तकलीफ हुई मिड डे की खबर पर आपकी प्रतिक्रिया पढ़कर। ऐसा लगा कि प्रतिक्रिया नहीं, तिलमिला कर कोई असंवेदनशील व्यक्ति निरर्थक बहस पर उतारू हो। मैं खुद भी उस शहर का हूं जहां से आप निकले। इलाहाबाद का। पर मेरे जेहन में आपका चस्पा सन 1981 तक खत्म हो चुका था और विश्वविद्यालय पहुंचने के बाद हरिवंशजी कहीं ज्यादा श्रद्य़ेय हो गए। इलाहाबाद से जब आप चुनाव लड़ रहे थे और मेडिकल कॉलेज के पीछे राजन साहब (शायद आपके मामाजी) की कोठी में आप ठहरे हुए थे और वहीं से चुनाव अभियान चला थे। उस दौर में विश्विवद्यालय के कुछ छात्रों का जत्था कोठी से आपकी चौकड़ी के निकलने का बेसब्री से इंतजार करता ताकि हरिवंश जी तक पहुंच सके। मैं उन खुशनसीबों में हूं, जिन्होंने फिराक साहब और हरिवंश जी को देखा और सुना भी।
यह सब आपसे इस लिए कह रहा हूं, क्योंकि आप कभी मुझे सामाजिक सरोकारों वाले व्यक्ति लगे ही नहीं, और बाद के सालों में यह साबित भी हो गया। एक राजनेता के तौर पर इलाहाबाद से निकल भागने वाले शख्स के तौर पर तो आपको क्षमा भी किया जा सकता है क्योंकि आप उस जमात के प्राणी नहीं थे, पर एक पुत्र के तौर पर आप वाकई नाकाबिले माफी हैं। जिस इलाहाबाद में हरिवंशजी ने काली प्रसाद जायसवाल इंटर कॉलेज से अपना सफर शुरू किया और फिर प्रयाग विश्वविद्यालय पहुंच हिदी साहित्य की नामचीन हस्ती बने। उसी शहर, हरिवंशजी और प्रयाग के परिवेश ने आपकी भाषा को मांजा और भाषाई संस्कार से तिरोहित हो चुके बंबई शहर में आपको एक अलहदा मुकाम दिया। उसी शहर ने आपको विचार दिया जो आपकी संवाद अदायगी में झलका। क्योंकि बिना विचारों के शब्दों में प्राणवायु आ ही नहीं सकता।
यह फर्क तो फिल्म आनंद में ही साफ दिखाई देता है जब राजेश खन्ना कहते हैं, बाबू मोशाय किससे कंटीन्यूटी है तो आपका सवाल होता है, व्हाट कॉंटीनियूटी। शब्दों के उच्चारण का फर्क तभी कान में बजा था।
हरिवंशजी ने भले ही अपने आत्मकथ्य (क्या भूलं क्या याद करूं) में उस शहर को भरसक कोसा हो पर उस शहर प्यार भी उन्होंने बेहद किया। उनकी इन भावनाओं का मैं भी अदना सा साक्षी हूं, इलाहाबाद प्रवास में प्रतापगढ़ और इलाहाबाद के साथ रिश्तों के कुछ अनछूए पन्नों में हमें भी साझीदार बनाया था हरिवंश जी ने। उसी शहर ने बयॉज हाईस्कूल के अदने से छोरे को मुंबई पहुंचा कर गंगा किनारे वाला छोरा बना दिया। पर आपने ना बाबूजी को याद रखा और ना उस शहर-विश्वविद्यालय से अपने बाबूजी के रिश्ते को। मैं शहर में हरिवंशजी की मूर्तियां लगवाने की बात नहीं कर रहा हूं, मायावती की तरह। हरिवंशजी के सृजन के बिरवे को रोपने की बात कह रहा हूं।
एक वक्त था, लोहिया के नाम पर सियासत करने वाले आपके गलबहियां यार अमर सिंह और मुलायम सिंह उत्तर प्रदेश की सत्ता में बुरी तरह से काबिज थे, उस वक्त भी आपको याद ना आया कि बाबूजी के नाम पर इलाहाबाद यूनीवसिर्टी में कोई पीठ या छात्रवृत्ति की शुरुआत करा दें। महज 500 रुपए की ही सही। मुफलिसी का यह आलम था तो इलाहाबाद वालों से अपील करके तो देखते। यह भी ना हुआ। आपकी जानकारी के लिए एक स्मृति साझा करना चाहूंगा। एक बार भारत के राष्ट्रपति रहे डॉ. शंकर दयाल शर्मा ने बातचीत में कहा, सुमंत यदि इलाहाबाद नहीं गया होता तो यहां तक ना पहुंचता। मैंने पूछा सो कैसे, बोले, प्रयाग विश्वविद्यालय गया तो नेहरू जी से मिला और उनसे मिला तो राजनीति में आ गया। सफर से साथ यहां तक पहुंच गया। पर आप इसे नहीं समझेंगे क्योंकि आपके अंकगणित और फलित कुछ और ही हैं।
दरअसल, यह बात मैं उस शख्स से कह रहा हूं, जिसके सामाजिक सरोकारों की अपनी ही व्याख्या है क्योंकि वह सफल कारोबारी है। गुर्बत में डूबे मुल्क में हसीन ख्वाबों का धंधा करता है। उस मुल्क में उसका कारोबार है, जहां का इंसान मनोरंजन के नाम पर बीवी के जिस्म को रौंदता है और दस-पंद्रह साल पहले तक जिसके पास मनोरंजन का विकल्प सिर्फ फिल्म था। आपके कारोबार की मुफीद जमीन।
ऐसे में पत्रकार बंधुओं जब वह शख्स कह रहा है, मेरी गाड़ी पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रही है, पर अखबार छाप कर भी तो पेड़-पौधों की ऐसी तैसी कर रहे हैं आप न्यूज़पेपर वाले तो कृपया हैरान ना हों। गाड़ियों की एकांतिक सुख को भोगने वाला फिल्मी नायक पत्रकारिता के व्यापक सामाजिक सरोकार पर ऐसी एकांगी टिप्पणी करेगा, मुझे पक्का यकीन था। आप खरे हैं अमिताभ बच्चन।
देश की जनता मूढ़ है, चिरकुट है। पिता को भुला बेटवे की बहुरिया के नाम पर बाराबंकी में स्कूल (शायद फार्म हाउस) खोलने वाले फिल्मी नायक से क्यों पर्यावरण सरीखे गंभीर मुद्दों पर कोटर से निकल रास्ते में आ हुंकार भरने की उम्मीद पाले बैठी है।
अमिताभ साहब, यह आपका सौभाग्य है और देश का दुर्भाग्य है कि आप जैसे फिल्मी नायको को वास्तविक जीवन का नायक समझने-मानने की भूल बार-बार करता है यह चिरकुटों का मुल्क। खुद से निकलने की आप में ना काबलियत है और ना ही कूबत।
गुस्ताखी के लिए माफी के साथ…
सुमंत भट्टाचार्या
सहायक संपादक
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नई दिल्ली
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kalanidhi mishra
March 13, 2010 at 2:52 am
Sumant bhaie bahut khoob apne likha. Apke vicharo se bahut se loag sahmat honge. lekin yah wakya thiek nahie haie कि आप जैसे फिल्मी नायको को वास्तविक जीवन का नायक समझने-मानने की भूल बार-बार करता है यह चिरकुटों का मुल्क। yah desh beer jawano, mastano aur Gandhi, shubhas, nehru, patel aur bhagat singh jaise logo ka bhie haie.