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इंटरव्यू

‘प्रभात खबर’ चौथा बेटा, जिससे अलग किया गया

SN Vinod

हमारा हीरो –  एसएन विनोद 

पार्ट (1)

पिछले पांच दशक से पत्रकारिता में शीर्ष पर जगमगा रहे एसएन विनोद हमारे बीच ऐसे दिग्गज संपादक हैं जो खुद में न सिर्फ पत्रकारिता संस्थान हैं बल्कि एक कंप्लीट माडिया हाउस भी हैं। प्रभात खबर की परिकल्पना करने से लेकर उसे लांच करने वाले एसएन विनोद इस अखबार के निदेशक होने के साथ-साथ प्रधान संपादक भी रहे। विनोद जी के नाम देश के सबसे कम उम्र संपादक होने का भी रिकार्ड है। 

SN Vinod

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हमारा हीरो –  एसएन विनोद 

पार्ट (1)

पिछले पांच दशक से पत्रकारिता में शीर्ष पर जगमगा रहे एसएन विनोद हमारे बीच ऐसे दिग्गज संपादक हैं जो खुद में न सिर्फ पत्रकारिता संस्थान हैं बल्कि एक कंप्लीट माडिया हाउस भी हैं। प्रभात खबर की परिकल्पना करने से लेकर उसे लांच करने वाले एसएन विनोद इस अखबार के निदेशक होने के साथ-साथ प्रधान संपादक भी रहे। विनोद जी के नाम देश के सबसे कम उम्र संपादक होने का भी रिकार्ड है। 

मात्र 20 वर्ष में वे ‘स्वतंत्रता’ नामक साप्ताहिक अखबार के संपादक हो गए थे।  हिन्दी भाषी होते हुए भी मराठी भाषा के अखबारों को जमाने का गुर एसएन विनोद बखूबी जानते हैं। SN Vinodवे इन दिनों भी मराठी दैनिक ‘देशोन्नती’ के समूह संपादक हैं। इसी ग्रुप के साथ मिलकर बतौर निदेशक और प्रधान संपादक ‘राष्ट्रप्रकाश’ नामक एक नए हिंदी दैनिक को लांच करने के अभियान में जुटे हैं। विनोद जी ने सैकड़ों पत्रकारों को न सिर्फ मौका दिया बल्कि उन्हें तराशा और आगे भी बढ़ाया।  ‘राष्ट्रप्रकाश’ की लांचिंग की तैयारियों के सिलसिले में पत्रकारिता का यह हीरो पिछले दिनों जब दिल्ली पहुंचा तो भड़ास4मीडिया के एडिटर यशवंत सिंह ने उनसे कई किश्तों में लंबी बातचीत की। पेश है इंटरव्यू का पहला पार्ट-


-सबसे पहले तो आपको बधाई, मंदी के इस दौर में एक नया हिंदी अखबार लांच करने के लिए। आपने इस अखबार को जिंदगी का सबसे बड़ा और सबसे महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट कहा है। कृपया समझाएं?

–धन्यवाद. चूंकि आपने इन दिनों बहुचर्चित ‘मंदी’ की बात उठा दी, तो पहले दो शब्द इस विषय पर ही. मंदी के दौर में अखबार निकालने को लेकर जो संशय आपके मन में आया है, निश्चय ही, वह मेरी दृष्टि में, उस ‘प्रचार’ की उपज है, जिसका सुनियोजित ढंग से हौवा खड़ा किया गया. विश्व स्तर पर आर्थिक मंदी के कारण और उसके प्रभाव की चर्चा आर्थिक विशेषज्ञ कर रहे हैं. मैं कोई विशेषज्ञ नहीं हूं, लेकिन जिस कथित मंदी के बहाने अनेक हिन्दी अखबारों ने पिछले दिनों कर्मचारियों की छँटनी का जो अभियान चलाया, कोई उनके संचालकों से पूछे कि उनकी आमदनी में क्या वाकई कमी हुई है? अगर ऐसा है भी तो आमदनी के अन्य स्रोत तलाशने की जगह कर्मचारियों की छँटनी को जायज नहीं ठहराया जा सकता. कहा तो यह जा रहा है कि मंदी के बहाने संचालक कर्मचारियों का ‘आफलोड’ कर अपने खर्च को घटा, आमदनी बढ़ाना चाहते हैं.

अब रही बात हमारे नए प्रोजेक्ट ‘राष्ट्रप्रकाश’ की, तो हां, यह महत्वाकांक्षी योजना है. ‘राष्ट्रप्रकाश’ ऐलानिया तौर पर देश का पहला हिन्दी विचार दैनिक होगा. इसे मैंने एक नई चुनौती के रूप में लिया है. चुनौती इसलिए कि ‘राष्ट्रप्रकाश’ देश का पहला ऐसा समाचार-विचार दैनिक होगा जो खबरों/आलेखों के माध्यम से पाठकों को सिर्फ जानकारी ही नहीं देगा, बल्कि उनकी सोच-प्रक्रिया को ठोस आधार भी देगा. यह एक ऐसा दैनिक होगा, जो जारी परंपरा को तोड़ते हुए त्वरित टिप्पणी के साथ विश्लेषणात्मक खबरें प्रस्तुत करेगा. स्वस्थ पाठकीय मस्तिष्क को विचार-प्रक्रियारूपी ईंधन प्रदान करेगा-बगैर किसी पक्षपात के, बगैर किसी पूर्वाग्रह के! निडर-निष्पक्ष पत्रकारिता का आदर्श मानक बन ‘राष्ट्रप्रकाश’ विचार-क्रांति का प्रेरक बनेगा. मीडिया पर मंडरा रहे विश्वसनीयता के संकट की समाप्ति की दिशा में ‘राष्ट्रप्रकाश’ ईमानदारी से प्रयत्नशील रहेगा. अविश्वसनीयता की कालिमा से दूर विश्वसनीयता की नई रोशनी का वाहक होगा ‘राष्ट्रप्रकाश’!

SN Vinodइस प्रयास के मार्ग में कठिनाइयां आएंगी, इसका एहसास मुझे है. जो मेरी योजना है, उसे क्रियान्वित करने के लिए समर्पित संपादकीय सहयोगियों की टीम की जरूरत है. पहले की भांति इस बार भी मैंने नई प्रतिभाओं के साथ-साथ अनुभवी पत्रकारों की कुशल टीम बनायी है. हमारे इस नए प्रयोग का एक लाभ यह हो रहा है कि सभी सहयोगियों ने लगभग लुप्तप्राय: स्वाध्याय की प्रवृत्ति का वरण कर लिया है. खबरों के विश्लेषण के लिए सहयोगियों को न केवल विषय का ज्ञान, बल्कि घटनाओं की अद्यतन जानकारी आवश्यक है. यह तभी संभव है, जब वे पढऩे और जानने की प्रवृत्ति को ऊर्जा देते रहेंगे. मुझे खुशी है कि ‘राष्ट्रप्रकाश’ की टीम ने इस जरूरत को समझ स्वयं को तैयार कर लिया है. इस प्रोजेक्ट की सफलता निश्चय ही मीडिया जगत के लिए नए दरवाजे खोलेगी. 

-अब लौटते हैं आपके बचपन की ओर। आप अपने जन्म, बचपन और पढ़ाई-लिखाई के बारे में बताएं?

–मेरा जन्म पटना (बिहार) में पत्रकार परिवार में हुआ. अंग्रेजी दैनिक ‘सर्चलाइट’ के संपादक मेरे बड़े चाचा (स्व.) मुरली मनोहर प्रसाद जी थे. ‘सर्चलाइट’ के संबंध में सुप्रसिद्ध इतिहासकार (पटना विश्वविद्यालय के उपकुलपति) डॉ. कालीकिंकर दत्त ने लिखा था कि ” History of the Searchlight is the history of the freedom movement in Bihar.” स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ‘सर्चलाइट’ अंग्रेजी शासकों के लिए सिरदर्द था.SN Vinod घर और कार्यालय एक ही भवन में था. मेरा जन्म 1 नवंबर 1941 को वहीं हुआ, अर्थात् मशीन की खड़खड़ाहटों के बीच!

स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी, पं. मोतीलाल नेहरू,  डॉ. राजेन्द्र प्रसाद सहित पटना आने वाले अन्य सभी नेताओं का मंत्रणा-स्थल ‘सर्चलाइट’ ही हुआ करता था. घर का पूरा वातावरण राष्ट्रवादी व पत्रकारीय था. आजादी के बाद 1948 में चाचाजी, जिन्हें हम ‘बड़का बाबूजी’ कहा करते थे, ‘सर्चलाइट’ से (30 वर्ष तक जुड़े रहने के बाद) पृथक हो गए. उस घटना का वृतांत कभी अन्य अवसर पर. तब पटना ही से प्रकाशित एक अन्य अंग्रेजी दैनिक ‘इंडियन नेशन’ के मालिक दरभंगा महाराज सर कामेश्वर सिंह ने उन्हें संपादक बनाने की पेशकश की. वे तैयार नहीं हुए. किन्तु दरभंगा महाराज और डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के आग्रह पर उन्होंने ‘इंडियन नेशन’ के लिए सप्ताह में दो स्तंभ लिखना शुरू किया. इसके साथ ही अंग्रेजी साप्ताहिक ‘स्पार्क’ और हिन्दी साप्ताहिक ‘प्रकाश’  का प्रकाशन भी शुरू किया. ऐसे वातावरण के बीच पत्रकारिता मेरे रग-रग में बस चुकी थी. मेरे लिए पत्रकारिता संसार का सबसे बड़ा मिशन और संपादक सबसे बड़ा व्यक्ति था. प्रसंगवश एक घटना का उल्लेख करना चाहूंगा.

बात तब की है, जब मैं सातवीं कक्षा उत्तीर्ण कर आठवी में प्रवेश (1955) ले रहा था. यह वही काल था जब देश की नई पीढ़ी की दिलचस्पी इंजीनियर या डॉक्टर बनने के प्रति जोर मार रही थी. हम सभी छात्र स्कूल के हॉल में बैठे थे. प्रधानाध्यापक अपने सहयोगी अध्यापकों के साथ एक-एक विद्यार्थी से उसकी पसंद पूछ रहे थे. परीक्षा में प्राप्तांक के आधार पर उन्हें विषय आवंटित करना था. विद्याथियों से पूछा जा रहा था, ”तुम क्या बनना चाहते हो? इंजीनियर या डॉक्टर?” इंजीनियर या डॉक्टर से प्रधानाध्यापक का मतलब था गणित और जीवविज्ञान. माता-पिता की इच्छा थी कि मैं इंजीनियर SN Vinodबनूं. मैं घर से सोच कर भी यही चला था. लेकिन…..? जब प्रधानाध्यापक ने मुझसे पूछा कि क्या बनना चाहते हो? अनायास मेरे मुंह से निकल गया- ”एडिटर” ….!

वहां मौजूद विद्यार्थी तो हंस पड़े, लेकिन प्रधानाध्यापक ने तब मुस्कुराकर टिप्पणी की थी- ”हां,  तुम एडिटर ही बनोगे…. अपने चाचा की तरह!” मैं पूरी ईमानदारीपूर्वक बता रहा हूं कि मेरा उत्तर पूर्व निश्चयाधारित नहीं था. पत्रकारिता की पवित्रता और प्रभाव की तेज आभा से वशीभूत मैं अनायास उत्तर दे गया था.

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इसी संदर्भ में लेखन की शुरुआत से जुड़ी एक और घटना. मेरी मां बलिया (उ.प्र.) की थीं. उनके एक चाचा (मेरे नाना) थे- विश्वनाथ प्रसाद ‘मर्दाना’ जो कट्टर कम्युनिस्ट थे. वे जब भी पटना आया करते थे, कम्युनिस्ट आंदोलन से जुड़ीं पुस्तकें छुपा कर मुझे दे दिया करते थे. चूंकि उन दिनों कम्युनिस्ट शब्द किसी गाली से कम नहीं था. घर का वातावरण कांग्रेसी था. उन पुस्तकों को पढऩे के बाद मेरे मन में अनेक अंतरद्वंद्व उठे, तब मैंने एक लेख ”भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और उसकी राजनीतिक चूकें” लिखा. उन दिनों मैं सातवीं कक्षा का छात्र था. इस लेख को मैंने तब पटना से प्रकाशित दैनिक ‘विश्वमित्र’ के संपादक को भेज दिया. आश्चर्य और खुशी कि वह लेख ‘विश्वमित्र’ के संपादकीय पृष्ठ पर छपा.समय बीतता गया. पटना हाईस्कूल से मैट्रिक (ग्यारहवीं) करने के बाद एच.डी. जैन कॉलेज (आरा) में इंटरमीडियट (गणित) में दाखिला लिया. 

SN Vinod-पत्रकारिता से संपर्क कब और कैसे हुआ?

–जैसा कि मैं बता चुका हूं, पत्रकारिता मुझे विरासत में ही मिली, लेकिन सक्रिय पत्रकारिता की शुरुआत कॉलेज जीवन से हुई. मेरे एक मित्र केवल धीर (अब डॉक्टर केवल धीर) भी उन दिनों पटना में छात्र थे. तेजतर्रार धीर ने उन्हीं दिनों एक पाक्षिक- ‘धारा’ का प्रकाशन शुरू किया. वे स्वयं प्रधान संपादक बने और संपादक के रूप में मेरा नाम दिया. यह 1959 की बात है. उन्हीं दिनों जयप्रकाश नारायण ने सक्रिय राजनीति से अवकाश लेने की घोषणा की थी. बता दूं कि जयप्रकाश नारायण जी हमारे मोहल्ले कदमकुआं (पटना) में ही रहा करते थे और उनसे हमारे पारिवारिक रिश्ते थे. राजनीति से उनके अवकाश पर ‘धारा’ में मैने दो किश्तों में एक बड़ा लेख लिखा- ”जयप्रकाश नारायण किधर?” 

इसके बाद एक दिन रविवार को जे.पी. हमारे घर जब भोजन पर आये, तब उन्होंने मुझे बुलाकर मेरे लेख पर बातचीत की और उलाहना भरे शब्दों में कहा,  ”अगर तुम इसे लिखने से पहले मुझसे बात कर लेते, तो जो शंकाएं तुमने व्यक्त की हैं, उनका समाधान पहले हो जाता.”  लेख की कुछ तथ्यात्मक गलतियों की ओर भी उन्होंने मेरा ध्यान आकर्षित किया. वे ‘धारा’ के उस अंक को साथ लेकर आए थे, जिसमें वह लेख प्रकाशित हुआ था. यह देखकर मैं उत्साह से भर गया था कि जे.पी. ने मेरे लेख का संज्ञान लिया था.

अब सक्रिय पत्रकारिता से जुडऩे की घटना. बात 1961 की है. उन दिनों बिहार में चक्रवर्ती राजगोपालाचारी द्वारा स्थापित स्वतंत्र पार्टी का बोलबाला था. रामगढ़ के राजा बहादुर कामाख्या नारायण सिंह बिहार इकाई के अध्यक्ष थे. उपाध्यक्ष थे एड. जलेश्वर प्रसाद (डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के समधी) और महामंत्री थे जानकीनंदन सिंह (दरभंगा महाराज के बहनोई). ‘स्वतंत्रता’ नाम से इस पार्टी का एक साप्ताहिक पत्र ब्रॉड शीट में निकलता था. सुप्रसिद्ध पत्रकार दिनेश प्रसाद सिंह इसके संपादक थे. दिनेश जी बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष भी रहे. मैं इस पत्र में एक साप्ताहिक स्तंभ ‘खोटे सिक्के’ शिनावि के नाम से लिखा करता था.

अचानक एक बार कुछ ऐसा हुआ कि दिनेश जी ने संपादक पद से इस्तीफा दे दिया.  और कुछ नाटकीय घटनाक्रमों के बाद मुझे ‘स्वतंत्रता’ का संपादक बना दिया गया. मेरे लिए वह एक बड़ी चुनौती थी. बीस वर्ष की आयु और राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण एक समाचार साप्ताहिक का संपादन.इस पेशकश को स्वीकार करने से पूर्व मन में कई द्वंद्व उठे थे. छात्र था, परिवार की कुछ अलग अपेक्षाएं थीं, लेकिन नियति ने मुझे वह सौंपा, जिसका स्वप्न मैं बचपन से देखता था. इस दायित्व के निर्वाह में मेरी पढ़ाई बाधित हुई, जिसे मैंने बाद में पूरा किया. और इस प्रकार शुरू हुई संपादक के रूप में मेरी सक्रिय पत्रकारिता. 

SN Vinod-प्रभात खबर के आप संस्थापक और संपादक रहे हैं। यह प्रोजेक्ट किस तरह मूर्त रूप ले सका और किन हालात में आप इससे अलग हुए?

–इस प्रश्न का अगर सविस्तार उत्तर दिया जाए तो एक पूरा उपन्यास तैयार हो जाए. वैसे मेरी करीब-करीब पूरी हो चुकी पुस्तक ‘दंश’ में ‘प्रभात खबर’ के प्रकाशन की कल्पना, उसकी योजना का क्रियान्वयन और मेरे पृथक होने की घटना का पूरा विवरण मिल जाएगा. लेकिन जब आपने पूछा है तब संक्षेप में जानकारी दे दूं. बात 1974 की है, जब मैंने रांची से एक दैनिक समाचार पत्र ‘जनता टाइम्स’ के प्रकाशन की योजना बनाई थी. तब रांची में कोई दैनिक नहीं था और ‘रांची एक्सपे्रस’ साप्ताहिक के रूप में निकला करता था. वह काफी लोकप्रिय भी था. बलवीर दत्त इसके संपादक थे- आज भी दैनिक ‘रांची एक्सप्रेस’ के संपादक हैं. तभी पिताजी का स्वर्गवास हो जाने के कारण दैनिक ‘जनता टाइम्स’ की योजना खटाई में पड़ गई, लेकिन 1980 में साप्ताहिक के रूप में ‘जनता टाइम्स’ का प्रकाशन ब्रॉड शीट पर शुरू किया. जिस प्रेस में साप्ताहिक की छपाई होती थी, उसने एक षडय़ंत्र के तहत असहयोगी रवैया अपनाना शुरू किया. अंत में मैंने इस शपथ के साथ ‘जनता टाइम्स’ का प्रकाशन बंद कर दिया कि ”कभी-न-कभी रांची से ही अपने प्रेस के साथ दैनिक समाचार पत्र का प्रकाशन शुरू करूंगा.”

SN Vinodबता दूं कि तब संसाधन के नाम पर मेरे पास शून्य था. हां, मित्रों की शुभेच्छाएं अवश्य साथ थीं. रांची में तब ज्ञानरंजन कांग्रेस के एक युवा नेता थे. 1980 के विधानसभा चुनाव में रांची से वे कांग्रेस के उम्मीदवार बने. जगन्नाथ चौधरी नामक कांग्रेस के एक अन्य दिग्गज ज्ञानरंजन की उम्मीदवारी के खिलाफ विद्रोही उम्मीदवार के रूप में चुनाव में खड़े हो गए. मेरे एक घनिष्ठ मित्र विजयप्रताप सिंह के छोटे भाई छात्र नेता रंजीत बहादुर सिंह भी स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनावी अखाड़े में ताल ठोक रहे थे. रंजीत की उम्मीदवारी को मैंने गंभीरता से नहीं लिया था. ज्ञानरंजन मुझे बार-बार कह रहे थे कि मैं अपने प्रभाव का उपयोग कर किसी तरह रंजीत की उम्मीदवारी वापस करा दूं.

ज्ञानरंजन उन दिनों प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के काफी नजदीकी माने जाते थे. मैंने विजयप्रताप सिंह से बात की, तो उन्होंने रंजीत से बात करने के लिए मुझे मना कर दिया, यह कहते हुए कि ”कृष्णा (रंजीत के बड़े भाई, जो ज्ञानरंजन के मित्र हुआ करते थे) ने घर में बात छेड़ी थी, किन्तु रंजीत ने यह कह कर सबका मुंह बंद कर दिया कि अगर कृष्णा भैया भी खड़े हो जाएंगे तो भी मैं उम्मीदवारी वापस नहीं लूंगा.” लेकिन बाद में दिनेश नंदन सहाय (संप्रति- राज्यपाल, त्रिपुरा), कांग्रेस के मशहूर नेता जी.एल. डोगरा एवं टी. अंजैया एवं कुछ अन्य पत्रकार मित्रों के आग्रह पर मुझे हस्तक्षेप करना पड़ा और यह कहा जा सकता है कि अपने पूरे रिश्तेदारों, मित्रों एवं सहयोगियों की अनिच्छा के बावजूद रंजीत ने मेरे अनुरोध का सम्मान करते हुए ज्ञान जी के पक्ष में अपनी उम्मीदवारी वापस ले ली.

यह सिर्फ दोहराना ही होगा कि ज्ञान जी, स्वयं उनकी पार्टी कांग्रेस के तगड़े विरोध के बावजूद करीब पांच हजार मतों से विजयी हुए. और विजयी मत ज्ञान जी को रंजीत के प्रभाव वाले क्षेत्रों से ही मिले. सुबह के लगभग 4 बजे होंगे, जब मतगणना खत्म हुई, तब हाथों में प्रमाणपत्र और आंखों में आंसुओं के साथ ज्ञान जी ने गले मिलते हुए बुदबुदाया था- ”विनोदजी, आपका यह एहसान मैं जिंदगी भर नहीं भूलूंगा.” ज्ञान जी से निकटता बढऩे का यह एक बड़ा कारण बना. इस बीच उन्होंने ‘जनता टाइम्स’ का हवाला देते हुए साथ मिल कर अखबार निकालने की इच्छा जताई, लेकिन मैंने कोई तवज्जो नहीं दी. इस बीच मैं समाचार एजेंसी ‘समाचार भारती’ का प्रबंधक/ संपादक बन कलकत्ता चला गया था.

SN Vinodज्ञानरंजन का कलकत्ता आना-जाना लगा रहता था. एक बार मेरे व्यावसायिक मित्र डॉ. हरि बुधिया रांची से कलकत्ता आए थे. जब मैं बुधिया जी से मिलने होटल जा रहा था, तभी ज्ञान जी मुझसे मिलने के लिए पहुंचे और मैंने उन्हें अपने साथ ले लिया. जब मैंने हरि बुधिया का परिचय ज्ञान जी से करवाया, तब छूटते ही ज्ञान जी ने (अपनी आदत के अनुसार) बुधिया जी से कहा कि विनोद जी को समझाइए, यह अखबार निकालना चाहते थे, मैं भी चाहता हूं कि साथ मिल कर रांची से अखबार निकालें. चूंकि तब तक बुधिया जी से मैंने दैनिक की योजना के संदर्भ में बात नहीं की थी, वे मौन रह गए. बाद में बुधिया जी ने मुझसे मेरी इच्छा पूछी. मेरा जवाब था कि जिस दिन मेरे पास संसाधन उपलब्ध हो जाएंगे, मैं दैनिक-पत्र अवश्य निकालूंगा. मेरी इच्छा एक ऐसे समाचार पत्र के प्रकाशन की है, जो विशुद्ध रूप से एक पत्रकारीय मंच बने. बुधिया जी ने चुपचाप शांति से मेरी बात सुनी. फिर मुझसे कहा कि विनोद जी, अगर आपकी इच्छा है तो इसे पूरा कीजिए. उन्होंने ज्ञानरंजन के संभावित सहयोग की चर्चा कर दो-तीन दिन बाद एक तारीख दी और कहा कि उस दिन आप पटना में ज्ञानरंजन को बुला लें, फिर हम इस पर चर्चा करेंगे. तब उन्होंने अपने मन की बात का एहसास मुझे नहीं होने दिया था.

खैर, हम पटना के होटल पाटलिपुत्र-अशोक में मिले. सहयोग की बाबत पूछे जाने पर ज्ञानरंजन ने बताया कि अपने प्रभाव का उपयोग कर वे प्रतिदिन औसत एक से दो पेज का विज्ञापन ले आएंगे. और, और भी सहयोग देंगे. बुधिया जी ने सारी बातों को सुनने के बाद अचानक यह कह दिया कि ”आप दोनों पार्टनरशिप कर लें. विनोद जी पत्रकार हैं, अखबार का काम संभाल लेंगे. ज्ञान जी अपने प्रभाव से जो मदद कर सकते हैं, करें. मैं आप लोगों के लिए बढिय़ा प्रिंटिंग प्रेस लगा देता हूं. और भी जो जरूरत पड़ेगी, मैं व्यवस्था कर दूंगा. जिस दिन आप लोगों का अखबार/ प्रेस जम जाए तब अगर आप मेरा पैसा वापस कर देंगे तो ठीक है, नहीं भी करेंगे, तो कोई बात नहीं. हां, मेरी एक शर्त है कि मेरे इस सहयोग के बारे में बाहर कोई चर्चा न हो.”

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SN Vinodमैं अवाक् रह गया. ज्ञान जी ने बुधिया जी से कहा कि वे अपनी ओर से भी किसी व्यक्ति को नामित कर दें, जिसे पार्टनर बनाया जा सके. बुधिया जी ने मुस्कुराते हुए कहा कि ”मेरे नॉमिनी तो विनोद जी हैं ही! मैं जो कुछ कर रहा हूं, विनोद जी के लिए ही कर रहा हूं.”  इस प्रकार रांची से दैनिक समाचार पत्र निकालने की योजना को आधार मिला.हम रांची लौटे. हमारे और ज्ञान जी के बीच विस्तार से चर्चा हुई और यह तय पाया कि प्रिंटिंग प्रेस और अखबार दो अलग-अलग इकाई रहेगी. प्रिंटिंग प्रेस में हम दोनों की पार्टनरशिप रहेगी. ज्ञान जी ने तब यह कहा कि ”प्रस्तावित अखबार का स्वामित्व आपका रहेगा.”

इस समझौते को आगे बढ़ाते हुए ‘विज्ञान प्रकाशन प्रा.लि.’ के नाम से एक कंपनी बनाई गई, जिसमें हम चार (मैं, मेरी पत्नी एवं ज्ञानरंजन तथा उनकी पत्नी) इसके डायरेक्टर बने. ‘विज्ञान प्रकाशन’ के रजिस्टर्ड कार्यालय के लिए ज्ञान जी के घर (वर्दवान कम्पाउंड, रांची) का पता दिया गया. इसके बाद अखबार के लिए डिक्लेरेशन पर स्थानीय प्रशासनिक अनुशंसा के साथ मैं दिल्ली जाकर आर.एन.आई. के रजिस्ट्रार से मिला. जो नाम मैं चाहता था, वह उपलब्ध नहीं था. चूंकि मुझे तत्काल नाम चाहिए था, तो रजिस्ट्रार के कक्ष में बैठकर वैकल्पिक नाम मैं देता रहा. रजिस्ट्रार मुझे बार-बार कह रहे थे कि ”नामों की कमी है, कुछ अंग्रेजी-हिन्दी के कॉम्बीनेशन में कोई नाम दें.” मैंने कुछ और नाम सुझाये, मगर वे भी उपलब्ध नहीं थे. सोचते-सोचते अचानक मेरे मस्तिष्क में हिन्दी-उर्दू के कॉम्बीनेशन के रूप में ‘प्रभात खबर’ का नाम उभरा. बताने पर रजिस्ट्रार महोदय इस पर तैयार हो गए. इस प्रकार ‘प्रभात खबर’ अस्तित्व में आया.

ज्ञान जी के साथ समझौते के अनुसार ‘प्रभात खबर’ का डिक्लेरेशन स्वामित्व के रूप में मेरे नाम पर जारी हुआ और इसके रजिस्टर्ड कार्यालय का पता हरमू कॉलोनी (रांची) स्थित मेरे निवास का दिया गया. बाद में मैंने अपनी ओर से पेशकश कर ‘प्रभात खबर’ में भी ज्ञान जी को पार्टनर बना लिया. लेकिन दोनों इकाइयों का पृथक कार्यालयीन अस्तित्व कायम रहा. इस बीच, अनेक तरह की कठिनाइयां सामने आयीं. ‘प्रभात खबर’ की योजना को लेकर अखबारों में अनुकूल-प्रतिकूल खबरें छपती रहीं. ऐसी भी परिस्थितियां कायम हुईं कि प्रकाशन के पूर्व ही मैंने इस योजना से हाथ खींच लेने का मन बना लिया था. बुधिया जी को दिया गया वादा (उनकी गोपनीयता संबंधी) भंग हो जाने के कारण भी कुछ कठिनाइयां पैदा हुईं. ज्ञानरंजन के राजनीतिक पाश्र्व के कारण दुश्मनों की फौजें खड़ी हो गयीं. लेकिन हम दोनों के कुछ ‘कॉमन फ्रेन्ड्स’ के हस्तक्षेप के बाद हमने ‘प्रभात खबर’ का प्रकाशन शुरू किया. प्रकाशन पूर्व देशभर में ‘प्रभात खबर’ की चर्चा हो चली थी. अंग्रेजी-हिन्दी अखबारों में ‘प्रभात खबर’ को लेकर समाचार/आलेख प्रकाशित होने लगे. एक अत्यंत ही कुशल एवं समर्पित सम्पादकीय टीम तैयार हुई. सुनील श्रीवास्तव इलाहाबाद से आ जुड़े, तो विजय भास्कर और सुरेश सिन्हा मुंबई से. मणिमाला ने अपने पत्रकारीय जीवन की शुरुआत ही इस ‘प्रभात खबर’ में मेरे साथ की.

SN Vinodप्रकाशन के छह माह के अंदर ही ‘प्रभात खबर’  लोकप्रियता के शीर्ष पर पहुंच गया. रांची से निकलने वाला यह ‘प्रभात खबर’ न केवल बिहार के हर कोने में, बल्कि दिल्ली, कलकत्ता, लखनऊ और त्रिवेंद्रम में भी बिका. राष्ट्रीय स्तर पर ‘प्रभात खबर’ चर्चित हुआ. इस बीच, अचानक बगैर मेरी जानकारी के ‘विज्ञान प्रकाशन प्रा.लि.’ में एक पांचवें निदेशक की नियुक्ति को लेकर हमारे बीच मतभेद गहरा गये. कंपनी रजिस्ट्रार के यहां हुई उस साजि़श के बाद बैंक खातों में भी घोर आपराधिक चरित्र की गड़बडिय़ां सामने आयीं. विवाद ने तूल पकड़ा. चूंकि हम दोनों के अनेक ‘कॉमन फ्रेंडस्’ और ‘कॉमन रिश्तेदार’ थे. मैं नहीं चाहता था कि विवाद का अंत अशोभनीय हो. रांची के तत्कालीन पुलिस महानिरीक्षक ललित विजय सिंह (जो बाद में चंद्रशेखर मंत्रिमंडल में रक्षा राज्यमंत्री बने) ने मुझसे पुलिस थाने में मामला दर्ज कराने के लिए कहा. मैं इन्कार कर गया. अनेक मित्रों के हस्तक्षेप के बाद एक बार पटना में ज्ञानरंजन ने एक राशि की मांग करते हुए कहा कि ”यह मुझे दे दी जाए, मैं पार्टनरशिप से हट जाऊंगा. विनोद जी प्रेस व अखबार चलाएं.” मैं तो तैयार नहीं था, लेकिन मित्रों के दबाव के बाद मैंने हां कर दिया. लेकिन मुझे यह पता नहीं था कि सारा ताना-बाना एक साजि़श का हिस्सा था. निश्चित तिथि को, जिस दिन ज्ञान जी को पैसे लेकर पार्टनरशिप की वापसी के ‘एग्रीमेंट’ पर हस्ताक्षर करने थे, वे नहीं आए. बेसब्री से इंतजार कर रहे ‘कॉमन फ्रेन्ड्स’ भी ज्ञान जी से नाराज हुए.

इन विवादों के बीच भी मैंने अखबार का प्रकाशन जारी रखा. विवाद के कारण बैंक खाते का परिचालन बंद हो चुका था. फिर भी न्यूज प्रिंट, सहयोगियों की तनख्वाह आदि के लिए मित्रों से मदद लेकर अखबार चलाता रहा. शायद यही मेरी सबसे बड़ी भूल थी. इस प्रसंग में तब सहयोगियों के उत्साह की चर्चा नहीं करना उनके साथ अन्याय होगा. भरी मीटिंग में एक दिन मणिमाला ने कहा कि, ”सर, अखबार आप ही चलाएं, हम लोगों के लिए सिर्फ टूथपेस्ट और ब्रश की व्यवस्था करा दें. हम आपके साथ हैं.” जब मेरे सारे संसाधन एवं स्रोत सूख गए, तब दूसरे पक्ष ने प्रहार किया. पैसा लेकर पार्टनरशिप से हट जाने की पेशकश करने वाले ज्ञानरंजन की ओर से प्रस्ताव आया कि ”विनोद जी अपना पैसा लेकर हट जाएं.” और अधिक विस्तार नहीं, परिस्थितियों से मजबूर हो मुझे हट जाना पड़ा.

वह वैसा वाकया था, जैसे किसी को उसके पुत्र से विलग कर दिया जाए! ‘प्रभात खबर’ मेरा चौथा बेटा है, जिससे मुझसे अलग कर दिया गया. पार्टनरशिप से वापसी के एग्रीमेंट में ‘कॉमन फ्रेन्ड्स’ के हस्तक्षेप पर एक शर्त जोड़ी गयी कि प्रथम पृष्ठ पर ‘प्रभात खबर’ के ‘मास्ट हेड’ के नीचे संस्थापक-संपादक के रूप में मेरा नाम हमेशा प्रकाशित होगा. ‘प्रभात खबर’ के स्वामित्व में परिवर्तन के बावजूद यह व्यवस्था जारी रहेगी. मेरे नागपुर आ जाने के बाद भी वर्षों ‘मास्ट हेड’ के नीचे तो नहीं, प्रिंट लाइन में मेरा नाम संस्थापक संपादक के रूप में छपता रहा. अब नहीं छपता.

SN Vinod-आपके बारे में कहा जाता है कि आपने सैकड़ों पत्रकारों को ब्रेक दिया और उन्हें आगे बढ़ाया। इनमें से कुछ नाम बताएं?

–जैसा कि मैंने पहले कहा है, अपने लंबे करियर में मैं हमेशा अपनी टीम में नए लोगों को प्राथमिकता देता रहा हूं. यही कारण है कि ऐसे लोगों की फौज बन गयी है. बहुत नाम तो अभी याद नहीं, लेकिन कुछ वैसे नाम अवश्य जेहन में हैं, जिन पर मुझे नाज है.

मणिमाला : जो बाद में मलयालम मनोरमा की मासिक पत्रिका ‘वनिता’ की संपादक बनीं. संप्रति दिल्ली में रह कर स्वतंत्र लेखन व प्रकाशन से जुड़ी हैं. बिहार में पहली महिला रिपोर्टर होने का श्रेय उन्हें प्राप्त है.

पुण्य प्रसून बाजपेयी : इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का एक प्रतिष्ठित चेहरा. संप्रति ‘जी न्यूज’ चैनल के संपादक हैं.

फैसल अनुराग : बिहार के हिन्दी पत्रकारिता के सशक्त हस्ताक्षर.

स्व. जावेद इकबाल : असमय मृत्यु पूर्व वे ‘जनसत्ता’ (मुंबई) से जुड़े थे.

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दीपेन्द्र : हिन्दी दैनिक ‘हिन्दुस्तान’ पटना से जुड़े रहे. संप्रति- स्वतंत्र लेखन.

हिमांशु द्विवेदी : हरिभूमि के प्रबंध संपादक
दिनेश जुयाल : दैनिक हिंदुस्तान, देहरादून के स्थानीय संपादक

कमल भुवनेश, अनीस अहमद, सलिल सुधाकर, आलोक रंजन (संप्रति-सहारा समय चैनल के साथ), गणेश कनाटे (संप्रति- टीवी 18, मुंबई में संपादक), यदु जोशी (संप्रति- दैनिक ‘लोकमत’ में कार्यरत एवं महाराष्ट्र श्रमिक पत्रकार संघ के अध्यक्ष), सुदर्शन चक्रधर (राष्ट्रप्रकाश), डॉ. राम ठाकुर (लोकमत समाचार), मधुकर (प्रभात खबर), गंगेश गुंजन, नवेन्दु (जो तब भोपाल से प्रकाशित ‘विचार मीमांसा’ के संपादक बने), डॉ. संतोष मानव (दैनिक भास्कर), आनंद सिंह (राष्ट्रीय सहारा), सत्येन्द्र प्रताप सिंह, सुधांशु कुमार (अमर उजाला), कृष्णमोहन सिंह कमलनयन पंकज, शाहिद अहमद, देवेश ठाकुर और जगदीश शाहू। लोकमत समाचार में कार्यरत पूर्णिमा पाटिल, शिव साहू, अरूण कुमार, कल्याण कुमार सिन्हा,  जीवंत शरण, बसंत साने, राजश्री राव, ज्योति शरण और असीमा पाल चौधरी। ईटी हिंदी डाट काम में कार्यरत पूजा प्रसाद, प्रभात खबर में कार्यरत दीपक अंबष्ट, हिंदुस्तान में कार्यरत रजत गुप्ता, नभाटा में कार्यरत रहे और अब फ्रीलांसर अशोक वर्मा, नवभारत में कार्यरत नीरज नंदन, राजीव रंजन, प्रणव प्रियदर्शी, मनोज कुमार आदि-आदि।

(जारी)


इंटरव्यू का दूसरा पार्ट पढ़ने के लिए क्लिक करें- ”विनोद जी, ‘गंगा’ इज योर बेबी, इसे संभालिए” अगर आप एसएन विनोद तक अपनी कोई बात पहुंचाना चाहते हैं तो उन्हें [email protected] पर मेल कर सकते हैं।

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