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हिंदी पत्रकार अपनी निगाहों में अपनी खोई गरिमा पाएं

मृणाल पांडेडुबकीधर्मी देश में सर्वहारावाद : मेरे इस प्रस्ताव से कि हिंदी अखबारों के हर घालमेल का ठीकरा पहले वरिष्ठ संपादकीय कर्मियों पर फोड़ने और फिर उन्हीं से स्थिति बदलने की मांग करने के बजाय, क्यों न खुद आम पाठक भी जागरूक उपभोक्ता का दायित्व निभाते हुए ऐसे अखबारों का समवेत विरोध और बहिष्कार करें, एक महोदय बेहद गुस्सा हैं। उनकी राय में हिंदी अखबारों का आम पाठक तो एक ‘सर्वहारा’ है। पेट भरने की चिंता का उस पर दिन-रात उत्कट दबाव रहता है, इसलिए उससे लामबंद प्रतिरोध की उम्मीद करना गलत है। और उपभोक्तावाद तो नए पैसे का एक निहायत निंदनीय प्रतिफलन और उपभोग का बाजारू महिमामंडन है। इसलिए सर्वहारा को उपभोक्ता कहना उसका अपमान करना है, आदि।

मृणाल पांडे

मृणाल पांडेडुबकीधर्मी देश में सर्वहारावाद : मेरे इस प्रस्ताव से कि हिंदी अखबारों के हर घालमेल का ठीकरा पहले वरिष्ठ संपादकीय कर्मियों पर फोड़ने और फिर उन्हीं से स्थिति बदलने की मांग करने के बजाय, क्यों न खुद आम पाठक भी जागरूक उपभोक्ता का दायित्व निभाते हुए ऐसे अखबारों का समवेत विरोध और बहिष्कार करें, एक महोदय बेहद गुस्सा हैं। उनकी राय में हिंदी अखबारों का आम पाठक तो एक ‘सर्वहारा’ है। पेट भरने की चिंता का उस पर दिन-रात उत्कट दबाव रहता है, इसलिए उससे लामबंद प्रतिरोध की उम्मीद करना गलत है। और उपभोक्तावाद तो नए पैसे का एक निहायत निंदनीय प्रतिफलन और उपभोग का बाजारू महिमामंडन है। इसलिए सर्वहारा को उपभोक्ता कहना उसका अपमान करना है, आदि।

आशय यह है कि भारत में सर्वहारा एक मूक, अपढ़, अनाथ वर्ग है जो सामूहिक तौर से शेष समाज की दया और अनंत इमदाद का ही पात्र ठहरता है। और इस वर्ग के हकों का परचम उसके बजाय हमारे मुखर-पढ़े-लिखे शहरी मीडिया को ही आगे आकर उठाना चाहिए। सर्वहारा और उपभोक्तावाद की ऐसी व्याख्या के तहत ‘सर्वहारा’ एक बे-चेहरा मानव समूह का मूक हिस्सा बन कर रह जाता है। हर आदमी के पास अपनी जो एक बुनियादी विशिष्टता और जीवन संघर्ष के दुर्लभ अनुभव हैं, जिसके बल पर हम साहित्य में घीसू, धनिया, लंगड़ और होरी जैसे अविस्मरणीय पात्रों से रूबरू होते रहे हैं, उसके प्रति ऐसे सपाट सर्वहारावाद में एक गहरा अज्ञान झलकता है। क्या हम भारत को अपने आदर्श सर्वहारापरस्त रूप में अगर एक व्यक्ति और बाजार निरपेक्ष देश मान लें? तो फिर उस अंतर्मुखी घोंघे के भीतर दुनिया की महाशक्ति बनने की उत्कट कामना क्यों?

आज हर व्यक्ति जो बाजार में खरीदारी करता है, भले ही वह पाव भर आटा, पचास ग्राम नमक और दो हरी मिर्चें ही क्यों न मोलाए, एक उपभोक्ता है, और बतौर उपभोक्ता वाजिब कीमत पर ठीकठाक सामान पाने का उसे पूरा हक है। फर्क यही है कि अक्सर उसे अपने इन हकों की जानकारी नहीं होती, और अगर होती भी है तो वह उनको बिना एकजुट हुए हासिल नहीं कर सकता। इसलिए गरीब उपभोक्ता को लगातार उपभोक्तावाद विषयक सटीक जानकारियां देना और अपनी विशाल बिरादरी के साथ एकजुट कानूनी गुहार लगाने का महत्व समझाना और भी जरूरी है।

हर राज्य में हिंदी अखबार का गाहक आज औसत अंग्रेजी अखबार के गाहक से अधिक दाम देकर, अपेक्षाकृत कम पन्नों का अखबार खरीद रहा है, अलबत्ता सर्वहारा के हक के नाम पर दामन चाक करने वालों ने इस पर कुछ नहीं कहा-किया है। फिर भी बिहार के किसी छोटे से गांव से बस से शहर आकर रोज स्टाल पर रखे अखबारों में अपने काम की खबरों की तादाद चेक कर तब अखबार खरीदने वाला गरीब पाठक (यकीन मानें इनकी तादाद लाखों में है) बड़े शहर के बातों के धनी मध्यवर्गीय पाठक से तो कहीं बेहतर उपभोक्ता हैं, जो हाकर से अक्सर किसी प्रमोशन स्कीम के तहत (मुफ्त चाय या स्टील का डिब्बा या तौलिया पाने के लिए) महीनों के लिए एक अखबार बुक करा लेता है, वह पसंद हो या न हो। गांव-कस्बे का यह पाठक गरीब भले हो, पर वह अखबार का एक जागरूक पाठक है, जिसकी अपनी स्पष्ट पसंद, नापसंद है, और स्थानीय सरोकार भी। अगर वह एकजुट होकर अखबारों की ईमानदारी पर सवाल बुलंद करे, और भ्रष्ट अखबारों का बहिष्कार भी, तो स्थिति में स्थायी सुधार होगा, और जल्द होगा, क्योंकि बाजार अब तेजी से छोटे शहरों और गांवों की तरफ खिंच रहा है।

वैसे गांधीजी के ‘अंतिम सीढ़ी के व्यक्ति’ की पक्षधरता जरूरी है, इस पर हमारे यहां सब प्रगतिशील लोग सहमत दिखते हैं। पर सर्वहारा नामक प्राणी को बार-बार अर्थहीन अनुष्ठानों से न्योतने के बाद भी हमारे राजनीतिक दलों के मुख्यालयों से लेकर हिंदी अखबार तक में उस गरीब की जमीनी और तात्कालिक स्थिति की गहरी, व्यवस्थित और व्यक्तितश: पड़ताल के प्रमाण हमें शायद ही मिलें। सरलीकरण, बस सर्वत्र सरलीकरण, और अंत में चंद पिटे-पिटाए निष्कर्ष।

हम गहरे पानी में पैठ कर मोती खोजने के बजाय तट पर ही एकाध डुबकी लगा कर ‘हर हर गंगे’ का नारा बुलंद करने वाले देश के वासी हैं। यहां डुबकी लगा कर समय और मेहनत बचाए जाते हैं, जबकि धारा में पैठना निरंतर तैरने की क्षमता मांगता है, हजारों कष्टसाध्य, जोखिमभरी शैलियां सीखने का आग्रह करता है। हमारे पूर्वजों ने कभी सप्त सिंधु और अनगिनत महानदियों के देश में गहरे जाकर तैरने-तरने के कई लाभ भले गिनाए हों, पर सच तो यह है कि आज हम श्राद्ध से लेकर पर्व के अवसर तक तट पर खड़े हो…गंगे चैव यमुने गोदावरीसिंधुकावेरी…जपते हुए, तमाम नदियों का अपनी छोटी-सी अंजली में ही न्योत कर तृप्त हो जाते हैं। एक डुबकी लगाई और मान लिया कि सात पीढ़ियां तर गईं।

इस वक्त जबकि खबरों की विश्वसनीयता और ढांचागत समायोजन, दोनों ही क्षेत्रों में हिंदी की पत्रकारिता एक जटिल दौर से गुजर रही है, बाजार में पाठकों के बीच भरोसा बहाली और अपने घर भीतर पत्रकारिता के स्वस्थ मानदंड पुन: स्थापित करने के लिए न्यूनतम शर्त यह है, कि पत्रकार बंधु अवयस्क किस्म की लीपापोती या सर्वहारावाद की ओट लेकर छिछोरी छींटाकशी करने से बाज आएं। क्यों न वे हिंदी अखबारों की बेहतरी पर गंभीरता से बात करें, नए बदलावों के बारे में अपने अनुभव साझा करें, पन्नों पर संपादकीय मैटर और विज्ञापन के इलाकों के बीच साफ-सुथरी विभाजक रेखाएं बनाने के लिए समवेत नीतियां रचें, ताजा खबरों के निरंतर सत्यापन और उससे जुड़े दायरों पर पत्रकारिता से इतर क्षेत्रों में हो रहे शोध की जानकारी लें, जमीनी भागदौड़ को खबरें जमा करने की बुनियादी जरूरत समझें और हिंदी को सिर्फ एक माध्यम नहीं, बल्कि जीवंत, निरंतर गतिशील कथ्य के रूप में भी देखें बरतें।

हिंदी पत्रकारिता के संकट से निबटने के लिए क्या जरूरी नहीं कि पहले हिंदी के पत्रकार खुद अपनी निगाहों में अपनी खोई गरिमा पाएं और मनुष्य के नाते अपने आपको अपने प्रतिस्पर्धियों की बराबरी का तो महसूस करें? हिंदी अखबारों की कमजोरी की भावुक आर्थिक-समाजशास्त्रीय व्याख्याएं देना बेकार है। बेकार मन समझाने को हम क्यों कहें कि हिंदी पत्रकारिता की दुर्दशा पूरी दुनिया की पत्रकारिता के संकट का ही अंग है। पूरी दुनिया की पत्रकारिता की धारा में आए प्रदूषण से शिकायत हुई तो वह तुरंत भीतरी सफाई में जुट गई। उसने खबरों का रूप संवारा, खर्चे कम किए, बाहरी स्तर पर तकनीकी मदद के लिए वह ‘एपल’ की नई ई-टैबलेट से लेकर गूगल तक को टटोल रही है। उधर हम नाराज तो हैं, पर हस्बेमामूल पलायन करना चाहते हैं। इसलिए अपनी खीझ को छिपाने को हम सर्वहारा के नाम पर या बाजार के खिलाफ खूब शोर मचा रहे हैं, ताकि बाजार वालों को लगे कि हम स्थिति से जूझ रहे हैं। जबकि भीतरखाने वही ढाक के तीन (या दो) पात नजर आते हैं। इस तरह की कायर डुबकीवाद हरकतों से हम तट से रत्तीभर भी आगे नहीं बढ़ सकेंगे, डूब भले ही जाएं। साभार : जनसत्ता

लेखिका मृणाल पाण्डे जानी-मानी साहित्यकार और पत्रकार हैं.

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0 Comments

  1. ganesh upadhyay, reporter

    February 9, 2010 at 1:49 pm

    marnalG aap bahut meetha bolti or likhti hain.lakin aapki baaten to high profile m hi rah jaate hain. aam aadmi tak to na aapki baaten paunch paati hain or na hi aapke Chaan-Baan {chamche}……. koi fayda nahi aapki in meethe baaton ka….vese v chini bahut mahangi ho gayi hai…..aam aadmi ki paunch se dur….aap sirf achha kahti hi hain…..un pr khud sayaad practical nahi karti hain. bahut kathin hota hai jab roti k liye jujna parta hai….aapki ye baanten tab kisi ko v samaj m nahi aati….aap itne bari hasti ho……aap jaise kai or log v hain…..aap kyun nahi GandhiG k sidhanton ki raah chal cruption k khilaf aandoolen karte ho??????? lecture dena kaafi aasan hota hai…..practical m v aao na kabhi….. mere baaton ka bura na manana..mere y baanten sabhi k liye hain….apane mission k prati imandaar to bano…..main khud kosis kar raha hun.

  2. SAPAN YAGYAWALKYA

    February 9, 2010 at 3:24 pm

    hindi ka pathak vastav me upbhokta ki shreni ka nahi hai.alag-alag karno se uska akhbar vishesh se bhavnatmak lagav hota hai.kai udahran hai ki khetrya akhbar tathakathit rashtriya akhbaron se kai kamiyo ke bad bhi bhari pad rahe hain.esha nishchit taur par upbhokta hone par sambhav nahi hota.SapanYagyawalkya.Bareli(MP)

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