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पालिटिक्स की तरह मीडिया भी कबाड़ा

निरंजन परिहारप्रभाष जोशी भन्नाए हुए हैं। उनका दर्द यह है कि पत्रकारिता से सरोकार समाप्त हो रहा है। हर कोई बाजार की भेंट चढ़ गया है। क्या मालिक और क्या संपादक, सबके सब बाजारवाद के शिकार। कभी देश चलानेवाले नेताओं को मीडिया चलाता था। आज, मीडिया राजनेताओं से खबरों के बदले उनसे पैसे वसूलने लगा है। अगर ऐसे ही चलता रहा, तो सरोकार को समझने वाले लोग मीडिया में ढूंढ़े न मिलेंगे। हालात वैसे ही होंगे, जैसे राजनीति के हैं। वहां भी सरोकार खत्म हो रहे हैं। पद के लिए कोई कुछ भी करने को तैयार है। ऐसा विकास की गति के अचानक बहुत तेज होने का नतीजा है। भारत में अगर संचार साधनों का बेतहाशा विस्तार न हुआ होता, तो आज भारतीय मीडिया का यह विराट स्वरूप न होता। खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का बाजार हाल ही के कुछ सालों में बहुत तेजी से फला-फूला है। यह नया माध्यम है। सिर्फ दशक भर पुराना।

निरंजन परिहार

निरंजन परिहारप्रभाष जोशी भन्नाए हुए हैं। उनका दर्द यह है कि पत्रकारिता से सरोकार समाप्त हो रहा है। हर कोई बाजार की भेंट चढ़ गया है। क्या मालिक और क्या संपादक, सबके सब बाजारवाद के शिकार। कभी देश चलानेवाले नेताओं को मीडिया चलाता था। आज, मीडिया राजनेताओं से खबरों के बदले उनसे पैसे वसूलने लगा है। अगर ऐसे ही चलता रहा, तो सरोकार को समझने वाले लोग मीडिया में ढूंढ़े न मिलेंगे। हालात वैसे ही होंगे, जैसे राजनीति के हैं। वहां भी सरोकार खत्म हो रहे हैं। पद के लिए कोई कुछ भी करने को तैयार है। ऐसा विकास की गति के अचानक बहुत तेज होने का नतीजा है। भारत में अगर संचार साधनों का बेतहाशा विस्तार न हुआ होता, तो आज भारतीय मीडिया का यह विराट स्वरूप न होता। खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का बाजार हाल ही के कुछ सालों में बहुत तेजी से फला-फूला है। यह नया माध्यम है। सिर्फ दशक भर पुराना।

इसमें नए लोग ज्यादा आ रहे हैं। ये संचार क्रांति की नई पैदावार हैं। इस नई पैदावार के लिए, हर बात नई है। इनके लिए सरोकार शब्द भी नया है। इनसे सरोकार की उम्मीद पालना नासमझी होगा। नए जमाने के इस नए माध्यम में तेजी से अपनी जगह बनाती इस नई पीढ़ी में बहुत तेजी से आगे बढ़ने की ललक ने इस पीढ़ी का काफी हद तक कबाड़ा किया है। सफलता जब सही रास्ते से होते हुए सलीके के साथ आती है, तो ही वह अपने साथ सरोकार भी लेकर ही आती है। लेकिन मनुष्य जब सिर्फ आगे बढ़ने की कोशिश में खुद को बेतहाशा झोंक देता है तो वह कुछ मायनों में आगे भले ही बढ़ जाए, मगर उसकी कीमत भी उसे अलग से चुकानी पड़ती है। आगे बढ़ने की यह ललक अगर महिला की हो तो रास्ता भले ही आसान हो जाता है पर उसकी कीमत कुछ और ही हो जाती है। दरअसल यह मीडिया की बदली हुई तस्वीर है। बाजारवाद ने मीडिया को ग्लैमर के धंधे में ढकेल दिया है। सेवा या मिशन जब धंधे का रूप धर ले, तो सरोकारों की मौत स्वाभाविक है। ग्लैमर के बाजार की चकाचौंध वाले मीडिया का भी इसीलिए यही हाल है।  

जो लोग ग्लैमर की दुनिया में हैं, वे इस तथ्य से भी अच्छी तरह वाकिफ हैं कि दुनिया के हर पेशे की तरह इस धंधे में भी दो तरह के लोग है। एक वे, जो तरक्की के लिए तमाम हथकंडे इस्तेमाल करके किसी मुकाम पर पहुँच जाना चाहते हैं।और अक्सर पहुंच भी जाते हैं। दूसरे वे हैं, जिनके लिए सफलता से ज्यादा अपने भीतर के इंसान को, अपने ईमान को और अपनी नैतिकता को बचाए रखना जरूरी होता है। ऐसों को तरक्की को भूल जाना पड़ता है। अब पूंजीवाद के विस्तार और बाजारीकरण के दौर में नए जमाने का यह नया माध्यम सेवा और मिशन के रास्ते छोड़कर ग्लैमर के एक्सप्रेस हाई-वे पर आ गया  है। राजनीति और फिल्मों की तरह मीडिया में भी लोग अपनी जगह बनाने, उस बनी हुई जगह को बचाए रखने और फिर वहां से आगे बढ़ने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। भले ही यह बहुत खराब बात मानी जाती हो कि आगे बढ़ने और कमाने की होड़ में हर हथकंडे का इस्तेमाल करने के इस गोरखधंधे की वजह से ही उद्देश्यपरक पत्रकारिता और सरोकार खत्म हो रहे हैं लेकिन हालात ही ऐसे हैं। आप और हम क्या कर सकते हैं। हम यह सब-कुछ बेबस होकर लाचार होकर देखने को अभिशप्त हैं।

प्रभाषजी का आहत होना स्वाभाविक है। जो आदमी पूरे जन्म सरोकारों के साथ  चला, वह दुखी नहीं होगा तो क्या करेगा। आज मीडिया पूरी तरह बाजार का हिस्सा है। बाजार है, तो सामान है। और सामान है, तो कीमत भी लगनी ही लगनी है। इसीलिए उस दिन, जब एक नए-नवेले पत्रकार ने महाराष्ट्र के आने वाले विधानसभा चुनावों को देखकर अपने एक पुराने साथी राजनेता से पांच लाख रुपये दिलवाने की डिमांड अपने से की, तो बहुत बुरा लगा। बुरा रगने की एक बड़ी वजह यह भी थी कि उस पत्रकार ने उसी अखबार के मालिकों की डिमांड अपने सामने रखी थी, जिस अखबार का मुंबई में जन्म ही अपने हाथों से हुआ। अपन दो साल उसके संपादक रहे हैं, कैसे हां कह पाते। अपन प्रभाषजी की परंपरा के वाहक हैं। सो, सुना-अनसुना कर दिया। अपना मानना है कि दर्द का बोझ दिल में ढो कर जीने से कोई खुशी हासिल नहीं होती। सो, उस मामले को यहां लिखकर उस दर्द को सदा के लिए यहीं जमीन में गाड़ रहे हैं। लेकिन, यह जो बाजारवाद की आड़ लेकर मालिकों ने पत्रकारों को वेश्या बाजार की तरह सरे राह बिकने को खड़ा कर दिया है, ये हालात अगर परंपरा में तब्दील हो गए तो किसी की भी इज्जत नहीं बचेगी। प्रभाष जी, इसीलिए आहत हैं।

माना कि आज जो लोग मीडिया में हैं, उनमें से ज्यादातर वे हैं, जो पेट पालने के लिए रोटी के जुगाड़ की आस में यहां आए है। वे खुद बिकने और खबरों को बेचने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। बाजारीकरण के इस दौर ने खासकर मेट्रो शहरों में काम कर रहे ज्यादातर मीडिया कर्मियों को सुविधाभोगी, विचार विहीन, रीढ़विहीन, संवेदनहीन और अमानवीय बना दिया है। यह सब आज के अखबारों की शब्दावली और न्यूज टेलीविजन की दृश्यावली देखकर साफ कहा जा सकता है। हमारे साथी पुण्य प्रसून वाजपेयी की बात सही है कि कोई दस साल पहले हालात ऐसे नहीं थे। आज भले ही मीडिया का तकनीकी विस्तार तो खासा हुआ है। लेकिन पत्रकारों के दिमागी दायरे का उत्थान उतना नहीं हो पाया है।  एक दशक पहले तक के पत्रकारों के मुकाबले आज के मीडिया जगत को चलाने वाले मालिकों और काम करने वाले लोगों की सोच में जमीन आसमान का फर्क है। तब राजेन्द्र माथुर थे। उदयन शर्मा थे और एसपी सिंह सरीखे लोग थे। इनकी ही जमात के प्रखर संपादक प्रभाष जोशी आज भी है। इस मामले में अपन खुश किस्मत हैं कि इन चार में से उदयनजी को छोड़ शेष सभी तीनों,  राजेन बाबू और एसपी के साथ नवभारत टाइम्स में तीन साल काम किया और प्रभाषजी के साथ एक दशक तक जनसत्ता में रहकर उनका भरपूर प्यार पाया। लेकिन मीडिया के बाजारवाद की भेंट चढ़ जाने को अपन ने स्वीकार कर लिया है। अपन ना तो पुराने हैं और ना ही नए। अपन बीच के हैं। इसलिए, इस बदलाव को प्रभाषजी की तरह आहत भाव से देखकर दुखी तो बहुत होते हैं, पर ढोना नहीं चाहते। अपन जानते हैं कि ना तो अपन बिक सकते हैं, और ना ही अपन से कुछ बेच पाना संभव है। लेकिन यह भी मानते हैं कि बिकने और बेचने को देखकर अपने दुखी भी होने से आखिर आज हो भी क्या जाएगा।

पूरा मीडिया ही जब मिशन के बजाय प्रॉडक्ट बन गया है, तो आप अकेले कितनों को सुधार पाएंगे, प्रभाषजी। पूरा परिदृश्य ही जब पतित हो चुका हैं। और, आप यह भी जानते ही हैं कि हालात में सुधार की गुंजाइश भी अब कम ही बची है क्योंकि जहां से भी मिले, जैसे भी मिले, आज के ज्यादातर मालिकों को पैसा ही सुहाने लगा है। यह नया जमाना है। आज ना तो आप और ना ही हम, किसी नए रामनाथ गोयनका जैसे किसी मालिक को पैदा कर सकते, प्रभाषजी। जो, नोटों की गड्डियों के ठोकर मारकर सरोकारों के लिए संपादक के साथ खड़ा होकर सत्ता से पंजा भिड़ा ले। अपना मानना है कि हजार हरामखोरों के बीच अगर एक भी भला आदमी कहीं किसी कोने में भी बैठा हुआ मिला तो बाकियों की इज्जत भी बची रहती है। तो फिर, आप तो आज भी प्रज्ञा पुरुष की तरह मुख्य धारा में हैं, प्रभाषजी। मीडिया की दुर्गति देखकर अपनी आप जान थोड़ी कम जलाइए। आपकी आज कुछ ज्यादा ही जरूरत है, ताकि मीडिया की इज्जत बनी और बची रहें। वरना, तो फिल्मों और राजनीति की तरह इसका भी करीब-करीब कबाड़ा हो ही चुका है। हुआ है कि नहीं।


लेखक निरंजन परिहार राजनीतिक विश्लेषक और वरिष्ठ पत्रकार हैं. उनसे संपर्क करने के लिए [email protected] का सहारा ले सकते हैं.

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0 Comments

  1. deepali pandey

    February 28, 2010 at 1:36 am

    mei apki baat sey puri tarah sahmat, hoo aaj media trp ki daud mei sarokaro ko bhoolti ja rahi hei ,or yah hum sab key lye gambhir vishay hei …………

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