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आत्मकथ्य : बनारस – आत्मा में उतरे राग-रंग (2)

sanjay

काशी में रहते हुए ऐसा बनारसी रंग चढ़ा, जो सिर चढक़र बोलता था। छात्र आंदोलनों से जुड़ा होने के नाते कई छात्र नेता और नेता अपने मित्रों की सूची में थे। यहां उस समय बीएचयू के अध्यक्ष रहे देवानंद सिंह और महामंत्री सिद्धार्थ शेखर सिंह से लेकर प्रदीप दुबे, जेपीएस राठौर, राजकुमार चौबे, दीपक अग्रवाल और मनीष खेमका जैसे न जाने कितने दोस्त बन गए। इनमें मैं अपने उस समय संरक्षक रहे डा. सुरेश अवस्थी को नहीं भूल सकता। वे बीएचयू में राजनीति विज्ञान के प्राध्यापक थे।

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काशी में रहते हुए ऐसा बनारसी रंग चढ़ा, जो सिर चढक़र बोलता था। छात्र आंदोलनों से जुड़ा होने के नाते कई छात्र नेता और नेता अपने मित्रों की सूची में थे। यहां उस समय बीएचयू के अध्यक्ष रहे देवानंद सिंह और महामंत्री सिद्धार्थ शेखर सिंह से लेकर प्रदीप दुबे, जेपीएस राठौर, राजकुमार चौबे, दीपक अग्रवाल और मनीष खेमका जैसे न जाने कितने दोस्त बन गए। इनमें मैं अपने उस समय संरक्षक रहे डा. सुरेश अवस्थी को नहीं भूल सकता। वे बीएचयू में राजनीति विज्ञान के प्राध्यापक थे।

हम उनके सामने बहुत बच्चे थे, लेकिन उन्होंने हमें जिस तरह अपना प्यार और संरक्षण दिया, उसे भुलाना मुश्किल है। वे प्राय: अपने चौक स्थित घर पर हमें बुलाते, सिर्फ बुलाते ही नहीं इतना खिलाते कि उनकी बातों का रस और बढ़ जाता। उनकी धर्मपत्नी इतनी सहज और स्नेहिल थीं कि सुरेशजी का घर हमें अपना सा लगने लगा।

अब सुरेश जी इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनकी बातें, बनारस को लेकर उनका राग आज भी याद आता है। वे सही मायने में बनारस को जीने वाले व्यक्ति थे। बनारस उनकी आत्मा में उतर गया था। लगातार सिगरेट पीते हुए, बनारस और बनारस वालों की बातें बताते डा. अवस्थी एक ऐसे कथावाचक में तब्दील हो जाते, जिसको सुनना और उन बातों से सम्मोहित हो जाना बहुत आसान था। इसी दौरान मेरे साथ अजीत कुमार और राजकुमार से जो रिश्ते बने, वो आज तक जिंदा हैं। बनारस की अपनी एक मस्ती है। शहर के किनारे बहती हुई गंगा नदी आमंत्रण सी देती है और उसके आसपास बहने वाली हवाएं एक अजीब सा संतोष भी देती हैं। जीवन और मृत्यु दोनों को बहुत करीब से देखने वाला यह शहर वास्तव में भोलेबाबा की नगरी क्यों कहा जाता है यह अहसास यहां रहकर ही हो सकता है।

बनारस आप में धीरे-धीरे उतरता है, ठीक भांग की गोली की तरह। बनारस के अस्सी इलाके में चाय की दुकानों पर अनंत बहसों का आकाश है, जहां अमेरिका के चुनाव से लेकर वीपी सिंह के आरक्षण तक पर चिंताएं पसरी रहती थीं। बहसों का स्तर भी इतना उच्च कि ऐसा लगता है कि यह चर्चाएं अभी मारपीट में न बदल जाएं। बनारस आपको अपने प्रति लापरवाह भी बनाता है। यह बहुत बदलने के बाद भी आज भी अपनी एक खास बोली और खनक के साथ जीता हुआ शहर है। इस शहर ने मुझे ढेर सारे दोस्त तो दिए ही, चीजों को एक अलग और विलक्षण दृष्टि से विश्लेषित करने का साहस भी दिया। उत्तर प्रदेश एक ऐसा राज्य है, जहां वर्ष भर प्रवेश और वर्ष भर परीक्षाएं होती हैं। जिसका श्रेय वहां की छात्र राजनीति को ही ज्यादा है। बड़ी मुश्किल से अभी कुछ विश्वविद्यालयों के सत्र नियमित हुए हैं, वरना हालात तो यह थे कि कुछ विश्वविद्यालयों में सत्र चार वर्ष तक पीछे चल रहे थे। ऐसे हालात में मैंने बीएचयू के साथ ही भोपाल में खुले माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के लिए भी आवेदन कर दिया। बीएचयू से पहले माखनलाल का प्रवेश परीक्षा का परिणाम आ गया और इस तरह मैं भोपाल चला आया। जब बीएचयू के प्रवेश परीक्षा के परिणाम आए तब तक माखनलाल का सत्र तीन माह आगे निकल चुका था। यहां पड़े रहना एक विवशता भी थी और जरूरत भी।

भोपाल : कलम लियो जहां हाथ

जब मैं पहली बार भोपाल स्टेशन उतरा, तो मुङो लेने के लिए मेरे सीनियर रहे और पत्रकार सतेंद्र माथुर आए थे। उनकी कृपा से मुझे भोपाल में किसी तरह का कोई कष्ट नहीं हुआ। वे माखनलाल के छात्र रहे, इन दिनों इंडिया टुडे में कार्यरत वरिष्ठ पत्रकार श्यामलाल यादव के सहपाठी थे। श्यामलाल यादव ने ही मेरी मदद के लिए सतेंद्र को कहा था। सतेंद्र से आरंभिक दिनों में जो मदद और प्यार मिला, उसने मुझे यह लगने ही नहीं दिया कि मैं किसी दूसरे प्रदेश में हूं। इसके बाद सतेंद्र ने ही मेरी मुलाकात मेरे अध्यापक डा. श्रीकांत सिंह से करवाई।

डा. श्रीकांत सिंह से मिलने के बाद तो मेरी दुनिया ही बदल गई। वे बेहद अनुशासनप्रिय होने के साथ-साथ इतने आत्मीय हैं कि आपकी जिंदगी में उनकी जगह खुद-ब-खुद बनती चली जाती है। डा. श्रीकांत सिंह और उनकी धर्मपत्नी श्रीमती गीता सिंह ने मुझे जिस तरह से अपना स्नेह दिया, उससे मैं यह भी कह सकता हूं कि मैं घर को भूल गया। वे मेरी जिंदगी में एक ऐसे शख्स हैं, जिनकी छाया के बिना मैं कुछ भी नहीं। उनकी डांट-फटकार और उससे ज्यादा मिले प्यार ने मुझे गढऩे और एक रास्ता पकडऩे में बहुत मदद की। मेरे जीवन की अराजकताएं धीरे-धीरे खत्म होने लगीं। बहुत सामान्य क्षमता का छात्र होने के बावजूद मैंने दैनिक भास्कर, भोपाल की नौकरी करते हुए न सिर्फ बीजे की परीक्षा में सर्वाधिक अंक प्राप्त किए, बल्कि मुझे विश्वविद्यालय की ओर से मा.गो. वैद्य स्मृति रजत पदक से सम्मानित भी किया गया।

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विश्वविद्यालय के तत्कालीन महानिदेशक वरिष्ठ पत्रकार राधेश्याम शर्मा, मेरे विभागाध्यक्ष प्रोफेसर कमल दीक्षित, मेरे संपादक महेश श्रीवास्तव, शिव अनुराग पटेरिया, स्वदेश के प्रधान संपादक राजेंद्र शर्मा, स्वदेश के तत्कालीन संपादक हरिमोहन शर्मा, नई दुनिया में उस समय कार्यरत रहे विवेक मृदुल और साधना सिंह का जो स्नेह और संरक्षण मुङो मिला उसने मेरे व्यक्तित्व के विकास में बहुत मदद की। दैनिक नई दुनिया, भोपाल में मुझे छात्र जीवन में छपने का जितना ज्यादा अवसर मिला, आज भी मैं उन दिनों को याद कर रोमांचित हो जाता हूं। भास्कर की नौकरी के दौरान ही एक दिन डा. ओम नागपाल से मुलाकात हुई। उनका व्यक्तित्व इतना बड़ा था कि उनके सामने जाते समय भी घबराहट होती थी। वे न सिर्फ सुदर्शन व्यक्तित्व के धनी थे, बल्कि उनके पास सम्मोहित कर देने वाली आवाज थी। वे बोलते समय जितने प्रभावी दिखते थे, उनका लेखन भी उतना ही तार्किक और संदर्भित होता था। उनके ज्ञान का और विश्व राजनीति पर उनकी पकड़ का कोई सानी नहीं था। इस दौरान उन्होंने मुझसे रसरंग, पत्रिका के लिए कुछ चीजें लिखवाईं। वे नई पीढ़ी के लिए ऊर्जा के अजस्र स्रोत थे। आज जबकि वे हमारे बीच नहीं हैं, उनकी स्मृति मेरे लिए एक बड़ा संबल है।

बीजे की हमारी क्लास में कुल बीस लोग थे। बीस सीटें भी थीं, जिसमें उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ से आए हुए लोग थे। इनमें सुरेश केशरवानी, पुरुषोत्तम कुमार, शरद पंड्या, अजीत कुमार, धनंजय प्रताप सिंह जैसे तमाम दोस्त मिले, जिनसे आज भी रिश्ता कायम है। बीजे की परीक्षा पास करने के बाद स्वदेश, भोपाल के तत्कालीन संपादक हरिमोहन शर्मा मुङो अपने साथ स्वदेश’ लेते गए। स्वदेश एक छोटा अखबार था और कर्मचारियों का अभाव यहां प्राय: बना रहता था। स्वदेश के मालिक और प्रधान संपादक राजेंद्र शर्मा एक अच्छे पत्रकार के रूप में ख्यातनाम हैं। उन्होंने और हरिमोहन जी ने मुङो यहां काम करने के स्वतंत्र और असीमित अवसर उपलब्ध कराए। बाद में कुछ दिनों के लिए यहां प्रमोद भारद्वाज भी आए, जो इन दिनों अमर उजाला, चंडीगढ़ के स्थानीय संपादक हैं। प्रमोद जी से भी मेरी खूब बनी। उन्होंने मुङो रिपोर्टिंग के कई नए फंडे बताए। जिस पर मैं बाद के दिनों में अमल इसलिए नहीं कर पाया, क्योंकि नौकरी देने वालों को मेरा रिपोर्टिंग करना पसंद नहीं आया, बल्कि उन्होंने मुङामें एक संपादक की योग्यताएं ज्यादा देखीं। एमजे की परीक्षा पास करने के बाद राजेंद्र शर्मा का कृपापात्र होने के नाते १९९६ में मुङो स्वदेश, रायपुर का कार्यकारी संपादक बनाकर छत्तीसगढ़ भेज दिया गया। मेरे मित्र और शुभचिंतक मेरे इस फैसले के बहुत खिलाफ थे। कई तो मेरे रायपुर जाने को मेरे कैरियर का अंत भी घोषित कर चुके थे।

…..जारी


कल पढ़िए- रायपुरः एक अलग स्वाद का शहर और इन मुंबई

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0 Comments

  1. nirmal kumar pandey

    April 1, 2010 at 6:52 am

    बनारस आप में धीरे-धीरे उतरता है, ठीक भांग की गोली की तरह। thik kaha aapne

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