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ब्लाग जगत के चंद नियतिहीन कोनों में दम नहीं : मृणाल

मृणाल पांडेइक्कीसवीं सदी के इस पहले दशक ने हिंदी मीडिया को ऐतिहासिक रूप से एक विशाल उपभोक्ता-वर्ग दिला दिया है। और हिंदी की विशाल पट्टी के ग्यारह राज्यों की जनता तक सूचनाओं का इकलौता राजपथ बना हिंदी मीडिया हमें भारत की सूचना-प्रसार दुनिया का बेताज बादशाह नजर आता है। अगर हिंदी पत्रकारिता के पुरोधाओं के सपने संसाधनों के अभाव में साकार नहीं हो पा रहे थे, तो विज्ञापनों की प्रचुर आमदनी से दमकते हिंदी मीडिया को अब तो समाज के कमजोर वर्गों के अधिकारों, संसाधनों को लूटने वाले हर वर्ग से पूरे आत्मविश्वास के साथ बार-बार मोर्चा लेना चाहिए था।

मृणाल पांडे

मृणाल पांडेइक्कीसवीं सदी के इस पहले दशक ने हिंदी मीडिया को ऐतिहासिक रूप से एक विशाल उपभोक्ता-वर्ग दिला दिया है। और हिंदी की विशाल पट्टी के ग्यारह राज्यों की जनता तक सूचनाओं का इकलौता राजपथ बना हिंदी मीडिया हमें भारत की सूचना-प्रसार दुनिया का बेताज बादशाह नजर आता है। अगर हिंदी पत्रकारिता के पुरोधाओं के सपने संसाधनों के अभाव में साकार नहीं हो पा रहे थे, तो विज्ञापनों की प्रचुर आमदनी से दमकते हिंदी मीडिया को अब तो समाज के कमजोर वर्गों के अधिकारों, संसाधनों को लूटने वाले हर वर्ग से पूरे आत्मविश्वास के साथ बार-बार मोर्चा लेना चाहिए था।

यह सचमुच गंभीर शोध का विषय है कि वह ऐसा क्यों नहीं कर रहा है। क्यों वह ‘हैव्स’ का प्रतिनिधि समझे जाने वाले अंग्रेजी मीडिया के स्तर पर भी, महंगाई से लेकर पैसे लेकर खबरें छापने तक का खुला विरोध नहीं कर रहा? ब्लॉग-जगत के चंद नियतिहीन कोनों में हिंदी के कुछ मीडियाकर्मी न्यूयॉर्क की सड़कों पर पखावज बजा कर कीर्तन करने वाले हरे-कृष्ण अनुयायियों की तरह कुछेक सुरीले-बेसुरे नारे जरूर उठा रहे हैं; पर उनके सुरों में दम नहीं। हो भी कैसे?

जिन अखबारों को वे इन पाप-कर्मों का दोषी बता रहे हैं, वहां नौकरियां खुलते ही वे सब ही हो हो कर उमड़ कर हर तरह की घिनौनी चिरौरी और सिफारिशी प्राणायाम साधने में तत्पर हो जाते हैं। नौबत यहां तक आ गई है कि जब एक बड़े टीवी चैनल के प्रमुख एक बड़े अखबार में लिखते हैं कि मीडिया प्रबंधक आज पाठकों/दर्शकों से अधिक शेयर-धारकों और व्यवस्थापकों के आगे जवाबदेही हैं, लिहाजा अधिकाधिक मुनाफा कमाने की जुगत बिठाना उनका सहज और तर्कसंगत धर्म है, तो उनका प्रतिवाद करने की फुर्सत किसी के पास नहीं। क्या पता कब उस चैनल या अखबार में भर्तियां खुल जाएं? जब यही इनकी पार्टी-लाइन हो तो असहमति का जोखिम क्यों उठाएं?

मार्क्सवाद कहता है कि द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के नियमानुसार हर युग में थीसिस और एंटीथीसिस (स्थापना और प्रतिस्थापना) के बीच संघर्ष अनिवार्य है। इसी संघर्ष से नया समन्वय बनता है और तब इतिहास का रथ आगे बढ़ता है। अपने यहां यास्क भी ऋग्वेद के मंत्र की व्याख्या करते हुए कह गए हैं कि जब समान ज्ञानवान लोग समवेत बैठ कर बहस करते हैं, तो मन की गति से अपने ज्ञान के कुछ हिस्सों को त्याग देते हैं, ऐसे बात आगे बढ़ती है।

हमारे यहां दिक्कत यही है कि हिंदी मीडिया में टकराव के मुद्दों पर छातियां अलग-अलग बहुत कूटी जाती हैं, पर सच्चा एकजुट टकराव लगभग पूरी तरह अनुपस्थित रहता है। हिंदी मीडिया से जुड़े सबसे चिंताजनक मुद्दे हिंदी जगत की इस ढुलमुल प्रवत्ति से ही उपजे हैं। मसलन, अगर हिंदी मीडिया पूंजीवादी बाजार को उपभोक्ता तक ले जाने वाले भाषा-सेतु को साझी करने देने के एवज में उससे विज्ञापनों के रूप में कर वसूल करता हैं, तब उसका सहज दर्शन यही होना चाहिए कि इस भाषा-सेतु में बाजार के लिए बनी लेन अलग हो। उसका ट्राफिक एक स्पष्ट अनुशासन में आता-जाता रहे, और कर-वसूली का काम वाजिब और रसीद समेत किए जाने का प्रावधान हो। और अगर वह चाहता है कि पूंजीवादी मरे और मीडियाकर्मियों का शोषण साम्यवाद की मार्फत बुनियादी क्रांति कराए तो वह कामगारों के पक्ष में सड़क पर लामबंद हो।

लेकिन हो क्या रहा है? चुपचाप लेनों के बीच के मार्कर इधर-उधर कर, बिना रसीद विज्ञापनदाता दलों से भरपूर काला चंदा लिया जा रहा है, इससे ट्राफिक भले अनियंत्रित होता हो, गाड़ियां टकराती हों, तो हों। दूसरी तरफ सामाजिक चेतनायुक्त जनोन्मुख और पेशेवर अधिकारों की बहाली की मांग करने वाली रिपोर्टिंग के लिए तमाम तरह के विवादित औद्योगिक घरानों से मीडिया द्वारा पुरस्कार स्वीकार किए जा रहे हैं और बदले में हाथोंहाथ उनके प्रतिनिधियों का (पायः उन्हीं के खर्चे से) वर्ष के सर्वश्रेष्ठ उपक्रमी के रूप में अभिनंदन भी कर दिया जा रहा है। छपाई की रामराज्य जैसी सुविधाएं बनाई जा रही हैं, पर पत्रकारिता के स्वस्थ प्रतिमान कायम नहीं हो पा रहे, क्योंकि कई जगत प्रबंधन के हुकुम पर संपादकीय टीमें अपने काम मे दक्षता लाने के बजाय विज्ञापन लाने और नेताओं-प्रशासकों की जरूरत के अनुसार मदद सुनिश्चित करने का काम कर रही हैं। ऐसे मंजर में पूंजीवाद भी है, समाजवाद भी और दोनों को एक समझदार चुप्पी एक साथ गूंथे हुए है। अगर थीसिस और एंटीथीसिस के बीच नैसर्गिक टकराव के बजाय ऐसा हंसमुख शांतिपूर्ण सहअस्तित्व कायम हो जाएगा तो, किसका संघर्ष और कैसी प्रगति?

हिंदी मीडिया की पहली चिंता यही होनी चाहिए। दूसरी चिंता का मुद्दा है, हिंदी मीडिया के औसत नए उपभोक्ता की अपेक्षाएं। यह उपभोक्ता न तो पूंजीवादी खुले बाजार का विरोधी है; और न ही सरकारी शिक्षा, स्वास्थ्य कल्याण या सार्वजनिक वितरण-तंत्रों के भरोसे बैठे अपने सह-उपभोक्ताओं को लेकर उसमें किसी गहरी ग्लानी या आक्रोश का अहसास है। फिल्मी मनोरंजन, फलित ज्योतिष, धार्मिक अंधविश्वासों और रूढ़ियों को लेकर भी उसमें एक तरह की ललक है और विज्ञापनों द्वारा खबरों के बीचोबीच की जमीन हथियाने को लेकर भी बतौर एक उपभोक्ता वह इतना परेशान नहीं होता कि उन चैनलों या बड़े अखबारों का बायकॉट कर दे।

यह भी गौरतलब है कि हिंदी मीडिया को लेकर ऐसे सारे सवाल अंग्रेजी में ही पहले क्यों उठाए जा रहे हैं, और हिंदी में भी दिल्ली के ही मीडिया में क्यों, मुंबई, लखनऊ या चंडीगढ़ के मीडिया में क्यों नहीं? और फिर चंद बड़े अखबारों की ही बाबत क्यों? उन तमाम छोटे प्रांतीय, अखबारों की बाबत क्यों नहीं, जो वर्षों से यह तमाम गैर-पेशेवर काम करते आ रहे हैं, और अपने मालिकान और संपादकों को छोटे-मोटे प्रांतीय कुबेरों में तो तब्दील कर ही चुके हैं?

ये तमाम बातें गौर से देखने पर जुड़ी हुई दिखाई देने लगती हैं। एक और बात इनसे जुड़ी हुई दिखाई देने लगती है: राजनीति से पूंजी का जुड़ाव खत्म करने की दिशा में किसी भी ठोस कदम का न उठाया जाना! चुनाव बड़ी थैली के बूते लड़े जाते हैं, यह ध्रुव सत्य है। लिहाजा, हर राजनीतिक व्यक्ति को पेशेवर थैली-बटोर बनना पड़ता है, और जीतने के बाद थैली का अहसान ब्याज समेत लौटाना होता है। इसी स्रोत से पहले नौकरशाही में, और अब मीडिया में भी थैलीवाद के जरासीम आए हैं! औसत मीडिया-उपभोक्ता संविधान या कि मीडिया के अभिव्यक्ति के अधिकार की बारीकियां नहीं जानता।

उच्चतम न्यायालय ने जो ऐतिहासिक स्थापना दी थी कि ध्वनि तरंगे (एयर वेव्स) जनता की संपत्ति हैं, उसे भाषायी मीडिया के उपभोक्ता का समर्थन है या नहीं, कहां नहीं जा सकता। अगर कल को सरकार मीडिया के लिए एक आचरण संहिता बना कर उसे लागू कराने पर उतारू हो जाए, और ध्वनितरंगों को राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर एक सरकारी संस्थान के सुपुर्द कर दिया जाए तो क्या वैसा देशव्यापी जनांदोलन छिड़ सकता है जैसा तेलंगाना के नाम पर हुआ? बिना मुकदमा चलाए राजा मुंज से लेकर अनारकली तक को तहखाने में बंद रखने वालों और बलात्कृत लड़की को खराब आचरण का हवाला देकर स्कूल से निकलवाने वालों के मुल्क में, बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका का आखिर में जाकर कितना वजन माना जाएगा? अखबारों-चैनलों के कर्मी चुंकि जनता या शेयरधारकों द्वारा नहीं चुने जाते, उनसे यह भी तो कहा जा सकता है, कि उन्हें क्या हक है कि वे खुद को जनता की रुचि और रुझान का सरकार या प्रबंधक से बेहतर प्रवक्ता मान बैठें?

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यह हिंदी मीडिया की स्व-आरोपित असहायता का ही सबूत है कि वह इस ताले की कुंजी आज भी संपादक नाम के जीव की जनेऊ में खोजे जा रहा हैं, जो खुद अक्सर मालिक भी है। अपने में यह उम्मीद गलत नहीं कि कहीं कभी एक अंतरात्मावान विवेकी अखबारी योद्धा घोड़े पर चढ़ कर आएगा और मीडिया में काले धन की गंगा का प्रवाह रोक देगा। लेकिन मूलतः धंधई संपादकों के अवसान के युग में यह एक नापाएदार उम्मीद है। जब तक देश की राजनीति में यह धन-वैतरणी प्रवाहित है, तब तक लोकतंत्र का कोई भी पाया इससे आप्लावित हुए बिना कैसे रह सकता है?

अगर हम हिंदी अखबारों-चैनलों को लोकतंत्र में हर कमजोर वर्ग की आजादी का पहरुआ देखना चाहते हैं, तो हमें स्वीकार करना होगा कि मालिक-संपादकों के रहते इसकी रक्षा हिंदी मीडिया के लोग नहीं कर सकते। इसलिए अखबार पढ़ने और चैनल देखने के अलावा और भी हजारों काम हिंदी मीडिया-उपभोक्ताओं को रोज-रोज करने होंगे। और पहला काम होगा मीडिया की सफाई के पक्ष में उस तरह बतौर उपभोक्ता दबाव बनाना, जैसा कि अब वे (देर-सबेर ही सही) महंगाई के खिलाफ बना रहे हैं।

लेखिका मृणाल पाण्डे वरिष्ठ पत्रकार हैं. उनका यह आलेख जनसत्ता से साभार लिया गया है.

13 Comments

13 Comments

  1. कृष्ण कुमार मिश्र

    January 24, 2010 at 4:45 pm

    जैसा की हमेशा होता है कि आप के लेख में विवरण पर विश्लेषण का आधिपत्य है, बाते बिखर सी गयी है किन्तु आक्रोश स्पष्ट नज़र आ रहा है। अब ये किसके लिए है यह नही समझ पा रहा हूं, अखबार के मालिकों के विरूद्ध या टी वी चैनल के…….खैर हिन्दी मीडिया का उपभोक्ता शब्द भी मुझे कुछ ठीक नही लग रहा है वह तो सर्वहारा, है वो क्यों संघर्ष करे, उसे तो अपने मसायल से ही फ़ुरसत नही। जिस मीडिया में ग्रुप-बाजी हों आपसी अन्तर्विरोध की सारी हदे टूट चुकी हो, सेलीब्रेटी नामक तत्वों के आगे-पीछे पुछल्ला बनी हो और ऐसे नाहक हालातों में पन्ने भरने के लिए यदि किसी अनपढ टाइप के खबरी एजेन्ट से जगहे भराने में किसी गरीब का भला होता है तो इसमें मीडिया का कौन सा अहसान। मीडिया यदि उपभोक्ता वाद की (संस्कृति कहना उचित नही होगा,) हरकतों को बढ़ावा देती रहेगी तो जन-कल्याण और देश-हित जैसी बाते करके जनता को रूमानी करने से कोई फ़ायदा नही।
    और ब्लाग्स पर कही बात भी स्पष्ट नही हुई,…..सब कुछ गड़ण-मड़ण…….मीडिया के व्यापार जगत में इन गरीब ब्लागर्स पर आखिर निशाना क्यों!

  2. sonu kumar

    January 25, 2010 at 5:39 am

    mirnalji

    apki tipni apne ap me gol mol hai. dure ap media me dadagiri karne valo ke khilap isme khuch nhi kagh rhi hai. ap jaise log agar bat spast nhi khenge. to media ka bhala kaise hoga

  3. manmohan singh

    January 25, 2010 at 2:17 pm

    mrinal ki kathni aur karni me fark samjhane ki koshish karne wale ka brain hamrage ho jayega.

  4. alok nandan

    January 25, 2010 at 2:40 pm

    मृणाल पांडे एरिस्टोकेटिक टाइप की पत्रकार हैं, एसी से निकल कर एसी में बैठकर दिन और दुनिया को समझती हैं और लिखती हैं…ब्लाग को वह नियतिहीन बता रही हैं जबकि उनका यह आलेख खुद नियतिहीन लग रहा है…वह ग्रासरुट पर काम करने वाले पत्रकारों को कोस रही हैं कि वे अखबारों में कंटेंट की बिक्री के खिलाफ आवाज क्यों नहीं उठा रहे हैं…जब अखबारों में वैकेंसी निकलता है तो वो हो हल्ला मचाते हुये वहां पहुंच जाते हैं…स्वाभाविकतौर पर पत्रकारों को नौकरी की जरूरत है…यदि वे नौकरी पाने की कोशिश करते हैं तो इसमें बुरा क्या है…और जहां तक कंटेट की बिक्री के खिलाफ आवाज उठाने की बात है तो जहां बागड़ बिल्ला ही संपादक की कुर्सी पर बैठकर मालिकों के इशारों पर केंटट स्पेस की बिक्री कर रहा है वहां बेचारे भूख से लड़ते पत्रकार क्या आवाज उठाएंगे…यदि नौकरी में होंगे तो बाहर कर दिये जाएंगे और यदि बाहर है तो कभी नौकरी नहीं पा सकेंगे…मृणाल पांडे मार्क्स के थीसिस और एंटी थीसिस की बात तो करती हैं लेकिन यह नहीं देख पा रही है कि ब्लाग जगत मे थीसिस और एंटी थीसिस कितना सहज रूप से चल रहा है…..यदि वाकई में वह सेथेसिस तक पहुंचना चाहती हैं तो उन्हें भी एक ब्लाग खोल लेना चाहिये….फिर देखते हैं डायरेक्ट थीसिस और एंटी थीसिस की प्रक्रिया से उनके संवाद कैसे गुजरते हैं…अखबार काला करके तो सिर्फ एक तरफा ही संवाद हो सकता है…वो भी प्रवचन की मुद्रा में…..वैसे ब्लाग पर सिर्फ पत्रकारों को हुजुम ही नहीं लिख रहा है….तमाम तरह के पेशे और मानसिकता के लोग इस पर धड़ल्ले से लिख रहे हैं….हां पत्रकारों की मजबूरी हैं ……नौकरी नहीं रहने पर उनके बच्चों के स्कूल की फीस कैसे दी जाती है इसका अनुभव एसी वाली मृणाल पांडे को नहीं हो सकता है….पिछले दस साल से मैं देखता आ रहा हूं कि वह अपने आलेखों में हमेशा महाभारत के पात्रों का जिक्र करते आ रही हैं…..महाभारत के तर्ज पर ही बात करें तो ब्लाग संजय की आंख की तरह है….जो हर जगह पूरी मजबूती से मौजूद हैं….वीर संघवी इस बात को स्वीकार कर रहे हैं…..मृणाल पांडे को भी अपने घेरे से बाहर निकलकर सोंचने और देखने की जरूरत है…नहीं तो वह इसी तरह के नियतिहीन आलेख लिखती रहेंगी

  5. suresh pandey

    January 25, 2010 at 5:36 pm

    मीडिया में कैसे लोगों की भर्ती होती है, यह मृणाल जी अच्छी तरह से जानती होंगी. यहाँ काम आता है या नहीं यह बात मायने नहीं रखतीं. सम्पादक नामक जीव की दया -दुआ ही कम से कम हिंदी जर्नलिस्म में काम आती है. नहीं तो खुद को कोसते -कोसते जिन्दगी ख़त्म हो जाती है. ऐसे लोग समाज में किस तरह की क्रांति ला सकते हैं? क्लिस्ट शब्दों का भ्रमजाल थोड़ी देर के लिए मन को विचार की गंगा में नहाने के लिए विवश कर सकता है, लेकिन बात इतने से ही नहीं बनती.

  6. आलोक

    January 26, 2010 at 5:41 am

    मृणाल पांडे उस पीढ़ी के नखदंत विहीन, चारण, उच्चवर्गीयं, दांतनिपोडूं किस्म के पत्रकारों का प्रतिनिधित्व कर रही हैं जिसे ये बर्दाश्त नहीं कि उसकी अयोग्यता के रहते कोई नौजवान पत्रकार क्यों अच्छा कर रहा है। दरअसल, उनकी काबिलियत इतनी ही है कि वे शिवानी और एक आईसीएस ऑफिसर की बेटी है जिसने नेहरु परिवार की तरह अपने खानदान को भुनाया है। इसके सिवा मृणाल ने अपने पत्रकारीय, दूरदर्शनीय और लोकसभा चैनलीय करियर में किया क्या है जो लोगो को याद रहे? मृणाल की हिंदी संस्कृतनिष्ट, क्लिश्ट और घटिया स्तर तक न समझने लायक होता है, जिसे या तो वे खुद समझ सकती है या काशी के पंडित। मृणाल के लेख घनघोर ब्राह्मणीय अहंकार से मंडित होते हैं-उन्होने साबित किया है कि वे पहाड़वाद और पंडितवाद से किस तरह ग्रसित हैं। उन्हे मीडियोकर लोग किस हद तक पसंद है ये उनके हिंदुस्तान में कार्यकाल के दौरान देखा जा सकता था। वे अहंकारी इतनी हैं कि एक बार उन्होने आईआईएमसी में अपने प्रायोजित लेक्चर के दौरान नौजवान और युवा पत्रकारों को गली का छोकड़ा तक कहा था। हलांकि उनकी दलाल पीढ़ी अब अवसान पर है लेकिन उनके कुछ शिष्य अभी भी पत्रकारिता में गंद मचा रहे हैं। ऐसी महिला अगर तकनीक और न्यू मीडिया पर ऐसा विचार रखती है तो ताज्जुब कैसा? भाईयों, देश का इतिहास तो दूर, वर्तमान भी मृणाल पांडे को भूलने लगा है। बेहतर है, वे प्रसार भारती जैसे सड़े हुए विभाग में ही गंदगी फैलाएं।

  7. kabir

    January 26, 2010 at 6:21 am

    nau sau chuhe khakar billi haj ko chali. inhi ke sampadak rahte hindustan ke sare edition election me bike hai. kise gyan de rahi hai.

  8. sapan yagyawalkya

    January 26, 2010 at 7:32 am

    jish tarah yah desh india aur bharat me banta hua hai ushi tarah media bhi do virrgon me vibhajit hai .kahna na hoga ki dono ki chinta aur charcha ke vishay bhi alahda hain.SAPAN YAGYAWALKYA .BARELI>MP

  9. Janmesh Jain

    January 26, 2010 at 9:04 am

    आलोक तुमने बहुत सही और सटीक लिखा. कोर्पोरेट आश्रय में हिन्दुस्तान में जो गाँठ गँठीला मृणाल पांडे ने लिखा, फोटो के साथ छपता रहा. जबकि काफी कुछ वह दैनिक अखबार के नज़रिए से असहनीय होता था. जातिवादी चमचे उन्हें मुगालते में रखते रहे कि उनके जैसा कोई नहीं. ब्लॉग पर लोकतंत्र है. यहाँ सम्पादक की सेंसर नहीं. यहाँ बिकाऊ पत्रकारिता नहीं. यहाँ असलियत बयान होती है. और यशवंत तो कमाल का सम्पादक है. सब कुछ अपने खिलाफ भी छाप देता है. शाबाश.

  10. पंकज दीक्षित

    January 26, 2010 at 12:33 pm

    जिस देश में ६८ प्रतिशत साक्षरता हो, गाँव का नौजवान देश की संसद के चेहरे बदलने की कुव्वत रखता हो, उस देश में हिंदी प्रिंट मीडिया की दम कस्बो तक पहुचते पहुचते निकल जाती है.
    भड़ास पर म्रणाल जी के लेख पर यूँ तो टिपण्णी करने का कालम है मगर यशवंत जी मैं चाहूँगा इसे स्वत्रंत प्रकाशित करे.
    अखबारों में टीवी पर छपते कालम प्रतिद्वंदता की निशानी है. गाँव का गज्जू छत की मुंडेर पर छतरी लगा कर संसद की सीधी कारवाही कारवाही देखना पसंद करता है अगले दिन दोपहर को बारह बजे उसके गाँव में आया बासा अख़बार की बासी खबरों को पढने में यकीं नहीं है उसे.
    दिल्ली में बैठ गाँव की बात करने वाले ये जानते हुए भी सियार की खाल ओढ़ते है कि देश की दो तिहाई आबादी ने कारे कागज से कोई लेना देना नहीं है. हाँ देश में बढते इन्टरनेट के जाल ने कारे कागज को सोचने पर जरूर मजबूर कर दिया है कि आज नहीं तो कल कस्बे का रामकुमार उसे भी नकार सकता है, तभी तो अखबारों में विज्ञापन छपता है “अब आप अपने मोबाइल पर भी खबरे पढ़ सकते है लाग ऑन करे http://www.jnilive.mobi . आखिर ये आने वाली कल की दुनिया है और म्रणाल जी रिटायर होने वाली दुनिया से उसका मुकाबला कर रही है.
    एक बात और
    अब अच्छा पढ़ने योग्य मसाला कारे कागज में नहीं ब्लॉग और इन्टरनेट की दुनिया से मिलता है, यकीं नहीं आता तो किसी भी दिन का अख़बार उठा कर देख लीजिये अख़बार का एक तिहाई हिस्सा इन्टरनेट से चोरी करके और भीख मांग कर छप रहा है.
    वजह साफ़ है- खुद्दार और प्रगतिशील लेखक घटिया और स्वादहीन अख़बार में चिरौरी और चमचागिरी की नौकरी करने की बजाय अपना खोमचा लगा इज्जत की खाने में यकीं रखता है और उसी का चर्चा करने में अखबार भी कारे होने लगे है.
    मुझे समझ में नहीं आता इतनी प्रगतिहीन सोच से कैसे प्रसार भारती का प्रसार होगा.
    पंकज दीक्षित
    joint news of india

  11. विजय पाल सिंह

    January 27, 2010 at 12:21 pm

    आपके लेख से मैं पूरी तरह से सहमत हुं…आपके पूरा लेख एक संपादकीय न होते हुए एक व्यावहारिक दृष्टिकोण को प्रस्तुत करता हैं…जिनको इस लेख में भटकाव नज़र आता हैं वो लेख के उस तकनीकी पहलुओं को नहीं समझ पाए जिनको समझनें के लिए आपको प्रेक्टिकली सोचना पड़ेगा…लेकिन अगर जिन्होने अपने पत्रकारिता के करियर में अभाव और संघर्ष नहीं देखा हो उन्हें ये व्यावहारिक समस्यांए नज़र नहीं आएगी…इसके लिए आपको सबकुछ ठीक हैं के नजरिए से उपर उठकर सोचना पड़ेगा तब जाकर आपको मालूम पढेगा कि जो पत्रकारिता हम कर रहे हैं ना तो उससे समाज का भला हो रहा हैं ना हमारा….हम सिर्फ एक वर्ग के पिट्ठू बनकर रहे गए हैं…जिसका काम सिर्फ बोझा ढोना हैं…

  12. विजय पाल सिंह

    January 27, 2010 at 12:21 pm

    आपके लेख से मैं पूरी तरह से सहमत हुं…आपके पूरा लेख एक संपादकीय न होते हुए एक व्यावहारिक दृष्टिकोण को प्रस्तुत करता हैं…जिनको इस लेख में भटकाव नज़र आता हैं वो लेख के उस तकनीकी पहलुओं को नहीं समझ पाए जिनको समझनें के लिए आपको प्रेक्टिकली सोचना पड़ेगा…लेकिन अगर जिन्होने अपने पत्रकारिता के करियर में अभाव और संघर्ष नहीं देखा हो उन्हें ये व्यावहारिक समस्यांए नज़र नहीं आएगी…इसके लिए आपको सबकुछ ठीक हैं के नजरिए से उपर उठकर सोचना पड़ेगा तब जाकर आपको मालूम पढेगा कि जो पत्रकारिता हम कर रहे हैं ना तो उससे समाज का भला हो रहा हैं ना हमारा….हम सिर्फ एक वर्ग के पिट्ठू बनकर रहे गए हैं…जिसका काम सिर्फ बोझा ढोना हैं…

  13. prashant Tiwari

    March 4, 2010 at 8:30 am

    Mrinal jee, Aap ek bade akhbar ki editar hai ase me yeh kahna ki akhabar kya kar rahe hai bekar ki baat hogi kyuki aap sab janti hogi hum logo ko bebkuf banana chor de aap sab akhbar ke editor aur malik hum jante hai ki election ke samay newpaers ka kya rool rahta hai aur usme apka newspaper bhi samil hai aapke akhwar ne bhi abhi 2009 ke election me package bhi chalaya . aur aisa aap sab es liye kar sake kuyki election commision ne leaders ko jyada publicity aur janda banners lagane ko baan kiya hua tha aur neta ko to apni baat ko akhbaro ke madyam se hi jyada se jyada apni baat pahuchani thi . Aapko to pata hi hoga ki package kaise fix hue public samjhati thi ki yeh khabar hai jabki kisi neta ne uske liye paisa diya hota tha addvertisment ek alag baat hoti hai usse kam se kam pata to chalta hai ki yeh paisa de kar chapwaya gaya hai lekin aam admi khabar to esliye padta hai ki use hakikat pata lage lekin aisa me agar akhbar bikjaye to public kya kare waise bhi aaj ke samay me print aur electronimedia hohalla jyada karta hai .

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