपदी की साड़ी भरी सभा में नही खींची गई होती तों क्या होता ,इतिहास कौन सी करवट लेता.भारत ,महाभारत होता या फिर भी भारत में तब भी महाभारत होता ,सवाल बड़ा है जवाब आसान नही है .लेकिन कृष्ण फूल मालाओ ,भारी भारी कपड़ो और बड़े बड़े मुकुटों के नीचे दब कर कराह रहे है .कृष्ण का मतलब बड़े दिल वाला ,दूसरो को अपनाने वाला ,हर अन्याय से संघर्ष करने वाला आज अपने अस्तित्व के लिए कही जूझ रहा है .उसे संघर्ष से निकलना ही होगा और आकर फिर से कहना ही होगा ;रे दुर्योधन मै जाता हूँ ,तुझको संकल्प सुनाता हूँ ,याचना नही अब रण होगा .जीवन जय या की मरण होगा ;कैसे कृष्ण की दुखती उंगली का दर्द घटे ,कैसे उनके सर और शरीर का बोझ हटे और सम्पूर्ण कलाओं का मालिक कृष्ण ,संघर्ष और न्याय का प्रतीक कृष्ण स्वतंत्र होकर फिर सामने हो ,ये बहस जारी रहेगी.

  4. Santosh Chauhan

    September 10, 2010 at 1:04 pm

    subhash rai ne achha likha hai / Lekin agar Shri Krishan ko Krishan kha yah galat hai /

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