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दुख-दर्द

गैंग रेप, प्रेस, पुलिस, नेता और लोकतंत्र

फांस दिए तीन पत्रकार : सोनभद्र की तीन आदिवासी नाबालिग लड़कियों से सामूहिक बलात्कार की कवरेज करने वाले पत्रकार को मिली नौकरी से निलंबन और कोर्ट के चक्कर लगाते रहने की सजा। साथ में दो और पत्रकारों को पुलिस ने फांस दिया है। इतने संगीन मामले की लीपापोती में पुलिस, प्रेस और सत्ताधारी दल के नेता एक हो गए। महिला आयोग की भी भूमिका संदिग्ध रही। इस पूरे घिनौने खेल में उत्तर प्रदेश के राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त एक सीनियर आईपीएस की करतूत सबसे शर्मनाक रही। पुलिस के दबाव में पीड़ित लड़कियों के अनपढ़ और सीधे-सादे पिता को ही पीड़ित पत्रकारों के खिलाफ गवाह बना दिया गया। इस तरह पूरा वाकया ही उलट गया। 

फांस दिए तीन पत्रकार : सोनभद्र की तीन आदिवासी नाबालिग लड़कियों से सामूहिक बलात्कार की कवरेज करने वाले पत्रकार को मिली नौकरी से निलंबन और कोर्ट के चक्कर लगाते रहने की सजा। साथ में दो और पत्रकारों को पुलिस ने फांस दिया है। इतने संगीन मामले की लीपापोती में पुलिस, प्रेस और सत्ताधारी दल के नेता एक हो गए। महिला आयोग की भी भूमिका संदिग्ध रही। इस पूरे घिनौने खेल में उत्तर प्रदेश के राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त एक सीनियर आईपीएस की करतूत सबसे शर्मनाक रही। पुलिस के दबाव में पीड़ित लड़कियों के अनपढ़ और सीधे-सादे पिता को ही पीड़ित पत्रकारों के खिलाफ गवाह बना दिया गया। इस तरह पूरा वाकया ही उलट गया। 

वाकया पुराना है। मुकदमा जारी है। खबर छपने के अगले ही दिन पलटीमार-खंडन छाप देने वाले अपने बड़े मीडिया घराने की नाइंसाफी से मजबूर पत्रकार आवेश तिवारी ने आपबीती कुछ इस तरह बयान की है- ”वह मेरे अखबारी जीवन का सबसे खराब दिन था। बरसात की बूंदें चेहरे पर थप्पड़ जैसे लग रही थीं। गाँव के बाहर एक झोपडी में पूरी तरह से भीगी चंदा, रूपा और तारा (काल्पनिक नाम) एक कोने में सिमटी हुई थीं। उनके साथ सामूहिक बलात्कार हुआ था। ये पुलिस, प्रेस और पोलीटीशियंस के गठजोड़ का सबसे घिनौना अध्याय था। लगभग 14 से 16 साल की लड़कियों के चेहरे पर प्रेस कैमरे के चमकते फ्लैश जैसे मुझे और मेरी कलम, दोनों को गाली दे रहे थे। लगभग चार-पांच सौ ग्रामीणों की भीड़ के बीच चंदा ने बिलखते हुए गांव वालों से पूछा कि हमारी क्या गलती थी? हमें क्यूँ निकाल दिया गाँव से?’ सवाल का जवाब मेरी रातों की नींद उडाने वाला रहा। पंचों ने इन लड़कियों को अस्पृश्य घोषित कर गांव-निकाला की सजा सुना दी थी। वे गांव से बाहर कर दी गई थीं। लड़कियों का कहना था कि पुलिस ने उन्हें आपबीती पर कत्तई मुंह न खोलने का आदेश दिया है। हमारे बाबा को बन्दूक की  नोक पर धमकाया गया है। बसपाई ग्राम प्रधान ने अपने तीन लड़कों के दुष्कर्म की पांच सौ रुपये कीमत लगाकर हमसे छुटकारा पा लिया है। इस घटना पर पर्दा डालने में मुख्य भूमिका निभाने वाला राष्ट्रपति पदक से सम्मानित आईपीएस उत्तर प्रदेश के एक जिले का एसएसपी है। मानहानि का ये मुकदमा इस आईपीएस के व्यक्तिगत खर्चे से पीड़ित बालिकाओं के अनपढ़ परिजनों द्वारा लड़ा जा रहा है। पीड़ित लड़कियों का पिता कहता है कि वह मुकदमा नहीं लड़ेगा तो पुलिस उसे नक्सली बताकर जेल भेज देगी।”

वह 23 अप्रैल 2006 की रात थी, जब उत्तर प्रदेश के दलित इतिहास में यह एक और काला अध्याय लिखा गया। पीड़ित पत्रकार आवेश तिवारी ने भड़ास4मीडिया को बताया कि ”उस वक़्त मैं देश के नंबर वन अखबार ‘दैनिक जागरण’ का संवाददाता हुआ करता था। शाम को तकरीबन सात बजे मुझे जानकारी मिली कि दुर्गम आदिवासी गांव बीरपुर में तीन आदिवासी लड़कियों के साथ गैंग रेप हुआ है और पुलिस ने सूचना के बावजूद कोई कार्रवाई नहीं की है। मैंने जब इस संबंध में पुलिस से जानकारी मांगी आवेश तिवारीतो उसके होश फाख्ता हो गए। तत्काल गाडी भेजकर पीड़ित लड़कियों और उनके परिजनों को बुलवा लिया गया। चूँकि रात दस बजे के बाद अखबार के क्षेत्रीय संस्करण छूटने लगते हैं, सो मैं एफआईआर दर्ज होने तक खबर भेजने का इन्तजार नहीं कर सकता था। मैंने तत्काल लड़कियों और उनके पिता का बयान रिकॉर्ड किया जो कि आज भी मेरे पास सुरक्षित है और खबर प्रेस मुख्यालय को प्रकाशनार्थ भेज दी। अपने बयान में लड़कियों ने बताया कि पिछली रात जब वे तीनों गांव की ही एक शादी से लौट रही थीं,  उन्हीं के गांव के तीन लड़कों ने चाकू के बल पर उन्हें अंधेरे, सुनसान रास्ते से उठा लिया और सामूहिक बलात्कार किया। वे लड़के बसपा नेता और ग्राम प्रधान के बेटे हैं। परिजनों ने बताया कि घटना के बारे में बताने पर आरोपियों के समर्थकों ने हमें गांव में ही बंधक बना लिया। हमने जैसे-तैसे पुलिस को सूचना कराई है। अगले दिन ये खबर पीड़ितों के कल्पित नामों से दैनिक जागरण और दो अन्य अखबारों में प्रकाशित हुई।”

उस काली दास्तान से पर्दा उठाते हुए आवेश तिवारी ने भड़ास4मीडिया को आगे बताया है कि ”खबर छपने के बाद 24 अप्रैल को सबेरे सात बजे मैंने स्थानीय एसएचओ से फ़ोन पर जानना चाहा कि आरोपियों के खिलाफ क्या कार्रवाई हुई है?  हिरासत में एक दलित की  मौत के मामले में जांच का सामना कर रहे  उस एसएचओ का जवाब सुनते ही मेरे पैरों के नीचे की जमीन खिसक गई। उस राष्ट्रपति पदक सम्मानित एसएसपी के खास एसएचओ ने मुझे बताया कि वे लड़कियां तो अपने साथ ऐसा कोई वाकया होने से साफ़ इनकार कर रही हैं। मैं पूरी तरह स्तब्ध। तुरंत थाने पहुंचा। बेहद डरे-सहमे पीडि़तों-परिजनों के बयान मनमाफिक बदले जा चुके थे। इसके पहले कि मैं कुछ समझ पाता, जागरण के ब्यूरो चीफ का मेरे पास फोन आ गया कि ‘आप इस मामले में ज्यादा रुचि मत लीजिये। कप्तान साहब ने व्यक्तिगत तौर पर इस मामले को ज्यादा तवज्जो नहीं देने को कहा है।’ फिर तो सारी हकीकत मुझे समझते देर न लगी। इस बीच पुलिस ने पूरे मामले को झूठा साबित करने के लिए पीड़ित लड़कियों के मनमाफिक बयान की विडियो रिकॉर्डिंग भी करा ली। शाम को एक रेस्ट हाउस में दारू और मुर्गे की दावत में हमारे ब्यूरो चीफ के अलावा अन्य प्रमुख अखबारों के पत्रकारों व पुलिस अधिकारियों के बीच आगे की साझी रणनीति बनाई गई। अब ख़बरों का बलात्कार होना था। लेकिन मैं अब भी उन लड़कियों के बयान से पलटने की बात पर यकीन नहीं कर पा रहा था। मुझे अपने सूत्रों से मालूम हुआ कि पुलिस ने लड़कियों व उसके परिजनों को खूब डराने-धमकाने के बाद पांच सौ रुपये का लालच देकर फर्जी बयान कलमबद्ध किया है। दो दिन बाद मैं अपने कुछ ईमानदार पत्रकार साथियों को लेकर बीरपुर गांव जा पहुंचा। पूरे गांव में डर और दहशत का माहौल था। पता चला कि गाँव के जिस युवक अरविन्द ने पुलिस को घटना की सूचना दी थी, चार दिन से बिना किसी जुर्म के हिरासत में है। उसके छोटे भाई ने बताया कि हमारे भाई को बुरी तरह से पुलिस ने पीटा है। वे उसे झूठे जुर्म में जेल भेज देंगे। पीड़ित लड़कियों से मिलने से पहले हमने उनकी माताओं से बात की। उन्होंने बताया कि ‘हम जुबान खोलेंगे तो पुलिस जीने नहीं देगी। हमारी लड़कियों को पंचायत ने गाँव से बाहर का दिया। हम कुछ नहीं कर सकते।”

आवेश तिवारी ने आगे बताया है कि ‘बैरपुर से लौटने के तत्काल बाद मुझे जागरण प्रबंधन ने निलंबित कर दिया। अखबार ने एक खंडन भी प्रकाशित किया, जिसमें एसएसपी के हवाले से कहा गया कि ‘उन लड़कियों ने मुआवजे के लालच में झूठा बयान दिया था।’  जबकि ‘सहारा समय’ और कुछ साप्ताहिक पत्रों ने पुलिस की लीपापोती की पोल खोल दी। कहानी सिर्फ यहीं ख़त्म नहीं हुई। इस घटना के 15 दिन  बाद मुझे आगजनी के एक मामले में अभियुक्त बना दिया गया, हालांकि प्रेस काउंसिल के कड़े तेवर से मात्र चौबीस घंटे के भीतर मेरा नाम पुलिस को हटाना पड़ा। उधर, बलात्कार की शिकार लड़कियों को मोहरा बनाकर ‘राष्ट्रीय महिला आयोग’ में भी मेरे साथ-साथ तीन अन्य पत्रकारों के खिलाफ मानहानि की शिकायत दर्ज करा दी गई। बाद में हमने आयोग से इसका प्रतिवाद भी किया कि वास्तविकता जाने बगैर हमे नोटिस जारी कर दिया गया।….पीड़ित लड़कियों का पिता आज भी कहता है कि ‘भैया, हमको तो न कोर्ट मालूम, न थाना-कचहरी, हमसे पुलिस ने जो कहा, हम करने को मजबूर हैं। अब वो हमसे मुकदमा लड़वा रहे हैं। इससे तो अच्छा था कि हमें मार दिए होते।’

निलंबन के बाद आवेश तिवारी को जागरण की नौकरी हमेशा के लिए छोड़नी पड़ी। अब वह डेली न्यूज एक्टिविस्ट अखबार के सोनभद्र के ब्यूरो चीफ हैं। सोनभद्र जनपद न्यायालय में केस जारी है। लिखित प्रतिवाद के बाद महिला आयोग शांत हो गया था। मामले के तीनों आरोपी आवेश तिवारी, ‘सहारा समय’ के तत्कालीन ब्यूरो चीफ अश्विनी सिंह और ‘इंडिका टाइम्स’ के संपादक एमएम खान अब अदालत के चक्कर काट रहे हैं। 


इस प्रकरण के संबंध में किसी अन्य जानकारी के लिए आवेश तिवारी से संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है। आवेश ने अपनी पीड़ा अपने ब्लाग पर भी प्रकाशित की है, जिसे पढ़ने के लिए क्लिक करें- कतरनें
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0 Comments

  1. jai kumar

    January 19, 2010 at 9:09 am

    its very bad

  2. rajeev Kumar

    January 23, 2010 at 9:12 am

    Dear Aavesh Ji ies duniya mei sab kuch satya hi hai. Agar aap ka sab kuch loot liya jaye to bhi samjhiyega ki hum satye kei karib hain. Kyonki Satya bahut Thoda hota hai.
    Jivan mai bhi satya aur Nyaye kei liye lad raha hun. Aap Jab kabhi akele mei Baitho dekho to aapko bahut santi mahsus hogi. Yei santi Bidla aur Ambani Paise se nahi paa sakte. Baki duniya valon ki duvayen aapke saath hain.

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